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गुरुवार, 6 मई 2021

हम संसदीय लोकतंत्र के लिए अनुकूल नागरिक नहीं

 


-देवेंद्र गौतम

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी समस्या यह है कि संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था तो लागू है लेकिन यहां की जनता अभी तक अपने अंदर इसके लिए आवश्यक नागरिक गुणों का विकास नहीं कर सकी है। गुलाम भारत की पीढी के लोगों की आबादी कम बची है लेकिन आजाद भारत की पीढ़ियां भी प्रत्यक्ष का परोक्ष रूप से उनकी मानसिकता से स्वयं को अलग नहीं कर सकी हैं। वे आज भी व्यक्तिपूजा के भक्तिकाल में जी रही हैं। अपने लिए एक सही प्रतिनिधि का चन भी नहीं कर पा रही हैं। इसीलिए तमाम संसदीय संस्थाएं बाहुबलियों और आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों से भर गई हैं।  

हम भारतीय लोग स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हुए गर्व के साथ अपना कॉलर ऊंचा करते हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन के प्रति चिंता भी व्यक्त करते हैं। लेकिन कभी आत्ममंथन करते हुए ईमानदारी के साथ स्वयं से यह नहीं पूछते कि हम लोकतांत्रिक व्यवस्था के लायक हुए भी हैं या नहीं। तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसने वाला कोई व्यक्ति किसी नेता को पसंद कर सकता है लेकिन उसका अंधभक्त नहीं हो सकता। ऐसा अंधभक्त कि अपने नेता के गलत निर्णयों को भी कुतर्कों के जरिए सही करार देने की कोशिश करे। सही और गलत के बीच फर्क नहीं कर सके।

26 जनवरी 1950 को हमने संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था अपनाई थी। इस घटना के 71 साल से ज्यादा की अवधि गुजर चुकी है। हर 10 वर्ष के अंतराल पर एक नई पीढ़ी के आगमन को मान लें तो। संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था लागू होने के बाद आजाद भारत की 7 पीढ़ियां सामने आ चुकीं हैं। लेकिन हमारे अंदर नागरिक गुण अभी तक राजतंत्र और औपनिवेशिक व्यवस्था वाले हैं। लोकतंत्र की व्यवस्था के लायक हम हैं ही नहीं। हम अपने जन प्रतिनिधि का चुनाव जाति, धर्म, क्षेत्र और कुटुंब के आधार पर करते हैं। उम्मीदवार की सामाजिक भूमिका के आधार पर नहीं। उसके गुण-दोष के आधार पर नहीं। अक्सर तो हम उसे जानते तक नहीं। कोई राजनीतिक दल धर्म का पताका लहराता हुआ हमारे पास आता है तो हम उसे वोट दे डालते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था का नागरिक ऐसा नहीं करता। वह तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखने के बाद ही किसी को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करता है। आंख मूंदकर किसी पर विश्वास नहीं करता।

आज हिंदुत्व की खूब दुहाई दी जाती है। लेकिन भक्तियोग के अलावा हिंदुत्व के अन्य आयामों को देखने की कोशिश नहीं की जाती। सनातन धर्म के व्यापक कैनवास पर नज़र डालें तो इसमें कर्मयोग और ज्ञानयोग भी शामिल है। इसे हम भूल जाते हैं। यह सिर्फ मोक्षप्राप्ति के मार्ग ही नहीं हमारे अंदर विशिष्ठ गुणों को उत्पन्न के माध्यम भी हैं। भक्तियोग किसी अदृश्य शक्ति के सामने आत्मसमर्पण की सीख देता हैं। शक्ति चाहे किसी व्यक्ति की हो अथवा किसी देवी-देवता की। राजा के दैवी अधिकार का सिद्धांत यहीं से निकला है। इस पद्यति को अपनानेवाले लोग किसी को भी भगवान समझ बैठते हैं और उसकी पूजा करने लगते हैं। ऐसे लोग मानसिक रूप से गुलाम होते हैं और राजतंत्र अथवा औपनिवेशिक सत्ता के लिए अनुकूल गुणों से युक्त आदर्श नागरिक होते हैं। हमारे यहां ऐसे ही नागरिकों की बहुतायत है। कर्मयोगी समाजवादी व्यवस्था के लिए आदर्श नागरिक होता है जबकि ज्ञानयोगी लोकतंत्र के लिए अनुकूल नागरिक होता है।

भक्तियोग अध्यात्म की सबसे निचली सीढ़ी है। यह निम्न चेतना वाले लोगों के लिए है। उन्नत चेतना का व्यक्ति कभी किसी का भक्त नहीं हो सकता। वह जिसके गुणों से पसंद करता है उसके अवगुणों की समीक्षा भी करता रहता है। हमारे देश में नरेंद्र मोदी के भक्तों की बड़ी संख्या है। वे अंधभक्त हैं। वे उनके गलत निर्णयों को भी सही मानते हैं और उसे सही ठहराने के लिए तर्क गढ़ते हैं। जब कोई तर्क नहीं मिलता तो गाली-गलौच पर उतर जाते हैं। एक वर्ग है जिसे कोई भी अपना भक्त बना सकता है। चाहे वह आसाराम बापू हों अथवा डेरा सच्चा सौदा वाले रामरहीम। ऐसे लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था को कभी अपनी पटरी पर नहीं आने दे सकता।

धर्म के नाम पर सत्ता पर काबिज होने की लालसा रखने वाले राजनीतिक दल कभी कर्मयोग और ज्ञानयोग की बात नहीं कर सकते। उन्हें निम्न चेतना वाले अंधभक्तों की जरूरत होती है। वही उन्हें सत्ता में टिकाए रख सकते हैं और मनमानी की छूट दे सकते हैं। ज्ञानयोगी और कर्मयोगियों की जिस दिन बहुतायत होगी इनकी सत्तालोलुपता हवा हो जाएगी। तब वे लोगों को बहला पुसलाकर उनका वोट नहीं ले सकेंगे।

भारत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां व्यवस्था तो लोकतंत्र की है लेकिन नागरिक गुणों को उत्पन्न करने का कारखाना राजतांत्रिक व्यवस्था वाला है। इसे बदलने की जरूरत वह आध्यात्मिक संस्थाएं भी महसूस नहीं करतीं जिनकी सत्ता की राजनीति से कोई मतलब नहीं रहता और जो शुद्ध रूप से अध्यात्मवाद के विकास में लगी हुई हैं। अध्यात्म के अंदर के विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने के बाद ही लोगों की सोच तर्कसंगत हो सकती है लोकिन यह काम किसी स्तर पर नहीं हो रहा है। यही इस युग की विडंबना है।        

कोरोनाः इतिहास के आईने में महामारी

 

-देवेंद्र गौतम

 हर शताब्दी का 20वां वर्ष महामारी के नाम होता है। यह एक मिथक है। 20वीं शताब्दी में भी 1920 से 1922 तक स्पैनिश फ्लू का कहर टूटा था। वहीं 2020 में कोरोना का कहर टूटा जो अभी तक कई लाख लोगों की आहुति ले चुका है और अभी इसकी दूसरी लहर ने तबाही मचा रखी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पूरी दुनिया में कहर ढाने वाला कोरोना वायरस का वज़न एक ग्राम से भी कम होगा। याने एक ग्राम वायरस ने चिकित्सा विज्ञान की क्षमताओं पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। आखिर महामारियां कैसे उत्पन्न होती हैं और किस तरह फैलती हैं? जिस कोरोना ने हड़कंप मचा रखा है वह न तो पहला वायरस और न ही आखरी। इससे बचाव के लिए कई वैक्सीन बन चुके हैं। टीकाकरण अभियान भी चल रहा है। लेकिन प्रकोप कम होने की जगह बढ़ता ही जा रहा है।  

 

ईसा के जन्म से भी पहले से संक्रामक रोगों का आक्रमण होता रहा है। लेकिन उस समय यातायात के साधन सीमित थे। इसलिए उनके फैलाव का दायरा सीमित था जबकि मारक क्षमता ज्यादा थी। कोरोना के प्रसार का दायरा बड़ा है लेकिन इसकी मारक क्षमता पूर्व की महामारियों से कम है। यह वैश्वीकरण के युग का वायरस है। विमान पर बैठकर कुछ घंटों में एक-देश से दूरे देश पहुंच जाता है। पुराने वायरस समुद्री जहाजों पर यात्रा करते थे। उन्हें एक देश से दूसरे देश पहुंचने में महीनों का समय लग जाता था।

 

इसके पहले प्लेग ने एशिया, यूरोप और अफ्रीका को अपनी चपेट में लिया था। दरअसल मानव सभ्यता के विभिन्न चरणों में महामारियों का तांडव होता रहा है। चूहे, गंदा पानी, चमगादड़ या मच्छर कुछ ख़ास वायरसों और बैक्टीरिया के संवाहक होते हैं। मानवीय गतिविधियों के कारण ये वायरस और बैक्टीरिया मानव शरीर तक पहुंचते रहे हैं। मानव जितना जंगलों और वन्य जीवन में हस्तक्षेप करता है, उतना ही वायरस का प्रकोप भी बढ़ता जाता है।

 

प्राचीन काल में वैक्टिरिया और वायरस की पहचान कम थी। इसलिए हर महामारी फैलती को प्लेग कहा जाता था। प्लेग को महामारी या  दैवी प्रकोप माना जाता था। इतिहासकारों के मुताबिक ईसा पूर्व 41 महामारियों के दस्तावेज मिले हैं। ईसा पश्चात भी महामारियां फैलती रही हैं। उनकी न कोई दवा थी न वैक्सीन। इसलिए हर महामारी में लाखों मौतें हो जाती थी। एक समय कहावत थी कि प्लेग सिन्धु नदी पार नहीं कर सकता यानी भारत को अपनी चपेट में नहीं ले सकता। लेकिन 19वीं शताब्दी के औपनिवेशिक काल में यह मिथक टूट गया। भारत में प्लेग और हैजा जैसी महामारियों का प्रकोप हुआ। आज़ादी के बाद भी स्वास्थ्य सुविधाओं पर खास ध्यान नहीं दिया गया।

 

महामारियां वायरस जनित भी होती हैं और बैक्टीरिया जनित भी। वायरस एक सूक्ष्म अकोशिकीय जीव होता है, जो कई हज़ार सालों तक सुसुप्तावस्था में रह सकता है। यह किसी जीवित कोशिका के संपर्क में आने के बाद सक्रिय हो जाता है। एक वायरस मानव की लार, खून या आंसू के संपर्क में आकर यह सक्रिय हो जाता है और अपना वंश बढाने लगता है। यह जिस कोशिका से जुड़ता है, उसे संक्रमित कर देता है। वायरस लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है लसलसा या जहरीला।

 

जबकि बैक्टीरिया का मतलब है जीवाणु यानी जीवित अणु या एक कोशिकीय जीव। ये शरीर के भीतर भी रहते हैं और बाहर भी। सारे वैक्टीरिया नुकसानदेह नहीं होते। हमारे पाचन तंत्र में करोड़ों बैक्टीरिया पाचन क्रिया में मददगार होते हैं। कुछ बैक्टीरिया ही मानव के लिए घातक होते है। जैसे प्लेग की बीमारी बैक्टीरिया से फैलती है।

 

प्लेग (वर्ष 165) 

ईसा पश्चात 165 से 180 के बीच दक्षिण-पूर्वी एशिया और वर्तमान टर्की, मिस्र, ग्रीस और इटली में एक किस्म के बैक्टीरिया का संक्रमण फैला था, जिसे एंटोनियन प्लेग या गेलें प्लेग कहा गया। इसे चेचक या खसरा माना गया।

तथ्य बताते हैं कि जब रोम की सेनायें मेसोपोटामिया से वापस लौटीं, तब यह संक्रमण रोम पहुंचा। तब किसी को पता नहीं चला और यह फ़ैलता गया। इस नहामारी ने तब 50 लाख लोगों की जान ले ली थी। हालत यह हुई कि पूरी रोमन सेना इसकी चपेट में आकर नष्ट हो गई। इस संक्रमण की व्याख्या रोमन चिकित्सक गेलें ने किया था। इसलिए इसे गेलें प्लेगकहा जाने लगा। वर्ष 169 में रोमन सम्राट लूसियस वेरस की इसी महामारी की चपेट में आकर मृत्यु हो गयी थी। वे मार्कस औरेलियस एंटोनिनस के सह-राजप्रतिनिधि थे। इसीलिए उस वक्त फैली महामारी को एंटोनाइन प्लेग नाम दे दिया गया।

 

रोमन इतिहासकार डियो कैसियस के मुताबिक़ नौ साल बाद यह महामारी फिर से फैली। इससे हर रोज़ लगभग 2000 लोगों की मृत्यु हुई। बीमारी से संक्रमित एक चौथाई लोगों की मृत्यु हुई। कुछ क्षेत्रों में तो एक तिहाई जनसंख्या ही समाप्त हो गई थी।

 

प्लेग (वर्ष 541-42)

वर्ष 541-42 में जस्टिनियन प्लेग ने यूरोप की एक बड़ी आबादी को ख़त्म कर दिया था। एक अनुमान के मुताबिक इससे 2.5 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी। इस ब्युबोनिक प्लेग के संक्रमण ने बयजैंटाईन साम्राज्य और मेडीटेरेनेनियन के तटीय शहरों को ज्यादा प्रभावित किया था। आधुनिक और प्राचीन यर्सिनिया पेस्टिस डीएनए के आनुवंशिक अध्ययनों से पता चलता है कि जस्टिनियन प्लेग की उत्पत्ति मध्य एशिया में हुई थी। इस पिस्सू के डीएनए के अध्ययन से पता चला कि इसकी जड़ें चीन के किंगहाई में थीं, फिर इसकी जड़ें तिआन शान पर्वत श्रृंखला में भी पायी गईं। मानवीय गतिशीलता के कारण बैक्टीरिया और इसके संवाहक भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर गए। खासतौर पर व्यापारियों के जहाज़ों में अनाज की बोरियों के साथ चूहे भी चले आते थे। वे प्लेग के किटाणुओं का वाहक होते थे। चूहों की मृत्यु होने पर यह किटाणु मानव शरीर में प्रवेश कर जाते थे। इसके कारण प्लेग फैलता था। 

 

ब्लेक डेथ (वर्ष 1346-1353)

वर्ष 1346 से 1353 के बीच में ब्युबोनिक प्लेग फैला था जिसने यूरोप, अफ्रीका और एशिया को लगभग तबाह कर दिया था। माना जाता है कि इसके कारण 7.50 करोड़ से 20 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी। यह अक्टूबर 1347 में यूरोप पहुंचा, जब ब्लेक सीके तट पर मेस्सिना के सिसिलियन बंदरगाह पर 12 जहाज़ आकर रुके। जो लोग बंदरगाह पर मौजूद थे, वे जहाज़ का दृश्य देख कर भोंचक रह गए। जहाज पर यात्रा कर रहे ज्यादातर सैलानी मरे हुए थे और जो जीवित थे उनके शरीर काले फफोलों से भरे हुए थे, जिनमें से खून और मवाद रिस रहा था। सिसली के अधिकारियों ने तत्काल इन जहाज़ों को बंदरगाह छोड़ने का आदेश दिया, किन्तु तब तक देर हो चुकी थी। प्लेग का बैक्टीरिया अपना स्थान बना चुका था और अगले पांच सालों में इसने यूरोप की एक तिहाई जनसँख्या यानी लगभग 2 करोड़ लोगों की जान ले ली।

 

चूहों के साथ सफ़र करते हुए संक्रमित पिस्सुओं ने अपना प्रभाव दिखाया था। चूहों के मरने के बाद वे इंसानों पर आक्रमण करने लगे थे। बहरहाल इन जहाज़ों के आने से पहले ही यूरोपीय समुदाय इस संक्रमित महामारी के बारे में सुन रखा था, जो व्यापार मार्ग के जरिये दुनिया के दूसरे हिस्सों में अपनी पहुंच बढ़ा रहा था। इस प्लेग का वायरस 2000 साल पहले एशिया में पाया गया और व्यापारिक परिवहन के जरिये फैलता गया था। हांलाकि अध्ययन यह भी बता रहे हैं कि प्लेग का रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया यूरोप में 3000 साल पहले से विद्दमान रहे हैं।

 

वर्ष 1664-65 में लन्दन में महामारी फैली थी। उस वक्त लन्दन की 4 लाख की आबादी थी। उसमें से दो-तिहाई आबादी ने लन्दन छोड़ दिया था। बचे हुए लोगों में से 69 हज़ार लोगों की मृत्यु हो गयी थी। इस महामारी ने 1894 में हांगकांग में और 1896 में रूस में कहर वरपाया।

 

प्लेग की तीसरी महामारी वर्ष 1855 में फैली. इसकी शुरुआत चीन के युन्नान प्रांत से हुई और पूरे महाद्वीप में फ़ैल गयी। तब भारत और चीन में 1.2 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह बैक्टीरिया वर्ष 1960 तक सक्रिय था।

 

हैजा (1852-60)

हैजे की उत्पत्ति भारत में हुई थी। इसकी सात महामारियां फैलीं, जिनमें से तीसरी सबसे भयावह मानी जाती है। इसने 10 लाख लोगों का जीवन लील लिया था। पहली और दूसरी हैजा महामारी की तरह ही तीसरी भी भारत में ही पैदा हुई थी। गंगा नदी के डेल्टा से उभर कर यह एशिया के अन्य भागों, यूरोप, उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका तक पहुंची। ब्रिटिश चिकित्सक जान स्नो ने लन्दन की गरीब बस्तियों में अध्ययन करते हुए यह पाया कि हैजा दूषित पानी के कारण फैलता है। 1854 में यह महामारी ब्रिटेन में फैली और 23 हज़ार लोगों की मृत्यु हो गयी।

 

हैजे की छठी महामारी ने वर्ष 1910-11 में भारत में 8 लाख से ज्यादा लोगों की जान ली थी। इसके बाद यह मध्य-पूर्व, उत्तर अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और रूस तक फैला।

 

स्पेनिश फ्लू/एशियाटिक फ्लू/इन्फ़्ल्युएन्जा (श्‍लैष्मिक ज्‍वर)

इन्फ़्ल्युएन्जा एक वायरस (एच1 एन1, 2, 3) के कारण पैदा होने वाली महामारी है। 1889-90 में भी फैली थी। तब इसे एशियाटिक या रशियन फ्लू भी कहा गया था। इसके मामले दुनिया में एक साथ तीन जगहों पर मिले थे बुखारा (तुर्केस्तान), अथाबास्का (उत्तर-पश्चिम कनाडा) और ग्रीन लैंड। जनसंख्या की सघनता ने इसे फैलने में मदद की। इसके कारण 10 लाख लोगों की मृत्यु हुई।

 

वर्ष 1918-20 की महामारी को स्पेनिश फ्लू की महामारी के नाम से भी जाना जाता है। तीन सालों में इसने 50 करोड़ लोगों को संक्रमित किया था। इसके कारण 2 करोड़ से 10 करोड़ तक लोगों की मौत हुई थी। चूंकि वह पहले विश्व युद्ध का दौर था इसलिए महामारी की ख़बरें सार्वजनिक करने पर रोक थी। केवल स्पेन ने महामारी के बारे में जानकारियां देने की पहल की। इसीलिए इसे स्पैनिश फ्लू का नाम दिया गया। आम तौर पर इन्फ्लूएंजा के कारण बच्चों और बुजुर्गों की मृत्यु ज्यादा होती रही है, किन्तु स्पेनिश फ्लू ने युवाओं की मृत्यु दर को बढ़ा दिया था। वर्ष 2007 में हुए अध्ययनों के आधार पर बताया गया कि इन्फ्लूएंजा का संक्रमण इतना घातक नहीं था किन्तु स्वास्थ्य सेवाओं की कमी,  कुपोषण, बस्तियों के सघन होने के कारण यह महामारी घातक हो गयी थी। इसके संक्रमण ने लम्बे समय तक व्यक्तियों को बीमार बनाए रखा और मृत्यु का बड़ा कारण साबित हुआ। इसने भारत में भी 1.2 करोड़ लोगों की जीवन ले लिया।

 

इन्फ़्ल्युएन्जा (श्‍लैष्मिक ज्‍वर) एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमित हो सकता है. इस बीमारी में मुख्य रूप से बुखार, सर्दी/नाक बहना, गले में खराश, बदन दर्द सरीखे ही लक्षण होते हैं। आशंका है कि फ्लू की ऐसी ही महामारी मानव समाज में फिर से कभी भी फैल सकती है. वर्ष 1918-20 की अवधि में जब यह महामारी फैली थी तब शुरू के 25 हफ़्तों में ही 2.50 करोड़ लोगों की मृत्यु हो गयी थी। इस महामारी के पहले इन्फ़्ल्युएन्ज़ा से बच्चों और बुजुर्गों की मृत्यु ज्यादा होती थी, किन्तु इस महामारी के दौरान युवा उम्र के स्वस्थ लोगों की भी बहुत मौतें हुईं, जबकि जिनकी प्रतिरोधक क्षमता बेहतर थी, वे जीवित बचे रहे। वंचित तबकों में मज़बूत प्रतिरोधक क्षमता वाले बच्चों की मृत्यु दर कम रही।

 

 

 

 

पार्ट टू: वास्तव में मानव इतिहास के साथ ही वायरस और बैक्टीरिया संक्रमण का भी इतिहास बनता रहा रहा है. प्राचीन काल के इतिहास में भी संक्रमण के सूत्र पाए गए हैं.  हर मानव में जन्म से ही एक वायरोम” (वायरसों का समूह) पाया जाता है. उदाहरण के लिए हर्पिस सिम्पलेक्स वायरस-1 के कारण होने वाले कोल्ड सोर्स (मुंह या नाक के आसपास  फफोले के जाना) या इपेस टिन बर्र वायरस के कारण ग्रंथियों का बुखार होता है. ये वायरस हमारे साथ हमेशा रहते हैं. जींस के अध्ययन से यह पता चलता है कि कौन सा वायरस मानव के साथ कबसे रह रहा है. यह माना जाता है कि ल्यूकीमिया बीमारी से ग्रसित करने वाला ह्यूमन टी सेल लियुकीमिया वायरस टाइप-1 का कारण बनता है, मानव के साथ हज़ारों साल से रहता आया है. आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों में इसके प्रमाण 9000 साल पहले दिखाई मौजूदा होने के प्रमाण हैं. मिस्र की ममी में ईसा से 1500 से 4000 साल पहले चेचक और पोलियो होने के प्रमाण मिले हैं.

पोलियो (पोलियोमायलिटिस)

यह सबसे ज्यादा डराने वाली और छोटे बच्चों को प्रभावित करने वाली बीमारी रही है. इससे होने वाली विकलांगता का कोई उपचार नहीं रहा. विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है कि अब पोलियो 99 प्रतिशत समाप्त हो चुका है और कुछ वंचित देशों में बचा हुआ है.

 

पोलियो (जो पोलियोमायलिटिस वायरस के कारण होता है) हज़ारों साल तक मानव समाज के बीच बना रहा. 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक पोलियो के बड़ी महामारियां लगभग अज्ञात ही थी. 19वीं शताब्दी में यूरोप में पोलियो ने अपना विस्तार किया और लगभग महामारी का रूप ले लिए. इसके बाद यह अमेरिका में भी फ़ैल गया. यह विकसित देशों में ज्यादातर गर्मियों के समय अपना ज्यादा असर दिखाता था. आंकलन है की 1940 और 1950 के दशक में यह चरम पर था, जब इसने हर साल 5 लाख से ज्यादा लोगों के अपंग किया या कईयों की मृत्यु का कारण बना.

 

मिस्र की प्राचीन चित्रकला (ई.पू. 1400) में स्वस्थ व्यक्तियों के साथ ऐसे व्यक्तियों को भी दिखाया गया है, जिनके पैर शरीर की तुलना में मुरझाये हुए थे और फिर ऐसे बच्चे दिखाए गए, जो लाठी के सहारे चलते थे. यह माना जाता है कि रोमन सम्राट क्लाडियस बचपन में इसके शिकार हो गए थे, और उन्हें जीवन भर लंगड़ा कर चलना पडा था. शायद इस बीमारी का पहला दर्ज मामला सर वाल्टर स्काट का माना जाता है. उन्हें खूब तेज़ कंपकंपी के साथ बुखार आया और इसके बाद वे अपने पैरों से चलने में अक्षम हो गए.

पोलियोमायलिटिस को 19वीं सदी में कई नामों से पुकारा गया. इसे दंत पक्षाघात, शिशु उम्र में रीढ़ की हड्डी का पक्षाघात (पैरालिसिस), बच्चों में होने वाला पक्षाघात, सुबह का पक्षाघात आदि कहा गया.

पोलियोमायलिटिस का पहली बार क्लीनिकल विवरण ब्रिटेन के चिकित्सक माइकल अंडरवुड ने दिया. उन्होंने इसे हाथ पैरों की अपंगताकहा. फिर पहली मेडिकल रिपोर्ट जेकब हेइन ने वर्ष 1840 में प्रस्तुत की. उन्होंने इसे हाथ परों का पक्षाघातकहा. इसके बाद इस महामारी का काल अध्ययन वर्ष 1890 में कार्ल आस्कर मेदिन ने किया.

 

20वीं शताब्दी के पहले तक पोलियो महामारी लगभग अज्ञात थी. स्थानीय स्तर पर इसकी मौजूदगी वर्ष 1900 के आसपास यूरोप और अमेरिका में दर्ज हुई. एक साथ कुछ मामले वर्ष 1841 होना पाए गए थे. इसके बाद वर्ष 1893 में बोस्टन में और फिर वेरमोंट में दिखाई दिए. इसके बाद हर साल पोलियो के कुछ मामले उभरते रहे. वर्ष 1907 में न्यूयार्क में में पोलियो के 2500 मामले दर्ज हुए.

 

17 जुलाई 1916 को को पोलियो को एक महामारी घोषित किया गया. इस साल वहां 27 हज़ार पोलियो केस उभरे. पोलियो के प्रभावित लोगों के घर चिन्हित करके उन पर विशेष पट्टिकाएं लगाईं गयीं और उन्हें क्वारंटाइन किया गया. इसका भय इतना फैला कि हज़ारों लोगों ने शहर छोड़ दिया, बाज़ार बंद हो गए. 1940 और 50 के दशक में इसका गंभीर प्रभाव दिखा. वर्ष 1949 में न्यूयार्क में 42173 मामले दर्ज हुए और 2720 लोगों की मृत्यु हुई.

 

20वीं शताब्दी के पहले पोलियो के मामले 6 माह से 4 वर्ष के बच्चों में ज्यादा दिखाई देते थे. छोटे बच्चों के इसके साधारण लक्षण दिखाई देते थे, किन्तु फिर वे इससे प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते थे. कुछ अध्ययन सामने आने के बाद विकसित देशों में पीने के साफ़ पानी, स्वच्छता और मल निकास की व्यवस्था को सुचारू बनाया गया ताकि बच्चों में इसके प्रति प्रतिरोधक क्षमता को विकसित किया जा सके. वर्ष 1952 में पोलियो की सबसे गंभीर महामारी फैली, जब 57628 लोग इससे पीड़ित हुए, 3145 की मृत्यु हुई और 21269 लोग अपंग हो गए.

 

पोलियो के टीके के ईजाद की कोशिश कई सालों तक चलती रही. वर्ष 1935 में न्यूयार्क विश्वविद्यालय के शोध सहायक ने पोलियो वायरस से पोलियो टीका बनाने की कोशिश की. किन्तु सफल नहीं रहा. फिर 15 साल बाद जान एंडर्स के शोध समूह ने बोस्टन के बाल चिकित्सालय में पोलियो वायरस को मानव ऊतक में डालने का सफल प्रयोग किया.

 

विश्व में पोलियो के दो टीके इस्तेमाल किये जाते हैं. जोनस साक ने वर्ष 1952 में पहले टीके का प्रयोग किया था. इसे निष्क्रीय पोलियो वायरस टीका-आईपीवीकहा गया क्योंकि इसमें मृत वायरस का उपयोग किया गया था. साक के प्रयोग को सबसे बड़ा मानव प्रयोग कहा जाता है. टीके के सफल प्रयोग के बाद वर्ष 1957 में अमेरिका में टीकाकरण का बड़ा अभियान चलाया है. इससे पोलियो के प्रकरण 58 हज़ार से कम होकर 5600 तक आ गए. इसके 8 साल बाद अलबर्ट सेबिन ने मौखिक (मुंह से उपयोग के लिए) वैक्सीन ईजाद की. इसका उपयोग भी अभियान चला कर किया गया.

 

12 अप्रैल 1955 को साक द्वारा ईजाद टीके को सुरक्षित, प्रभावी और सक्षमघोषित कर दिया गया. तब टीके पर किसका पेटेंट?” सवाल के जवाब में साक ने कहा मैं कहूँगा कि लोगों का, इस पर किसी का पेटेंट नहीं है. क्या आप सूरज का पेटेंट कर सकते हैं?” लेकिन यह भावना अब मर चुकी है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि पोलियो विश्व को सबसे ज्यादा डराने वाली बीमारी थी और इसका इलाज़ खोजने की पहल को खोजना दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक-निजी उपक्रम; क्योंकि इसके इलाज़ की खोज के लिए बहुत सारे लोगों ने दान दिया था.

 

एशियन फ्लू (वर्ष 1956-58)

यह एक किस्म का इन्फ्ल्युएंजा की महामारी थी. इसे इन्फ्ल्युएंजा ए (एच2एन2) के रूप में पहचाना गया. यह वर्ष 1956 में चीन से शुरू हुई और चीन के गुईजोऊ प्रांत से सिंगापुर, हांगकांग होते हुए अमेरिका तक पहुंची. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ इसके कारण कुल 20 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी.

मारबर्ग वायरस (वर्ष 1967)

 

वैज्ञानिकों ने वर्ष 1967 में मारबर्ग वायरस की मौजूदगी का पता लगाया. यह वायरस उस प्रयोगशाला के टेक्नीशियनों में पाया गया था जो युगांडा से मंगाए गए संक्रमित बंदरों के साथ काम कर रहे थे. यह लगभग इबोला की तरह होता है. इससे शरीर के भीतर खून का रिसाव होता है और साथ में बहुत तेज़ बुखार. इससे शरीर को आघात लगता है, अंग काम करना बंद कर देते हैं और मृत्यु भी हो जाती है. जब यह वायरस पहली बार फैला था, तब इससे 25 प्रतिशत संक्रमित लोगों की मृत्यु हुई थी, लेकिन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कांगों में हुए 1998-2000 के प्रकोप में और अंगोला में वर्ष 2005 में हुए प्रकोप में 80 प्रतिशत संक्रमितों की मृत्यु हो गयी थी.

इबोला (वर्ष 1976 से)

इबोला वायरस का पहला प्रकोप वर्ष 1976 में सूडान गणराज्य और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कांगों में माना जाता है. इबोला का प्रसार संक्रमित मानव या पशु के शरीर में पाए जाने वाले तरल पदार्थ, खून या टिश्यु के संपर्क में आने से होता है. इबोला वायरस का एक तना (क्योंकि इसका आकार तने की तरह ही होता है) मनुष्य को बीमार नहीं करता है किन्तु बनडीबुगायो में इबोला के तने ने 50 प्रतिशत और और सूडान तने ने 50 प्रतिशत संक्रमितों की जान ले ली थी.

 

रेबीज़

हम सब जानते हैं कि रेबीज़ भी पशुओं से ही फैलता है. हांलाकि वर्ष 1920 से इसका टीका उपलब्ध है और इससे रेबीज़ का खतरा बहुत कम हो गया है. विकसित देशों में रेबीज़ पर बहुत नियंत्रण है, किन्तु भारत और अफ्रीका में इसका बहुत प्रसार है. यह दिमाग पर बहुत घातक असर डालता है, यदि इसका उपचार नहीं किया जाता है, तो रेबीज़ से प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु होना 100 प्रतिशत निश्चित है.

 

एचआईवी

ह्युमन इम्युनोंडेफिशियेंसी वायरस यानी मानव शरीत के प्रतिरोधक तंत्र को विकृत कर देने वाला वायरस. एचआईवी की पहचान 1980 के आसपास हुई थी. अब तक इससे 3.5 करोड़ लोग मारे जा चुके हैं. वर्तमान में यह एक जानलेवा घातक वायरस है. आज की स्थिति में कुल एचआईवी संक्रमित लोगों में से 95 प्रतिशत कम-मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं. अफ्रीका अंचल में हर 25 लोगों में से 1 व्यक्ति इससे संक्रमित है.

स्माल पाक्स/चेचक

 

चेचक की बीमारी होने के संकेत ई.पू. 10000 में भी पाए गए. प्रमाणिक रूप से ई.पू. 3000 की मिस्र की ममी (संरक्षित शवों) में इसके प्रमाण दिखाई दिए हैं. यह बीमारी भी व्यापारिक मार्गों से फैली. 18वीं सदी में यूरोप में हर साल 4 लाख लोगों की मृत्यु हुई.

 

1980 में दुनिया को चेचक से मुक्त घोषित कर दिया गया था, लेकिन इसके पहले हज़ारों सालों तक इस संक्रमण ने बहुत घातक स्थितियां पैदा की थीं. यह बीमारी मानव शरीर पर गहरे धब्बे, स्थाई निशान और अक्सर अंधापन छोड़ जाती थी. यूरोप के बाहर इस बीमारी के कारण मौतें भी बहुत होती थीं. इतिहासकारों का मानना है कि 90 प्रतिशत अमेरिकी मूल निवासियों की आबादी यूरोपीय यात्रियों द्वारा लाये गए चेचक के संक्रमण के कारण ख़तम हो गयी. अकेले 20वीं शताब्दी में 30 करोड़ लोगों की मृत्यु चेचक के कारण हुई.

हंता वायरस

 

हंता वायरस फुफ्फुस (फेंफडे) को प्रभावित करता है. इसके संकेत सबसे पहली बार अमेरिका के एक दंपत्ति में मिले. कुछ दिनों बाद वैज्ञानिकों ने यह वायरस ख़ास किस्म के चूहे (डीयर माउस) में पाया. ऐसा माना जाता है कि यह वायरस कुतरने वाले जानवरों में पाया जाता है.

 

अमेरिका में इस वायरस के कारण फेंफडे की जटिल समस्याएं पैदा हुईं, जबकि यूरोप में गुर्दे के सिंड्रोम के साथ रक्तस्रावी बुखार (जटिल स्थितियां) की समस्या हो रही है. अमेरिका में जिन 600 लोगों के इससे संक्रमित पाया गया, उनमें से 36 प्रतिशत की मृत्यु हो गयी. अध्ययन बताते हैं कि यह संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं पहुँचता है, बल्कि संक्रमित चूहे के मल, पेशाब या लार के संपर्क में आने से होता है. वर्ष 1950 के दशक में कोरियन युद्ध के समय एक अलग किस्म का हंता वायरस फैला था, जिसने 3000 सैनिकों को संक्रमित किया था.

संदर्भःविकीपीडिया

 

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