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बुधवार, 13 जून 2018

लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ



देवेंद्र गौतम

रेलवे बोर्ड ने इस वर्ष विभिन्न जोनों में 10,000 पद समाप्त करने का निर्णय लिया है। इन्हें बेकार और अनुपयोगी करार दिया है। यह पीएम मोदी के हर वर्ष दो करोड़ रोजगार सृजन करने के वायदे के विपरीत है। हर सेक्टर में आर्थिक सुधार के नाम पर ले गए निर्णयों और प्रयोगों के कारण लोगों का रोजगार छिना है।
मोदी सरकार कहती है कि इन प्रयोगों का मीठा और सुखद फल भविष्य में मिलेगा। यह भविष्य कितने वर्षों के बाद आएगा। आएगा भी या नहीं पता नहीं। फिलहाल यह झूठी दिलासा देने की कवायद प्रतीत होता है। जो वर्तमान को नहीं सुधार सकते वे भविष्य सुधारने की बात करें तो हास्यास्पद लगता है। फिर बेढंगे तरीके से काम करने वाले दूरगामी लक्ष्य का भेदन कैसे कर सकते हैं। मोदी सरकार ने नोटबंदी के उपरांत जब देखा कि 86 फीसद करेंसी को रद्द करने के बाद वैकल्पिक करेंसी तैयार नहीं है तो कैशलेस होने का आह्वान किया। इसके बाद अपनी कैशलेस अवधारणा को पुष्ट करने के लिए आधार कार्ड से तमाम चीजों को जोड़ने का अभियान चलाया।
उस समय सरकार को लगता था कि इन प्रयोगों के कारण इंटरनेट पर जो दबाव पड़ेगा उसकी भरपाई जियो के 4 जी से हो जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बैंकिंग और इंटरनेट पर निर्भर दूसरी सेवाओं में सर्वर डाउन होने की समस्या बढ़ने लगी। अमेरिकी जीवन शैली की नकल करने में अपनी सीमाओं की सही पड़ताल नहीं की गई। नोटबंदी के जिन लाभों का दावा किया गया था वह नहीं मिले तो कहा जाने लगा कि इसका दूरगामी लाभ मिलेगा। लोगों ने नोटबंदी की पीड़ा से जरा राहत पाई, नकदी की किल्लत कुछ दूर हुई तो साहब ने जीएसटी लागू कर आर्थिक सुधारों के प्रति अपने संकल्प का लोहा मनवाने का कोशिश की। सर्वर ठीक ढंग से काम नहीं करने के कारण व्यापारियों का जीएसटी जमा करने में विलंब होता तो हर्जाना वसूल किया जाता। इस तरह के प्रयोगों से जनता परेशान हो उठी। टैक्स की वसूली में कड़ाई की सरकारी कोशिश के कारण देश में कैशलेस होने की जगह कैश पर निर्भरता बढ़ने लगी। रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के समय से कई लाख करोड़ से ज्यादा की नकदी अभी प्रचलन में है। समाज को जिस दिशा में ले चलने की कोशिश हुई उसकी विपरीत दिशा में यात्रा होने लगी।
यह सरकार जो बोलती है उसका उल्टा हो जाता है। दो करोड़ रोजगार सृजन का वादा किया तो लोगों का रोजगार छिनने लगा। दरअसल बेरोजगारी मात्र समस्या नहीं बल्कि राष्ट्रीय अभिशाप है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनी हुई सरकारें इस समस्या को किसी न किसी रूप में बनाए रखती हैं। क्योंकि बेरोजगार न हों तो व्यस्था में कोई रौनक ही नहीं रह जाएगी। दरअसल लोकतंत्र के चार स्तंभों की चर्चा खूब होती है लेकिन सच्चाई यह है कि इसका एक पांचवा स्तंभ भी है। इस पांचवे स्तंभ का दारोमदार युवा बेरोजगारों पर हैं। चाहे  वे साक्षर हों या निरक्षर, ग्राणीण हों या शहरी, कुशल हों अथवा अकुशल। यदि वे न हों तो पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही बेरौनक हो जाएगी। इस व्यवस्था को टिकाए रखने में उनका अहम योगदान होता है। बेरोजगारों की यह जमात दुनिया के लगभग हर देश में कमोबेश मौजूद है। उनका प्रतिशत जरूर घटता बढ़ता रहता है। सत्तारुढ़ दल हो चाहे विपक्षी सभी बेरोजगारी दूर करने का नारा देते हैं, संकल्प लेते हैं, लेकिन इसे बरकरार रखना उनका गुप्त एजेंडा होता है। खासतौर पर उन देशों में जहां संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था है और हर पांच साल पर चुनाव का सामना करना पड़ता है। बेरोजगार ही नहीं होंगे तो चुनावों में कार्यकर्ता कहां से आएंगे। राजनीतिक कार्यक्रमों में भीड़ कहां से जुटेगी। वही तो हैं जो कल-पुर्जे के समान कहीं भी फिट होने को सहर्ष तैयार रहते हैं। गनीमत है कि भारत इस मामले में धनी है। यहां कुल आबादी के 11 फीसद बेरोजगार हैं। उनकी संख्या 12 करोड़ से भी अधिक है। 125 करोड़ की आबादी में उनका यह अनुपात सही है। यही नहीं करोड़ों की संख्या में मौजूद अल्प बेरोजगार उन्हें और मजबूती प्रदान करते हैं। मोदी सरकार इस समुदाय की ताकत और उसकी पीड़ा को समझती थी। इसीलिए सत्ता तक पहुंचने के लिए उनके मुद्दे को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल किया। मोदी जी ने अपने चुनावी भाषणों में वादा किया कि चुनाव जीते और सत्ता में आए तो हर वर्ष कम से कम दो करोड़ रोजगार का सृजन करेंगे। युवा बेरोजगार खुश हुए। उनके चुनाव में अपनी पूरी ताकत लगा दी। लेकिन नेताओं के लिए कथनी और करनी में सामंजस्य बिठाना मुश्किल होता है। सत्ता में आने के बाद हुआ यह कि आर्थिक सुधार का एजेंडा प्रमुख हो गया। तरह-तरह को प्रयोग करने पड़े। इससे बेरोजगारी दर में कमी की जगह वृद्धि होने लगी। इसकी दर पांच वर्षों में सबसे उच्चतम स्तर पर जा पहुंची। मनमोहन सिंह के शासन काल के बराबर भी रोजगार सृजित नहीं हुए। भारत में 1915-16 में जहां विकास दर 7.3 फीसद पर पहुंची वहीं बेरोजगारी की दर 5 फीसद तक पहुंच गई। बाद में प्रधानमंत्री जी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह युवा बेरोजगार को पकौड़े बेचकर प्रतिदिन 200 रुपये कमाने का सुझाव देने लगे। विश्व पटल पर भारत की स्थिति मजबूत करने में इस सरकार को सफलता जरूर मिली। वैश्विक स्तर पर देश की साख मजबूत हुई। लेकिन निवेश के आश्वासन के बावजूद कोई बड़ा उद्योग सरज़मीन पर नहीं आया। पकौड़ा बेचने का मकसद दरअसल स्वरोजगार की ओर प्रेरित करना था लेकिन प्रधानमंत्री जी ने अपनी बात कहने के लिए जो उदाहरण इस्तेमाल किया वह उसकी गंभीरता को हल्का कर गया। विपक्ष को आलोचना के लिए एक मुद्दा भी दे दिया। नरेंद्र मोदी या तो अपने वादे के प्रति गंभीर नहीं रहे या फिर इसके लिए सही योजना नहीं बना सके। अब पेड़ लगाते फल की उम्मीद का उदाहरण देकर लोगों को फुसलाया जा रहा है। युवा वर्ग का एक हिस्सा सब्जबाग देखकर खुशफहमी का शिकार बना हुआ है। यह तटस्थ भाव से स्थिति की समीक्षा नहीं कर पा रहा है।

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