देवंद्र गौतम
रांची। रांची के
महंगे अस्पतालों में एक मेडिका क बार फिर गलत इलाज को लेकर चर्चे में है। एक मरीज
की मौत के बाद उसके परिजनों ने सदर थाना में शिकायत दर्ज कराई है। काफी हंगामा हुआ
है। 28 अगस्त को हिनू के 55 वर्षीय सपन गोप का हार्निया और स्पेक्ट्रम का आपरेशन
होना था लेकिन डाक्टरों ने बिना जानकारी दिए डीप वेन थरोमबोसिस (डीवीटी) का आपरेशन
कर दिया। परिजनों ने इससे पूर्व कई डाक्टरों से परामर्श लिया थाष उन्होंने डीवीटी
आपरेशन कराने के लिए मना किया था। आपरेशन के बाद सपन गोप की मौत हो गई। उन्हें पेट
दर्द की शिकायत थी। 25 अगस्त को उन्हें मेडिका लाया गया तो जांच के बाद डाक्टरों
ने किडनी की समस्या बताते हुए इमर्जेंसी वार्ड में भर्ती कर लिया। अगले दिन बताया
गया कि स्थिति ज्यादा गंभीर है हार्निया का आपरेशन करना पड़ेगा। इस बीच मरीज का
रक्तचाप बढ़ गया। इसके बावजूद आपरेशन कर दिया गया जिससे मरीज की मौत हो गई। मौत के
बाद परिजनों ने काफी हंगामा मचाया। बाद में पुलिस आई तो मामला किसी तरह शांत हुआ।
परिजनों ने मेडिका के दो चिकित्सकों के खिलाफ लापरवाही का आरोप लगाते हुए मामला
दर्ज किया है। अस्पताल प्रबंधन किसी भी आपरेशन से इनकार कर रहे हैं। शव
पोस्टमार्टम के ले गया है। उसकी रिपोर्ट आने के बाद मौत के कारण का खुलासा होगा।
रांची में इस तरह के उच्च चिकित्सा उपकरणों से लैस करीब एक दर्जन अस्पताल हैं जहां
साधारण आदमी जाने का साहस नहीं करता। ये भारी-भरकम बिल तो वसूलते हैं लेकिन सेवा
धर्म का निर्वहन नहीं करते।
पिछले माह इसी
मेडिका में मेरे अग्रज सेवानिवृत मुख्य अभियंता, कोल इंडिया रामेश्वर प्रसाद
सिन्हा भर्ती हुए थे। वे किडनी के रोगी हैं। मेडिका में ही पिछले एक साल से सप्ताह
में दो बार उनका डायलिसिस चल रहा था। तबीयत ज्यादा खराब होने पर उन्हें भर्ती
कराया गया। डाक्टरों ने निमोनिया का असर बताया। करीब 12 दिनों तक अस्पताल में रहे।
इस बीच डायलिसिस चलता रहा। तरह-तरह की जांच होती रही। न्यूरो चिकित्सक ने भी देखा
और बताया कि न्यूरो की समस्या नहीं है। वे अपने परिजनों में अधिकांश को पहचान नहीं
पा रहे थे। 12 दिनों के इलाज के बाद भी हालत में कोई सुधार नज़र नहीं आया तो
उन्हें दिल्ली के बीएन कपूर अस्पताल में ले जाया गया। वहां तीन चार दिनों की जांच
के बाद पता चला कि मस्तिष्क की एक नस में रक्त जम गया है। जवा के जरिए उसे हटाने
का प्रयास किया जाएगा। लाभ हुआ तो से जारी रखा जाएगा अन्यथा आपरेशन करना पड़ेगा।
स्थिति चिंताजनक थी।
मामला न्यूरो से
संबंधित था और रांची के निजी क्षेत्र के सर्वाधिक महंगे अस्पताल मेडिका के न्यूरो
विशेषज्ञ से पकड़ नहीं पाए। जाहिर है कि अस्पताल प्रबंधन इलाज के नाम पर भारी भरकम
पैसे तो वसूलता है लेकिन उसके अनुरूप इलाज नहीं कर पाता। चिकित्सक हवा में तीर
चलाते हैं। निशाना सही लगा तो ठीक अन्यथा बिल तो बन ही जाता है। इन अस्पतालों में
वही लोग जाते हैं जो मोटे बिलों का भुगतान करने में सक्षम होते हैं। पैसे खर्च
करते हैं तो बेहतर इलाज की उम्मीद भी करते हैं। लेकिन जहां मर्ज की सही पड़ताल ही
नहीं हो पाती वहां इलाज क्या होगा। सिर्फ महंगे उपकरणों और साफ-सफाई के दिखावे से
क्या होगा।
अब दिल्ली के मशहूर
बीएन कपूर अस्पताल के हालात पर नज़र डालें। डाक्टरों ने तीन-चार दिन बाद सही मर्ज
की सही पड़ताल कर ली। इलाज शुरू हुआ। स्थिति में सुधार भी आया। डाक्टरों ने बताया
कि इलाज लंबा चलेगा। नार्मल होने में समय लगेगा। इस बीच कोल इंडिया से देय
चिकित्सा सुविधा संबंधी पत्र मंगाया गया और अस्पताल प्रबंधन के सुपुर्द किया गया।
कोल इंडिया के मेडिकल पैनल में यह अस्पताल सूचीबद्ध है। एग्रीमेंट के मुताबिक
अस्पताल को कोल इंडिया के अधिकारियों, कर्मचारियों का इलाज आधे खर्च पर करना है। जब
अस्पताल प्रबंधन को पता चला कि उसके बिलों के 50 फीसद का ही भुगतान मिलेगा तो
चिकित्सक सलाह देने लगे कि अब उन्हे अस्पताल से घर ले जाना चाहिए और डिस्चार्ज कर
दिया। साथ ही डायलिसिस के लियए दूसरे अस्पताल में रेफर कर दिया गया। घर में देखभाल
के लिए एक कंपाउंडर की सेवा ली गई। घर आने के कुछ ही घंटे बाद स्थिति गंभीर होने
लगी। कंपाउंडर ने बताया कि वह रोज मरीजों के बीच रहता है। साहब की हालत ठीक नहीं
है। उन्हें अस्पताल ले जाने की जरूरत है। भैया को तत्काल रेफर किए गए स्पताल में
ले जाया गया। वहां चिकित्सक ने पूरी केस हिस्ट्री देखने के बाद पूछा कि आपलोगों ने
कोल इंडिया का पत्र दिया था क्या। हां कहने पर उसने बताया कि बिलों का आधा भुगतान
होने की स्थिति में वे ऐसा करते हैं। उन्हें अभी डिस्चार्ज नहीं करना था। डाक्टर
ने कपूर अस्पताल के चिकित्सक को फोन पर जमकर फटकार लगाई और वापस रेफर कर दिया।
बीएन कपूर अस्पताल को और भी कई जगहों से फटकार मिली। फिलहाल भैया को गहन चिकित्सा
केंद्र में रखा गया है। स्थिति गंभीर है।
सवाल है कि यह
अस्पताल पैरवी लगाकर सार्वजनिक उपक्रमों में सूचीबद्ध होकर अपना रुतबा बढ़ाते हैं
लेकिन जब अनुबंध की शर्तों के मुताबिक सेवा देने का मौका आता है तो कमाई में कटौती
की चिंता सताने लगती है। फिर नाटक-नौटंकी पर तर आते हैं। उनके लिए इलाज नहीं इसके
एवज में मिलने वाला पैसा अहमियत रखता है। चिकित्सकों का सेवा धर्म ताक पर चला जाता
है और लाभ-हानि का गणित हावी हो जाता है।
निजी क्षेत्र
बुनियादी तौर पर लाभ कमाने के लिए स्थापित और संचालित होते हैं लेकिन मानव सेवा के
धर्म का पूरी तरह परित्याग कर देना गलत है। फिर बकरे का मांस बेचने वाले कसाई और
मानव सेवा का व्रत लेने वाले चिकित्सक में क्या अंतर रह जाएगा।
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