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रविवार, 24 जून 2012

देश को रसातल में ले जाने की तैयारी


आज के एक अखबार की लीड खबर का शीर्षक है 'कड़े तेवर दिखायेंगे पीएम'. उप शीर्षक है 'पेट्रोल सस्ता कर डीजल महंगा करने की तैयारी' 
संप्रंग सर्कार कठोर फैसले लेने का यह बेहतर मौका मान रही है. अर्थात वह हमेशा ऐसे लेने के लिए मौके की ताक में रहती है जिससे आम आदमी का जीवन और कष्टमय हो जाए. उस आम आदमी का जिसके लिए प्रतिदिन 28  रुपये के खर्च करने की क्षमता को काफी मान रही है यह सरकार. क्योंकि इसी में आबादी के उस हिस्से की भलाई है जिसके बाथरूम की मरम्मत के लिए 35  लाख रुपये भी कम पड़ते हैं. देश का एक बच्चा भी जानता है की तमाम जिंसों की ढुलाई डीजल चालित वाहनों से होता है. डीजल को महंगा करने से उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें कैसे कम होंगी कम से कम हमारे जैसे मंद बुद्धि के लोगों की समझ से बाहर है. पीएम अर्थशास्त्री हैं. हो सकता है उनके अर्थशास्त्र में ऐसा कोई गणित हो. या फिर यह भी हो सकता है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का यह सिद्धांत कि अपने चरम पर पहुंचकर हर चीज विलीन हो जाती है काम कर रहा हो. सरकार को यकीन हो कि महंगाई को उसके चरम तक पहुंचा दो वह खुद ही ख़त्म हो जायेगी.
पेट्रोल की कीमत घटने से एलिट क्लास के उन लोगों को राहत मिलेगी.जिनके पास धन है. जिनकी क्रयशक्ति बेहतर है. लेकिन डीजल की कीमत बढ़ने पर निम्न मध्यवर्ग और मजदूर-किसान यानी हर वर्ग के लोग प्रभावित होंगे. इसी तरह रसोई गैस की राशनिंग जैसे कड़े कदम उठाने की तैयारी हो रही है. बाकी कड़े फैसले भी जनता पर कहर ढानेवाले ही हैं. अब भारत की जनता पांच वर्ष के लिए सत्ता की बागडोर थमाने की भूल कर ही बैठी है तो भुगतना तो उसी को पड़ेगा. इसलिए जनाब! आप चिंता मत कीजिये. जो मर्जी हो कर लीजिये. पूरी आबादी का गला घोंट दीजिये. लेकिन भगवान के लिए कुछ तो शर्म कीजिये आखिर आप 2014  में जनता को क्या मुंह दिखायेंगे.  

----देवेंद्र गौतम  

सोमवार, 4 जून 2012

एक खुला पत्र....... मौन मोहन बाबू के नाम !


माननीय मौन मोहन बाबू!
मैं  अपने आप को आपसे खरी-खोटी बात करने से रोक नहीं पा रहा हूं. जानता हूं कि आपसे सीधा संवाद संभव नहीं है. लेकिन यह भी पता है कि आपके सूचनादाता मेरे संवाद की सूचना आप तक जरूर पहुंचा देंगे.
आपके लिए मेरे मन में काफी श्रद्धा रही है. इटली लॉबी का विजिटिंग कार्ड बनने के लिए नहीं बल्कि एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री होने के अफवाह के कारण. हां! इसे अफवाह नहीं तो और क्या कहेंगे. जब अपने ज्ञान का लाभ देश को पहुंचाने का अवसर मिला तो आपने उसे रसातल में पहुंचा दिया. कीमतें बढ़ाते गए और सांत्वना  देते रहे कि यह देश की भलाई के लिए है. लोगों को भूखे मार कर देश का कौन सा भला करना चाहते हैं आप? कीमत बढ़ाने के एक-दो रोज पहले कहते हैं कि कुछ कड़े फैसले लेने होंगे. यह भी कहते हैं कि आप कुछ कर नहीं सकते सबकुछ बाजार तय करता है. फिर हुजूर आप बाज़ार के स्पोक्समेन क्यों बन जाते हैं और जब आपका इन्द्रासन हिलने लगता है तो बाज़ार वाले आपकी बात मान कर थोड़ी कीमत घटा कैसे देते हैं? किसे बेवकूफ बना रहे हैं आप? मेरी नाराजगी का कारण हालांकि यह भी नहीं है. इसलिए कि आप ऐसे लोगों की कठपुतली बन गए हैं जिन्हें इस देश के लोगों से कुछ लेना-देना ही नहीं है. जिनका एकमात्र मकसद देश को लूटकर विदेश में धन जमा करना भर है. दुःख इस बात का है इतने बड़े विद्वान होने के बाद भी आपके अंदर रत्ती भर भी आत्मसम्मान नहीं है. आपके सामने आप ही के लोग एक गधे को आपकी कुर्सी पर बिठाने की मांग करते हैं और आप मौनी बाबा बने रहते हैं. डूब मरिये चुल्लू भर पानी में. अब जनता ने आपको और आपको रिमोट से नचाने वालों को कुर्सी सौंपने की गलती कर बैठी है तो गलती की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी. आपलोग भी जबतक कुर्सी है अपने जलवे जितना दिखा सकते हैं दिखा ही लीजिये क्योंकि आप काफी कड़े फैसले ले चुके अब जनता आपके संबंध में कुछ कड़े फैसले लेने के लिए उचित समय का इंतज़ार कर रही है. फिर आपमें से कुछ सड़क पर नज़र आयेंगे और कुछ रातों-रात फरार होकर  अपने विदेशी खातों से लूट का धन निकालते हुए.ताकि जीवन को नए सिरे से शुरू किया जा सके.
फिलहाल इतना ही ईश्वर आपको सुबुद्धि दे और आत्मसम्मान की भावना प्रदान करे. आप मौन मोहन से वाचाल मोहन बनें.
इसी प्रार्थना के साथ.......

-----देवेंद्र गौतम



शनिवार, 2 जून 2012

खून-खराबे के एक नए दौर की आशंका



संदर्भ बरमेश्वर मुखिया हत्याकांड 

 बरमेश्वर मुखिया की हत्या के बाद उनके समर्थकों ने आरा समेत बिहार के विभिन्न इलाकों में जो उत्पात मचाया वह महज़ अपने नेता की हत्या के विरुद्ध उपजा आक्रोश भर नहीं था बल्कि उस जातीय उन्माद के जहर की अभिव्यक्ति थी जिसे मुखिया जी ने 90  के दशक के दौरान भरा था. उनका उद्देश्य सिर्फ शक्ति प्रदर्शन और प्रशासन को उसकी बेचारगी का अहसास कराना भर था. सरकार चाहे जिसकी रही हो इस सेना के हिमायती उसके अंदर मौजूद रहे हैं. नक्सल विरोध के नाम पर इसे सत्ता का सहयोग परोक्ष रूप से मिलता रहा है. यही कारण है कि इस घटना के विरुद्ध कानून-व्यवस्था को धत्ता बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी. साथ ही अन्य जातियों खासतौर पर दलितों और पिछड़ों को यह सन्देश दिया गया कि मुखिया जी की हत्या से वे कमजोर नहीं पड़े हैं उनके तेवर बरक़रार हैं. फासीवादी ताकतों का प्रदर्शन इसी तरह का होता है. यह राजनीति की ठाकरे शैली है. महाराष्ट्र में शिव सैनिकों के सामने सरकारी तंत्र इसी तरह लाचार दिखता है.
इस हत्याकांड में कई सवाल अनुत्तरित हैं. सूचनाओं के मुताबिक मुखिया जी पूजा-पाठ कर सुबह छः-सात बजे घर से निकला करते थे. हत्या के दिन वे चार बजे क्यों निकले और हत्यारों को इस बात की भनक कैसे मिली कि वे चार बजे सुबह टहलने के लिए निकलेंगे? यह जानकारी तो उनके बहुत करीबी लोगों को ही हो सकती है.
दूसरी बात यह कि मुखिया समर्थकों की सरकारी नुमाइंदों के प्रति नाराजगी और धक्का-मुक्की का कारण तो समझ में आता है लेकिन अपनी ही विरादरी के दो विधायकों के साथ दुर्व्यवहार क्यों किया. वे आपराधिक पृष्ठभूमि के जरूर थे लेकिन रणवीर सेना के करीबी लोगों में गिने जाते थे. अगर उन्हें उनपर हत्या की साजिश में शामिल होने का संदेह था तो आमजन और सार्वजानिक संपत्ति पर गुस्सा उतारने का क्या कारण था. निश्चित रूप से रणवीर सेना में दरार पड़ चुकी है और इसके दो घड़ों के बीच कार्यपद्धति को लेकर अंतर्विरोध था जो मुखिया जी के जेल से निकलने के बाद वर्चस्व की लड़ाई में परिणत हो गया. एक घड़ा उस रास्ते पर चलना चाहता है जिसपर मुखिया जी चलते रहे हैं और दूसरा घड़ा वह जो उस रास्ते पर चलना चाहता है जिसपर मुखिया जी के जेल जाने और नक्सलियों के साथ संघर्ष में ठहराव के बाद वह चलता रहा है. मुखिया जी की हत्या इन दो धाराओं के बीच टकराव का ही परिणाम प्रतीत होती है. संभव है आने वाले समय में इस टकराव के कारण भोजपुर की धरती पर खून-खराबे का एक नया दौर शुरू हो जाये.

----देवेंद्र गौतम

(बरमेश्वर मुखिया के सम्बन्ध में और जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंक क्लिक करें)


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शुक्रवार, 1 जून 2012

अप्रत्याशित नहीं है रणवीर सेना के संस्थापक की हत्या

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भोजपुर जिला मुख्यालय आरा में तडके सुबह रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद पूरे बिहार में तनाव की स्थिति बनी हुई है. हांलाकि नक्सली संगठनों और निजी सेनाओं के बीच कई दशकों के खूनी संघर्ष और जनसंहारों की फेहरिश्त की जानकारी रखने वालों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. उन्हें जमानत पर रिहा कराये जाने के साथ ही  उनकी हत्या की आशंका व्यक्त की जाने लगी थी. वास्तविकता यह है कि समय के अंतराल में रणवीर सेना का स्वरूप, उसकी प्राथमिकतायें पूरी तरह बदल चुकी हैं और अब मुखिया जी इसके लिए अप्रासंगिक हो चुके थे. उनके व्यक्तिगत समर्थकों की जरूर एक बड़ी संख्या है लेकिन संगठन को अब उनकी जरूरत नहीं रह गयी थी. 
अब रणवीर सेना और नक्सली संगठनों की लड़ाई में ठहराव सा आ गया है. नरसंहारों का सिलसिला थम सा गया है. ऐसे संकेत मिले हैं कि रणवीर सेना अपने आर्थिक स्रोतों की रक्षा और हथियारबंद लड़ाकों की उपयोगिता को बरकरार रखने के लिए हिन्दू आतंकवादी संगठन में परिणत हो चुकी है. यह बदलाव मुखिया जी के जेल में बंद होने के बाद का है. सेना का नेतृत्व करोड़ों की उगाही के जायज-नाजायज स्रोतों को किसी कीमत पर हाथ से नहीं निकलने दे सकता था. अब इस बात की आशंका थी कि मुखिया जी कहीं उसमें हिस्सा न मांग बैठें. संगठन के वर्तमान कार्यक्रमों में हस्तक्षेप न करें. 80 के करीब पहुंच चुके मुखिया जी सेना के अंदर और बाहर कई लोगों की आंख की किरकिरी बने हुए थे. हत्या की सीबीआई जांच की मांग हो रही है. जांच के बाद संभव है कि उनकी हत्या के रहस्यों का खुलासा हो जाये.  

----देवेंद्र गौतम  

बांग्लादेशी मॉडल की ओर बढ़ता देश

  हाल में बांग्लादेश का चुनाव एकदम नए तरीके से हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार...