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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

बच्चे नहीं जानते....


हमारी महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले 'बचपन' वाकई कही खोता जा रहा है...हमें डॉक्टर , इंजीनियर  या आई. ए. एस. चाहिए, एक अच्छा नागरिक नही... परिणामतः बच्चे सभी चीजों से दूर होते जा रहे है, फिर चाहे वो प्रकृति हो , संस्कृति हो , खेल हो या  संवेदनाएं हों ....याद कीजिये हमने अपना बचपन कैसे जिया था...क्या नहीं लगता की बच्चों के साथ हम अन्याय कर रहे है ???  


बच्चे नहीं जानते,
आम, अमरुद, इमली, जामुन आदि पेड़ों के फर्क, 
कनईल, हरसिंगार, गुडहल के फूलों के रंग,
नहीं लुभाती उन्हें 
गौरैया की चहचहाहट,
मैना की मीठी बोली , 
तितलिओं के पंख ,
'होरहा' की सोंधी महक , 
ताज़ा बनते 'गुड' की मिठास, 
कोयले पर सीके 'भुट्टों' का स्वाद ,
 नहीं सुनी कभी 'राजा- रानी' की कहानियां 
'बिरहा' और 'पूर्वी' के आलाप
 महसूसा ही नहीं 
'बगईचा' में झुला झूलने , 
'देंगा-पानी', 'दोल्हा-पाती' खेलने का सुख 
बच्चे  भूल चुके हैं सपने देखना 
'बचपन' नहीं जीते वे 
क्यूंकि जरुरी होता है 'बड़ा' बन जाना , 
तय की है हमने  उनकी 'नियति', 
उन्हें हमारे बनाए 'सांचे' में ही ढलना  है 
और 'इन्सान' नहीं,
एक 'मशीन' सदृश बनकर ही निकलना है 
......स्वयम्बरा

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

एक उपेक्षित धरोहर !

आरा हाऊस( वीर कुंवर सिंह संग्रहालय), आरा, बिहार 

 कुछ  इमारतें जन क्रांति की मौन गवाह होती हैं. इतिहास का एक पूरा अध्याय इनमे अंकित होता है . ऐसा ही एक भवन है हमारे शहर 'आरा' के 'महाराजा महाविद्यालय' के प्रांगण में स्थित 'आरा हाऊस', जिसका वर्तमान नाम 'वीर कुंवर सिंह संग्रहालय 'है . यह 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में देशवासियों के बलिदान का प्रतीक है .


आरा हाऊस के बारे में विस्तृत जानकारी भले ही बहुत बाद में मिली पर इस से  जान-पहचान थोड़ी पुरानी है.. असल में बचपन में अपने बाबा की उँगलियों को पकड़कर  शहर के कई स्थलों को देखा ... जाना. बाबा जहा भी ले जाते,  उसके बारे में अत्यंत विस्तार से बताते. शायद इसलिए बहुत सारी जानकारियाँ मुझे यु ही हो गयी जिसके लिए लोग किताबें  पढ़ते है .  'आरा हाऊस' भी उनमे से एक था. यह भवन इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है  क्यूंकि हमारे क्षेत्र में लगभग 'किवदंती' बन चुके 'कुंवर सिंह' का नाम इससे जुड़ा था . वैसे भी कॉलेज, घर के ठीक पीछे स्थित है तो जाना भी आसान था..बाबा वहा ले जाते और 'कुंवर सिंह' की कहानियां सुनाते.  हालाँकि उस वक़्त कहानियों से ज्यादा दिलचस्पी भवन के आधार पर बनी 'अर्धचन्द्राकार खिडकियों ' में होती...लोगो का कहना था कि वो 'सुरंगों' की है...ये सुरंगे आरा से जगदीशपुर जाती है...ये इतनी बड़ी हैं कि कुंवर सिंह घोड़े पर बैठकर सुरंग पार कर जाते थे  ...मैं बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखती और सोचती कि कैसे उनके अन्दर जाया जाये...पर कोई लाभ नहीं था क्यूंकि इमारत हमेशा बंद रहती...

इंटर में उसी कोलेज  में नामांकन हुआ ...लड़कियों का कॉमन रूम वही 'आरा हाऊस' था ...लेकिन उस भवन कि महत्ता के बारे में तब भी उतना ही जाना जो 'बाबा' ने बताया था....हाल के बाहर एक शिलापट्ट लगा था, पर उसपर कभी ध्यान नहीं दिया . उस समय भवन भी अत्यंत जर्ज़र हो चूका था...प्लास्टर उखड चुके थे... छत कभी भी गिर सकती थी...आस-पास झाड़-झंखाड़ उग चुके थे ....कॉमन रूम वहा से हटा दिया गया...पता चला कि वह भवन गिराया जायेगा ...कभी-कभी थोडा अजीब लगता ...फिर  अपनी जिन्दगी में मगन हो जाते...

लार्ड कर्ज़न का शिलापट्ट
बी. एस. सी. करने के दौरान एक बार घूमते हुए उस भवन में चली गयी ...वहा शिलापट्ट देखा ..समय काटने के लिए उसे पढने लगी ..पढ़ के हैरान रह गयी ...वह ब्रिटिश भारत के वायसराय लार्ड कर्ज़न का था...इसे 1903 में लगाया गया था...इसपर 1857  की घटना का जिक्र था... लिखा था कि  -
 "............this building was the scene of the memorable defence of Ara by a party consisting......................................This tablet is placed by Lord Curzon, viceroy and governor general of India in 1903." अब मुझे लग चूका था  कि यह भवन वाकई ऐतिहासिक महत्व  का है ...जिसकी दीवारों पर बलिदानियों की गाथा अंकित है... 

वर्ष 1857  में देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ आवाज़ बुलंद हुई थी. शाहाबाद ( वर्तमान भोजपुर, रोहतास, बक्सर, कैमूर ) क्षेत्र से एक अस्सी साल के युवा ने क्रांति का बिगुल फूंका...यह वीर थे जगदीशपुर के जमींदार 'कुंवर सिंह'. इनकी ललकार पर क्षेत्र की जनता भी आन्दोलन में कूद पड़ी . क्रांति की आग दानापुर छावनी तक पहुंची . वहां के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया. वे आरा आये . यहाँ के निवासियों के साथ मिलकर 'आरा हाऊस ' में अंग्रेजों को बंदी बना लिया . यह घेराबंदी कई दिनों तक चली . ब्रिटिश सरकार ने 'कर्नल आयर' को इन्हें छुड़ाने के लिए भेजा. 3 अगस्त, 1857 को आयर और आन्दोलनकारियों के बीच मुकाबला हुआ. विद्रोही बहुत बहादुरी से लड़े,  साधनों के अभाव में हार गए . इस घटना ने देशभर में खलबली मचा दी . आधुनिक अस्त्रों  के बलपर भले ही आन्दोलनकारियों को दबा दिया गया, पर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यह घटना अमर  हो गयी .
आरा हाऊस, बाहर से

इस भवन का निर्माण ब्रिटिशों के रेलवे इंजीनियर श्री वईकर्स  व्यायल ने करवाया था, जहा अँगरेज़ अपने मनोरंज़न के लिए जाया करते थे . भवन दो मंजिला है. एक बड़ा हाल  व् दो छोटे कमरे है. चारो और हवादार बरामदा भी है. नीचे शायद तहखाना है (जैसा मुझे लगा ) . पास ही एक कुए का अवशेष है...इतिहास की माने तो ये वह कुआ  है जिसे घेराबंदी के दौरान ब्रिटिशों ने खोदा था. पूरा भवन देखने में अत्यंत मामूली सा लगता है पर जैसे ही इसका जुडाव 1857 की क्रांति से होता है,  वीरों की हुंकार सुनाई पड़ने लगती है . विद्रोह का पूरा दृश्य एकबारगी आँखों के सामने से गुजरने लगता है. यह वो जगह है जिसने इतिहास में 'आरा' के नाम को सुनहरे अक्षरों में अंकित कर दिया. 

कॉलेज से निकलने के बाद भी इस भवन के प्रति लगाव बना रहा, इसलिए जानकारी लेती रही. पता चला भवन को गिराने की बाते बेबुनियाद थी . कुछ साल बाद उस भवन का नवीकरण किया गया..बरामदे में टाइल्स लगा दिया गया...रंग-रोगन किया गया....नया नाम 'वीर कुंवर सिंह संग्रहालय' हो गया है. युवा वहा बैठकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते है...सुनकर अच्छा लगता था...

कचरे का अम्बार
कुछ दिनों पहले वहा गयी...बहुत खुश थी...एक तो यादे दूसरा इमारत की ऐतिहासिकता बेचैन किये थी...बाहर से देखा तो ठीक-ठाक लगा ...सुकून मिला..जैसे ही अन्दर कदम रखा भीषण दुर्गन्ध ने रास्ता रोक लिया  ..बहुत हिम्मत कर अन्दर गयी...देखा की सीढियों पर कचरे का अम्बार लगा था..ऊपर की मंजिल पर बरामदे में कुछ युवा बैठे थे....वह ज़गह साफ़-सुथरी थी..पर हॉल के दृश्य ने रुआंसा कर दिया..चारो ओर कूड़ा पसरा था..ड्रग्स की सूई भी दिखी...लोगो ने हॉल और कमरों को शौचालय में तब्दील कर दिया था ,  जो मल-मूत्र से भरा था...दीवार टूटी हुई थी..बाहर पहले की ही तरह झाड़ उगे हुए थे... इमारत के दूसरे हिस्सों का भी यही हाल था....नए नाम 'वीर कुंवर सिंह संग्रहालय' के अनुरूप कुछ भी नहीं था ...संग्रहालय के नाम पर यह लोगो के साथ किया गया छल है...क्यूंकि एक भी ऐसी चीज़ यहाँ नहीं थी जो संग्रहालय को चरितार्थ करे... यह सब देखने के बाद मन बहुत भारी हो गया....

कचरे का अम्बार,  टूटी दीवार
आरा हाऊस 'कॉलेज प्रशासन' के अधीन है ...इस धरोहर की देख-रेख की  जिम्मेदारी इसी की है...ऐसा भी नहीं दोनों की दूरी ज्यादा है...या कॉलेज के पास इतना भी वित्त नहीं की इसकी नियमित सफाई हो सके ...फिर क्यूँ है इसकी नारकीय स्थिति? क्या कॉलेज  देशवासिओं के बलिदान का  प्रतीक इस भवन की जिम्मेदारी उठाने में अक्षम है ? पर जरा ठहरिये...दूसरों को दोषी ठहराने से हमारी जिम्मेदारी कम तो नहीं हो जाती...भोजपुर  के लोग 'कुंवर सिंह' के नाम की कसमे खाते है...गर्व करते हैं कि  हम उस माटी कि उपज है जहाँ के लोगो ने देश के लिए बलिदान दिया ..पर लगता यह सब झूठ है...दिखावा है...अन्यथा कही से तो आवाज़ उठाई जाती !...भले ही सफाई करने या करवाने के कर्त्तव्य प्रशासन  के सिर मढ़ कर हम खुश हो ले  पर  इससे गंदगी फ़ैलाने का लाईसेंस तो नहीं मिल जाता  ! ...इतनी जिम्मेदारी तो उठाई ही जा सकती है कि हम बलिदानियों  का सम्मान करे और इस भवन की उपेक्षा न करे , ...... क्यूँ !......

---स्वयम्बरा
http://www.swayambara.blogspot.in/








शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

रंगकर्म : मेरा प्रथम प्रेम



वो दिन भी खूब थे...तब जम कर नाटक किया करते थे ...कई सपने देखा करते..नाटको से ये कर देंगे..वो कर देंगे...क्रांति ला देंगे ...आन्दोलन खड़ा कर देंगे ....जब जीवन का संघर्ष सामने आया..तो सारे जोश की हवा निकल गयी...सच तो यही है  कि 'नाटक' कभी हमें दाल-रोटी नहीं दे सकता था....समाज इन्हें बहुत गंभीरता से भी तो नहीं लेता, खासतौर पर हमारे छोटे से शहर में ...फिर सब छूटता गया .... छूटता गया.....हालाँकि आज भी परोक्षतः रंगमंच से जुडी रहती हूँ पर  'अभिनय' किये कई साल हो गए..मेरे जीवन का प्रथम प्रेम जाने कहा विलुप्त हो गया.

'थियेटर' से मेरा लगाव बचपन से रहा है...यह वाकई मेरा पहला-पहला प्यार था और  इतनी शिद्दत से मैंने चाहा कि सारी कायनात इसे मुझसे मिलाने में लग गयी (हा हा हा )..असल में  रंगमंच का  आकर्षण मेरी जीन में ही था...पापा कालेज में और मम्मी स्कूल में नाटक किया करती थी...यानि कि जब मेरा जन्म हुआ तो 'अभिनय' का 'डबल डोज़'  नसों में दौड़ रहा था ...मैंने लगभग चार साल की उम्र में 'मंच' पर  कदम रख दिया था ...पर 'रंगमंच' अब भी बहुत दूर था...अपने मोहल्ले में एक जगह 'पूर्वाभ्यास' हुआ करता था...मै अक्सर वहां चली जाती और अभिनय करते लोगो को मंत्र मुग्ध होकर देखती ...स्थानीय नागरी प्रचारिणी सभागार में 'आला अफसर' नाटक हो रहा  था..हमारे पास भी आमंत्रण  आया ...पापा हम सभी को दिखाने ले गए ..वो पहला नाटक था जिसे मंचित होते देखा था ...ये एक सपना के सच हो जाने जैसा एहसास था...सच मानिये आज  भी उसके  कई दृश्य याद है..


 रंगमंच मेरे लिए बहुत बड़ा आकर्षण था, पर 'अभिनय' का मौका मिलना आसान कहाँ  था.. सपने देखती और खुश हो लेती ..उच्च विद्यालय  में नामांकन हुआ..एक दिन प्रिंसिपल कार्यालय से बुलावा आया...जाने पर पता चला कि अंतर  स्कूल प्रतियोगिता में नाटकों की भी जोर - आजमाइश है...हमारे स्कूल को भाग लेना है...'खोज एक नारी पात्र की' एकांकी था, जिसमे मुझे रानी लक्ष्मी बाई के लिए चुना गया...मुझे लगा जैसे हवा में उड़ने लगी हूँ...अब रंगमंच बिलकुल मेरे पास था..मै उसे छू सकती था...गले लगा सकती थी...मुझसे संवाद बुलवाए और लिखवाए गए...घर आई ..होमवर्क के बजाये 'संवाद' याद किया ....झाँसी की रानी की तस्वीरे देखी...तलवार की मूठ पर हाथ रखने की अदाए सीखी ...बहुत-बहुत खुश थी ...दूसरे दिन स्कूल गयी..लंच के बाद रिहर्सल होना था....देखा कि मेरी सीनियर वही संवाद बोल रही थी जो मुझे लिखवाए गए थे..रिहर्सल में उन्होंने ही लक्ष्मी बाई का रोल किया ...मै चुपचाप देखती रही (अंतर्मुखी हूँ न इसलिए )...मेरा दिल टूट गया था...सपने बिखर गए थे...जिन्दगी नीरस हो गयी थी (हा हा हा...अब उस समय कुछ ऐसा ही एहसास हो  रहा था )...घर आकर खूब रोई ..गुस्से में दूसरे दिन स्कूल भी नहीं गयी ..दोपहर में नीचे से आवाज़ सुनाई दी...सोम्बरा...ए सोम्बरा ...आवाज़ स्कूल के चपरासी कि थी जो मेरे नाम का उच्चारण 'स्वयम्बरा' के बजाये 'सोम्बरा' करता था . उसने सर की एक चिठ्ठी दी ..उसमे स्कूल आने का आदेश था...डरते -सहमते वहाँ  गयी..मुझे उस एकांकी में 'उद्घोषक' का रोल करने को कहा गया.. छोटा सा रोल था पर मै खुश थी...आखिर थियेटर  ने मुझे अपना ही लिया  ....हमारा नाटक हुआ...प्रथम पुरस्कार मिला...इसके बाद मैंने पीछे नहीं देखा...

 खूब नाटक किया...बार-बार का रिहर्सल..स्क्रिप्ट पर लम्बी बहस...एक एक दृश्य पर मंथन...प्रकाश और वस्त्र परिकल्पना पर घंटो माथापच्ची भी थका नहीं पाता. घर-घर घूमकर चंदा मांगते ...टिकट काटते ...कड़ी धूप...कडकडाती ठण्ड..बारिश भी रोक नहीं पाती. किसी भी तरह का अवरोध हमारी प्रतिबद्धता को कम नहीं कर पाता . नाटक करना एक जूनून था..इबादत था...छटपटाहट  की अभिव्यक्ति  का माध्यम था ..हम गर्व करते कि रंगकर्मी है.. अपने शहर का एकमात्र हाल 'नागरी प्रचारिणी सभागार' मंचन के लिए किसी भी तरह से उपर्युक्त नहीं, पर हमारे लिए वह ऐसा मंदिर था, जहा सपने साकार होते...

नाटक एक प्रयोगधर्मी कला है..नाट्य रचना  और प्रस्तुति दोनों  में प्रयोग होते रहते हैं ...इसीलिए यहाँ संख्या महत्वपूर्ण नहीं, नाटकों को 'करते रहने' की महत्ता है....जरुरी नहीं की पचास-सौ नाटक करे ...एक नाटक ही हर मंचन में पूर्व  से भिन्न हो जाता है ...हर बार एक नए अर्थ की सृष्टि होती है, जो नए प्रयोग के लिए बाध्य करता है...स्व. भिखारी ठाकुर रचित 'बिदेसिया' और स्व. सफ़दर हाश्मी लिखित 'औरत' का मंचन हमने कई बार किया...हर बार नए अर्थ उद्घाटित हुए...नयी चीजों का समावेश हुआ

थियेटर करने के दौरान कई समस्यायों से दो चार होना पड़ा, बहुत सारी नयी बाते सीखने-समझने को मिली...असल में नाटक कलाओं का मेल है...यह संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला, साहित्य और वास्तु का मिश्रण होता है....रंगकर्म का मतलब ही है सभी कलाओं में निपुणता....हम  रंगकर्मी लगभग सभी कार्य को करना सीख ही जाते है .साहित्य का चस्का मुझे नाटको से लगा . इसने  हमें नए जीवन मूल्य भी  दिए....अबतक की जिन्दगी 'मैं' पर केन्द्रित थी अब समूह का सुख-दुःख अपना लगने लगा ...नाटक एक सामूहिक कला है ..यहाँ परस्पर सहयोग की भावना अपने-आप विकसित हो जाती है...अनुशासन आदत बन जाता है...संवेदना पहचान बन जाती है 

ग्रैज़ुएशन तक ऐसे ही चला फिर अचानक सब बंद हो गया.. अब 'जीवन' के गंभीरतम सवालों से जूझना था..हम नाटको से दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर सकते थे ..पलायन मज़बूरी थी...क्यूंकि या तो इसे अपनाकर  भटकते रहते या सिनेमा और टी. वी. की  ओर रुख कर लेते  (जो अन्दर के रंगकर्मी को गवारा नहीं था)...दूसरी बात, हमारे शहर में नाटको को इतनी गंभीरता से लिया ही नहीं जाता कि इसे कैरियर के रूप में अपनाने कि सोच भी सके...लोगो की नज़र में ये 'बिना काम के काम' है ...जो बिलकुल गैर जरुरी है..इसका महत्व मनोरंजन तक ही सीमित है  ...कुल मिलाकर  समस्या 'व्यावसायिक  रंगकर्म' के नहीं होने से थी..
(हिंदी रंगकर्म न तो पूरी तरह जीवन यापन का साधन बन पाया और न ही वह हमारे जीवन का जरुरी हिस्सा बन पाया ....देवेन्द्र राज अंकुर )


...कहानी का अंत ये हुआ कि नाटकों की जगह 'सिविल सर्विसेस' की तैयारी शुरू हो गयी . अभिनय  की जगह 'आई. ए. एस.'  बनने का सपना पलने लगा...हालाँकि दो बार मेंस निकलने के बावजूद साक्षात्कार में असफल  रही...खैर , अभिनय ना करने कि पीड़ा अब भी सालती है...अन्दर का कलाकार छटपटाता है ....मन रोता है...वाकई 'पहला प्यार' जिन्दगी भर  याद रहता है ...

------स्वयम्बरा

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

पछताते रह जायेंगे .



... चलिए एक कहानी सुनाती हूँ ..एकदम सच्ची कहानी..एक बिटिया और उसके पापा की कहानी ..मेरी दादी कहा करती  थी कि हमारे खानदान की  परंपरा है 'पान खाना'. ख़ुशी का मौका हो या गम का, 'पान खाना' ही पड़ता .परीक्षा देने जाना हो, यात्रा करनी हो, शुभ काम होनेवाला हो या  हो चूका हो, लगभग  हर मौके पर 'पान' हाज़िर होता .बाबा और दादी तो बड़े शौक से पान खाते थे. ये उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था. दादी बाकायदा  पान मंगवाती.. साफ़ करती ... अपने साफ़-सफ़ेद बिस्तर (जिनपर हमारा चढ़ना मना था) पर सूखाती ..काटती  - छांटती ....कत्था पकाती..पान लगाती .. खाती और खिलाती..बचपन में हमें भी पान खूब पसंद आया करता. असल में इसे खाने के बाद जीभ एकदम लाल हो जाती. हमारे लिए ये जादू सरीखा था .  बहुत मज़ा आता. बात इन खुशिओं तक  सीमित  रहती तो अच्छा था पर  'अति सर्वत्र वर्ज्यते' यू ही नहीं कहा गया.  अत्यधिक जर्दा के घुसपैठ ने 'पान खाने' जैसी परंपरा को भयावह रूप दे दिया और हमने अपने पापा को खो दिया .. 
जैसा कहा मैंने 'पान खाना' हमारे खानदान कि अभिन्न परंपरा थी. पापा भी पान खाया करते . हाँ, उनके पान में जर्दा (तम्बाकू) की मात्रा बहुत ज्यादा होती थी.मम्मी मना करती पर वो नहीं मानते. मम्मी ने हम बच्चो से भी कहा कि पापा को जर्दा मत खाने दो. मम्मी की ये बात हमारे  लिए खेल भी बन गयी .  हम  जर्दा (तम्बाकू) का डिब्बा  छिपा दिया करते थे ..पापा  मांगते...हम इतराते, खूब मनुहार करवाते, अंततः  दे देते ..पापा को आदेश देते जर्दा (तम्बाकू) कम खाना है ..पापा भी  दिखाने  के लिए मान जाते, कहते आज खाने दो, कल से नहीं खायेंगे...हम भी खुश और पापा भी खुश . .देखते ही देखते समय निकलता गया.पापा का पान और जर्दा (तम्बाकू) खाना नहीं छूटा.

 हम बड़े हो गए...व्यस्तताएं बढ़ गयी...पापा को बार- बार टोकना बंद हो गया..पर कभी-कभार जरुर शोर मचाते ..मम्मी की तबीयत ख़राब रहने लगी.उनको लेकर  बहुत परेशां रहते..बार-बार खून चढ़ाना, जगह-जगह दिखाना...पापा पर ध्यान देना थोडा कम हो गया था...इसी बीच पापा के भी मूह में दर्द रहने लगा...आशंका हुई पर बेटी का मन, गलत बातो को क्यों कर मान जाता . अब  पापा ने पान खाना छोड़ दिया, पर तबतक बहुत देर हो चुकी थी. एक दिन उन्हें जबरदस्ती  डॉक्टर के पास ले जाया गया. उसने देखते ही कह  दिया -इन्हें ओरल कैंसर है. पटना में बायोप्सी  करा ले. बायोप्सी में कैंसर ही निकला. हालाँकि मन ये मानने को तैयार ही नहीं था. अब भी लग  रहा था कि रिपोर्ट झूठी है .  यकीं था , पापा ठीक हो जायेंगे.  असल में उन्हें कभी बड़ी बीमारी से जूझते नहीं देखा था... और हमारे लिए तो वो 'सुपरमैन' थे , उन्हें क्या हो सकता था .

खैर , महानगरो की दौड़ शुरू हुई . कई अस्पतालों के चक्कर काटे गए. पता चला कि फीड-कैनाल में भी  कैंसर है, फेफड़ा भी काम नहीं कर रहा. डॉक्टर ने बताया कि 'ओपरेशन' और 'कीमो' नहीं हो सकता.' रेडियेशन'  ही एकमात्र उपाय है . सेकाई शुरू हुई, पापा कमज़ोर होने लगे. खाना छूट गया.' लिक्विड  डायट' पर रहने लगे. रेडियेशन पूरा होने के बाद गले का कैंसर ठीक हो गया पर 'ओरल'  ने भयावह  रूप ले लिया. डॉक्टरों  ने भी हाथ खड़े कर लिए. बीमारी बढ़ने लगी.  पहले होठ गलना शुरू हुआ . गाल में गिल्टियाँ  निकलने  लगीं और वो भी गलने लगा. धीरे-धीरे पूरा बाया गाल और दोनों होठ गल गए. घाव नाक तक पंहुचा..साँस लेने में परेशानी होने लगी. खाना पूरी तरह छुट चूका था. शरीर एकदम कमज़ोर हो गया. दावा-दारू काम न आया. ईश्वर ने हमारी 'बिनती' पर  ध्यान नहीं दिया. मित्रो-रिश्तेदारों की शुभकामनाओं की एक न चली. एक दिन  पापा हमें छोड़ कर चले गए. हम अवाक् से थे. सही है कि सबके माता-पिता जाते है पर हम अभी इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. वैसे भी 'अडसठ साल' की  उम्र मौत के लिए बहुत ज्यादा नहीं होती, खासतौर पर तब, जब कभी- भी कोई बीमारी न रही हो. पर मौत आयी ..जल्द आयी..समय से पहले आयी, क्यूंकि जर्दा (तम्बाकू)  के सेवन ने उनकी उम्र को दस साल कम कर दिया था. हम रोते रहे, बिलखते रहे, छटपटाते रहे पर क्या हासिल ...पिता का साया उठ जाना बहुत बड़ी बात होती है..हम अनाथ हो गए ..बेसहारा से..

एक साल के अन्दर एक बिटिया के प्यारे से पापा उसे छोड़कर हमेशा के लिए चले गए. पापा के जाने के बाद हर पल याद आया कि कैसे पापा से जर्दा छोड़ देने का  आग्रह करते और पापा हमें फुसला देते ..काश कि पापा ने उसी वक़्त हमारी बाते मान ली होती ... काश कि अपनी बीमारी को बढ़ने न दिया होता.. काश कि... पर 'काश' कहने और सोचने मात्र से कुछ नहीं संभव था . जो होना था वह हो गया. ..छोडिये, अब  कुछ आंकड़े देखिये --- टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के अनुसार हर साल कैंसर के नए मरीजों की संख्या लगभग सात लाख होती है जिसमे तम्बाकू से होनेवाले कैंसर रोगियों की संख्या तीन लाख है और इससे हुए कैंसर से मरनेवाले मरीजो की संख्या प्रति वर्ष दो हज़ार है ...बी. बी. सी. के अनुसार भारत में हर दस कैंसर मरीजों में से चार ओरल कैंसर के है..

पापा ने जबतक  'जर्दा' छोड़ा,  समय हाथ से निकल चूका था . पर बाकि लोग ऐसा क्यूँ कर रहे है? क्यूँ अपनी मौत खरीदते और खाते है? कल खबर देखा कि यू. पी. सरकार ने भी गुटखा  (तम्बाकू) प्रतिबंधित कर दिया ...बिहार और देलही में ये पहले से lagu है. इसके अनुसार गुटखा  (तम्बाकू) बनाने, खरीदने  और बेचने पर प्रतिबन्ध है..किन्तु सच तो यह है  गुटखा (तम्बाकू) खुले आम धड़ल्ले से बेचा-ख़रीदा जाता है...कम से कम अपने राज्य बिहार में तो यही देख रही हूँ...लोग आराम से  खरीदते  है...कोई रोक-टोक नहीं..पाबन्दी नहीं..सरकारे सिर्फ नियम बनाकर कर्त्तव्य पूरा कर देती है.. इसे लागू करने कि उसकी कोई मंशा नहीं होती. तभी तो कही कोई सख्ती नहीं बरती जाती. पुलिस और प्रशाशन के लोग स्वयं इसका सेवन करते है. भाई  लोग,  तम्बाकू का हर रूप हानिकारक है. इसका सेवन करनेवाले अपनी 'मृत्यु' को आमंत्रित करते है.  क्या आप  अपने अपनों से प्यार नहीं करते? फिर  इसकी लत जान से ज्यादा प्यारी कैसे बन जाती है जो  छूटती ही नहीं!  या फिर इच्छाशक्ति का घोर अभाव है, मन से बेहद कमज़ोर, लिजलिजे से हैं . यदि नहीं तो छोड़ दीजिये इस 'आदत' को .  मित्रों  आप तो समझदार है . चेत जाइये.  अरे,   जिम्मेदार नागरिक बने . तम्बाकू का किसी भी रूप में सेवन छोड़े . अपने रिश्तेदारों और मित्रो को भी रोके. कही बिकता देखे तो शिकायत करे . अन्यथा पछताते रह जायेंगे ....

---------------स्वयम्बरा 
यहाँ भी पढ़े http://www.swayambara.blogspot.in/2012/10/blog-post.html



रविवार, 9 सितंबर 2012

खुश रहो न !





कई दिनों की बारिश के बाद बादल एकदम चुप से थे..न गरजना न बरसना ... ठंडी हवाएं जरुर रह-रह कर सहला जाती थी...धूली, निखरी प्रकृति की सुन्दरता अपने चरम पर थी ....मुझे पटना जाना था ...ट्रेन में खिड़की वाली सीट मिली (मेरा सौभाग्य )...हमारा सफ़र शुरू हुआ .... दूर तक पसरे हरे-भरे खेत, पेड़ो की  कतारें, बाग़-बगीचे दिखने लगे....मैं  बिलकुल 'खो' सी गयी थी ...कि एक जगह ट्रेन 'शंट' कर दी गयी...माहौल में ऊब और बेचैनी घुलने लगी.. बचने के लिए इधर-उधर देखना शुरू किया कि 'निगाहे' पटरी के पार झाड़ियों में कुछ खोजती औरत पर गयी.....इकहरा बदन ..सांवली रंगत...वह बेहद परेशान दिख रही थी ...पास ही बैठा उसका छोटा सा बच्चा रोये जा रहा था, पर वह, अपनी ही धुन में थी ...मुझे कुछ अजीब सा लगा इसलिए  उन्हें ध्यान से देखने लगी..अचानक उसके हाथ में एक सूखी टहनी नज़र आयी...अब उसके चेहरे पर राहत थी...धीरे-धीरे उसने कई लकड़ियों को इकट्ठा किया ...उसका गठ्ठर बनाया..बच्चे को उठाया और चली गयी....

ट्रेन थोड़ी आगे बढ़ी तो देखा चार-पांच छोटी बच्चियां सिर पर लकड़ियों का गठ्ठर उठाये हंसती -खिलखिलाती चली जा रही थी...बाल बिखरे..ढंग के कपडे नहीं पर उदासियों को ठेंगा दिखाती वो अपने में मगन थी .... सूखी लकड़ियाँ इन लोगो के चूल्हे  की आग  थी, जिसपर पूरे परिवार का भरपेट खाने का सपना पकता होगा ...इसके लिए दर-दर का भटकना भी उनकी मुस्कानों को, हौसलों को कम नहीं कर सकता ...

उस औरत को वहां पसरी गंदगी, रोता बच्चा और झाड़ियों में छिपे विषैले जीव का डर रोक नहीं पाया ...और ये बच्चियां  अपने 'बचपन' में ही 'बड़ी' हो गयी..अभावो में खिलखिलाना सीख लिया ....

इस बरसात में लकड़ियाँ ना मिले तो..... तो उन्हें 'भूखा' ही रह जाना पड़ेगा ...या पानी से ही पेट भर कर तृप्त हो जाना पड़ेगा और गर कई दिनों तक बारिश होती रहे तो ??? ...पर उन्हें परवाह कहा ...

और एक 'हम' है जो 'गैस' ख़त्म हो जाने पर आसमा सिर पर उठा लिया करते है...कुकर, रेफ्रीजेरेटर, अवन के बिना हमारा काम ही नहीं चलता.. हर बात पर हाय-तौबा मचाते है..सारी सुविधाओं के होने के बावजूद असंतुष्ट रहते है ... असल में इस भागती हुई जिन्दगी में कुछ पल ठहरकर, रूककर सोचने की 'जरुरत' है कि 'हमारी जरूरते' जिस अनुपात में बढ़ रही है 'खुशियाँ'  उसी अनुपात में घटती नहीं जा रही है?? जरा सोचिये!

---------स्वयम्बरा 
http://swayambara.blogspot.in/

सोमवार, 20 अगस्त 2012

.....और टल गया एक हादसा

आज रांची के हटिया डैम में मत्स्य विभाग के निदेशक और विभागीय सचिव भीषण दुर्घटना का शिकार होते-होते बचे. कुछ इलेक्ट्रोनिक चैनल के कैमरा मैनों  के चोंगे पानी में गिरकर गुम हो गए,  घटना दिन के करीब 3 .50  की है. कार्यक्रम में झारखंड के मंत्री सत्यानन्द झा बातुल को भी आना था लेकिन कुछ कारणों से वे नहीं आ सके. मौका था मत्स्य विभाग के सतत मत्स्य उत्पादन कार्यक्रम के तहत केज प्रणाली द्वारा पंगास मछली के उत्पादन के प्रदर्शन और उसे पतराटोली मत्स्य सहयोग समिति को हस्तांतरित किये जाने का. यह केज बीच जलाशय में फैक्ट्री फौर्मुलेटेड फ्लोटिंग फीड की तकनीक के जरिये बनाये गए थे. कार्यक्रम स्थल तक पहुंचने के लिए छोटी-छोटी नौकाओं की व्यवस्था थी. लाइफ जैकेट भी उपलब्ध थे. एक नाव पर तीन-चार लोग जा सकते थे. सेक्रेट्री और डाइरेक्टर सहित दो विभागीय कर्मियों के लिए ड्रमों पर बंधे एक प्लेटफार्मनुमा नौका थी. सुरक्षा के दृष्टिकोण से केज से किनारे तक एक रस्सी बंधी हुई थी. जाते वक़्त तो सभी लोग रोमांचक यात्रा का आनंद लेते हुए आराम से गए. वापसी के दौरान सेक्रेट्री और निदेशक के प्लेटफार्मनुमा नौका पर सवार होते ही कुछ संवाददाता और कैमरामेन भी सवार होने लगे. इसी में संतुलन बिगड़ा और सारे लोग पानी के अंदर गिर गए. सेक्रेट्री साहब ने रेलिंग पकड़ कर खुद को बचाया कुछ लोगों ने उनको पकड़ कर अपनी सुरक्षा की. कुछ लोगों के मोबाइल फोन पानी के अंदर चले गए. इलेक्ट्रोनिक चैनल के कैम्रमेनों के चोंगे भी पानी में चले गए. तुरंत ग़ोताखोर सक्रिय हुए और सभी लोगों को बाहर निकला गया लेकिन प्लेटफार्मनुमा नौका बिखर गयी थी. इस बीच छोटी नौका पर सवार कुछ कैमरामेन इस दृश्य को कैमरे में कैद करने की नीयत से बीच रस्ते से बोट को घुमाकर वापस आये. बाद में छोटी नौकाओं के जरिये ही सभी लोग किनारे आये.

---देवेंद्र गौतम  .

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

रांची में बाइकर्स गिरोह का आतंक

रांची में इन दिनों झपट्टामार या बाइकर्स गिरोह का आतंक छाया हुआ है. आमलोग सड़कों पर चलते हुए भयभीत रहते हैं की पता नहीं कब बाइक पर सवार अपराधी आयें और उनकी कोई कीमती चीज झपट्टा मार कर ले जाएं. आये दिन इस गिरोह की वारदातें हो रही हैं. किसी के बैग में रखी नकदी. किसी के कान की बाली, किसी का नेकलेस, किसी की मोबाइल छीन चुकी है. पुलिस परेशान है. सांप निकल जाता है. पीटने के लिए लकीर भी नहीं छोड़ता. पुलिस अपराधियों को रंगे हाथ गिरफ्तार करना चाहती है.
दरअसल पुलिस इस गिरोह की सही ढंग से पड़ताल ही नहीं कर पा रही है. पहली बात यह है यह कोई पेशेवर अपराधियों का सुगठित गिरोह नहीं है. इसमें शामिल लड़के संभ्रांत घरों के बुरी संगत में पड़े लड़के हैं जिनमें ज्यादातर ड्रग एडिक्ट हैं. बाप चाहे कितना भी पैसेवाला हो बेटे को ड्रग सेवन के लिए या कॉलगर्ल के साथ रंगरेलियां मनाने  के लिए पैसे नहीं देगा. इस खर्च को पूरा करने के लिए उन्हें इस तरह के रस्ते अपनाने होते हैं.
इतना तय है कि इस गिरोह के लड़के बाइकर्स क्लब से प्रशिक्षित और बाइक चलाने में माहिर हैं. पुलिस यदि शहर में अवैध रूप से चल रहे बाइकर्स क्लब के संचालकों की गर्दन पकडे और उनके यहां के प्रशिक्षित और प्रशिक्षु छात्रों का विवरण प्राप्त कर जांच शुरू करे तो गिरोह तक पहुंचना संभव हो सकता है.
दूसरी बात यह कि शहर की सड़कों पर अक्सर बहुत तेज़ गति से सर्पाकार तरीके से भागते बाइक सवार दिखाई देते हैं. उन्हें कोई ट्राफिक पुलिस  या टोकने की जरूरत नहीं समझती. बीच शहर में ऐसे जानलेवा स्टंटबाजों की नकेल कसी जाये तो अपराधियों तक पहुंचा जा सकता है.
अभी यह स्पस्ट नहीं है कि बाइकर्स क्लब के संचालक ही इन झपट्टामारों का नेतृत्व कर रहे हैं या बिगड़े लड़कों नें स्वयं छोटे-छोटे गिरोह बना रखे हैं जो अपनी अय्याशी की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति  के लिए कभीकभार वारदात कर बैठते हैं. दौलतमंद बाप उन्हें उनकी पसंद की बाइक तो दे चुका होता ही है और उसे इतनी फुर्सत नहीं होती कि बेटे की गतिविधियों पर नज़र रख सके.
यह स्टंटबाज लड़के स्टंट करने के चक्कर में सड़क दुर्घटना का शिकार भी खूब होते हैं. दुर्घटना के बाद ही उनके मां-बाप को पता चल पाटा है कि उनका बेटा क्या करता फिरता रहा है. हां...यदि पुलिस उन्हें झपट्टामारी के मामले में गिरफ्तार करना शुरू कर दे तो ऐसे नवधनाढ्य बापों को कुछ बात समझ में आ सकती है.
वैसे इतना तय है की इस गिरोह के तार नशीली दवाओं के कारोबारियों से किसी न किसी रूप में जरूर जुडती है. पुलिस चाह ले तो इस आतंक का खात्मा हो सकता है और ड्रग माफिया की गर्दन भी नापी जा सकती है.

----देवेंद्र गौतम 

शनिवार, 28 जुलाई 2012

इस शहर में हर शख्स परेशां सा क्यूँ है



'अपना बिहार' दोड़े जा रहा है विकास की पटरी पर...बड़े-बड़े दावे ....बड़ी-बड़ी बातें...खूब बड़े आंकडे .....सब कहते है विकास हो रहा है...मै भी गर्व से भर जाती हूँ...अकड़ जाती है गर्दन...पर जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो वही बेहाल, परेशां, बेचारे से लोग नज़र आते है....जिनसे उनका हक छीन लिया गया है....आबोहवा के बदलने का अहसास तो है पर कहानी अब भी यही है कि धनबल, बाहुबल या ऊँची पहुँचवाले ही 'सस्टेन' कर सकते है ....आप ये न समझना कि मै यूँ ही आंय- बांय बके जा रही हूँ ...हमारे घर में एक पत्रकार, एक वकील है (और मै कलाकार हूँ ही)...इनके पास जिस तरह के 'केसेज' आते है वह चकित कर देनेवाला होता है.....बहुत छोटे स्तर से ही अफसरशाही, पुलिस और दबंगों की दबंगई शुरू हो जाती है...जनता हलकान होती है, यहाँ-वहां भागती फिरती है और 'इनकी' मौज होती है,,,जरा बानगी देखिए


१. एक शिक्षक की जमीन पर इलाके के 'दबंग' ने कब्ज़ा कर लिया...प्राथमिकी दर्ज करने गए शिक्षक को थानेदार ने भगा दिया...धमकी भी दी कि ज्यादा तेज़ बनोगे तो झूठे मुक़दमे में 'अन्दर' कर देंगे......अदालत की शरण ली गयी....मामला अभी कोर्ट में चल ही रहा था की 'दबंग' ने उस पर मकान बनवाना शुरू कर दिया..... एस.डी. ओ. ने धरा १४४ लगाया..थानेदार ने मानने से इनकार कर दिया.....

२. हाल में हुई शिक्षक नियुक्ति में नियोजित हुए एक मेधावी युवक का वेतन बिना किसी कारण के रोक दिया गया...उसका नाम भी लिस्ट से गायब हो गया,,,उसकी जगह किसी और की बहाली हो गयी...युवक, अफसरों के पास खूब दौड़ा....गिड़गिड़ाया ...पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी...अंततः वह हाई कोर्ट, पटना गया.. वहा उसके पक्ष में फैसला हुआ....पर शिक्षा विभाग ने उस फैसले को मानने से इनकार (?) कर दिया .....है न हैरान करनेवाली बात!

३. 'आंगनबाड़ी सेविका' पद के लिए आवेदन माँगा गया...नियुक्ति उसकी की गयी जिसका प्राप्तांक कम था ( aakhir kyun, जरा sochiye) अधिक प्राप्तांक वाली विवाहिता को बताया गया कि चूँकि ये पद सरकारी है और उनका देवर सरकारी पद (शिक्षा मित्र) पर है इसलिए उनकी नियुक्ति नहीं हो सकती....आर . टी .आई. के तहत जानकारी मांगने पर पता चला कि उक्त पद सरकारी नहीं है....

क्या कहेंगे इसे? विकास? सुशासन? खुशहाली? ..ये तो हमारी नज़रों में आ गए पर ऐसी न जाने कितनी  घटनाएँ है....ये बाते गाँव की है इसलिए  इनपर शोर भी नहीं होता...ये ख़बरें मीडिया के भी किसी काम की नहीं ...आपको भी ये बाते छोटी लग रही होंगी जो आस-पास बिखरी पड़ी रहती है ....पर इन बातो से ही 'विकास; की बाते बेमानी लगने लगती है.....

'डायन' : औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका


वे बचपन के दिन थे ....मोहल्ले में दो बच्चों की मौत होने के बाद  काना-फूसी शुरू हो गयी और एक बूढी विधवा को 'डायन' करार दिया गया...हम उन्हें प्यार से 'दादी' कहा करते थे...लोगो की ये बाते हम बच्चों तक भी पहुची और हमारी प्यारी- दुलारी दादी एक  'भयानक डर' में तब्दील हो गयी... उनके घर के पास से हम दौड़ते हुए निकलते कि वो पकड़ न ले...उनके बुलाने पर भी पास नहीं जाते ...उनके परिवार को अप्रत्यक्ष तौर पर बहिष्कृत कर दिया गया ....आज सोचती हूँ तो लगता है कि हमारे बदले व्यवहार ने उन्हें कितनी 'चोटे' दी होंगी ...और ये सब इसलिए कि हमारी मानसिकता सड़ी हुई थी....जबकि हमारा मोहल्ला बौद्धिक (?) तौर पर परिष्कृत (?) लोगो का था ..!

वक़्त बीता ..हालात बदले....पर डायन कहे जाने की यातना से स्त्री को आज भी मुक्ति नहीं मिली है.... अखबार की इन कतरनों को देखिए ...बिहार के एक दैनिक समाचार-पत्र में इसी माह की 7 से 12 तारीख के बीच, ऐसी चार खबरे छपी....यानी की छह दिनों में चार बार ऐसी घटना हुई .....जिनमे से दो में 'हत्या' कर दी गयी ....पर इससे ये कतई न सोचे कि बिहार में ही ऐसी अमानवीय  प्रथाएं हैं... ये बेशर्मी यही  तक ही सीमित नहीं...संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2003 में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 1987 से लेकर 2003 तक, 2 हजार 556 महिलाओं को डायन कह कर मार दिया गया ..... एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में 2008-2010 के बीच डायन कहकर 528 औरतों की हत्या की गयी .....क्या ये आंकडे चौकाने के लिए काफी नहीं कि मात्र एक अन्धविश्वास के कारण इतनी हत्याएं कर दी  गयी??? ....राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक भारत में विभिन्न प्रदेशों के पचास से अधिक जिलों में डायन प्रथा सबसे ज्यादा फैली हुई है ...मीडिया के कारण (भले ये उनके लिए महज टी. आर. पी. या सर्कुलेशन बढ़ने का तमाशा मात्र हो) कुछ घटनाये तो सामने आ जाती है पर कई ऐसी कहानिया दबकर रह जाती होंगी ...बेशक ये बाते आपके-हमारे बिलकुल करीब की नहीं .....गाव-कस्बो की है...किसी खास समुदाय या वर्ग की है पर सिर्फ इससे, आपकी-हमारी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती ...

ध्यान दे, ये महज़ खबरे नहीं, जिन्हें एक नज़र देखकर आप निकल जाते है....इनमे एक स्त्री की 'चीख' है...उसका 'रुदन' है.... उसकी 'अस्मिता' के तार-तार किये जाने की कहानी है ...अन्धविश्वास का भवर जिसका सबकुछ डुबो देता है .....और हमारा समाज इसे 'डायन' कहकर खुश हो लेता है ....

'डायन'....क्या इसे महज अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीति मान लिया जाये या औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका...आखिर डायन किसी स्त्री को ही क्यूँ कहा जाता है?? क्यूँ कुएं के पानी के सूख जाने, तबीयत ख़राब होने या मृत्यु का सीधा आरोप उसपर ही मढ़ दिया जाता है?? असल मैं औरते अत्यंत सहज, सुलभ शिकार होती है क्यूंकि या तो वो विधवा, एकल, परित्यक्ता, गरीब,बीमार, उम्रदराज होती है या पिछड़े वर्ग, आदिवासी या दलित समुदाय से आती है.... जिनकी जमीन, जायदाद आसानी से हडपी जा सकती है... ये औरते मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से इतनी कमजोर होती है कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार की शिकायत भी नहीं कर पाती.... पुलिस भी अधिकतर मामलों में मामूली धारा लगाकर खानापूर्ति कर लेती है...हैरानी होती है कि लगभग हर गाँव या कस्बे में किसी न किसी औरत को 'डायन' घोषित कर दिया जाता है... मैंने कही नहीं देखा कि कभी किसी पुरूष को डायन कहा गया हो...या इस आधार पर उसकी ह्त्या कर दी गयी हो..... क्यूंकि ऐसे में अहम् की संतुष्टि कहा हो पाएगी... और यह बात कहने-सुनने तक ही कहा सीमित होती है....जब भीड़ की 'पशुता' अपनी चरम पर पहुचती है तब डायन कही जानेवाली औरत के कपडे फाड़ दिए जाते है...तप्त सलाखों से उन्हें दागा जाता है...मैला पिलाया जाता है...लात-घूसों, लाठी-डंडों की बौछारें की जाती है ...नोचा-खसोटा जाता है और इतने पर मन न माने तो उसकी हत्या कर दी जाती है....उनमे से कोई अगर बच भी जाये तो मन और आत्मा पर पर लगे घाव उसे चैन से कहा जीने देते है...'आत्महत्या' ही उनका एकमात्र सहारा बन जाता है ....

औरतों पर अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ घिनौने अपराधों को लेकर अक्सर आवाज़ उठाई जाती है..... लेकिन ऐसी घटनाये हमें हमारा असली चेहरा दिखाती है..हम स्वयं को सभ्य कहते और मानते है पर इनमे हमारा खौफनाक 'आदिम' रूप ही दीखता हैं ....हमने इसकी आदत बना ली है और ये शर्मनाक हैं....पर हम भी, पूरे बेशर्म है !

-----स्वयम्बरा

रविवार, 24 जून 2012

देश को रसातल में ले जाने की तैयारी


आज के एक अखबार की लीड खबर का शीर्षक है 'कड़े तेवर दिखायेंगे पीएम'. उप शीर्षक है 'पेट्रोल सस्ता कर डीजल महंगा करने की तैयारी' 
संप्रंग सर्कार कठोर फैसले लेने का यह बेहतर मौका मान रही है. अर्थात वह हमेशा ऐसे लेने के लिए मौके की ताक में रहती है जिससे आम आदमी का जीवन और कष्टमय हो जाए. उस आम आदमी का जिसके लिए प्रतिदिन 28  रुपये के खर्च करने की क्षमता को काफी मान रही है यह सरकार. क्योंकि इसी में आबादी के उस हिस्से की भलाई है जिसके बाथरूम की मरम्मत के लिए 35  लाख रुपये भी कम पड़ते हैं. देश का एक बच्चा भी जानता है की तमाम जिंसों की ढुलाई डीजल चालित वाहनों से होता है. डीजल को महंगा करने से उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें कैसे कम होंगी कम से कम हमारे जैसे मंद बुद्धि के लोगों की समझ से बाहर है. पीएम अर्थशास्त्री हैं. हो सकता है उनके अर्थशास्त्र में ऐसा कोई गणित हो. या फिर यह भी हो सकता है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का यह सिद्धांत कि अपने चरम पर पहुंचकर हर चीज विलीन हो जाती है काम कर रहा हो. सरकार को यकीन हो कि महंगाई को उसके चरम तक पहुंचा दो वह खुद ही ख़त्म हो जायेगी.
पेट्रोल की कीमत घटने से एलिट क्लास के उन लोगों को राहत मिलेगी.जिनके पास धन है. जिनकी क्रयशक्ति बेहतर है. लेकिन डीजल की कीमत बढ़ने पर निम्न मध्यवर्ग और मजदूर-किसान यानी हर वर्ग के लोग प्रभावित होंगे. इसी तरह रसोई गैस की राशनिंग जैसे कड़े कदम उठाने की तैयारी हो रही है. बाकी कड़े फैसले भी जनता पर कहर ढानेवाले ही हैं. अब भारत की जनता पांच वर्ष के लिए सत्ता की बागडोर थमाने की भूल कर ही बैठी है तो भुगतना तो उसी को पड़ेगा. इसलिए जनाब! आप चिंता मत कीजिये. जो मर्जी हो कर लीजिये. पूरी आबादी का गला घोंट दीजिये. लेकिन भगवान के लिए कुछ तो शर्म कीजिये आखिर आप 2014  में जनता को क्या मुंह दिखायेंगे.  

----देवेंद्र गौतम  

सोमवार, 4 जून 2012

एक खुला पत्र....... मौन मोहन बाबू के नाम !


माननीय मौन मोहन बाबू!
मैं  अपने आप को आपसे खरी-खोटी बात करने से रोक नहीं पा रहा हूं. जानता हूं कि आपसे सीधा संवाद संभव नहीं है. लेकिन यह भी पता है कि आपके सूचनादाता मेरे संवाद की सूचना आप तक जरूर पहुंचा देंगे.
आपके लिए मेरे मन में काफी श्रद्धा रही है. इटली लॉबी का विजिटिंग कार्ड बनने के लिए नहीं बल्कि एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री होने के अफवाह के कारण. हां! इसे अफवाह नहीं तो और क्या कहेंगे. जब अपने ज्ञान का लाभ देश को पहुंचाने का अवसर मिला तो आपने उसे रसातल में पहुंचा दिया. कीमतें बढ़ाते गए और सांत्वना  देते रहे कि यह देश की भलाई के लिए है. लोगों को भूखे मार कर देश का कौन सा भला करना चाहते हैं आप? कीमत बढ़ाने के एक-दो रोज पहले कहते हैं कि कुछ कड़े फैसले लेने होंगे. यह भी कहते हैं कि आप कुछ कर नहीं सकते सबकुछ बाजार तय करता है. फिर हुजूर आप बाज़ार के स्पोक्समेन क्यों बन जाते हैं और जब आपका इन्द्रासन हिलने लगता है तो बाज़ार वाले आपकी बात मान कर थोड़ी कीमत घटा कैसे देते हैं? किसे बेवकूफ बना रहे हैं आप? मेरी नाराजगी का कारण हालांकि यह भी नहीं है. इसलिए कि आप ऐसे लोगों की कठपुतली बन गए हैं जिन्हें इस देश के लोगों से कुछ लेना-देना ही नहीं है. जिनका एकमात्र मकसद देश को लूटकर विदेश में धन जमा करना भर है. दुःख इस बात का है इतने बड़े विद्वान होने के बाद भी आपके अंदर रत्ती भर भी आत्मसम्मान नहीं है. आपके सामने आप ही के लोग एक गधे को आपकी कुर्सी पर बिठाने की मांग करते हैं और आप मौनी बाबा बने रहते हैं. डूब मरिये चुल्लू भर पानी में. अब जनता ने आपको और आपको रिमोट से नचाने वालों को कुर्सी सौंपने की गलती कर बैठी है तो गलती की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी. आपलोग भी जबतक कुर्सी है अपने जलवे जितना दिखा सकते हैं दिखा ही लीजिये क्योंकि आप काफी कड़े फैसले ले चुके अब जनता आपके संबंध में कुछ कड़े फैसले लेने के लिए उचित समय का इंतज़ार कर रही है. फिर आपमें से कुछ सड़क पर नज़र आयेंगे और कुछ रातों-रात फरार होकर  अपने विदेशी खातों से लूट का धन निकालते हुए.ताकि जीवन को नए सिरे से शुरू किया जा सके.
फिलहाल इतना ही ईश्वर आपको सुबुद्धि दे और आत्मसम्मान की भावना प्रदान करे. आप मौन मोहन से वाचाल मोहन बनें.
इसी प्रार्थना के साथ.......

-----देवेंद्र गौतम



शनिवार, 2 जून 2012

खून-खराबे के एक नए दौर की आशंका



संदर्भ बरमेश्वर मुखिया हत्याकांड 

 बरमेश्वर मुखिया की हत्या के बाद उनके समर्थकों ने आरा समेत बिहार के विभिन्न इलाकों में जो उत्पात मचाया वह महज़ अपने नेता की हत्या के विरुद्ध उपजा आक्रोश भर नहीं था बल्कि उस जातीय उन्माद के जहर की अभिव्यक्ति थी जिसे मुखिया जी ने 90  के दशक के दौरान भरा था. उनका उद्देश्य सिर्फ शक्ति प्रदर्शन और प्रशासन को उसकी बेचारगी का अहसास कराना भर था. सरकार चाहे जिसकी रही हो इस सेना के हिमायती उसके अंदर मौजूद रहे हैं. नक्सल विरोध के नाम पर इसे सत्ता का सहयोग परोक्ष रूप से मिलता रहा है. यही कारण है कि इस घटना के विरुद्ध कानून-व्यवस्था को धत्ता बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी. साथ ही अन्य जातियों खासतौर पर दलितों और पिछड़ों को यह सन्देश दिया गया कि मुखिया जी की हत्या से वे कमजोर नहीं पड़े हैं उनके तेवर बरक़रार हैं. फासीवादी ताकतों का प्रदर्शन इसी तरह का होता है. यह राजनीति की ठाकरे शैली है. महाराष्ट्र में शिव सैनिकों के सामने सरकारी तंत्र इसी तरह लाचार दिखता है.
इस हत्याकांड में कई सवाल अनुत्तरित हैं. सूचनाओं के मुताबिक मुखिया जी पूजा-पाठ कर सुबह छः-सात बजे घर से निकला करते थे. हत्या के दिन वे चार बजे क्यों निकले और हत्यारों को इस बात की भनक कैसे मिली कि वे चार बजे सुबह टहलने के लिए निकलेंगे? यह जानकारी तो उनके बहुत करीबी लोगों को ही हो सकती है.
दूसरी बात यह कि मुखिया समर्थकों की सरकारी नुमाइंदों के प्रति नाराजगी और धक्का-मुक्की का कारण तो समझ में आता है लेकिन अपनी ही विरादरी के दो विधायकों के साथ दुर्व्यवहार क्यों किया. वे आपराधिक पृष्ठभूमि के जरूर थे लेकिन रणवीर सेना के करीबी लोगों में गिने जाते थे. अगर उन्हें उनपर हत्या की साजिश में शामिल होने का संदेह था तो आमजन और सार्वजानिक संपत्ति पर गुस्सा उतारने का क्या कारण था. निश्चित रूप से रणवीर सेना में दरार पड़ चुकी है और इसके दो घड़ों के बीच कार्यपद्धति को लेकर अंतर्विरोध था जो मुखिया जी के जेल से निकलने के बाद वर्चस्व की लड़ाई में परिणत हो गया. एक घड़ा उस रास्ते पर चलना चाहता है जिसपर मुखिया जी चलते रहे हैं और दूसरा घड़ा वह जो उस रास्ते पर चलना चाहता है जिसपर मुखिया जी के जेल जाने और नक्सलियों के साथ संघर्ष में ठहराव के बाद वह चलता रहा है. मुखिया जी की हत्या इन दो धाराओं के बीच टकराव का ही परिणाम प्रतीत होती है. संभव है आने वाले समय में इस टकराव के कारण भोजपुर की धरती पर खून-खराबे का एक नया दौर शुरू हो जाये.

----देवेंद्र गौतम

(बरमेश्वर मुखिया के सम्बन्ध में और जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंक क्लिक करें)


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शुक्रवार, 1 जून 2012

अप्रत्याशित नहीं है रणवीर सेना के संस्थापक की हत्या

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भोजपुर जिला मुख्यालय आरा में तडके सुबह रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद पूरे बिहार में तनाव की स्थिति बनी हुई है. हांलाकि नक्सली संगठनों और निजी सेनाओं के बीच कई दशकों के खूनी संघर्ष और जनसंहारों की फेहरिश्त की जानकारी रखने वालों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. उन्हें जमानत पर रिहा कराये जाने के साथ ही  उनकी हत्या की आशंका व्यक्त की जाने लगी थी. वास्तविकता यह है कि समय के अंतराल में रणवीर सेना का स्वरूप, उसकी प्राथमिकतायें पूरी तरह बदल चुकी हैं और अब मुखिया जी इसके लिए अप्रासंगिक हो चुके थे. उनके व्यक्तिगत समर्थकों की जरूर एक बड़ी संख्या है लेकिन संगठन को अब उनकी जरूरत नहीं रह गयी थी. 
अब रणवीर सेना और नक्सली संगठनों की लड़ाई में ठहराव सा आ गया है. नरसंहारों का सिलसिला थम सा गया है. ऐसे संकेत मिले हैं कि रणवीर सेना अपने आर्थिक स्रोतों की रक्षा और हथियारबंद लड़ाकों की उपयोगिता को बरकरार रखने के लिए हिन्दू आतंकवादी संगठन में परिणत हो चुकी है. यह बदलाव मुखिया जी के जेल में बंद होने के बाद का है. सेना का नेतृत्व करोड़ों की उगाही के जायज-नाजायज स्रोतों को किसी कीमत पर हाथ से नहीं निकलने दे सकता था. अब इस बात की आशंका थी कि मुखिया जी कहीं उसमें हिस्सा न मांग बैठें. संगठन के वर्तमान कार्यक्रमों में हस्तक्षेप न करें. 80 के करीब पहुंच चुके मुखिया जी सेना के अंदर और बाहर कई लोगों की आंख की किरकिरी बने हुए थे. हत्या की सीबीआई जांच की मांग हो रही है. जांच के बाद संभव है कि उनकी हत्या के रहस्यों का खुलासा हो जाये.  

----देवेंद्र गौतम  

बुधवार, 30 मई 2012

झारखंड जन संस्कृति मंच का सृजनोत्सव

रांची के पटेल भवन में 26 से 28 मई 2012 तक आयोजित  झारखंड जन संस्कृति मंच के तीसरे राज्य सम्मलेन में सामूहिकता की भावना पर पूंजी, बाज़ार और सरकार के हमले को चिंता का मुख्य विषय माना गया. साथ ही जन संघर्षों को केंद्रित कर संस्कृतिकर्म को नई ऊंचाइयों तक ले जाने के संकल्प सहित छः सूत्री प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किये गए. इस तीन दिवसीय कार्यक्रम को राष्ट्रीय सृजनोत्सव का नाम दिया गया. कार्यक्रम स्थल को डा रामदयाल मुंडा सभागार तथा मंच को गुरुशरण सिंह मंच का नाम दिया गया. इस तरह यह आयोजन आदिवासी और जनसंस्कृति के नायकों के नाम समर्पित रहा. इसमें झारखंड के विभिन्न जिलों के अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश,छत्तीसगढ़. पश्चिम बंगाल, दिल्ली आदि कई राज्यों के प्रतिनिधियों और सांस्कृतिक टीमों ने शिरकत की. 
26 मई को उद्घाटन सत्र से लेकर कार्यक्रम के समापन की बेला तक मौजूदा समय में पूंजीवाद के हथकंडों और उनके कारण मनुष्यता पर मंडराते खतरे को चिन्हित कर उसके विरुद्ध सांस्कृतिक प्रतिरोध की जरूरत पर चर्चा की गयी. इस बात  पर गंभीर चिंता व्यक्त की गयी कि प्रकृति के साथ साहचर्य और सामूहिकता की आदिवासी संस्कृति को उजाड़ने की कोशिशें हो रही हैं, उन्हें लूट और दमन का शिकार बनाया जा रहा है. उदघाटन सत्र के दौरान हिंदी के प्रख्यात आलोचक एवं जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. मैनेजर पाण्डेय ने ग्रीन हंट को ट्रायबल हंट करार दिया. उनके अनुसार सृजन अथवा निर्माण का काम मजदूर, किसान, आदिवासी, दलित यानी साधारण लोग करते हैं जबकि विनाश का काम बड़े लोग करते हैं. मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र जल, जंगल, ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट की ओर केंद्रित है. प्रकृतिपुत्र आदिवासी इसका तीव्र प्रतिरोध करते हैं इसलिए उन्हें उजाड़ने का अभियान चलाया जा रहा है.इसके खिलाफ संस्कृतिकर्मियों को आगे आना होगा. लेकिन संस्कृतिकर्म के समक्ष भी गंभीर चुनौतियां हैं. पूँजी की शक्तियां तरह-तरह के प्रलोभन का जाल बिछाकर संस्कृतिकर्म को अपने शिकंजे में लेने का प्रयास कर रही हैं. जाल में नहीं फंसने पर हत्या तक कर दी  है. हाल के वर्षों में कई साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी शहीद हो गए. समकालीन जनमत के संपादक रामजी राय ने पेट के बल पर मनुष्यता को झुकाने और व्यक्तित्व के व्यवसायीकरण की सरकारी साजिशों के खिलाफ जोरदार सांस्कृतिक प्रतिरोध का संकल्प लेने का आह्वान किया. साहित्यकार रविभूषण ने कहा कि जन जीवित रहेगा तो जन विरोधी ताकतें ज्यादा देर तक टिकी नहीं रह सकेंगी. डा. बीपी  केसरी ने ऐसी सांस्कृतिक टीमों की जरूरत पर बल दिया जो जनता के बीच जायें उसके सुख-दुःख में शामिल हों. उनके संघर्ष को अभिव्यक्ति दें. पंकज मित्र, कथाकार रणेंद्र, जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रवि भूषण, बिहार जसम के सचिव संतोष झा, जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने भी इन्हीं बिंदुओं को अपनी चिंता का विषय बनाया.
सम्मलेन के दूसरे दिन आज का समय और संगठित संस्कृतिकर्म की चुनौतियां तथा देशज साहित्य में प्रतिरोध के स्वर विषय पर परिचर्चाओं का आयोजन किया गया. इसमें डा. मैनेजर पाण्डेय ने सामूहिकता में सृजन की क्षमता को विकसित करने की शक्ति होने की बात कही और देश-समाज के दुःख को व्यक्तिगत दुःख से बड़ा बताया. कथाकार रणेंद्र ने कहा कि पूँजी के बढ़ते प्रभाव ने संस्कृतिकर्म के सभी रूपों को विलोपित करने का अभियान चला रखा है. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पूंजीवाद के दलाल की भूमिका में आ चूका है. आज का रावण दशानन नहीं सहस्त्रानन है. सेमिनार को  डा रविभूषण, रामजी राय, छत्तीसगढ़ जसम के जेबी नायक, शम्भू बादल, जनवादी लेखक संघ के जे खान, पश्चिम बंगाल के अमित दास, इप्टा के उमेश नजीर, इलाहाबाद जसम के केके पाण्डेय सहित अन्य लोगों ने संबोधित किया. संचालन भोजपुरी और हिंदी के साहित्यकार बलभद्र ने किया. विषय प्रवेश जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कराया. अध्यक्षता डा. बीपी केसरी ने की. देशज साहित्य में प्रतिरोध के स्वर विषय पर रणेंद्र, कालेश्वर, शिशिर तुद्दु  , बलभद्र, गिरिधारी लाल  गंझू, लालदीप गोप, सरिका मुंडा, ज्योति लकड़ा आदि ने संबोधित किया. 
                तीसरा दिन सांगठनिक सवालों और भावी योजनाओं को केंद्रीत था. जसम के प्रदेश सचिव अनिल अंशुमन ने  मौखिक रूप से सांगठनिक रिपोर्ट पेश की. कुल छः प्रस्ताव पारित किये गए जिसमें मुख्य रूप से नगड़ी, बडकागांव, पतरातु आदि जगहों पर कार्पोरेट कंपनियों के विरुद्ध चल रहे जन संघर्षों को केंद्रीत कर गीत, नाटक आदि तैयार करना, बच्चों के सवालों को लेकर कार्यक्रम तैयार करना, मानव तस्करी, प्रदूषण के विरुद्ध संघर्ष, मातृभाषा   में पढ़ाई को मुद्दा बनाकर आंदोलन करना तथा 9 जून को उलगुलान एवं 30  जून को हुल दिवस पर कार्यक्रम आयोजित करना शामिल था. प्रतिनिधि सत्र के संचालन के लिए तीन सदसीय अध्यक्ष मंडली बनायीं गयी जिसमें बलभद्र, जावेद इस्लाम और गौतम सिंह मुंडा शामिल हुए. इस अवसर पर लोकयुद्ध के संपादक बृज बिहारी पाण्डेय ने कहा कि संगठित संस्कृतिकर्म की लम्बी परंपरा का निर्वहन वामपंथी संगठन ही कर सके हैं. दक्षिणपंथी इसे आकर नहीं दे सके हैं. सृजन जन प्रतिरोध से उत्पन्न होता है. अब जन प्रतिरोध दावानल का रूप लेनेवाला है. शासक वर्ग विस्मृति की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहता है लेकिन हमें अपना अतीत याद रखना है. हर अत्याचार को याद रखना है. सुधीर सुमन ने लोक और जन संस्कृति के बीच गहरा संबंध बनाने की सलाह दी. डा. रोज केरकेट्टा ने कहा कि बाज़ार ने मनुष्य को भी वस्तु बना दिया है. मनुष्यता की रक्षा चुनौती बन चुकी है. डेविड रामराज, जेपी नायर ने छत्तीसगढ़ और झारखंड की जन समस्याओं, संघर्ष और संस्कृति को काफी मिलता जुलता बताते हुए सहयोग बढ़ने की अपील की. सानिका मुंडा, शक्ति पासवान, सोनी तिरिया, जन्मेजय तिवारी, अंजुमन हासदा, सरोजनी विष्ट, ज्योति लकड़ा, वीरेंद्र यादव, लालजी गोप ने भी अपनी बातें रखीं. बलभद्र ने अध्यक्ष मंडली की और से संबोधित करते हुए लगातार रचना गोष्ठियों के आयोजन की जरूरत पर बल दिया. साथ ही संस्कृतिकर्मियों की पारिवारिक जिम्मेवारियों और समस्याओं पर भी ध्यान देने का सुझाव दिया. अगले तीन वर्षों के लिए झारखंड जसम की नै कार्यकारिणी और राज्य परिषद् का गठन किया गया. डा. बीपी केसरी पुनः अध्यक्ष और अनिल अंशुमन सचिव बनाये गए. बलभद्र और जावेद इस्लाम उपाध्यक्ष, जेवियर कुजूर, सह सचिव सह प्रवक्ता और गौतम मुंडा सह सचिव बनाये गए. इसके अलावा १३ कार्यकारिणी सदस्य और 40  सदस्यीय  राज्य परिषद् का गठन किया गया.इस सृजनोत्सव का संस्कृतिकर्म पर कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा यह आनेवाला समय बताएगा लेकिन सांस्कृतिक माहौल में यह आयोजन एक ऊर्जा का संचार अवश्य कर गया.    

-----देवेंद्र गौतम 

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

मैंने नेत्रदान किया है..और आपने ?



कई साल पहले की बात है ...शायद बी. एस सी. कर रही थी ..मेरी आँखों में कुछ परेशानी हुई तो डोक्टर के पास गयी..वहां नेत्रदान का पोस्टर लगा देखा... पहली बार इससे  परिचित हुई...उत्सुकता हुई तो पूछा, पर पूरी व सही जानकारी नहीं मिल पाई ....डॉक्टर ने बताया कि अभी हमारे शहर में ये सहूलियत उपलब्ध नहीं, पटना से संपर्क करना होगा ...फिर मै अपने कार्यों में व्यस्त होती गयी...सिविल सर्विसेस की तैयारी में लग गयी. हालाँकि इंटरव्यू  तक पहुँचने के बाद भी  अंतिम चयन नहीं हुआ ..पर इसमें कई साल निकल गए, कुछ सोचने की फुर्सत नहीं मिली...उसी दौरान एक बार टीवी पर ऐश्वर्या राय को नेत्रदान के विज्ञापन में देखा था....मुझे अजीब लगा कोई कैसे अपनी आंखे दे सकता है ?  आंखे न हो तो ये खूबसूरत दुनिया दिखेगी कैसे?  फिर सोचा जो नेत्रदान करते है वो निहायत ही भावुक किस्म के बेवकूफ होते होंगे.... कुछ साल इसी उधेड़-बुन में निकल गए...फिर एक आलेख पढ़ा और नेत्रदान का वास्तविक मतलब समझ में आया...' नेत्रदान' का मतलब ये है कि आप अपनी मृत्यु के पश्चात् 'नेत्रों ' के दान के लिए संकल्पित है...वैसे भी इस पूरे शरीर का मतलब जिन्दा रहने तक ही तो है....मृत्यु के बाद शरीर से कैसा प्रेम? मृत शरीर मानवता के काम आ जाये तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है, है न?. 


सोचिये, जिनके नेत्र नहीं, दैनिक जीवन  उनके लिए कितना दुष्कर है ... छोटे-छोटे कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भरता ..अपने स्नेहिल संबंधों को भी न देख पाने का दुःख ...कितनी  बड़ी त्रासदी है...यह कितना कचोटता होगा, है न! ....नेत्रहीन व्यक्ति के लिए ये खूबसूरत, प्रकाशमय दुनिया अँधेरी होती है (यहाँ बाते सिर्फ शारीरिक अपंगता की है,  कई ऐसे लोग है जो नेत्रों के नहीं होने पर भी  दुनिया को राह दिखने में सक्षम  हुए, जबकि कई नेत्रों के होते हुए भी अंधे है) .

बहरहाल, अभी कुछ महीने पहले फेसबुक पर ऐसे एक विज्ञापन को देखा.एक बार फिर 'नेत्रदान' की बाते जेहन में घूमने  लगी ..उस तस्वीर को मैंने अपने वाल पर भी लगाया...उसी एक क्षण में मैंने संकल्प लिया कि मुझे नेत्रदान करना है ..पता करने पर मालूम चला कि इसके लिए सरकारी अस्पताल में फॉर्म भरना होता है...हमारे छोटे से शहर में सदर अस्पताल है... वहां  जाकर फॉर्म माँगा तो कर्मचारी चौंक गया ..उसने ऊपर से नीचे तक घूरकर देखा, जैसे की  मै चिड़ियाघर से  भागा हुआ जानवर हूँ ..फिर शुरू हुई फॉर्म खोजने की कवायद ...कोना-कोना छान मारा गया पर फॉर्म नहीं मिला ( सोचिये, इतने हो-हल्ला  के बावजूद इस अभियान का क्या हाल है) ...कहा गया कि एक सप्ताह बाद आये ...गनीमत है एक सप्ताह बाद एक पुराना फॉर्म मिल गया ...हालाँकि उस फॉर्म की शक्ल ऐसी थी एक बार मोड़ दे तो फट जाये...
अब सुने आगे की दिलचस्प कहानी..मेरा भाई अनूप फॉर्म ले कर आया ..तब मै और मेरे अन्य भाई-बहन  मम्मी  के पास बैठे थे...हंसी-मजाक का दौर चल रहा था...अनूप आया उसने मुझे देने के बजाये मम्मी को फॉर्म दे दिया..मम्मी ने अभी पढना ही शुरू किया था कि मेरे शेष भाईयों ने भयानक अंदाज़ में (हालाँकि सब हंसने के मूड में ही थे ) मम्मी को बताना शुरू किया की वो किस चीज़ का फॉर्म है...मम्मी रोने लगी और फॉर्म के टुकड़े-टुकड़े कर दी ...बोलने लगी.. तुमको कौन सा दुःख है जो ऐसा चाह रही हो..लाख समझाने पर भी नहीं समझ पाई की नेत्रदान असल में क्या है ..उलटे मुझे खूब डांट पिलाईं कि ऐसा करना महापाप है...मतलब यह कि उन्हें भी वही गलतफहमियां है जो आमतौर पर लोगों को है...ये बात बताने का मकसद भी यही है  कि  नेत्रदान संबधित भ्रांतियों को समझा जाये...हालाँकि मैंने बाद में फिर फॉर्म लिया और उसे भर दिया....

अब थोड़ी जानकारी...आँखों का गोल काला हिस्सा 'कोर्निया' कहलाता है.. यह बाहरी वस्तुओं का बिम्ब  बनाकर हमें दिखाता  है.. कोर्निया पर चोट लग जाये, इस पर झिल्ली पड़ जाये या धब्बे हो जायें तो दिखाई देना बन्द हो जाता है..हमारे देश में करीब ढ़ाई लाख लोग कोर्निया  की समस्यायों से ग्रस्त  हैं..जबकि करीब 1करोड़ 25 लाख लोग दोनों आंखों से और करीब 80 लाख एक आंख से देखने में अक्षम हैं. यह संख्या पूरे विश्व के नेत्रहीनों की एक चौथाई है. किसी मृत व्यक्ति का कोर्निया मिल जाने से ये परेशानी दूर हो सकती है ...डाक्टर किसी मृत व्यक्ति का कोर्निया तब तक नहीं निकाल सकते जब तक कि उसने अपने जीवित होते हुए ही नेत्रदान की घोषणा लिखित रूप में ना की हो..ऐसा होने पर मरणोपरांत नेत्रबैंक लिखित सूचना देने पर मृत्यु के 6 घटे के अन्दर कोर्निया  निकाल ले जाते हैं..किंतु जागरूकता के अभाव में यहाँ  नेत्रदान करने वालों की संख्या बहुत कम है. औसतन 26 हजार ही दान में मिल  पाते हैं... दान में मिली तीस प्रतिशत आंखों का ही इस्तेमाल हो पाता है क्यूंकि ब्लड- कैंसर, एड्स जैसी गंभीर  बीमारियों वाले लोगों की आंखें नहीं लगाई जाती ...  धार्मिक अंधविश्वास के चलते भी ज्यादातर मामलों में लिखित स्वीकृति के बावजूद अंगदान नहीं हो पाता....दूसरी तरफ मृतक के परिजन शव विच्छेदन के लिए तैयार नहीं होते.... अंगदान-केंद्रों को जानकारी ही नहीं देते  ..हमारे देश के कानून में मृतक की आंखें दान करने के लिए पारिवारिक सहमति जरूरी है, यह एक बड़ी बाधा है...जबकि चोरी-छिपे, खरीद-फरोख्त कर अंग प्रत्यारोपण का व्यापार मजबूत होता जा रहा है...

----स्वयम्बरा  
http://swayambara.blogspot.in/

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

fact n figure: निर्मल बाबा के विरोध का सच

निर्मल बाबा की पृष्ठभूमि खंगाली जा रही है. प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रोनिक मीडिया और इन्टरनेट मीडिया तक ने उनके विरुद्ध हल्ला बोल दिया है. हालांकि लखनऊ के दो बच्चों को छोड़ दें तो अभी तक किसी आम नागरिक ने उनके विरुद्ध कहीं कोई शिकायत दर्ज करने का प्रयास नहीं किया है. फिर भी मीडिया के लोगों ने आम लोगों की आंखें खोलने के अपने कर्तव्य का पालन किया है. मीडिया के लोग आम तौर पर विज्ञापनदाताओं की जायज़-नाजायज़ सभी हरकतों को संरक्षण दिया करते हैं. कितने ही काले कारनामों पर उन्होंने सफलतापूर्वक पर्दा  डाल रखा है.

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

JOURNALISTERA The People's E-Paper

डीवीसी में महाघोटाले का सच।
पुष्पराज
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स्वतंत्र पत्रकार 
घोटालों और घोटाले तो भारत में आम है कि एक और घोटाले का खुलासा करने के लिए कोई फर्क नहीं जा रहा है. फिर भी, वे प्रकाश में लाया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह के घोटालों भोला झटका और सीटी ब्लोअर कि सब खो नहीं है दिल दे. हम कई उदाहरण हैं जहां घोटालों से प्रचारित किया गया है लेकिन सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं लिया है.
मैं क्या "दामोदर घाटी निगम [डीवीसी] घोटाले" कहा जा सकता है के तथ्यों को सुना रहा हूँ. डीवीसी देश में सबसे बड़ी विद्युत उत्पादन केन्द्रों में से एक है. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे भारत के नए मंदिरों में से एक के रूप में स्वागत किया था. घोटाले 2006 में आकार ले लिया है, दिन पर भारत सरकार ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए (डीवीसी के साथ विद्युत क्रय करार) को दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के लिए 2010 में ५२०० मेगावाट बिजली की आपूर्ति. Mejia, दुर्गापुर, कोडरमा, रघुनाथपुर, चंद्रपुर और बोकारो थर्मल पावर स्टेशनों को छह स्थलों पर स्थित मांगी गई है. परियोजना की अनुमानित लागत 25,000 करोड़ रुपये था. ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन और डीवीसी इंजीनियरों से एकत्र तथ्य का पता चलता है कि करीब 5,000 करोड़ रुपए पहले ही बाजार में बेच देते किया गया है.
शिकायतों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए बनाया है और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) कोई लाभ नहीं थे. जब जद (यू) अध्यक्ष शरद यादव, भाकपा सदस्य Bhuneshwar मेहता और राजद सांसद आलोक मेहता ने प्रधानमंत्री को लिखा, सीवीसी जायजा लिया और विद्युत मंत्रालय को एक पत्र को संबोधित करने के लिए बाहर बात है कि रघुनाथपुर विद्युत परियोजना का अनुबंध दिया गया था 4,000 करोड़ रुपये, अन्य बोलीदाताओं की अनदेखी के लिए मुंबई की एक बिजलीघर है. फिर भी, डीवीसी मुंबई बिजलीघर 354.07 करोड़ रुपये का ब्याज मुक्त ऋण उन्नत. और भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक प्रबंधन पूछताछ की है क्योंकि यह पाया है कि जब ब्याज मुक्त ऋण को आगे बढ़ाने, अनुबंध की शर्तों को बदल दिया गया था.
एक परेशान कांग्रेस सांसद गुरुदास कामत, संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष, 3 अक्टूबर 2008 को प्रधानमंत्री को लिखा था, क्योंकि उन्होंने पाया कि सभी परियोजनाओं के लिए अनुबंध गलत तरीके से एक एकल निविदा के आधार पर सम्मानित किया गया, की अनदेखी की सीबीआई जांच की मांग सरकार के हित. कामत अश्विन कुमार बर्मन, डीवीसी अध्यक्ष, जो निविदाएं सम्मानित किया गया था के खिलाफ आरोप लगाए. इस बीच, मुंबई बिजलीघर एक महीने के विस्तार के लिए परियोजना है, कि अक्टूबर 2010, नवम्बर 2010 के बजाय है, को पूरा करने के लिए कहा. डीवीसी पर सहमत हुए. यह अजीब है. विस्तार मतलब नहीं है क्योंकि राष्ट्रमंडल खेलों के समय मुंबई बिजलीघर बिजली उपलब्ध बनाता होगा. डीवीसी इस मुंबई इकाई के मामले में क्यों एक अपवाद बनाने के लिए जब यह अन्य ठेकेदारों को भी एक दिन का एक विस्तार देने के लिए सहमत नहीं था?
मुंबई बिजलीघर अभी तक एक और रियायत जो केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए)आपत्ति उठाई है मिल गया है. पूर्व कोयले की गुणवत्ता को बदलने के लिए अनुमति दी गई है. बर्मन को लिखे एक पत्र में, सीईए मुख्य इंजीनियर शिकायत की है कि "कोयले की गुणवत्ता में परिवर्तन विद्युत उत्पादन के दौरान नियमित रूप से टूटने का कारण होगा. कोयले की गुणवत्ता समायोजन का मदद करता है यह मुंबई बिजलीघर बायलर के निर्माण में पैसे की एक बहुत कुछ बचा है, लेकिन है कि क्या इस तरह बॉयलर के लिए उत्पादन के लिए आवश्यक बिजली अभी तक निर्धारित किया है करने में सक्षम हो जाएगा.
पूरी परियोजना कई सवाल उठाया गया है कि भारत सरकार को जवाब देना होगा. समय पर केन्द्रीय विद्युत मंत्री, क्यों सुशील कुमार शिंदे स्थानों से बिजली 1,500 किमी दूर दिल्ली से तय हो? डीवीसी राष्ट्रमंडल खेलों के लिए नए विद्युत स्टेशनों का निर्माण जब झारखंड और पश्चिम बंगाल के गांवों के 70% अंधेरे में रहते हैं उत्सुक क्यों था? यह मुंबई बिजलीघर रियायतें साथ क्यों बौछार ब्याज मुक्त कर्ज से पूरा होने की तारीख से एक विस्तार के लिए? वहाँ यह करने के लिए अधिक से आँख मिलता .

परदाफाश क्यों ? किसलिए ? किसके लिए ?
घोटाला ! घोटाला ! घोटाला ! ...........
पुष्पराज
सवाल यह है कि ब्लॉगों की भीड़ में यह ‘परदाफाश’ क्यों ? हम परदा हटा रहे हैं, देखिए भीतर क्या है ? हम अपनी बात नहीं कह रहे हैं,यह अपने देश की बात है। दुनिया के विशाल लोकतांत्रिक राष्ट्र ‘ भारत महान ’ के भीतर जारी लूट के आखेट का कच्चा चिट्ठा नहीं ‘ पक्का चिट्ठा ’ है- ‘ परदाफाश ’। पक्का इसलिए कि बात पक चुकी है। दस्तावेज पक्के हैं।
देश इसी तरह चलता है,कोई बिजली से अँधेरा दूर करने का आश्वासन बाँटता है,कोई बिजली बनाता है और कोई है, जो अँधेरा कायम कर सब कुछ बीच में ही घोंट खाता है। घोटाला होता रहा,कोई घोटाले के विरुद्ध असहाय चीखता रहा। जो भ्रष्टाचार का विरोध करेगा,उसे मार दिया जाएगा। भारतीय लोकतंत्र यूरोपियन देशो की नकल का अभ्यस्त है, तो घोटाले घोंटने वाले का गला दबाने वाले हमारे देश में भी ‘ व्हिसिल ब्लोअर ‘ कहलाते हैं। घोटालेबाजों की नींद हराम करने वाले डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सह डिप्टी चीफ इंजीनियर ए के जैन का अपराध क्या है ? क्या राष्ट्रहित में करोड़ों-करोड़ की बचत कराने वाले एक सरकारी सेवक को वफादारी के आरोप में मुअत्तल कर दिया जाए ? क्या इस भ्रष्टाचार विरोधी इंजीनियर की हत्या कर दी जाय ? कोई धमकी दे रहा है ? कौन धमकी देने वालों की हिफाजत कर रहा है ? कौन धमकी को अंजाम देने की कोशिश कर सकता है ? प्रेमचंद के हल्कू से सबक सीखने वाले हमारे ‘ व्हिसिल ब्लोअर ’ न ही व्हिसिल बजा रहे हैं,ना ही बंदूक लेकर आतंकियों को खदेड़ रहे हैं। ‘ परदाफाश ’ में दर्ज घोटाला-डायरी को ठीक से पढ़िए और हमें बताइए क्या आप इस देश में किसी ऐसे दूसरे सरकारी सेवक को जानते हैं,जिसने एक मुट्ठी ईमान की ताकत पर देश के किसी बड़े घोटाले के विरुद्ध युद्ध रचा हो ?
‘परदाफाश’ स्वाभाविक प्रक्रिया की सहज परिणति है। मुख्यधारा की पत्रकारिता में इस मुद्दे को जगह नहीं दी गई तो हमारे पास विकल्प ही क्या है? भारतीय पत्रकारिता ने बड़े-बड़े घोटालों का परदाफाश किया है और कितनों को कितनी बार बेनकाव किया गया है। सबसे कमजोर के हक में लिखने या सबसे बलजोर की हिफाजत में लिखने की चेतना भी इसी पत्रकारिता के गर्भ में पलते हैं। हर हाल में सच लिखने के हठयोग में इंदिरा सरकार से लड़ने-भिड़ने वाले पत्रकार कुलदीप नैयर,प्रभाष जाशी और अजीत भट्टाचार्जी की रीढ़ अब तक तनी हुई है। कुलदीप नैयर आपातकाल में जेल क्यों गए ? प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को ही विकल्प क्यों मान लिया ? हमें अपने प्रतीक प्रतिमान चुनने की पूरी आजादी है। मुख्यधारा की मीडिया से हमारी अपेक्षा है कि इस मुद्दे को आप अपना मुद्दा बनायें। आपकी रुचि है तो हमारी स्वीकृति के बाद ‘घोटाला डायरी’ को यथावत प्रकाशित कर सकते हैं। आप प्रकाशन के साथ हमें लेखकीय पारिश्रमिक अवश्य भुगतान करें।
‘ परदाफाश ’ के साथ देश के हर भाषा के वैसे पत्रकार खुद को जोड़ सकते हैं,जो हर हाल में जनहित पत्रकारिता की जिद रखते हैं। यह ब्लॉग कभी आत्मप्रवंचना में विद्वेष की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होगा।आप सब भी इस कड़ी में सहयोगी हो सकते हैं, जिनके पड़ोस में भूख से हुई मौत को राशन हड़पने वाले ने सर्प दंश से मृत्यु साबित कर दिया। देश के भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और शासन तंत्र की गोपनग्रंथि को पकड़ने-मचोड़ने की हर कोशिश ‘ परदाफाश ’ का अगला चरण होगा।
मनमोहन सरकार के पाग पर घोटाले की दाग ?
दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) में 5 हजार करोड़ का विद्युत घोटाला ?
देश के भीतर जनांदोलन और खेतिहर भारत के हाहाकार को लिखने वाली कलम से हम पहली बार अपने देश के भीतर एक बड़े घोटाले के विरुद्ध भ्रष्टाचार की डायरी लिख रहे हैं। मुख्यधारा की पत्रकारिता के कई राय बहादुरों के पास इस घोटाले के सारे साक्ष्य मौजूद हैं फिर भी हमारी प्रिय मीडिया के लिए यह घोटाला खबर नहीं है। विकासशील भारत में आर्थिक नव-उदारवाद और हर हाल में विकसित भारत की कल्पना करने वाले अभिजन उदित भारत की कोख में पलते भ्रष्टाचार को राष्ट्रवाद की तरह भी पेश कर सकते हैं। भ्रष्टाचार गरीबद्रोही, राष्ट्रद्रोही और विकासद्रोही होता है, यह पुरानी मान्यता है। पर यह भ्रष्टाचार हमारे लोकतंत्र के लिए कैंसर से ज्यादा खतरनाक है जिसका लहू इस समय हमारी मीडिया घराने से लेकर संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन सरकार के बाहर-भीतर एक तरह से बह रहा है।
देश की राजधानी दिल्ली में 2010 में आयोजित कॉमनवेल्थ खेलों के लिए जो बिजली चाहिए,उस बिजली के उत्पादन के लिए प्रस्तावित बिजलीघरों के निर्माण में विगत वर्षों से जारी भारी अनियमितता के साथ योजना राशि का बड़ा हिस्सा घोटाले में चला गया है। लोकतंत्र में गूड-गवर्नेंश के लिए देश की सबसे प्रतिष्ठित गार्जियन संस्था केन्द्रीय सतर्कता आयोग( सेंट्रल विजिलेंस कमिशन) ने डीवीसी(दामोदर घाटी निगम) के इस लूट-खेल के विरुद्ध सीबीआई जांच को हर हाल में जरुरी बताया है,पर भारत सरकार के विद्युत मंत्रालय ने इस लूट की जांच का आदेश अब तक नहीं दिया है।भारत सरकार के विद्युत मंत्रालय और डीवीसी के साथ कॉमनवेल्त खेल के लिए 5200 मेगावाट विद्युत आपूर्ति का वर्ष 2006 में पी पी ए (पावर परचेज एग्रीमेंट) हुआ। इस अनुबंध को कार्यरुप देने के लिए विद्युत मंत्रालय ने डीवीसी को 6 विद्युत परियोजनाओं के निर्माण की स्वीकृति दी। मेजिया,दुर्गापुर,कोडरमा,रघुनाथपुर, चन्द्रपुरा और बोकारो में प्रस्तावित ताप विद्युत केन्द्रों के निर्माण की परियोजना को पूरा करने के लिए कुल 25हजार करोड़ की लागत आएगी। डीवीसी इंजीनियर्स एसोसिएशन और ऑल इंडिया पावर इंजीनिय्रर्स फेडरेशन से जुटाए तथ्यों की पड़ताल का निष्कर्ष है कि इन प्रस्तावित परियोजनाओं में अब तक 5हजार करोड़ से ज्यादा का घोटला हो चुका है।
इस घोटाले के बारे में प्राप्त साक्ष्य बताते हैं कि इन परियोजनाओं की निविदा बांटने वाले डीवीसी के तत्कालीन चेयरमैन असीम कुमार बर्मन, आई ए एस, इस घोटाले के मुख्य हिस्सेदार हैं। बिजलीघरों के निर्माण से लेकर डीवीसी की तमाम दूसरी योजनाओं में जारी अनियमितताओं की जानकारी जब बार-बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर केन्द्रीय सतर्कता आय़ोग की दी गयी थी फिर भी करोड़ों की सरकारी लूट पर अब तक न ही पाबंदी लगायी गयी ना ही भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध किसी तरह की कारवाई की गयी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद भुवनेश्वर मेहता, जद(यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव, राजद सांसद आलोक मेहता सहित कई सांसदों ने भी डीवीसी इंजीनियर्स एसोसिएशन की पहल पर पत्र लिखकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस घोटाले की सूचना दी थी।
भारत सरकार के केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने 21 नवंबर 2008 को विद्युत मंत्रालय को पत्र लिखकर बताया है कि रघुनाथपुर ताप विद्युत केन्द्र के निर्माण के लिए रिलायंस इनर्जी लिमिटेड को जहाँ दूसरे निविदाकर्ताओं की अनदेखी कर अवैध तरीके से 4 हजार करोड़ का ठेका दिया गया,वहीं रिलायंस को डीवीसी ने नियम कानून को ताक पर रख कर सूद रहित 354.07 करोड़ रुपये का अग्रिम भुगतान कर दिया है। भारत सरकार का विधान और केन्द्रीय सतर्कता आयोग की हिदायत है कि आप किसी प्रस्तावित परियोजना का अग्रिम भुगतान 10 फीसदी सूद सहित ही कर सकते हैं। भारत सरकार के महालेखाकार ने रिलायंस को सूद रहित अग्रिम भुगतान पर डीवीसी से जवाब-तलब किया है। रिलायंस इनर्जी के स्वामी अनिल अंबानी देश के सम्मानित उद्योगपति हैं। क्या देश के एक बड़े उद्योगपति के हित में पहले कानून-कायदे की शर्तों को लांघकर ठेका देने और फिर सूद रहित अग्रिम भुगतान के विरुद्ध सीबीआई जांच एक साल तक रोककर रखने वाले भारत सरकार के विद्युत मंत्री सुशील कुमार शिंदे का दामन अब भी पाक-साफ बच गया है ?
क्या प्रधानमंत्री कार्यालय इस घोटाले से नावाकिफ है ? कांग्रेस के सांसद और विद्युत मंत्रालय में स्टैडिंग कमिटि के चेयरमैन गुरुदास कामत ने 3 अक्टूबर 2008 को प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा कि “डीवीसी के चेयरमैन ए के बर्मन ने डीवीसी के हितों की अनदेखी करते हुए सभी प्रस्तावित परियोजनाओं के ठेके एकल निविदा के आधार( सिंगल टेंडर बेसिस) पर गलत तरीके से बांट दिए हैं। गलत तरीके से ठेका बांटने में जारी अनियमितता और भ्रष्टाचार की सीबीआई जांच आवश्यक है।” सीबीआई जांच के प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री चुप क्यों बैठ गए ? भारत सरकार के विद्युत मंत्रालय की स्टैडिंग कमिटि ने डीवीसी इंजीनियर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष ए के जैन से प्राप्त शिकायतों और साक्ष्यों के आधार पर कमिटी की कई बैठकें की और प्रधानमंत्री को चेयरमैन असीम कुमार बर्मन के करतूतों की विस्तृत जानकारी दी थी। क्या प्रधानमंत्री जी ने इस विद्युत घोटाले की सीबीआई जांच का आदेश इसलिए नहीं दिया कि घोटाले के परदाफाश से प्रगतिशील गठबंधन सरकार का प्रगितशील चेहरा बेनकाब हो जाता,जिसे झेलने की हिम्मत कांग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के पास नहीं है ? अगर आप मानते हैं कि भ्रष्टाचार भारतीय लोकतंत्र के धौने पर कोढ़ का बजबजाता हुआ घाव ही है तो विचारिए, इस विद्युत घोटाले की पोल-खोल पत्रकारिता का पाप तो नहीं है ना ?
कायदे टूटते गए,घोटाले बढ़ते गए
अपनी प्रिय प्रगतिशील गठबंधन सरकार के सफेद पाग पर घोटाले की जो दाग हम आपको दिखा रहे हैं,क्या वोट देते हुए हमारे देश के एक-एक मतदाता इस विद्युत घोटाले के करंट का झटका महसूस करेंगे। हमसे कहा जाएगा, हम एक पवित्र-पावन सफेद मोहन सरकार के श्वेत-स्वर्ण चरित्र पर कीचड़ क्यों फेंक रहे हैं ? हम आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं कह रहे हैं। इस घोटाले के संदर्भ में 2 वर्षों से केन्द्रीय सतर्कता आयोग,विद्युत मंत्रालय और डीवीसी प्रबंधन के मध्य घूमते-विचरते पत्रों को राष्ट्र के सामने सार्वजनिक कर रहे हैं। जब डीवीसी प्रबंधन ने नियम-कानून और संविधान की शर्तों के विरुद्ध अनियमितताओं को ही अपनी कार्यशैली का हिस्सा बना लिया हो तो आप किस तरह कहेंगे कि यहाँ 5हजार करोड़ का घोटाला नहीं हुआ है ? हम कुछ भय खा रहे हैं तो थोड़ा कम कर जरुर आंक रहे हैं। सिर्फ हमारे पास उपलब्ध कागजातों की जांच की जाए तो आप मानेंगे कि कॉमनवेल्थ खेल को विद्युत आपूर्ति के लिए नहीं सिर्फ कुछ चहेते कंपनियों को ठेका दिलाने और राष्ट्र के धन को निजी हित में डकारने के लिए ही डीवीसी के मातहत 6 बिजलीघरों के निर्माण की स्वीकृति मंत्रालय ने दी।
भारत के संसद द्वारा पारित डीवीसी एक्ट 1948 के तहत डीवीसी की स्थापना बिहार(अविभाजित) और पं बंगाल को बिजली आपूर्ति के लिए की गयी थी। आखिर देश के सर्वोच्च सदन से पारित डीवीसी एक्ट की शर्तों को निषेध करते हुए केन्द्रीय विद्युत मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने दिल्ली से 1500 कि.मी.दूर पं बंगाल और झारखंड में स्थित डीवीसी से बिजली आपूर्ति का फैसला क्यों लिया ? सिर्फ इसलिए कि आप भारत सरकार के मातहत हैं तो आपको भारत सरकार के निर्देश से ऐसा करना होगा ? जब एनटीपीसी(नेशलन थर्मल पावर कारपोरेशन) भी कॉमनवेल्थ खेलों के लिए 1500 मेगावाट बिजली की आपूर्ति कर रही है तो फिर डीवीसी की बिजली दिल्ली को क्यों चाहिए ? जब झारखंड और पं बंगाल के 70 फीसदी गांवों में अब भी घूप्प अंधेरा छाया है तो डीवीसी ने अपने दायरे के अंधकारमय गांवों की बजाय दिल्ली के लिए बिजली आपूर्ति और बिजलीघर बनाने का फैसला क्यों लिया ? पावर मिनिस्टर ने बिजली आपूर्ति के लिए डीवीसी एक्ट की अनदेखी करते हुए किसी अतिरिक्त पावर का इस्तेमाल तो नहीं किया। सब कुछ सहज स्वाभाविक हुआ। 30मार्च,2006 को डीवीसी के चेयरमैन नियुक्त हुए असीम कुमार बर्मन देश के विद्युत मंत्री सुशील कुमार शिंदे से जितने घनिष्ठ होते गए,अनियमितता उतनी ही बढ़ती गयी और डीवीसी प्रबंधन का लूट ज्यादा संघनित होता गया।
सुशील कुमार शिंदे का वरदहस्त पाकर आई ए एस चेयरमैन ब्यूरोक्रेट की बजाय राजनीतिज्ञ की तरह काम करने लगे।14 दिसंबर 2007 को जब रिलायंस इनर्जी को रघुनाथपुर ताप विद्युत केन्द्र का कार्यादेश दिया गया,तब दूसरी 3 कंपनियों की उपस्थिति को क्यों नजरअंदाज कर दिया गया ? दूसरी कंपनियों की उपेक्षा कर जिस रिलायंस को एकल निविदा (सिंगल टेंडर बेसिस) दिया गया,उस रिलायंस ने अनुबंध की शर्तों के अनुसार कॉमनवेल्थ खेलों के लिए अक्टूबर 2010 की बजाय नवंबर 2010 तक विद्युत आपूर्ति का आग्रह डीवीसी प्रबंधन से किया,जिसे प्रबंधन ने बेहिचक स्वीकार कर लिया। भेल, मोनेट और डेक को तकनीकी स्पेशिफिकेशन के लिए एक दिन की भी मोहलत नहीं देने वाली डीवीसी ने अनुबंध के विरुद्ध एक माह विलंब से विद्युत आपूर्ति की छूट क्यों दी ? जब विद्युत मंत्रालय ने कॉमनवेल्थ 2010 के निमित्त विद्युत आपूर्ति के लिए ही डीवीसी को प्रस्तावित बिजलीघरों के निर्माण की स्वीकृति दी थी तो खेल खत्म होने के बाद नवंबर माह में कॉमनवेल्थ खेलों के उजड़े शामियाने में रघुनाथपुर(पं बंगाल) से विद्युत आपूर्ति की कोई दरकार नहीं होगी।
रिलायंस के हित में प्रस्तावित रघुनाथपुर ताप विद्युत केन्द्र का स्पेशिफिकेशन क्यों बदला गया ? परिवर्तित स्पेशिफिकेशन में रिलायंस के आर्थिक लाभ को ध्यान में रखकर कोयले की गुणवत्ता में फेरबदल कर दिया गया। स्पेशिफिकेशन के विरुद्ध केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण,भारत सरकार की चीफ इंजीनियर एस शेषाद्री ने 30 अक्टूबर 2007 को डीवीसी के चेयरमैन असीम कुमार बर्मन को पत्र लिखकर कोयले की गुणवत्ता में फेरबदल पर आपत्ति जताते हुए स्पष्ट लिखा था- “ कोल क्वालिटी में परिवर्तन से विद्युत उत्पादन के क्रम में बराबर ब्रेक डाउन की समस्या आएगी।” कोल क्वालिटी में फेरबदल से रिलायंस का बॉयलर (Boiler) सस्ते में तैयार हो जाएगा,पर लगातार ब्रेक डाउन होते-होते यह बॉयलर जल्दी ही ठप हो सकता है। बॉयलर किसी ताप विद्युत केन्द्र का हृदय होता है। इस तरह बॉयलर के प्रभावित होने से रिलायंस द्वारा निर्मित यह बिजली घर क्या 1200 मेगावाट बिद्युत आपूर्ति में सक्षम हो पाएगा ? तकनीकी विशेषज्ञ कहते हैं,शायद नहीं।जब मंत्रालय और डीवीसी ने रिलायंस के पवित्र हाथों से ही रघुनाथपुर में बिजलीघर बनाना तय कर लिया था तो सार्वजनिक रुप से निविदा आमंत्रित करने की रस्म अदायगी क्यों ?
डीवीसी के चेयरमैन वैधानिक रुप से समझौते के आधार पर (निगोशिएशन बेसिस) 2 करोड़ से ज्यादा का ठेका देने का अधिकार नहीं रखते हैं। लेकिन 2008 के जून में प्रस्तावित बोकारो ए ताप विद्युत केन्द्र के निर्माण के लिए आपसी समझौते के आधार पर चेयरमैन ने भेल को 1840 करोड़ रुपये का ठेका दे दिया। इस केन्द्र के लिए डीवीसी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निविदा आमंत्रित किया था। इस निविदा के लिए 4 कंपनियों ने टेंडर पेपर खरीदे थे। भेल ने पेपर खरीदा जरुर पर निविदा जमा नहीं किया था। चेयरमैन असीम कुमार बर्मन ने दूसरे निविदाकर्ताओं की उपस्थिति को खारिज करते हुए कानूनी दायरे से बाहर जाकर भेल को ठेका दे दिया। जब भेल को निविदा के बिना समझौते के आधार पर इसी तरह कार्य मंजूरी पूर्व निश्चित थी तो फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निविदा आमंत्रित करने का दिखावा ही क्यों ? जब आप किसी निश्चित कंपनी के हाथों ही ठेका देने वाले हैं तो समाचार पत्रों में अंतर्राष्ट्रीय निविदा प्रकाशन पर लाखों-लाख रुपए बहाने का क्या औचित्य है ? डीवीसी इंजीनियर्स एसोसिएशन और ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन का दावा है कि बोकारो ए का यह प्रस्तावित ताप विद्युत केन्द्र किसी भी परिस्थिति में विद्युत उत्पादन करने में सक्षम नहीं होगा। प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम के अनुसार बिजली घर हल हाल में रेल लाइन से 500 मीटर और नदी तट से 7 कि मी दूर होने चाहिए। पर बोकारो में प्रस्तावित यह बिजलीघर तो कोनार नदी के तट पर ही स्थापित होगा। दुनिया में पहली बार किसी ताप विद्युत घर के निर्माण में इस तरह का अविवेकपूर्ण निर्णय लिया गया है कि नदी के एक तरफ बिजलीघर होगा तो दूसरे तट पर स्विचयार्ड। प्रस्तावित बिजलीघर की वजह से बोकारो में पहले से कार्यरत बिजलीघर के दम तोड़ने की आशंका ज्यादा प्रबल हो गयी है।
कोडरमा में प्रस्तावित ताप विद्युत केन्द्र के लिए जून 2007 में डीवीसी ने भेल को एकल निविदा(सिंगल टेंडर बेसिस) के आधार पर 2606 करोड़ 79 लाख रुपये के ठेका दे दिया। जमीन की उपलब्धता के बिना एकल निविदा विद्युत उत्पादन के लक्ष्य से ज्यादा योजना राशि का बंदरबांट है। जब जमीन का अधिग्रहण ही विवाद में हो तो जमीन प्राप्ति से पूर्व कार्य स्वीकृति और अग्रिम भुगतान सब कुछ आचार संहिता का उल्लंघन है।चन्द्रपुरा ताप विद्युत केन्द्र के निर्माण के लिए नियम-कानून को ताक पर रखकर भेल को 2300 करोड़ का एकल निविदा दिया गया।जब गलत तरीके से भेल को आपने ठेका दे दिया तो फिर भेल से नियम-कायदे का पालन की अपेक्षा तो आप नहीं कर सकते। भेल ने डीवीसी के द्वारा निराशाजनक उपलब्धि (डिसमल परफॉरमेंस) के लिए चिन्हित एन बी सी सी को चन्द्रपुरा में निर्माण कार्य का हिस्सेदार बना लिया। निराशाजनक उपलब्धि के लिए चिन्हित होने का मतलब काली सूची में दर्ज (black listed) होने की तरह है। काली सूची में दर्ज कंपनियाँ चिन्हित करने वाले प्रतिष्ठान में कार्य पाने के हकदार नहीं रह जाते हैं। डीवीसी के चेयरमैन असीम कुमार बर्मन ने अपने ही हाथों से जारी रिकार्ड को सुधारते हुए एनबीसीसी को सफेद सूची में तो नहीं शामिल किया,पर इस तरह काले-उजले का फर्क घोटाले की तेज आंधी में किस तरह बहते गए गौर से देखिए।
प्रस्तावित मेजिया बी ताप विद्युत केन्द्र और दुर्गापुर स्टील ताप विद्युत केन्द्र के निविदा कार्यान्यवन में गोरखधंधा हो गया। मेजिया बी और दुर्गापुर का 4 हजार करोड़ से ज्यादा का ठेका एकल निविदा(single tender basis) के आधार पर भेल को दे दिया गया।घपले-घोटाले,लूट-छूट की कहानी को पीछे छोड़िए तो मेजिया बी ताप विद्युत केन्द्र कॉमनवेल्थ खेलों के लिए 1000 मेगावाट की बिजली की आपूर्ति से डीवीसी का सर ऊँचा तो करेगा। विकास की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार को शरीर पर खरोंच की तरह देखने वाले आशावादियों के लिए यह उम्मीद और संभावना की सकारात्मक तस्वीर की तरह है कि डीवीसी के पास एक बिजलीघर तो खड़ा होगा,जिसकी बिजली से देश का गौरव कॉमनवेल्थ खेलों का क्षितिज जगरमगर होगा। राष्ठ्र के विकास के लिए विस्थापन को कुरबानी और त्याग का ज्ञान पंडित नेहरु ने दिया था। मैडम सोनिया कह सकती हैं,कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन से देश का गौरव बढ़ेगा तो राष्ट्र गौरव के निमित्त देश की प्रजा को कुछ घोटाले भी सहने होंगे।
सोना चबाइये और सो जाइये
2010 में दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों को जगरमगर करने के लिए डीवीसी को 6 विद्युत परियोजनाओं का कार्यादेश भारत सरकार ने जरुर जारी किया था पर योजनाओं पर होने वाले 25 हजार करोड़ रुपये कहाँ से आयेंगे ? इस खेल से देश का गौरव बढ़नेवाला है तो डी वी सी कर्ज ले सकती है। देश की शान बढ़ाने के लिए देश के बडे़ वित्तीय संस्थाओं,बड़े बैंकों ने बेहिचक ऋण की अर्जी स्वीकार कर ली। पी एफ सी( पावर फाईनांस कॉरपोरेशन), आर ई सी (रुरल इलेक्ट्रीफिकेशन कॉरपोरेशन), कंसोर्टियम ऑफ पी एस यू ने अब तक कुल परियोजनाओं का 70 फीसदी 16 हजार 350 करोड़ रुपये डी वी सी को कर्ज दिये। कायदे के अनुसार कुल परियोजना के 30 फीसदी की भरपाई प्रतिष्ठान को अपनी पूंजी से करनी है। परियोजना स्वीकृति के वक्त डीवीसी के पास वास्तविक बचत करीब 2 हजार करोड़ से ज्यादा नहीं था। जाहिर है सभी प्रस्तावित परियोजनाओं को पूरा करने के लिए डीवीसी को अभी और ऋण चाहिए। ऋण प्राप्त करने के लिए भारत सरकार की सत्ता-शक्ति का अतिरिक्त दबाव या जरुरी परियोजनाओँ को यथास्थिति में छोड़ देना ज्यादा आश्चर्यजनक नहीं होगा।
डीवीसी के विवादास्पद चेयरमैन असीम कुमार बर्मन ने ऋण प्राप्ति के लिए ऐसी कारगुजारियां भी कर दी जिससे प्रबंधन का भारी नुकसान हुआ। राज्य सरकार या केन्द्र सरकार के किसी निकाय के द्वारा बकाया बिजली बिल भुगतान विलम्ब शुल्क को सरकारी भाषा में डी पी एस ( डिले पेमेण्ट सरचार्ज) कहते हैं। बर्मन ने इस 2 फीसदी डी पी एस को पहले डीवीसी की आमदनी दिखाया,फिर इस आमदनी पर 500 करोड़ से ज्यादा आयकर के रुप में भुगतान भी कर दिया। डी वी सी को अपने विद्युत आपूर्ति का जो बकाया भुगतान प्राप्त ही नहीं हुआ है, उसे मनगढ़ंत आय बता कर आयकर का भुगतान ऋण प्राप्त करने के लिए किया गया। डी वी सी को लाभ में दिखाकर इधर उपक्रम को डुबाने की नाटकीय साजिश का असल क्या है ?
हमारा देश तो पहले से लगभग 3 लाख करोड़ के कर्ज में डूबा है। कर्ज में डूबे देश की राजधानी में कॉमनवेल्थ 2010 चाहिए तो डीवीसी को 6 बिजली घर बनाने है और बनाने ही हैं तो सभी परियोजनाओं के लिए 25 हजार करोड़ का कर्ज भी चाहिए। यह कर्ज विदेशी नहीं, देसी ही होगा पर उसे चुकता कौन करेगा ? इन परियोजनाओं का भविष्य तो पहले से अधर में है। हवा में लटकते हुए पांव किस तरह धरती पर तनकर खड़े होंगे,नही मालूम। सिर्फ डी वी सी की इन प्रस्तावित परियोजनाओं का कर्ज 110 करोड़ वाले गणराज्य में हर नागरिक के माथे पर 225 रुपये मात्र का होगा। अगर इन परियोजनाओं में घोटालों में आप अपना हिस्सा ढूढ़िये तो 5 हजार करोड़ की अनुमानित घोटाले के लिए हर एक भारतीय नागरिक को साढ़े 45 रुपये चुकाने होंगे।
हम कर्ज लेते हैं और घोटाले करते हैं। पतनशील अर्द्धसामंती परिवारों के ‘ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत ’ के किस्से गांव-गांव में बिखरे पड़े हैं। कानून पालन की पाबंदियां एक बार टूट गयी तो भ्रष्टाचार की नदी दामोदर से खिसककर उल्टी दिशा में दिल्ली की तरफ बहने लगी। केन्द्रीय विद्युत मंत्री सुशील कुमार शिंदे डी वी सी के आयोजनों में इस तरह शामिल होते रहे जैसे वे पूरे देश के नहीं सिर्फ डीवीसी के विशेष मंत्री हो गये हैं। शिंदे चेयरमैन बर्मन के पक्ष में खुली सभा में तारीफ करते नहीं अघाते।राजनेता और प्रशासक साथ होकर एकाकार हो जायें तो किसी सार्वजनिक प्रतिष्ठान की क्या गत हो सकती है,यह चित्र डी वी सी के घपलों के रिकार्ड में दिखते हैं। अब तक देश के सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में स्थापना के 25 वर्ष पर रजत जयंती(सिल्वर जुबली) और 50 वर्ष पूरा होने पर स्वर्ण जयंती (गोल्डन जुबली) मनाने का चलन है। चेयरमैन बर्मन ने अपने कार्यकाल को उत्सव में बदलने के लिए स्थापना के 60 वर्ष के निमित्त 60 वर्ष का आयोजन घोषित कर दिया। दामोदर घाटी के पूरे क्षेत्र में जुलाई 2007 से जुलाई 2008 तक लगातार 60 वर्ष का रंगारंग समारोह चलता रहा। रजत जयंती वर्ष,स्वर्ण जयंती वर्ष की तरह किसी सुंदर नाम के बिना पूरा एक साल ‘ 60 वर्ष’ के जलसों में तब्दील हो गया।
चेयरमैन असीम कुमार बर्मन ने मीडिया समूह को 60 वर्ष के निमित्त डीवीसी की मनगढ़ंत उपलब्धियों का करोड़ों का विज्ञापन जारी किया। डी वी सी की तारीफ में लिखने के लिए देश भर से पत्रकारों को आमंत्रित किया गया। जिन्होंने आमंत्रण स्वीकार किया,वे शाही ठाठ के राजसी अभिनंदन से इतने मुग्ध हुए कि दिल खोलकर कलम तोड़ दी। कोलकाता से प्रकाशित एक अंग्रेजी साप्ताहिक ने तो 40 लाख के विज्ञापन और अलिखित अन्य सुविधाओं के आधार पर 60 पेज का रंगीन विशेषांक ही डी वी सी और बर्मन को समर्पित कर दिया। इस विशेषांक का संपादकीय भी बर्मन के स्तुतिगान में लिखा गया और पूरी पत्रिका में एक भ्रष्ट चेयरमैन को महाभारत के अभिमन्यु की तरह पेश किया गया। चारा घोटाले से ज्यादा शाहखर्ची इस घोटाले में भी हुई। स्वर्ग लोक के सारे सपने बर्मन ने धन की ताकत पर धरती पर साक्षात देखने की कोशिश की और अपने कार्यकाल में जीवन के सारे सुख हासिल किये।
डीवीसी के चेयरमैन,सेक्रेटरी,निदेशक(तकनीक) सहित मुख्य सतर्कता अधिकारी ने कोलकाता के एक सबसे महंगे रिहायशी क्लब की सदस्यता हासिल की।आप सोच सकते हैं, कोलकाता के एक महंगे क्लब, जिसकी सदस्यता शुल्क प्रतिवर्ष 6 लाख रुपये हो,बर्मन ने क्या अपने वेतन की आय से क्लब की सदस्यता ली ? ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के सदस्य गुरनेक सिंह बरार के सूचना के अधिकार के तहत डीवीसी ने लिखित सूचना दी है कि चेयरमैन बर्मन ने निजी स्रोतों से उस क्लब की सदस्यता ली थी पर डीवीसी के बाकी शीर्ष अधिकारियों की सदस्यता का खर्च डीवीसी प्रबंधन ने वहन किया। शाहखर्ची और ऐश में जब प्रतिष्टान पर अनुशासन रखने वाले गार्जियन मुख्य सतर्कता अधिकारी भी शामिल हो गये हों तो फिर यह अपेक्षा ही क्यों कि डी वी सी के सतर्कता अधिकारी प्रबंधन पर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबने से लगाम लगा सकते हैं ? चोर और सिपाही साथ-साथ डुबकी लगाते है तो कहते हैं, नदी पवित्र हो जाती है।
पुराने समय में डकैत आते थे तो पहरेदारी में चीखते कुत्तों के सामने मांस के टुकड़े फेंक देते थे। डीवीसी के 60 वर्ष के बहाने जो 60 साला उत्स चला,चेयरमैन ने डीवीसी के सभी 11 हजार कर्मचारी अधिकारियों को 8 ग्राम का सोना और उत्सव वर्ष में 2 बार स्वादिष्ट मिठाईयों का डब्बा भेंट दिया। कितने करोड़ रुपये इस मिठाई, सोने के टुकड़ों और 60 साला उत्स में खर्च हुए, इस सवाल पर डीवीसी प्रबंधन ने डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएशन को सूचना के अधिकार के तहत कोई जवाब नहीं दिया। कर्ज लेकर योजना-परियोजनाओं की स्वीकृति से विकास का जो चमत्कार पेश किया गया,यह कितनी देर तक कायम रहेगा ? बाढ़ नियंत्रण के निमित्त दामोदर नदी के कछार पर स्थापित दामोदर घाटी निगम कालक्रम में बिजली घरों से होते हुए घोटालों की बाढ़ में तब्दील हो जाएगा,कौन जानता है ?
जब डीवीसी में घोटालों की नदी वेगमयी होती गयी तो सी बी आई तक सूचना जरुर गयी। भारत सरकार के केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने विद्युत मंत्रालय से सी बी आई जाँच का अनुरोध किया। जब विद्युत मंत्री चेयरमैन बर्मन के सगे मित्र हो गये हों तो केन्द्रीय सतर्कता आयोग क्या कह रही है,सुनना जरुरी नहीं था। संभवतः विद्युत मंत्री सुशील कुमार शिंदे की मिलीभगत से विद्युत मंत्रालय के स्टैण्डिंग कमिटी के भीतर भी असंतोष बढ़ता जा रहा था। यही वजह है कि स्टैण्डिंग कमिटी के अध्यक्ष गुरदास कामत ने विद्युत मंत्री शिंदे की बजाय 3 अक्टूबर 2008 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर डी वी सी के चेयरमैन बर्मन के पूरे कार्यकाल में जारी सभी ठेकों और उनके कार्यकाल के सभी खर्चे की सी बी आई जाँच का अनुरोध किया था।स्टैण्डिंग कमिटी अध्यक्ष कामत ने किसी भी स्थिति में आरोपित चेयरमैन बर्मन को सेवा विस्तार नहीं देने का सुझाव दिया था।सवाल यह है कि विद्युत मंत्रालय की स्टैण्डिंग कमिटी जब जाँचोपरांत चेयरमैन असीम कुमार बर्मन को भ्रष्ट चेयरमैन साबित कर रही है तो विद्युत मंत्री शिंदे ने उस भ्रष्ट चेयरमैन के सेवा विस्तार के लिए प्रधानमंत्री को अनुरोध पत्र क्यों लिखा था ? सुशील कुमार शिंदे न 22 अप्रैल 2008 को मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में साफ-साफ लिखा है –‘ बर्मन के कार्यकाल में डी वी सी ने काफी प्रगति की है। कॉमनवेल्थ के लिए डीवीसी से जो विद्युत आपूर्ति की अपेक्षा है,वह बर्मन के कुशल नेतृत्व-निर्देशन में ही संभव है। ’सूचना के अधिकार के तहत गुरनेक सिंह बरार को उपलब्ध जानकारी में विद्युत मंत्रालय ने स्वीकार किया है- ‘ सी बी आई ने 6 मई 2008 को मंत्रालय से चेयरमैन बर्मन के विरुद्ध जाँच की अनुमति का अनुरोध पत्र भेजा था, जिसे प्रतिष्ठान के हित में मंत्रालय सार्वजनिक नहीं कर सकता है।’
भारत सरकार के केन्द्रीय सतर्कता आयोग,सी बी आई और विद्युत मंत्रालय की स्टैण्डिंग कमिटी के प्राथमिक जाँचों में दोषी पाये गये आरोपित चेयरमैन असीम कुमार बर्मन का सेवा विस्तार विवादित जानकर प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप से जरुर रुक गया पर सुशील कुमार शिंदे ने बर्मन के भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच से सी बी आई को एक वर्ष से क्यों रोक रखा है ? डी वीसी इंजीनियर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष ए के जैन, ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्यक्ष पदमजीत सिंह ने बार-बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को डी वी सी में जारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध साक्ष्य सहित आवेदन प्रेषित किया। प्रधानमंत्री कार्यालय ने प्रतिष्ठित विद्युत इंजीनियरों के मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय संगठन का कोई प्रत्युत्तर भी क्यों नहीं दिया ? आरोपित चेयरमैन बर्मन की हिफाजत में प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका भी संदिग्ध है। आखिर डी वी सी के भीतर जारी भ्रष्टाचार के संदर्भ में सांसदों सहित इंजीनियर संगठनों के लगातार पत्राचार के बावजूद प्रधानमंत्री ने सी बी आई को इस मामले में आगे बढ़ने की अनुमति क्यों नहीं दी ?
आई ए एस वर्ग समूह कभी ‘स्टील फ्रेम’ कहलाते थे। आज असीम कुमार बर्मन जैसे आई ए एस के कारनामों से ये ‘बम्बू फ्रेम’ से होते हुए फूटे हुए गुब्बारे की तरह हो गये हैं। क्या हमें यकीन करना चाहिए कि इस संसदीय चुनाव के नतीजे ऐसे ही होंगे कि फूटे हुए गुब्बारे में हवा भरने वाले मनमोहन सिंह और सुशील कुमार शिंदे की पूरी बारात जनाजे की भीड़ में शामिल होगी और लोकतंत्र की धमनियों में जमता हुआ लहू फिर से बहने लगेगा। अगर आपके मुख में 8 ग्राम का सोने का टुकड़ा नहीं चिपका हुआ है तो खुलकर कहिए, कर्ज लेकर घोटाला करने वालों को माफ नहीं किया जाएगा।

व्हिसिल ब्लोअर ए के जैन ने घोटाले के एक करोड़ वापस दिलाये
यूरोपियन देशों में भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध सरकार को चौकस रखने वाले सरकारी सेवकों की प्रजाति को ‘व्हिसिल ब्लोअर’ कहा जाता है। अपने देश में व्हिसिल ब्लोअर सोये हुए लोगों जागते रहो का शोर करता है,पर अपने बारे में कोई प्रचार नहीं करता है। वह सरकार के खजाने की लूट को अपनी पत्नी के गहनों की लूट मानकर विचलित होता है फिर उसकी वापसी के लिए अपनी सारी ताकत का इस्तेमाल करता है। गुवाहाटी में आयोजित 33वां नेशनल गेम्स के लिए डीवीसी चेयरमैन असीम कुमार बर्मन ने एक करोड़ रुपये का चंदा दिया था। डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष ए के जैन को इस चंदे की नीयत में कहीं खोट नजर आयी। 2007 के फरवरी माह में आयोजित नेशनल गेम्स को डी वी सी ने इस चंदे की रकम मार्च 2007 में भेजी थी।
2008 के जनवरी माह में ए के जैन की पहल पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद भुवनेश्वर प्रसाद मेहता ने भारत सरकार के केन्द्रीय सतर्कता आयोग और विद्युत मंत्रालय को पत्र लिखकर बताया था कि इस चंदे में खेलहित से ज्यादा निजी हित प्रकट होता है। डीवीसी के मुख्य सतर्कता अधिकारी के जवाब को आधार मानकर केन्द्रीय सतर्कता आयोग और विद्युत मंत्रालय ने चंदे की जांच के संदर्भ में अपनी फाइल बंद कर दी थी। जाहिर है कि गुवाहाटी में आयोजित यह नेशनल गेम्स असम सरकार के द्वारा प्रायोजित किया गया था और असम सरकार ने डीवीसी प्रबंधन से दान-अनुदान का कोई आग्रह नहीं किया था। ए के जैन ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग की फाइल बंद होने के बावजूद अपने निजी स्तर से जानकारी जुटाने की कोशिश की। जैन ने नेशनल गेम्स सेक्रेटेरियट के समन्वयक बी कल्याण चक्रवर्ती,आई ए एस से फोन कर जब एक करोड़ रुपया बतौर चंदा डीवीसी से प्राप्त होने के बारे में जानने की कोशिश की तो उन्होंने तत्काल अनभिज्ञता जतायी। चक्रवर्ती ने नेशनल गेम्स के नाम पर भेजे गए एक करोड़ रुपये के चंदे का पता करना अपनी प्रतिष्ठा का विषय मान लिया। चक्रवर्ती ने 7 जनवरी 2009 को डी वी सी के सचिव एस विश्वास को पत्र लिखकर पूछा- ‘ नेशनल गेम्स को डी वी सी ने एक करोड़ रुपया चंदे में भेजा है तो यह चंदा कहां गया,इसकी पड़ताल भी दानदाता डी वी सी को ही करनी चाहिए।’
मामले के परदाफाश होने पर 4 फरवरी 2009 को सी एम जी ( सेलीब्रेटी मैनेजमेंट ग्रुप) नामक विज्ञापन संग्राहक एजेंसी के अध्यक्ष भास्वर गोस्वामी ने नेशनल गेम्स के नाम भेजे चंदा की राशि को वापस डी वी सी के पास भेज दिया। सी एम जी ने 22 माह बाद एक करोड़ रुपया वापस करते हुए लिखा है कि कुछ गलतफहमी के कारण 33वां नेशनल गेम्स का चंदा आयोजक के पास नहीं भेजा जा सका। आखिर नेशनल गेम्स के नाम जारी एक करोड़ के चंदे का चेक सी एम जी के पास कैसे पहुंच गया ? एक करोड़ रुपये की 22 माह बाद वापसी के पश्चात डीवीसी के अतिरिक्त सचिव एस एल मित्रा ने नेशनल गेम्स के समन्वयक को डीवीसी की नीयत के बारे में सफाई देते हुए लंबा पत्र क्यों भेजा ? आखिर एक करोड़ रुपया 22 माह तक सी एम जी के पास क्यों जमा रहा ? अगर डी वी सी प्रबंधन ने सही मायने में नेशनल गेम्स के हित में चंदा भेजा था और चंदा गेम्स सेक्रेटेरियट की बजाय किसी सी एम जी के पास पहुंच गया तो डी वी सी एक करोड़ रुपए को बीच में ही हड़पने-खाने वाली सी एम जी का बचाव क्यों कर रही है ? जब चंदे की रकम असम सरकार को प्राप्त ही नहीं हुई तो नेशनल गेम्स के तत्कालीन समन्वयक ए के जोशी,आई ए एस का भेजा हूआ चंदा प्राप्ति का धन्यवाद पत्र डी वी सी प्रबंधन ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग के समक्ष किस तरह प्रस्तुत किया ? एक करोड़ रुपये के चंदे के नाम पर फर्जी निकासी और फिर घोटाले के पक्ष में साक्ष्य प्रस्तुत करने में डी वी सी का फ्रॉड चेहरा उजागर हो गया है। ऑल इंडीया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के सदस्य गुरनेक सिंह को सूचना के अधिकार के तहत नेशनल गेम्स के तत्कालीन समन्वयक ए के जोशी ने उस पत्र को फर्जी बताया है जिसे डी वी सी ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग के समक्ष जोशी का भेजा हुआ धन्यवाद पत्र बताकर प्रस्तुत किया था। भारत सरकार के अति प्रतिष्ठित विद्युत प्रतिष्ठान के प्रबंधन ने एक करोड़ को डकारने के लिए पहले असम सरकार के एक आई ए एस अधिकारी के नाम का फर्जी पत्र तैयार किया,फिर देश की सबसे महत्वपूर्ण गार्जियन संस्था केन्द्रीय सतर्कता आयोग को भी इस फर्जी पत्र के आधार पर धोखा दिया।
एक करोड़ रुपये की वापसी के बाद सी बी आई की कोलकाता शाखा ने 1 अप्रैल 2009 को चंदा उड़ाने वाली एजेंसी सी एम जी और डीवीसी प्रबंधन के कुछ शीर्ष अधिकारियों के गोपन अड्डों पर छापे मारकर कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज बरामद किये हैं। सी बी आई की छापेमारी के संदर्भ में कोलकाता के समाचार पत्रों में कुछ खबरें छपी हैं पर सी बी आई मीडिया के सामने कुछ भी बोलने से इनकार कर रही है। अगर सच में सी बी आई इस तरह आगे बढ़ चुकी है तो अब तक घोटाले के मुख्य सूत्रधार अवकाश प्राप्त चेयरमैन,आई ए एस, असीम कुमार बर्मन की गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई ? एक करोड़ का चंदा उड़ाने वाली एजेंसी सीएमजी से चंदा वापसी के 2 माह बाद भी सीएमजी अध्यक्ष को गिरफ्तार कर जेल क्यों नहीं भेजा गया ?
क्या सी बी आई संसदीय चुनाव के ऐन वक्त केन्द्र सरकार को घोटालों के दाग से बचाए रखन के लिए एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे लौट रही है ? क्या प्रधानमंमत्री कार्यालय के दबाव में सीबीआई न तो समुचित कार्रवाई कर पा रही है न ही मीडिया के सामने डीवीसी घोटालों के बारे में कुछ भी उजागर करने को तैयार है ? समझने की बात है कि जिन साक्ष्यों के आधार पर हम घोटाले की डायरी लिख रहै हैं, वे सारे साक्ष्य सी बी आई के पास भी मौजूद हैं। अगर इस संसदीय चुनाव से पहले यह मामला मुख्यधारा की मीडिया से लीक नहीं हो सका तो सी बी आई अगली सरकार का चेहरा देखकर अपनी भूमिका तय करेगी। दिल्ली के तख्त पर अगर कांग्रेस की ताजपोशी हो गयी तो क्या सी बी आई चुप बैठी रह जाएगी ?
घोटाले का हिस्सा वापस दिलाने वाले डी वी सी के डिप्टी चीफ इंजीनियर ए के जैन को ‘व्हिसिल ब्लोअर’ कहकर हम उनकी ताजपोशी तो नहीं कर रहे ? डी वी सी प्रबंधन ने इस ‘ व्हिसिल ब्लोअर’ को औपचारिक धन्यवाद भी नहीं कहा है। प्रबंधन के शीर्ष पर हाय तौबा मचा है। घोटाले के मुख्य अभियुक्त आई ए एस बर्मन अवकाश के बावजूद राज्यसत्ता की ताकत से घोटालों में शामिल हर बड़ी मछली को अंतिम दम तक बचाने में लगे हैं। 10 अप्रैल 2009 को डी वी सी के डायरेक्टर (प्रोजेक्ट) अचिंत्य दास क्या सी बी आई की फांस से बचने के लिए इस्तीफा देकर कहीं भाग निकले हैं ? क्या ऊँची कुर्सी छोड़कर भाग रहे घोटालों के आरोपी देश छोड़कर दूसरे देश में भी छुप सकते हैं ? मीडिया को अब घोटालों के एक-एक सरगनों पर नजर रखनी होगी। कौन एयर इंडिया से कौन किंग फिशर से भाग रहा है, सब पर नजर रखिए।
घोटालों के शत्रु, ‘ व्हिसिल ब्लोअर ’ के आइकॉन
सोने का टुकड़ा चबाते हुए क्या सुकून की नींद आती है ? सब उत्सव मनाकर सोने का अभ्यास कर रहे थे। उसे नींद नहीं आयी। वह मीडिया घराने के हर दावों पर यकीन करता रहा। चैनल के बड़े भारी पत्रकार दूध से पानी निकालकर अलग करने वाले पत्रकार, झूठ बोले कौवा काटे के पत्रकार, सबकी कलम इस घोटाले के सामने चुप हो गई। सारे साक्ष्य सामने है। गवाह मौजूद हैं। कब कुछ स्पष्ट है। लेकिन थोड़ी मुश्किल है- सफेद हाथी को काला कैसे कहा जाय ? मुनाफे के बाजार में क्या श्वेत-स्वर्ण को काला कहने से अपना हित सधेगा ? आपके मुख में स्वर्ण का टुकड़ा तो नहीं था,पर आपने सोचने में देरी कर दी। पत्रकारिता दीर्घकालीन विमर्श के नतीजों से तो नहीं चलेगी ना ?
आई ए एस अधिकारी असीम कुमार बर्मन 2006 के 30 मार्च से 30 नवम्बर 2008 तक डी वी सी के चेयरमैन रहे। भारत सरकार के विद्युत मंत्री सुशील कुमार शिंदे तो अवकाश के बाद भी बर्मन महोदय का सेवा विस्तार जरुरी मानते थे। 32 माह का बर्मन का सेवाकाल उनके लिए तो स्वर्णकाल ही था। मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक सोने का टुकड़ा सूंघ कर मगन है, तो सब कुछ ठीक-ठाक चलना चाहिए था। स्वर्ण युग में सोने की रेल पटरी पर दौड़ने से किसने रोक दिया ? आप अगर इस रेल की सवारी नहीं चाहते हैं तो क्या रेल को अपने सीने की ताकत से रोक देंगे? प्रधानमंत्री, विद्युत मंत्री से लेकर रिलायंस इनर्जी की ताकत से दौड़ने वाली रेल को एक हाड़-मांस का साधारण सा आदमी अपनी मानव काया की ताकत से इस तरह रोक देगा,यह वह भी नहीं जानता था। रेल रुकी है,अब सारथी बदल गया है,पर रेल अपनी गति से ही चलना चाहती है। देह की ताकत से रेल को रोककर खड़ा इंसान सोचता है,अब धक्का देकर रेल को अपनी पुरानी जगह,काठ की पटरी पर लाया जाए।हठी को आइए,साथ दीजिए,वह गिर गया तो नीचे दब जाएगा और उसे कुचलते हुए रेल आगे बढ़ जाएगी।
सोने का एक टुकड़ा डी वी सी के आम कर्मचारी-अधिकारियों के लिए, एक डिप्टी चीफ इंजीनियर के लिए तो सोने की पूरी बोरी खूली थी। डी वी सी में कार्यरत एक हजार इंजीनियरों के संगठन डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष ए के जैन ने डिप्टी चीफ की नौकरी को दांव पर लगाकर जिस तरह घोटाले के रेल की मुखालफत की, आश्चर्यजनक जरुर है,पर जारी है। तो आप अपना पक्ष चुनिए-इस तरफ या उस तरफ ? हमारा प्रतिष्ठान घाटे में जा रहा है। कर्ज लेकर उत्सव मनाया जा रहा है। हम जानते है,सब कुछ कानून का मजाक है,अवैध है, नीति के विरुद्ध है। जो अक्षम्य है, उसके विरुद्ध हमारी भूमिका क्या हो सकती है ? डी वी सी प्रबंधन पर अनुशासन की छड़ी के जिम्मेवार मुख्य सतर्कता अधिकारी भी शाहखर्ची में साथ शामिल हो गये हैं। बहुत बुरा समय है, पर हमें अपनी बात कहने के लिए लोकतंत्र के हर दरवाजे पर दस्तक देनी चाहिए। इधर नही सुनी गयी,हम उधर देखते हैं। शायद कोई रास्ता खुला होगा,जहाँ से होकर हमारी बात विशाल लोकतंत्र के उस नागरिक समूह तक पहुँच जाएगी,जो इस घोटाले में कर्जदार हो चुके हैं।
15 वर्षों तक लगातार संगठन के महासचिल रहे ए के जैन तीन वर्षों से डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं। ऑल इंडिया पावर इजीनियर्स फेडरेशन ने तीसरी बार जैन को फेडरेशन का अतिरिक्त महासचिव मनोनित किया है। जून 2004 में तब प्रबंधन से जैन की पहली मुठभेड़ हुई जब इन्होंने डी वी सी के निदेशक(मानव संसाधन) कर्नल आर एन मल्होत्रा के सेवा विस्तार के विरुद्ध विद्युत मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री तक अर्जी लगायी थी।भ्रष्टाचार के आरोप में संदिग्ध घोषित निदेशक को तत्कालीन सचिव ए के बसु,आई ए एस, ने विवाद-विरोध के बावजूद सेवा विस्तार दे दिया। विद्युत मंत्रालय ने जैन की अपील पर जाँच कमिटी गठित की। कमिटी ने निदेशक को तत्काल पद से हटाने का निर्देश दिया पर प्रबंधन ने मंत्रालय की जाँच कमिटी के निर्देश को लागू नहीं किया।केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने इस मामले में सचिव ए के बासु को दोषी पाया था। तब आरोपित निदेशक तो पद से नहीं हटाए गए पर उनके विरुद्ध पत्राचार करने वाले ए के जैन के विरुद्ध प्रबंधन ने मोर्चा खोल दिया। ए के जैन के विरुद्ध गठित आरोप में केन्द्रीय सतर्कता आयोग को प्रबंघन की अनुमति के बिना शिकायत भेजने और इंजीनियरों को संगठित कर प्रबंधन के विरुद्ध भड़काना-बहकाना मुख्य आरोप थे। ए के जैन प्रबंधन की आँख पर गये पर ज्यादा निर्भीक,ज्यादा विद्रोही होते गए। प्रबंधन ने जहाँ आरोप पत्र तैयार करते हुए कुतर्क और व्यक्तिगत अहंकार का सहारा लिया,वहीं जैन ने एक-ेक पग बढ़ते हुए कानून और संविधान की हर शर्तों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की। केन्द्रीय सतर्कता आयोग के दिशा निर्देशों के अनुसार किसी भी सरकारी कर्मी को अपने संस्थान में भ्रष्टाचार उजागर करने का हक प्राप्त है और ऐसे उदभेदक की गोपनीयता और सुरक्षा की गारंटी सरकार-शासन की होनी चाहिए। 18 मई 2005 को जैन के खिलाफ जारी आरोप पत्र केन्द्रीय सतर्कता आयोग के हस्तक्षेप से जरुर निरस्त हो गया पर सतर्कता आयोग द्वारा दागी साबित डीवीसी के सचिव ए के बसु कालांतर में झारखंड के मुख्य सचिव बनाए गए और अब भी काबिज हैं।
कोल ब्लॉक घोटाला रुका
‘पूस की रात’ में प्रेमचंद के हल्कू को झपकी क्या आयी,नील गायें फसल चर गयीं। ए के जैन ओहदे वाले अधिकारी हैं पर हल्कू की चूक से इन्होंने ज्ञान हासिल किया। पूस की रात,जेठ की धूप सबको एक तरह जगते हुए बीताना, एक कठिन अभ्यास है। बिल्लियाँ चूहों के शिकार के लिए चौकस रहती हैं। जैन मांसाहारी नहीं,शाकाहारी हैं फिर भी शिकारियों से ज्यादा चौकसी इनकी आदत हो गई है। असीम कुमार बर्मन डी वी सी के चेयरमैन हुए तो लूट की प्रक्रिया ज्यादा गतिशील हो गयी। दुमका के पहाड़पानी के एक कोल बलॉक को डी वी सी ने चंदन बसु के स्वामित्व वाले ऐम्टा के हाथों बेचने की पूरी तैयारी कर ली थी। 2007 से डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएशन ने कोल ब्लॉक बचाने का संघर्ष शुरु कर दिया। एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री और विद्युत मंत्रालय को पत्र लिखकर डी वी सी के हित में तत्काल हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। मामला केन्द्रीय सतर्कता आयोग से होता हुआ भारत सरकार के विधि मंत्रालय के पास पहुँच गया। मामले को ज्यादा विवादास्पद जानकर भारत सरकार ने अपनी चमड़ी बचाने के लिए कोल ब्लॉक की बिक्री पर तत्काल रोक लगा दी। इस कोल ब्लॉक को बेचने से 6 हजार करोड़ से बड़ा घोटाला संभव था। डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएशन ने कोल ब्लॉक की बिक्री रोक कर ऐतिहासिक सफलता हासिल की।
वित्तीय सलाहकार राजेश कुमार, आई पी एस को हटाया गया
चेयरमैन असीम कुमार बर्मन की ताकत विद्युत मंत्री सुशील कुमार शिंदे की शह पर कभी कम नहीं पड़ी। घोटालों की बहती हुई नदी को अगर किसी ने रोकने की कोशिश की तो उसे चेयरमैन ने अपना निजी शत्रु मान लिया। 5 वर्ष के लिए डीवीसी के वित्त सलाहकार नियुक्त हुए राजेश कुमार,आई पी एस, सात माह के अंदर ही अपनी कार्यावधि पूरा होने से पहले ही मई 2007 में डी वी सी से बाहर कर दिए गए। राजेश कुमार ने कैट(Central Administrative Tribunal) में अपील की तो फैसला हटाने के विरुद्ध दिया गया। डी वी सी ने कैट के फैसले के विरुद्ध कोलकाता हाइकोर्ट में याचिका दी। हाइकोर्ट ने तत्काल राजेश कुमार का पुनर्योगदान कराने के निर्देश जारी किया। डी वी सी ने हाइकोर्ट के फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की और मामला अब तक विचाराधीन है। विडम्बना कहिए कि ईमानदार प्रशासक जिसने प्रबंधन की वित्तीय अराजकता पर लगाम लगाने की कोशिश की थी,उनका डी वी सी में प्रवेश रोकने के लिए प्रबंधन ने ऑन द रिकॉर्ड सिर्फ अदालती खर्च में डेढ़ करोड़ का वित्तीय नुकसान सहा है।
जान मारने की धमकी, तबादला और आरोप पत्र
एक ईमानदारी वित्तीय सलाहकार को डी वी सी से निकाल बाहर करने से प्रतिष्ठान के भीतर अधिकारी कर्मचारी वर्ग में एक तरह से भय का माहौल तैयार हो गया कि अगर कोई ईमानदारी के साथ अपना काम करेगा तो उसका कतई भला नहीं होगा। 2008 के अप्रैल माह में किसी आरोप या स्पष्टीकरण के बिना ए के जैन को अचानक मैथन से डी वी सी मुख्यालय कोलकाता में तबादला कर दिया गया। 16 अप्रैल 2008 को मैथन स्थित सरकारी आवास पर जैन के पास कोलकाता से फोन आया- ‘ आमि तोमार बाप,ऐसो तुमी कोलकाता,तोमार चामड़ा बेरिये लेबो। साला,तोमार परिवार समेत तोमाके एक बारे मेरे शेष कोरे देबो।’ जैन ने तत्काल मैथन(धनबाद),झारखंड पुलिस के पास प्राथमिकी दर्ज करायी और धनबाद के एस पी से कार्रवाई का आग्रह किया। 22 अप्रैल 2008 को डी वी सी मुख्यालय कोलकाता में योगदान लेते समय तत्काल उप मुख्य सतर्कता अधिकारी ने जैन के विरुद्ध 12 सवालों से भरा आरोप पत्र भी जारी कर दिया। योगदान साथ- साथ आरोप पत्र, क्या प्रबंधन ने तबादला और आरोप पत्र एक साथ तय कर लिया था? इन आरोपों के सभी सवाल बेतुके और मानसिक यंत्रणा के लिए गढ़ गये थे। सबसे गंभीर आरोप एक साल पूर्व जैन के निर्देशन में पुरुलिया सब सब-स्टेशन के निर्माण में इस्तेमाल किए गए 1200 बोरे सीमेंट की खरीदगी के तरीके से जुड़ा था। किसी घटिया फर्म की बजाय बिड़ला का गुणवत्ता वाला सीमेंट इस्तेमाल करने के बावजूद बेवजह उन्हें घेरने की कोशिश की गई। यह एक सोची समझी कुटिल चाल का हिस्सा था कि आप पर ऐसे निराधार आरोप लगाये जायें कि जवाब ढूंढने से पहले ही आप टूटकर हताश हो जायें और मैदान से पीछे लौट जायें। लेकिन उनकी ताकत और मजबूत हुई। हमें नौकरी से हटाया जा सकता है लेकिन हमें हर घेराबंदी का प्रतिकार करना होगा। कोल ब्लॉक की बिक्री रोक कर राष्ट्रहित में करोड़ो की बचत कराने वाला अधिकारी क्या 1200 बोरे सीमेंट की खरीदगी में गड़बड़ी कर सकता है ?
मुख्य सतर्कता अधिकारी दोषी
अप्रैल 2008 में गौतम चटर्जी,आई ए एस ने मुख्य सतर्कता अधिकारी के पद पर कायम रहते हुए गोपनीय तरीके से प्रोन्नति ली। जैन ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग को पत्र भेजकर आपत्ति जतायी की अगर प्रतिष्ठान के मुख्य सतर्कता अधिकारी ही इस तरह गलत तरीके से प्रोन्नति हासिल करें तो डी वी सी प्रबंधन के आचरण पर अंकुश कौन रखेगा ? केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने डी वी सी के मुख्य सतर्कता अधिकारी(अतिरिक्त सचिव) से प्रोन्नति से प्राप्त वेतन राशि वापसी के साथ उन्हें अपने पद से हटाकर वापस महाराष्ट्र भेज दिया।
केन्द्रीय सूचना आयोग की हास्यास्पद भूमिका
डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएशन की ओर से ए के जैन ने भारत सरकार के केन्द्रीय सूचना आयोग को पत्र लिखकर जानने की कोशिश की कि (1) डी वी सी ने अपने वित्तीय सलाहकार राजेश कुमार के विरुद्ध कानूनी लड़ाई में कितना खर्च किया ? (2) डी वी सी ने एक निविदा के आधार पर कब-किसको कितने का ठेका दिया ? (3) डी वी सी ने 2 साल के अंतराल में कब किसको एक लाख से ज्यादा का दान–अनुदान दिया ? केन्द्रीय सूचना आयुक्त प्रो एम एम अंसारी ने 21 जनवरी 2009 को मामले की सुनवाई के बाद डी वी सी को आदेश दिया कि डी वी सी इंजीनियर्स एसोसिएसन को लोकहित में शुल्क रहित सभी सूचनाएँ उपलब्ध करायी जायें।प्रबंधन ने केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश की अवहेलना की। सूचना आयुक्त अंसारी ने 4 फरवरी 2009 को डी वी सी मुख्यालय कोलकाता में डी वी सी के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ सूचना के अधिकार के संदर्भ में आवश्यक बैठक बुलायी। आयुक्त ने एक घंटे तक सूचना अधिकार पर अच्छा वक्तव्य दिया। आयुक्त महोदय डी वी सी प्रबंधन द्वारा सूचना के अधिकार कानून की अवहेलना के विरुद्ध जाँच में आये थे या सूचना के अधिकार पर संभाषण करने ? यात्रा का सही मकसद स्पष्ट नहीं हो सका। प्रबंधन ने आगत अतिथि आयुक्त के स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सूचना आयुक्त प्रो एम एम अंसारी महोदय दिल्ली पहुँचे और तीसरे ही दिन 6 फरवरी 2009 को सूचना का अधिकार कानून के तहत सूचना मांगने वाले ए के जैन के विरुद्ध प्रबंधन ने दो आरोप पत्र जारी किया। सूचना आयुक्त की डी वी सी यात्रा से क्या प्रबंधन का मनोबल इतना बढ़ गया कि उनकी वापसी के दूसरे दिन ही सूचना के अधिकार पर हमला जरुरी मान लिया गया।
इस बार आरोप पत्र में एक वर्ष पूर्व सीमेंट की खरीदगी के संदर्भ में लगाये गये आरोपों को दुहराया गया। जिस आरोप का जवाब एक वर्ष पूर्व ही साक्ष्य सहित प्रस्तुत कर दिया गया हो,उस तर्कहीन सवाल को बार-बार सर पर हथौड़े की तरह फेंकने का मतलब क्या है ? 15 दिसम्बर 2008 को भी इसी तरह का निराधार आरोप पत्र डी वी सी सचिव सुब्रत विश्वास ने जैन के विरुद्ध जारी किया था। इस आरोप पत्र में डी वी सी के विरुद्ध मीडिया में खबर प्रचारित कराने के आरोप का इन्हें दोषी माना गया। जैन ने इस आरोप पत्र का भी सीधा जबाव दिया था-“ डीवीसी के चेयरमैन की अनियमितता को उजागर करना एक सरकारी सेवक के तौर पर आचार संहिता या सेवा संहिता का उल्लंघन नहीं है।”
ए के जैन के विरुद्ध जारी पहला आरोप पत्र तब भारत सरकार के केन्द्रीय सतर्कता आयोग के हस्तक्षेप से खारिज हो गया था। इस समय इनके विरुद्ध जारी 4 आरोप पत्रों का न्याय- संगत जवाब मिलने के बावजूद प्रबंधन इन्हें क्लीन चिट देने के लिए तैयार नहीं है। लगातार आरोप पत्रों की घेराबंदी से ऐसी तैयारी चल रही है कि फर्जी आरोपों के लपेटे में एक झटके में बर्खास्त कर दिया जाए। डी वी सी प्रबंधन के साथ विद्युत मंत्रालय भी इसे जरुरी मान रहा है और अंदर की बात है कि इसकी पूरी तैयारी भी हो चुकी है।
नेशनल हाइवे ऑथिरिटी की गया यूनिट में निदेशक इंजीनियर सत्येन्द्र दुबे ने योजना में भ्रष्टाचार के विरुद्ध तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखा था। प्रधानमंत्री कार्यालय ने तत्काल भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की थी पर कहा जाता है कि पत्र की गोपनीयता भंग होने से भ्रष्टाचारियों ने 27 नवम्बर 2003 को सत्येन्द्र दुबे की हत्या करवा दी थी। तब कांग्रेस विपक्ष में थी और सत्येन्द्र दुबे की हत्या का कड़ा प्रतिवाद किया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से तब केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले सरकारी सेवकों की हिफाजत में यूरोपियन देशों की तरह ‘ व्हिसिल ब्लोअर ऐक्ट ’ लागू करने का प्रस्ताव सरकार को दिया था।‘ व्हिसिल ब्लोअर ऐक्ट ’ का प्रस्ताव विधि आयोग ने सरकार के पास मंजूरी के लिए जरुर भेजा था पर अब तक इसे संवैधानिक दर्जा नहीं दिया गया है। बावजूद इसके, केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने देश के सभी सरकारी महकमों के पास ‘ व्हिसिल ब्लोअर दिशा निर्देश ’ भेजकर इसे हर हाल में ‘ व्हिसिल ब्लोअर ’ के पक्ष में लागू करने का निर्देश दिया। सोए हुए समाज को वर्षों से बिगुल बजाकर जगाते रहने वाले ‘ व्हिसिल ब्लोअर ’ ए के जैन ने अपने मिशन की कई लडाईयों में जीत हासिल की है। जिस मोड़ पर सत्येन्द्र दूबे को जीत की बजाय शहादत हाथ मिली थी, शायद ए के जैन उस मोड़ से कई कदम आगे निकल चुके हैं।
घोटालों के उदभेदक भ्रष्टाचारियों के शत्रु ए के जैन को फोन पर जान से मारने की धमकी देने वालों के विरुद्ध एक साल के बाद भी कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई है ? ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्यक्ष पदमजीत सिंह ने प्रधानमंत्री को आवेदन भेजकर केन्द्रीय सतर्कता आयोग के मानदंडों पर ‘ व्हिसिल ब्लोअर ’ साबित ए के जैन के खिलाफ लगाए गए सभी आरोप पत्रों को निरस्त करने और फोन पर धमकी देने वालों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई का आग्रह किया है।
भ्रष्टाचारियों के आखेट की घोटाला एक्सप्रेस को कभी जंजीर खींचकर तो कभी पटरी पर खड़े होकर रोकने वाले ए के जैन को कुछ लोग जुनूनी तो कुछ सनकी कहते हैं। संभव है, अपने अभियान से पीछे नहीं लौटने पर इस सनकी जैन की हत्या कर दी जाए या प्रबंधन मौका पाकर इन्हें डी वी सी से निकाल बाहर कर दे। संभव है,असहायता और हताशा की हद में ए के जैन अपना मानसिक संतुलन ही खो दें। एक सभ्य समाज में उन्नत विवेक,उन्नत तकनीक के साथ उन्नत ईमान को महत्व देने वाले ईमानदारी के इस बेहतरीन प्रतीक की रक्षा करें।JOURNALISTERA The People's E-Paper:

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बांग्लादेशी मॉडल की ओर बढ़ता देश

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