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शुक्रवार, 14 जून 2019

राष्ट्रनायक का अपमान, राष्ट्र का अपमान




देवेंद्र गौतम
रांची। बिरसा की मूर्ति को क्षति पहुंचाने वालों ने सिर्फ झारखंड की 3 करोड़ की आबादी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई है, पूरे राष्ट्र की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। वे किसी समुदाय विशेष के नहीं आजादी की हवा में  सांस लेने वाले हर भारतवासी के महानायक हैं। इसके पीछे सिर्फ वोटों की राजनीति है। जिस भी राजनीतिक दल अथवा संगठन का इसमें हाथ है उसका पर्दाफाश करना सिर्फ सरकार की नहीं हर नागरिक की जिम्मेवारी है और जिस किसी व्यक्ति ने इसमें भूमिका निभाई है, उसे सरेआम सज़ा देनी चाहिए। जिस संगठन ने यह साजिश रची है उसका पूरी तरह सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाना चाहिए। यदि वह कोई राजनीतिक दल है तो उसके कार्यक्रमों में कोई हिस्सेदारी न हो। चुनाव में उतरे तो उसके प्रत्याशियों को एक भी वोट नहीं दिया जाना चाहिए। तभी उन्हें अपनी करतूत का वास्तविक फल मिलेगा। इस तरह की साज़िशों का अंत होगा। भावुकता में बहकर यदि हम आपा खो बैठेंगे तो शरारती तत्वों की मंशा को पूरी कर रहे होंगे। यही तो उनका मकसद है। यह समय संयम के साथ उनकी पहचान करने और सही तरीके से दंडित करने का है।
राजनीति का स्तर इतना नीचे गिर चुका है कि सत्ता के लिए लोग कुछ भी करने में शर्म महसूस नहीं करते। कभी मंदिर में गोमांस तो कभी मस्जिद में सूअर का मांस फेंका जाता है। यह काम आम जनता कभी नहीं करती। किसी न किसी संगठन का हाथ होता है। सिर्फ ध्रुर्वीकरण करना और इसका राजनीतिक लाभ उठाना इसका मकसद होता है। वे जानते हैं कि भारत के लोग दिमाग से कम दिल से ज्यादा काम लेते हैं। इसे समझने की जरूरत है। भावनाओं के साथ खिलवाड़ का जवाब भावनाओं में बहकर नहीं दिया जा सकता। इसका जवाब सिर्फ संयम के साथ दिया जा सकता है। धीरे-धीरे आम जनता संयमित हो रही है। 90 के दशक में जहां जरा-जरा सी बात पर पूरे देश में दंगा भड़क उठता था, अब नहीं भड़कता। थोड़ा तनाव उत्पन्न होता है लेकिन नियंत्रित हो जाता है। अब संयम के साथ साजिशों को भंडाफोड़ की जरूरत है।

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

वामपंथी बनाम दक्षिणपंथी रूढ़िवाद



देवेंद्र गौतम

सोशल मीडिया के इस जमाने में हर पर्व त्योहार या धार्मिक आयोजन के मौके पर कोई न कोई कथित वामपंथी विद्वान उसे ढोंग, ढकोसला, अंधविश्वास आदि करार दे ही देता है। फिर दक्षिणपंथी खेमे से इसके जवाबी पोस्ट आने लगते हैं। इस क्रम में भाषा की मर्यादा तक ताक़ पर रख दी जाती है। सच्चाई यह है कि दोनो ही अपने-अपने ढंग के रूढ़िवाद से ग्रसित हैं। अपने कालखंड की विशिष्टताओं, ज्ञान-विज्ञान से पूरी तरह के कटे हुए। लकीर के फकीर। वामपंथ चीजों को वैज्ञानिक नजरिए से देखने और तार्किक तरीके से विश्लेषण करने की प्रेरणा देता है। लेकिन वामपंथी अपने पूर्वजों यानी मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की कही बातों के आधार पर अपनी धारणा बनाते हैं और विभिन्न मंचों से व्यक्त करते हैं। इस क्रम में सामयिक घटनाओं और प्रवृतियों का विश्लेषम तो हो जाता है लेकिन धर्म और अध्यात्म के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं हो पाते। सवाल है कि क्या मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और माओं के देहांत के बाद विज्ञान का विकास रुक गया था? समय का पहिया थम गया था? उनकी प्रस्थापनाओं में कुछ नया जोड़ने की जरूरत नहीं है?
हाल के वर्षों में देशी-निदेशी विश्वविद्यालयों में जो शोध हुए हैं उनसे पता चलता है कि धार्मिक परंपराओं और रीति-रिवाजों के अंदर भी विज्ञान है। आधुनिक विज्ञान परमाणु से विकसित हुआ है तो आध्यात्मिक विज्ञान। विशुद्ध ऊर्जा, महाशून्य, कास्मिक रेज अथवा ब्रह्म से। आधुनिक शोधों से धर्म और विज्ञान के बीच की दूरी निरंतर कम होती जा रही है। माना जा रहा है कि धार्मिक ग्रंथों में वैज्ञानिक बातों को अंधविश्वास की भाषा में कहा गया है। संभवतः यह उस काल के बौद्धिक और सामान्य जन की चेतना के स्तर में अंतर के कारण किया गया हो। ठीक उसी तरह जैसे इतिहास को मिथिहास की भाषा में लिखा गया था। वैज्ञानिक स्वयं स्वीकार करते हैं कि यह भूमंडल और जीवमंडल अरवों-खरबों वर्षों से अस्तित्व में है। तो क्या यह मान लिया जाए कि मानव सभ्यता हड़प्पा, मिश्र और मेसेपोटानिया से पहले नहीं रही रही होगी इसलिए कि हम उससे अवगत नहीं हैं। तो क्या धर्मग्रंथों में जो बातें अंधविश्वास की भाषा में कही गई हैं उन्हें वैज्ञानिक भाषा में नहीं कहा जाना चाहिए? क्योंकि वामपंष के पूर्वजों ने उन्हें सिरे से नकार दिया था? धर्म के प्रति पूर्वाग्रह पूर्ण नकारात्मक धारणा के कारण ही वामपंथ की धारा सिमटती और व्यापक जन समुदाय से कटती जा रही है। भाकपा माले के पूर्व महासचिव विनोद मिश्र ने कहा था कि धर्म व्यक्तिगत आस्था की चीज है, उसे इसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। अगर माओ ने धर्म को अफीम करार दिया तो इसका कारण था कि उस समय तक उसके अंदर की वैज्ञानिकता की पड़ताल नहीं की गई थी। अब जब उसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा रहा है तो क्या इसे इसलिए अस्वीकार कर देना चाहिए कि वामपंथ के पूर्वजों ने स्वीकार नहीं किया था। स्थापित प्रस्थापना को मानने और बनी बनाई लीक पर चलना कत्तई वामपंथ नहीं है। यह एक किस्म का रूढ़िवाद है। हर विचारधारा अपने उदयकाल में सर्वाधिक आधुनिक और प्रासंगिक होती है लेकिन कालांतर में जब वह अपने समय, काल, परिस्थितियों और ज्ञान-विज्ञान के विकास के अनुरूप परिमार्जित नहीं होती तो रूढ़ होने लगती है। वामपंथ का रूढ़िवाद अभी शैशवकाल में है। इससे छुटकारा पाया जा सकता है। दक्षिणपंथ का रूढ़िवाद क्रोनिक है। से दूर करने के लिए वामपंथ को ही आगे आना होगा लेकिन अपने रूढ़िवाद से मुक्त होने के बाद। दक्षिणपंथियों को रूढ़िवादी और ढपोरपंथी क्यों कहा जाता है? इसीलिए न कि वे सदियों से स्थापित प्रस्थापनाओं के अनुरूप आचरण करते हैं। पूर्वजों की हर बात को ब्रह्मवाक्य मानते हैं। अगर वामपंथी भी यही करते रहेंगे तो फिर वामपंथी और दक्षिणपंथी में अंतर क्या है? दोनों अपने-अपने पूर्वजों की कही बातों को ब्रह्मवाक्य मानकर चलते हैं।
दक्षिणपंथियों की समस्या यह है कि वे विज्ञान को अपना शत्रु मानते हैं। ठीक जैसे वामपंथी धर्म को पूरी तरह अवैज्ञानिक मानते हैं। लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हम न तो आदिम युग में जी रहे हैं और न 19 वीं शताब्दी में। यह 21 वीं सदी है। कम से कम अब तो पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चीजों को नए सिरे से देखने का प्रयास करें। अभी दुर्गा पूजा, दीपावली, छठ आदि पर्वों के मौसम में एक दूसरे पर कटाक्ष करने की जगह अगर इनके अंदर के वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक तथ्यों पर स्वस्थ चर्चा करते तो हम सबका बौद्धिक विकास होता। आमलोगों को नए नज़रिए से चीजों को देखने की प्रेरणा मिलती। लेकिन मुझे लगता है कि सारी चीजें अंततः राजनीति पर आकर टिक जाती हैं। नास्तिकता और आस्तिकता के आधार पर जनता को विभाजित करने का मकसद ज्यादा होता है। स्वस्थ बहस और लोक शिक्षण का मकसद कम होता है। यही विडंबना है।

रविवार, 30 सितंबर 2018

झूठ को कितना भी दुहराओ, सच नहीं होगा




देवेंद्र गौतम

जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर का कहना था कि झूठ को इतनी बार दुहराओ कि वह सच प्रतीत होने लगे। दक्षिणपंथी राजनीति इसी सूत्रवाक्य का अनुसरण करती है। लेकिन हिटलर के समय और आज के समय में काफी अंतर आ चुका है। उस समय जर्मनी, इटली और जापान में उग्र राष्ट्रवाद की लहर चल रही थी। जनता सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं पर आंख मूंदकर भरोसा करती थी। यह उग्रराष्ट्रवाद प्रथम विश्वयुद्ध में शर्मनाक पराजय और वर्साय संधि के तहत जबरन लादी गई शर्तों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ था। उस संधि को नकार कर सत्ता में आए हिटलर सरीखे नेता पर लोगों का पूरा भरोसा था। यहूदी विरोध के जरिए उत्पन्न नस्लवादी घृणा ने इस भरोसे को और भी मजबूत किया था। उसे झूठ को बहुत अधिक दुहराने की जरूरत भी नहीं थी। देशवासियों के लिए उसका वचन ब्रह्मवाक्य का दर्जा रखता था। अविश्वास का कोई प्रश्न ही नहीं था। झूठ को सिर्फ अपनी तसल्ली के लिए दुहराना पड़ता था।
      अब समय बदल चुका है। अब उग्र राष्ट्रवाद की वैसी लहर दुनिया में कहीं मौजूद नहीं है। हिटलर जैसा नेतृत्व और व्यक्तित्व भी नहीं है। निस्संदेह भारत में वह तमाम तत्व, वह तमाम परिस्थितियां मौजूद हैं जो जर्मनी और विक्षुब्ध राष्ट्रों में थी। लेकिन उनका प्रतिशत कम है। उनकी धार में वैसी तीव्रता नहीं है। कहते हैं कि भारत को वर्साय संधि जैसी शर्तों के आधार पर ही आजादी मिली थी लेकिन संधि का दस्तावेज़ कहीं उपलब्ध नहीं है। हिटलर को सफलता इसलिए भी मिली थी कि वह प्रथम विश्वयुद्ध में सैनिक के रूप में लड़ा था और युद्ध समाप्त होते ही उसने संधि का मानने से इनकार करते हुए मुहिम चलानी शुरू कर दी थी।
जब नेता पर जनता के भरोसे का ग्राफ उतना ऊंचा न हो और वह लगातार फर्जी आंकड़ों के जरिए अपनी उपलब्धियों का दावा करे तो उसका झूठ सच में नहीं परिणत होता बल्कि खीज़ उत्पन्न करता है। देश में बेरोजगारी का आंकड़ा बढ़ रहा हो और आप दो करोड़ लोगों को नियोजन देने का दावा करें तो लोगों के अंदर आक्रोश उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इससे लोकप्रियता का ग्राफ गिरता है और भरोसा टूटता है। एक दो झूठ तो फिर भी ठीक लेकिन लगातार झूठ पर झूठ। विफल प्रयोगों को भविष्य में लाभदायक होने का दावा चंद लोगों को भ्रमित कर सकता है सारे देशवासियों को नहीं। धर्म के अफीम का नशा रोजी-रोटी के सवाल को गौण नहीं कर सकता। मूर्खतापूर्ण प्रयोगों की विफलता पर सफलता की मुहर नहीं लगा सकता।  भारत में सत्ता पलटती है जब नेतृत्व पर भरोसा टूटता है। हिटलर के अंदर जिद थी, महत्वाकांक्षा थी लेकिन अहंकार नहीं थी। उसके व्यक्तित्व में बनावट नहीं थी। उसके पास कोई मुखौटा नहीं था। अब झूठ को जितनी बार दुहराया जाएगा वह उतना ही आक्रोश उत्पन्न करेगा और अहंकार तो इस धरती पर किसी का कायम नहीं रहा है। बड़ी से बड़ी ताकतें पलक झपकते मिट्टी में मिल जाती हैं।

सोमवार, 18 जून 2018

सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वहन का समय



झारखंड की राजधानी रांची की फज़ा में जहर घोलने का षडयंत्र रचा जा रहा है तरह-तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं। शांतिपूर्ण जनजीवन में खलल डाला जा रहा है । लोग भी कान टटोलने की जगह कौवे के पीछे भागने लग जा रहे हैं। रोज किसी न किसी इलाके में तनाव और झड़प की खबर आ रही है। छोटी-छोटी बातें बड़ा आकार ग्रहण कर ले रही हैं। यदि पकड़े नहीं गए तो शरारती तत्व झारखंड के दूसरे इलाकों को भी निशाना बना सकते हैं।
पुलिस-प्रशासन मुस्तैदी से स्थिति को नियंत्रित कर ले रही है लेकिन शरारत की साजिश कहां से रची जा रही है, पता नहीं चल पा रहा है। आम लोगों में भय व्याप्त है। सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ा दी गई है लेकिन जबतक षडयंत्रकारी पकड़े नहीं जाते माहौल शांत होने के आसार नहीं दिखते। उसपर भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन के प्रस्ताव को लेकर विपक्षी दलों का आक्रामक रुख शांति व्यवस्था के प्रति एक नए खतरे की आशंका को बल दे रहा है। वे अपनी लड़ाई सड़कों पर लाने की जगह यदि विधायिका और न्यायपालिका तक महदूद रखते तो ज्यादा असर छोड़ जाते। लोगों की भरपूर सहानुभूति का पात्र बनते। सरकार पर दबाव डालने के और भी तरीके हो सकते हैं।
सरकारी तंत्र तो माहौल को शांत करने का हर संभव प्रयास कर रहा है लेकिन ऐसे में राजनीतिक दलों, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों और शांति समितियों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उनके सदस्य अपने-अपने इलाके पर नज़र रख सकते हैं और अफवाहों का तत्काल खंडन कर, विभिन्न समुदायों के बीच भाईचारा कायम करने में भूमिका अदा कर सकते हैं। सिर्फ बैठक करने से या शांति जूलूस निकालने से काम नहीं चलने वाला। जिम्मेदार नागरिकों को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने को आगे आना होगा। चुनावी लाभ-हानि के गणित से भी इसे दूर रखा जाना चाहिए।

शुक्रवार, 8 जून 2018

अपने व्यक्तित्व का लोहा मनवा गए प्रणब दा


 देवेंद्र गौतम
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के आरएसएस मुख्यालय, नागपुर का आमंत्रण स्वीकार करने को लेकर जो लोग आपत्ति व्यक्त कर रहे थे, परामर्श दे रहे थे, उन्हें अब समझ में आ गया होगा कि प्रणब दा के व्यक्तित्व के सामने वे कितने बौने और कितने नासमझ थे। प्रणब दा ने कांग्रेसियों के तमाम सुझावों और अटकलबाजियों का उस वक्त कोई जवाब नहीं दिया था। सिर्फ यही कहा था कि उन्हें जो भी कहना है नागपुर में कहेंगे। अब उनके भाषण से कहीं ऐसा नहीं लगता कि वे संघ के विचारों से संक्रमित या प्रभावित हुए हैं। उन्होंने संघ के मंच से अपनी बातें रखीं। उन्होंने वही सब कहा जो नेहरू की विरासत है उनका पूरा भाषण गांधी और नेहरू के राजनीतिक दर्शन का निचोड़ था जिसके सामने आरएसएस और बीजेपी कभी पटेल, तो कभी बोस को खड़ा करने की कोशिश करते रहे हैं।
अपने ज़ोरदार भाषण में प्रणब मुखर्जी ने जिस देश के इतिहास, संस्कृति और पहचान पर रोशनी डाली वह नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया वाला भारत है, यहां तक कि उनके भाषण का प्रवाह भी वही था जो नेहरू की किताब में है। उन्होंने कहा कि राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति ये तीनों सब एक दूसरे से जुड़े हैं इन्हें अलग नहीं किया जा सकता।-
उन्होंने शब्दकोश से पढ़कर नेशन की परिभाषा पढ़कर बताई। उन्होंने भाषण की शुरुआत महाजनपदों के दौर से यानी ईसा पूर्व छठी सदी से की, ये भारत का ठोस, तथ्यों पर आधारित और तार्किक इतिहास है।
यह संघ की अवधारणा वाला इतिहास नहीं था। संघ जिस इतिहास को स्थापित करना चाहता है वह हिंदू मिथकों से भरा काल्पनिक इतिहास है जिसमें देश की तामा गड़बड़ियों की शुरुआत गैर हिन्दू शासकों के आगमन के साथ माना जाता है। उस इतिहास में संसार का समस्त ज्ञान, वैभव और विज्ञान है। तकनीकी ज्ञान है। उसमें पुष्पक विमान उड़ते हैंप्लास्टिक सर्जरी होती हैइंटरनेट होता है।
प्रणब मुखर्जी ने बताया कि ईसा से 400 साल पहले ग्रीक यात्री मेगास्थनीज़ आया तो उसने महाजनपदों वाला भारत देखा, उसके बाद उन्होंने चीनी यात्री ह्वेन सांग का ज़िक्र किया जिसने बताया कि सातवीं सदी का भारत कैसा था, उन्होंने बताया कि तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय पूरी दुनिया की प्रतिभाओं को आकर्षित कर रहे थे। इन सबका ज़िक्र नेहरू ने ठीक इसी तरह अपनी किताब में किया है
प्रणब दा ने बताया कि उदारता से भरे वातावरण में रचनात्मकता पली-बढ़ी, कला-संस्कृति का विकास हुआ और भारत में राष्ट्र की अवधारणा यूरोप से भी पुरानी और उससे अलग है। उन्होंने कहा कि यूरोप का राष्ट्र एक धर्म, एक भाषा, एक नस्ल और एक साझा शत्रु की अवधारणा पर टिका है, जबकि भारत राष्ट्र की पहचान सदियों से विविधता और सहिष्णुता से रही है।
उन्होंने संघ का नाम लिए बिना उसकी नीतियों की ओर इशारा करते हे कहा कि धर्म, नफ़रत और भेदभाव के आधार पर राष्ट्र की पहचान गढ़ने की कोशिश हमारे राष्ट्र की मूल भावना को ही कमज़ोर करेगी।
मुखर्जी के भाषण को लेकर कई तरह की शंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने की बचकानी कोशिश की जा रही थी। लेकिन उन्होंने मौर्य वंश के अशोक को सबसे महान राजा बताया जिसने जीत के शोर में, विजय के नगाड़ों की गूंज के बीच शांति और प्रेम की आवाज़ को सुना, संसार को बंधुत्व का संदेश दिया। पंडित नेहरू भी यही मानते थे इसीलिए अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में स्वीकार किया था।
संघ का हमेशा से भारत को महान सनानत धर्म का मंदिर बताता रहा है। हिन्दू धर्म को भारत का मूल आधार घोषित करता रहा है। उसके मुताबिक इस देश को हिंदू शास्त्रों, रीतियों और नीतियों से चलाया जाना चाहिए लेकिन इसके प्रणव दा ने स्पष्ट कहा कि एक भाषा, एक धर्म, एक पहचान हमारा राष्ट्रवाद नहीं है।
उन्होंने गांधी के वक्तव्य का हवाला देते हुए कहा कि भारत का राष्ट्रवाद आक्रामक और विभेदकारी नहीं हो सकता, वह समन्वय पर ही चल सकता है। उन्होंने सेकुलरिज्म के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए कहा कि भारत में संविधान के अनुरूप देशभक्ति ही सच्ची देशभक्ति हो सकती है।
उन्होंने हिंदुत्व की संस्कृति की जगह साझा संस्कृति की बात की। बहस में हिंसा ख़त्म करने की जरूरत पर बस दिया।  देश में ग़ुस्सा और नफ़रत को कम करने और प्रेम तथा सहिष्णुता को बढ़ाने का आह्वान किया।
उनका पूरा भाषण उदार, लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, संविधान सम्मत, मानवतावादी भारत की की ओर केंद्रित था। जो गांधी-नेहरू का मिला-जुला राजनीतिक दर्शन है।
प्रणब मुखर्जी ने संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों को यह संदेश दिया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक अस्पृश्यता के लिए कोई जगह नहीं होती। अपने विचारों को शालीनता के साथ रखना ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उद्देश्य है। वैचारिक मतभेद के कारण वाद-विवाद से परहेज नहीं करना चाहिए।


गुरुवार, 7 जून 2018

निष्पक्ष न्याय प्रणाली का यक्ष प्रश्न



-देवेंद्र गौतम

झारखंड के सिमडेगा में एक 70 वर्षीय बुजुर्ग को शराब की लत के कारण जान गंवानी पड़ी। उन्हें उनकी बहुओं ने ही पीट-पीटकर मार डाला। चार जून की घटना है। जलधर बेहरा नामक बुजुर्ग अपनी दो बहुओं से शराब पीने के लिए पैसे मांग रहा था। उनके पैसा देने से इनकार करने पर वह उग्र हो उठा और टांगी लेकर उन्हें मारने को दौड़ा। बहुओं ने लाठी से मुकाबला किया और उसकी पिटाई करने लगीं। पिटाई के कारण जलधर वेहरा की मौत हो गई। घटना की सूचना मिलने पर पुलिस पहुंची और दोनों बहुओं को गिरफ्तार कर लिया। उनपर हत्या का मुकदमा चलेगा। न्यायालय क्या फैसला देगा यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इतना तय है कि यह मामला न्यायिक प्रक्रिया में लंबी दूरी तक नहीं जाएगा। निचली अदालतों के फैसले को चुनौती देने के लिए ऊपरी अदालतों में अपील करने के लिए न उनके पास धन है न जानकारी। वे महंगे वकीलों की सेवा नहीं ले सकतीं।  दूसरी तरफ पेशेवर अपराधी जघन्य अपराध करने के बाद भी पैसों के बल पर बड़े-बड़े वकीलों की सेवा लेते हैं। वर्षों कानूनी लड़ाई लड़ते रहते हैं और फिर साक्ष्य के अभाव में छूट भी जाते हैं। भारतीय समाज इसे न्यायिक व्यवस्था की मजबूरी और न्याय प्रणाली की विडंबना मानता है। अमीर लोग कानून की बिल्कुल परवाह नहीं करते। उन्हें अपने धनबल पर भरोसा रहता है। इन महिलाओं के पास धनबल नहीं है। उनके साथ कोई जनबल भी नहीं आएगा। धन होता तो ससुर को शराब के लिए पैसे मांगने की जरूरत ही नहीं पड़ती। उन्होंने परिस्थितिवश अपने बचाव में हत्या की है। वे कोई पेशेवर अपराधी नहीं थीं। भारतीय समाज दबंगों के साक्ष्य के अभाव में छूटने पर कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाता है लेकिन सजा होने पर भी इन महिलाओं को कभी दोषी नहीं मानेगा। यदि वे प्रतिरोध नहीं करतीं तो ससुर की टांगी का निशाना बनतीं। यहां निष्पक्ष न्याय प्रणाली की सीमाओं को समझने की जरूरत है। क्या कानूनी लड़ाई में धनबल की भूमिका खत्म करने या कम करने की कोई प्रणाली विकसित नहीं की जा सकती...। यह मौजूदा व्यवस्था का एक यक्ष प्रश्न है।

स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...