यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 20 नवंबर 2011

आखिर आप चाहतीं क्या हैं ?


उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधान सभा के चुनावी दंगल में लगभग सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत के साथ अपना - अपना बिगुल बजा दिया है ! कोई रथ यात्रा कर रहा है ,  कोई वहां की जनता को " भिखारी " कहकर जगा रहा है तो  कोई मुस्लिम आरक्षण के लिए प्रधानमंत्री को चिठ्ठी लिखने के साथ - साथ विकास के नाम पर पूरे उत्तर प्रदेश को ही चार भागों में पुनर्गठन करने की दांव चल रहा है ! राजनीतिक उठापटक के बीच सब के सब राजनैतिक दिग्गज अपने राजनैतिक समीकरण बैठाने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं ! होना भी ऐसे चाहिए क्योंकि यही तो एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है ! अभी तक के चुनावी दावों में उत्तर प्रदेश की वर्तमान मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी ने उत्तर प्रदेश को चार हिस्से में विभाजित करने का ऐसा तुरुप का इक्का चला है की किसी भी पार्टी को उसका तोड़ नहीं मिल रहा है ! लगता है कि उनके इस तुरुप के इक्के के आगे सभी राजनीतक पार्टियाँ  मात खा गयी ! 



अभी तेलंगाना को अलग राज्य बनाये जाने की मांग ठंडी हुई भी नहीं थी कि मायावती जी ने वर्तमान उत्तर प्रदेश को चार भागों पश्चिमी प्रदेश ( संभावित राजधानी : आगरा ) , बुंदेलखंड ( संभावित राजधानी : झांसी ) , अवध प्रदेश ( संभावित राजधानी : लखनऊ ) और पूर्वांचल प्रदेश ( संभावित राजधानी : वाराणसी ) में बाँटने का खाका पेश कर दिया ! इस पुनर्गठन के पीछे सुश्री मायावती और उनकी पार्टी बसपा का तर्क है कि छोटे राज्यों में कानून - व्यवस्था बनाये रखने के साथ - साथ विकास करना आसान होता है ! चूंकि वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार वहां की जनसँख्या लगभग २० करोड़ के पास है जो कि देश की आबादी का लगभग  १६ प्रतिशत है इसलिए समुचित प्रदेश के विकास के लिए प्रदेश को छोटे राज्यों में पुनर्गठन करना जरूरी है ! 

सैद्धांतिक रूप से लोकतंत्र में छोटे - छोटे राज्यों से जनता की भागीदारी अधिक होती है , इसलिए राहुल सांस्कृत्यायन ने भी एक बार ४९ राज्यों के गठन की बात कही थी ! मेरा व्यक्तिगत मत है कि अलग राज्यों की मांग उठने के पीछे कही न कहीं केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार है क्योंकि मांग उठाने वालों लोगों को लगता है कि उनके साथ भाषा , जाति, क्षेत्र  के आधार पर उनके साथ न्याय नहीं होता है ! ज्ञातव्य है कि भाषा के आधार  राज्य कर पुनर्गठन का श्रीगणेश तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए १९५२  में तेलगू भाषी राज्य की मांग मानकर किया था ! क्योंकि मैंने ऐसा पढ़ा है कि समय रहते हस्तक्षेप न करने के कारण एक समाजसेवी श्रीरामुलू के ५८ दिन के आमरण अनशन के बाद १६ दिसम्बर १९५२ में मृत्यु हो जाने के उपरान्त आंध्र प्रदेश में दंगे भड़क गए और आनन-फानन में नेहरू जी ने मात्र तीन दिन के अन्दर अलग राज्य की संसद में घोषणा कर दी ! 

एक लेख के अनुसार , दिसंबर १९५३ न्यायाधीश सैय्यद फजल अली की अध्यक्षता में पहला राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया ! सितम्बर १९५५ इस आयोग की रिपोर्ट आई और १९५६ में राज्य पुनर्गठन अभिनियम बनाया गया , जिसके द्वारा १४ राज्य और ६ केन्द्रशासित राज्य बनाये गए ! १९६० में राज्य पुनर्गठन का दूसरा दौर चला , परिणामतः बम्बई ( वर्तमान मुंबई ) को विभाजित कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाया गया ! १९६६ में पंजाब का बंटवारा कर हरियाणा राज्य बनाया गया !  इसके बाद पूर्वोत्तर क्षेत्र पुनर्गठन अधिनियम १९७१ के अंतर्गत त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर का गठन किया गया ! १९८६ के अधिनियम के अंतर्गत मिजोरम को राज्य के दर्जे के साथ १९८६ के केन्द्रशासित अरुणाचल प्रदेश अधिनियम के अंतर्गत अरुणाचल  प्रदेश को भी पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया ! १९८७ के अधिनियम के तहत गोवा को भी पूर्ण दर्जा दिया गया ! अंतिम पुनर्गठन वर्ष २००० में उत्तराखंड, झारखंड और छतीसगढ़ को बाँट कर किया गया !       

छोटे राज्यों के पुनर्गठन की वकालत करने वालों का मत है है कि भारत में जनसंख्या के आधार पर और क्षेत्रफल के आधार विषमता बहुत है ! एक तरफ जहां लक्षद्वीप का क्षेत्रफल ३२ वर्ग कि.मी. मात्र है तो वही राजस्थान का क्षेत्रफल लगभग ३.५ लाख वर्ग कि.मी. है ! जनसँख्या में जहा उत्तरप्रदेश लगभग २० करोड़ की संख्या को छूने वाला है तो वही सिक्किम की कुल आबादी ६ लाख मात्र है ! परन्तु यहाँ पर यह भी जानना बेहद जरूरी है कि अभी हाल में ही पुनर्गठित हुआ झारखंड राज्य अपने नौ सालों के इतिहासों में लगभग ६ मुख्यमंत्री बदल चुका है ! उसके एक और साथी राज्य छत्तीसगढ़ में किस तरह नक्सलवाद प्रभावी हुआ है यह लगभग हम सबको विदित है ! प्रायः हम समाचारों में देखते व सुनते भी है कि मिजोरम , नागालैंड और मणिपुर आज भी राजनैतिक रूप से किस तरह अस्थिर बने हुए है ! गौरतलब है कि असम से अलग हुए राज्य ( जो कि अपनी जनजातीय पहचान के कारण अलग हुए थे ) नागालैंड , मेघालय, मणिपुर और मिजोरम में कितना समुचित विकास हो पाया यह अपनेआप में ही एक प्रश्नचिंह है ! 

अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए किस तरह से दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री श्री ब्रहम प्रकाश ने दिल्ली , हरियाणा , राजस्थान के कुछ हिस्से और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को मिलाकर 'बृहत्तर दिल्ली' बनाना चाहा था क्योंकि इससे वो लम्बे समय तक अपने 'जाट वोटों' के जरिये राज कर सकते थे ! समय रहते तत्कालीन नेताओं जैसे गोविन्द बल्लभ पन्त ने उनकी महत्वकांक्षा को पहचान कर उनका जोरदार विरोध कर उन्हें उनके मंतव्य में सफल नहीं होने दिया ! और समय रहते उनकी मांग ढीली पड़ गयी ! वर्तमान समय में फिर एक प्रदेश मुख्यमंत्री ने अपने राज्य के पुनर्गठन की मांग उठाई है ! गौरतलब है कि मात्र छोटे राज्यों के गठन से विकास नहीं होता है ! किसी भी राज्य का विकास वहां  की राजनैतिक इच्छा शक्ति के साथ -साथ सुशासन से होता है !  राज्यों की पंचायत व्यवस्था को दुरुश्त किया जाय , जिसके लिए गांधी जी ने 'पंचायती राज' व्यवस्था की पुरजोर वकालत कर देश के संतुलित विकास की रूपरेखा बनाकर गाँव को समृद्ध बनाने के लिए लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास का सपना देखा था ! एक लेख में मैंने पढ़ा है कि अगर हम उत्तर प्रदेश पर एक नजर दौडाएं तो पाएंगे कि पूर्वी भाग के कई जिलों में  आज भी उद्योगों का सूखा पड़ा है ! चीनी मीलों के साथ - साथ खाद व सीमेंट के कारखाने बंद पड़े है ! सिर्फ पश्चिमी भाग में जो कि दिल्ली से सटा हुआ है , थोडा विकास जरूर हुआ है ( फार्मूला रेस -१ का आयोजन )  ऐसा कहा जा सकता है ! ऐसे में सवाल यह उठता है कि माननीय मुख्यमंत्री जी आखिर आप चाहती क्या है ? प्रदेश का समुचित विकास अथवा खालिश राजनीति !          
     
                                                       - राजीव गुप्ता 

Click to see my Blog at :- 


बुधवार, 24 अगस्त 2011

ममता की अनोखी मिसाल


बिल्ली के बच्चे को दूध पिलाती हुए कुतिया  छाया: काशीनाथ
शंकर प्रसाद साव  
बाघमारा धनबाद : पशुओं की संवेदनशीलता कभी-कभी मनुष्य को भी आत्ममंथन की प्रेरणा देती है. भले ही मनुष्य श्रेष्ठता के अहंकार में उसे समझने की जरूरत न समझे. झारखंड के बाघमारा के खोदोबली में एक बिल्ली बच्चा देने के बाद मर गयी. भूख से बिलबिलाते बच्चे पर एक कुतिया की ममता जग गयी. कुतिया ने नवजात बिल्ली के बच्चे को अपना दूध पिलाया. इस कुतिया को इस बात का अहसास तक नहीं कि यह उसके शत्रु वर्ग का शिशु है. काश ऐसी संवेदना हम मनुष्यों में भी होती. 

फोटो : स्केच
चल छोड गांव चल,यह देश हुआ पराया
   क्वाटर खाली कर रहे लोंगो की दास्तां
                  मामला ब्लॉक दो क्षेत्र का
                 शंकर प्रसाद साव
बाघमारा धनबाद: नेताजी कहत रहने तहरा लोग के बचा लेब. येइजा के नेता जिएम बाढे. उनकर काफी चलती बा. राउर नेताजी हमरा के गांव से बुलाके क्वाटर देलेबा रहे खातिर. अब हमरा के प्रबंधन भगावत बा. यह कहना है उन लोगो की है जिसे प्रबंधन द्धारा क्वाटर खाली करने का नोटिस थमाया हैं. बेघर होने का डर से ऐसे लोग काफी बिचलीत हो गये हैं. इस परिस्थिती में उनके नेता भी हाथ खडे कर दिये हैं.कुछ लोग कार्रवाई की डर से अपना बोरिया बिस्तर समेट चुके है कुछ जाने की तैयारी में हैं.
                क्या है मामला
अधिकारिक सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार सीबीआइ जांच पडताल में कई नेताओं का नाम अवैध कैंजाधारियों के लिष्ट में शामिल हैं. साथ ही ऐसे नेताओं द्धारा गलत ढंग से बाहरी लोगों को पैसे लेकर क्वाटर में सिट कराने का खुलासा हुआ हैं. इसके पिछे प्रबंधक भी जांच के घेरे में हैं. कल्याण निरीक्षक पिछले 25 सालों से एक ही क्षेत्र में जमे रहने तथा उनकी काली करतूत से कंपनी को हर माह लाखों का चूना लगाने का भी पर्दाफास हुआ हैं.
                  प्रबंधकीय लापरवाही का फायदा
ब्लॉक दो क्षेत्र में प्रबंधन की कमजोरी को तथाकथित दस दरोगा ने अपनी ताकत समझा और मनपसंद क्वाटरों पर कैंजा जमाया. वहीं लापरवाही का फायदा कुछ तथाकथित नेताओं ने जमकर उठाया हैं. न सिर्फ कोयले को लूटा बल्कि क्वाटरों में भी धाक जमाया. कैंजा जमाये क्वाटर में राजनीति की दुकान भी खोल लिया. अपना वर्चस्व जमाने के लिए अपने गांव देहात से सैकडों की तदाद में लोगों को बुलाकर क्वाटरों में सिट कराया था. ऐसे तथाकथित नेताओं के कैंजे सौ से अधिक क्वाटर हैं. जो भाडे पर लगाये हुए हैं.
            ..... हो गई नेताओं की हेगडी गुम
कल तक जो नेता अपने आप को जीएम मानते है वैसे नेताओं का नाम सीबीआइ की सूची में पहले नंबर पर हैं. प्रंबधन द्धारा कोर्ट का आदेश बताते हुए क्वाटर खाली करने का फरमान जारी किया हैं. नोटिस मिलने के बाद वैसे तथकथित नेताओं की हेकडी गुम हो गई हैं. इधर स्थानीय पुलिस भी आदेश पालण नही करने वाले नेताओं के विरूद्ध कार्रवाई करने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दिया हैं.

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

senior citizens: राजनैतिक संतों की परंपरा

भारत में जब-जब सत्ता निरंकुशता की और बढ़ी है और उसके प्रति जनता का आक्रोश बढ़ा है एक राजनैतिक संत का आगमन हुआ है जिसके पीछे पूरा जन-सैलाब उमड़ पड़ा है. महात्मा गांधी से लेकर अन्ना हजारे तक यह सिलसिला चल रहा है. विनोबा भावे, लोकनायक जय प्रकाश नारायण समेत दर्जनों राजनैतिक संत पिछले छः-सात दशक में सामने आ चुके हैं. इनपर आम लोगों की प्रगाढ़ आस्था रहती है लेकिन सत्ता और पद से उन्हें सख्त विरक्ति होती है. अभी तक के अनुभव बताते हैं कि राजनैतिक संतों की यह विरक्ति अंततः उनकी उपलब्धियों पर पानी फेर देती है.

senior citizens: राजनैतिक संतों की परंपरा

50 हज़ार दो कब्ज़ा बनाये रखो



                       (भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं. इसकी एक बानगी झारखंड के कोयला खदान क्षेत्रों में देखने को मिलती है. हाई कोर्ट के आदेश पर अतिक्रमण हटाओ अभियान चल रहा है लेकिन इसे भी अवैध कमाई का जरिया बना लिया गया है )

शंकर साव 
शंकर प्रसाद साव
बाघमारा धनबाद :- पूरे देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना लहर चल रही है लेकिन झारखंड के कोयलांचल में अभी भी खुला खेल फर्रुखाबादी चल रहा है. यहां बीसीसीएल की ज़मीन या क्वार्टर पर सुविधा राशि के आधार पर अवैध कब्ज़ा बरक़रार रखने का अवसर दिया जा रहा है. महत्वाकांक्षी परियोजना ब्लॉक टू क्षेत्र में क्वार्टर आवंटन के खेल में मजदूर प्रतिनिधि और अधिकारियों की मिली   भगत से ऐसा हो रहा  हैं. यहां बेघर नहीं होने की कीमत 50 हजार रुपये लग रही है. घरों पर अधिकारी दे रहे है दस्तक. हाल ही में सेवानिवृत हो चुके कर्मी ही कीमत चुका कर अपना आशियाना बचाने की फिराक में हैं. वेल्फेयर इंस्पेक्टर की काली करतूत से बीसीसीएल में फिर एक नया पेंच खडा होने वाला हैं.एक तरफ कंपनी अतिक्रमणकारियों को हटाने के लिए मुहिम तेज कर रही है.वहीं वेल्फेयर इंस्पेक्टर अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में कंपनी को लाखों का चूना लगा रहे हैं.
              कैसा होगा नया पेंच
अधिकारिक सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार जो मजदूर सेवानिवृत हो गये है. उन्हें बीसीसीएल द्धारा सभी तरह की पावना राशि का भुगतान कर दिया गया हैं. राशि मिलने के बाद भी प्रबंधन द्धारा सेवानिवृत मजदूरों का आवंटित क्वाटर को हैंड ओवर नहीं लिया. लेकिन कागज पर हैंड ओवर दिखाया गया हैं. वैसे कर्मी से बेघर नहीं होने की कीमत 50  हजार रुपये वसूले  जा रहे हैं. लेकिन इसके एवज में उन्हें आवास आवंटन का किसी तरह का प्रमाणपात्र  नहीं दिया जा रहा है. भविष्य में किसी तरह का विवाद खडा हो जाय तो उक्त कर्मी को कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड सकता हैं.
               अतिक्रमण के पीछे पैसे का खेल
अनधिकृत के रूप से बीसीसीएल की जमीन पर घर बना कर व दुकान खोल कर रोजी रोटी कमा रहे लोग भी अतिक्रमण के दायरे में हैं. ऐसे लोंगों भी नहीं बख्शा जा रहा हैं. जल्द ही वैसे स्थलों पर बुलडोजर चलेगा. अपना आशियाना बचाने के लिए लोग जनप्रतिनिधियों के शरण में पहुंचे हुए हैं. कुछ लोग वेल्फेयर इंस्पेक्टर को ही कुछ ले देकर बेघर न होने की कीमत चुका रहे हैं.
                 
             क्या कहते है प्रबंधक
बेघर होने के एवज में सेवानिवृत कर्मी द्धारा किसी तरह की राशि अगर किसी अधिकारी को दे रहे है तो गलत है. भविष्य में किसी तरह की परेशानी होने पर वैसे लोग स्वंय जिम्मेवार होंगे.
                         ---प्रेम सागर मिश्रा
                            महाप्रबंधक ब्लॉक दो क्षेत्र
रेंट देकर पुन: क्वार्टर पर रहने का बीसीसीएल में अभी तक ऐसा नियम लागू नहीं हुआ हैं. कोई सेवानिवृत कर्मी अगर पैसे देकर क्वार्टर पर कैंजा जमाये हुए है तो गलत है बहुत जल्द कार्रवाई होगी. दोषी अधिकारियों पर भी कार्रवाई की जायेगी.
                                गोपाल प्रसाद
                                कार्मिक प्रबंध


रविवार, 21 अगस्त 2011

उग्रवादियों की मांद में दूसरा दिन



यहां चलती है नक्सलियों की समानांतर सरकार छाया:शंकर 
                      शंकर प्रसाद साव
                             दूसरा दिन  
बाघमारा धनबाद : गांव में कभी पुलिस नहीं आती है. कभी कभार बडी घटना घटने के बाद पुलिस की बडी फौज जांच पडताल करने आती है. बाकी छोटी- मोटी घटनाओं की जांच गांव के चौकीदार ही करते है.पुलिस की मुखबीरी करने वाले संगठन के निशाने पर होते हैं. गांव के विकास तथा विवादों का निपटारा संगठन के लोग अपने तौर तरीके से करते है. ग्रामीणों में पुलिस प्रशासन के प्रति अविश्वास की भावना  भरते हैं कुल मिलाकर वे धड़ल्ले से अपनी समानांतर सरकार चला रहे है.
                         समस्याओं  का अंबार 
अन्य उग्रवाद प्रभावित इलाकों की तरह यहां भी सडक की दशा काफी खराब है.  आने- जाने का रास्ता तो है लेकिन उस पर गाडी चलाना तो दूर पैदल चलना भी जोखिम भरा है. गांव में पानी की समस्या गंभीर है.ग्रामीण अपनी प्यास बुझाने के लिए दांडी चुआं के पानी का उपयोग करते हैं. इक्का-दुक्का  चापाकल है तो उसपर सैकडों लोगों की प्यास कैसे बुझे. तालाब बहुत कम है. अन्य लाभकारी योजनाओ का लाभ लोगों को सही ढ्रंग से नहीं मिल पाता हैं. स्वास्थ्य सेवाओं का घोर अभाव है. ज्यादातर लोग झोला छाप डॉक्टर पर निर्भर है. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए युवा वर्ग को गांव छोडकर शहर की ओर पलायन करना होता है.
             खेती-बारी ही आय का स्रोत्र
 उग्रवाद प्रभावित इलाकों में गुजर बसर करने वाले लोगों के लिए खेतीबारी ही आय का मुख्य स्रोत्र हैं. धान गेंहू के अलावा वे मौसमी सब्जियां  उगाते है और उसे बाजारों मे बेच कर अपने जीविकोपार्जन का साधन जुटाते हैं. सिंचाई की समुचित  सुविधा नहीं होने के बावजूद यहां के लांग कडी मेहनत कर हजारों टन सब्जी उगाते हैं. धनबाद के प्रमुख बजारों में बिकने वाली पचास फीसदी से अधिक सब्जियां उग्रवाद प्रभावित इलाके से ही ट्रांसपोर्ट होकर आती हैं.
                    थोडी सी भूल से जा सकती है जान 
 अगर कभी काल किसी कारण वश उग्रवाद प्रभावित इलाके में जाने की नौबत आ पडी तो थोड़ी सावधानी जरूर बरतें वरना आप हादसे के शिकार हो सकते है. उग्रवाद प्रभावित इलाके में घुसने के साथ ही आप गाडी की रफतार एकदम धीमी कर दे. हौर्न का उपयोग बार- बार करें. रास्ते पर गुजरने वाले किसी भी व्यक्ति से आप सभ्यता से पेश आयें. नाम पता पूछने पर अपना सही परिचय दे. गांव पार करते वक्त अगर किसी चीज  की जरूरत आ पड़े तो नम्रतापूर्वक  मदद मांगे. किसी पुलिस अधिकारी से संबंधित होने कापरिचय न दे. अगर रात को गुजरना हो तो अपनी गाडी की लाईट ऑफ डाउन के साथ हॉर्न बजाते हुए आगे बढे अगर यह सब सही तरह से पालन हुआ तो लोग समझ जायेंगे कि आप लोकल है. वरना आप संदेह के घेरे में आकर हादसे का शिकार बन सकते है. अगर बारात लेकर या उसके साथ पहुंचे तो भूलकर भी आतिशबाजी न करे. अपनी शान शौकत दिखाने के लिए किसी घातक हथियार का उपयोग न करे वरना बंधक बन सकते हैं. आपकी जान भी जा सकती है.

उग्रवाद प्रभावित गांव में 24 घंटे

(उग्रवाद प्रभावित गांव में किसी अनजान व्यक्ति का जाना खतरनाक होता है. मीडिया के लोग भी पूर्व सूचना देकर सहमति के बाद ही जाते हैं. लेकिन शंकर साव बिना सूचना ऐसे एक गांव में कैमरा लेकर पहुंच गए.दो दिन सकुशल वापस तो लौट आये लेकिन परेशानी तो झेलनी ही पड़ी. पढ़िए पहले दिन का हाल. सं.)

खेरपोका गांव में एक दिन 

शंकर प्रसाद साव



पहला दिन
बाघमारा धनबाद : उग्रवाद प्रभावित गांव अब सिर्फ धान गेंहू और सब्जियां ही नहीं उगाते बल्कि देश की सच्चे सपूतों की पौध तैयार कर रहे हैं. वह भी सुविधाओं के घोर अभाव के बीच .यकीन न आये तो पीरटांड  थाना क्षेत्र के उग्रवाद प्रभावित खेरपोका, पोखरना, खमारबाद गांव में घूम ले.  इस गांव में न तो पक्की सडक है और न ही बिजली. हाईस्कूल पहुंचने के लिए कई किमी दूर जाना पडता हैं. खमारबाद गांव के तीन ऐसे सपूत है जो देश की सेवा के कार्य में लगे हैं. गांव के किशोर, संजय, और कुलदीप साव ऐसे सपूत है जो अपनी मेहनत और लगन के बल पर सेना में भर्ती हुए. आज तीनो जवान बोर्डर पर देश की सेवा कार्य में लगे हुए है. वो जगे होते है तो देश अराम से सो पाता हैं. गांव के ही अन्य कुछ नौजवान इंजीनियर, डॉक्टर के अलावा अन्य सरकारी कार्य में लग कर देश सेवा कर रहे हैं.
                   सन्नाटे में डूबा गांव 
उग्रवाद प्रभावित इस गांव में हमेशा सन्नाटा पसरा रहता है. उग्रवादी संगठन द्धारा चिपकाये गये पोस्टर जगह-जगह पर देखने को मिले. बमों से उडाये गये पुल पुलिया आज भी ध्वस्त की स्थिति में हैं. उन्हें दुबारा बनाने में प्रशासन हिम्मत जुटा नही पाया.
             एरिया कमांडर का तुगलकी फरमान
 माओवादी संगठन के एरिया कमांडर हर महीने या हर हफ्ते में अभियान को बढाने के लिए कैंप, ट्रेनिंग आदि का आयोजन करते हैं. गांव के युवा वर्ग को इस संगठन में जोडने के लिए धमकी देते हैं. ऐसी परंपरा है कि हर घर के एक युवा को इस संगठन से जुडना ही होगा. जिन परिवारों ने ऐसा नहीं किया उन्हें गांव छोड देना पड़ा. उनकी संपति भी आज माओवादी संगठन के कब्जे में हैं. अगर बाहर से आये उग्रवादी विचरण के दौरान किसी घर पर आ कर ठहर गए तो उनकी सेवा सत्कार उस परिवार के लोगों को करना होता है. जब तक संगठन के लोग उस घर में ठहरेंगे उतने दिनों तक खाने पीने की व्यवस्था भी उस परिवार के मुखिया को करना होता है. अगर इस दौरान किसी तरह संगठन के साथ पुलिस की मुठभेड हो जाय तो इसकी जबाबदेही परिवार के मुखिया पर होती है और उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पडती हैं. उन्हें मुखबीर घोषित कर मार दिया जाता हैं.
            कठोर दिल नेक इंसान
पूछताछ के दौरान संगठन के लोगों को संवाददाता पर शक हो गया. तलाशी देने के बाद भी संवाददाता को घंटों उनकी  मांद में रहना पडा. इस दौरान संवाददाता को संगठन सदस्यों के आक्रोश को भी झेलना पडा. फोटो न खींचने  एवं खिलाफ में न छापने की शर्त संवाददाता को माननी पड़ी . नक्सली संगठन का कहना है हमलोग दोस्तों के साथ दोस्ती निभाते हैं. गद्दारी करने को कभी बख्शते नही हैं.संगठन के सदस्य जितना कठोर है उतना अंदर से नरम भी हैं कभी कभी अपनी उदारता का परिचय देकर एक मिसाल पेश करते हैं.


शनिवार, 20 अगस्त 2011

भूमिगत आग..... इतनी बडी लापरवाही

(इसे अमानवीय लापरवाही के अलावा क्या कहेंगे कि कोयला खदानों के अंदर लगी भूमिगत आग रेलवे लाइन तक पहुँच चुकी है लेकिन प्रबंधन को इससे कोई खतरा नहीं महसूस हो रहा है. किसी भी दिन यहाँ कोई बड़ा हादसा हो जाये तो इसकी जिम्म्मेवारी आखिर कौन लेगा. पढ़िए पूरी रिपोर्ट...सं)    


शंकर प्रसाद साव 

बाघमारा (धनबाद):- दक्षिण पूर्व रेलवे मार्ग के आद्रा - गोमो रेल लाइन में जिस भूमिगत आग की चर्चा बार- बार होती है. ब्लॉक दो प्रबंधन उस आग से कोई खतरा मानने को तैयार नहीं हैं. जबकि रेल लाइन के करीब आग दहकने की खबर वर्ष 1998 में ही लग चुकी थी. भारत सरकार द्धारा गठित वर्ल्ड बैंक फायर प्रोजेक्ट द्धारा इसका खुलासा किया था तब से मामला सुर्खियों में हैं. धीमी हो जाती है ट्रेन भूमिगत आग से खतरा होने की अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस लाइन से गुजरने वाली प्राय: सभी ट्रेनें अग्नि प्रभावित क्षेत्र पार करते वक्त गति धीमी हो जाती हैं. बेनिडीह रेलवे साईडिंंग के बगल में लगभग 45 मीटर तथा खोखीबिघा के समीप 30 मीटर तक रेल लाइन के निकट आग पंहुचने की खुलासा हुआ हैं. बरसात के समय यह इलाका धुँए से भर जाता हैं. आग की लपटें अंधेरे में स्पष्ट दिखाई पडती हैं. आग भडकने का डर अपनी गर्दन बचाने के लिए ब्लॉक दो प्रबंधन द्धारा अग्नि प्रभावित इलाकों में कोयले का उत्पादन करना बंद कर दिया हैं. साथ ही उठ रही आग को ओवर वर्डेन डालकर मुहाने को सील बंद कर दिया हैं. फिर भी आग कभी - कभी भडक उठती हैं. प्रबंधन द्धारा कोयला उत्पादन नहीं करने का भी यही बजह हैं. मंद्ररा बस्ती भी आग की चपेट में ब्लॉक दो के बंद पडी बेनीडीह भूमिगत खदान की 11,12 व 13 नंबर सीम में भंयकर आग लगने का भी खुलासा हुआ था. निजी मालिकों जमाने में सभी खदानें परस्पर 25 से 30 मीटर फासले पर थी. यह आग अब बेकाबू हो गयी है. रायटोला, मंदरा, एंव गणेशपुर बस्ती भी इसके चपेट में आ चुकी हैं. घरों में दरार पडने एंव भू-धसांन की धटना बराबर हो रही हैं. गैस रिसाव होने से लोंगों का जीना मुश्किल हो गया हैं. आग सूख रही जलाशयों को आग की तीव्रता इतनी तेज है कि आस - पास के कुंआ, तालाब एंव अन्य जलाशयों की पानी भी सूख गया है. हरा भरा रहने वाला यह क्षेत्र आग के कारण बंजर भूमी में तब्दील हो गया हैं. जान माल की खतरा: कुमार पेयजल एंव स्वच्छता विभाग चास सबडिविजन के अवर प्रमंडल पदाधिकारी अरूण कुमार का कहना है कि कोलियरी से सटे गांव या मुहल्लों में पानी की लेयर तेजी से घट रहा है इसका मुख्य कारण डिप खदान चलना एंव भूमिगत आग हैं. चापानल की गहराई 200 फिट है जबकि खदानों में 600 फिट गहराई में कोयले का उत्खनन होता हैं.जिसके चलते पानी का श्रोत धट रहा हैं. इधर बरसात के कारण प्रभावित इलाकों गैस रिसाव तेजी से हो रहा हैं. इससे जान माल की खतरा हो सकती हैं. इसका व्यापक असर पड रहा हैं.

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

मुख्यालय के विवाद में ठहरा अनुमंडल निर्माण का मामला



               (सरकार कुछ देना चाहे और नागरिक आपसी मतभेद के कारण उसे ले नहीं पायें तो दोष किसका..?...कुछ ऐसी ही कहानी है झारखंड के चर्चित कोयलांचल धनबाद के बाघमारा प्रखंड के अनुमंडल निर्माण की. लम्बे आंदोलन के बाद सरकार राजी हुई तो दो उपनगरों के बीच मुख्यालय के स्थल चयन को लेकर ठन गयी....इस प्रकरण पर शंकर साव की रिपोर्ट....सं. )

शंकर प्रसाद साव
बाघमारा : कोयला माफियाओं की खूनी टकराहटों का गवाह रहा बाघमारा  फिलहाल धनबाद जिले का एक प्रखंड है. यहां दो प्रमुख उपनगर हैं. बाघमारा और कतरास. इन दो उपनगरों के नागरिक नाम और स्थान के विवाद को लेकर आपस में न उलझे होते तो यह कब का अनुमंडल बन गया होता. अनुमंडल बनाने की प्रकिया लगभग पूरी हो चुकी थी. इसके लिए एक प्रमुख सचिवों की कमेटी बनायी गयी थी. मुख्यालय बनाने के लिए स्थान का भी चयन हो गया था. मुख्यालय के लिए 5 से 10 एकड उपयुक्त जमीन का व्यौरा भी अंचलाधिकारी द्धारा राज्य सरकार को भेजा गया था. मुख्यालय भवन बनाने को लेकर प्रमुख सचिवों की टीम द्धारा समीक्षा की गयी थी. प्रकिया अंतिम चरण में थी तभी दोनों क्षेत्र के नागरिक अपनी प्रतिष्ठा की लडाई में उलझ गये. नतीजा बाघमारा को अनुमंडल बनाने का मामला खटाई में पड गया. काश! दोनो क्षेत्र के नागरिक आपस में भाईचारे के साथ अनुमंडल बनाने के लिए प्रशासन की मदद करते तो आज श्रीविहीन बने बाघमारा की रौनक लौटती बल्कि रोजगार के नये नये रास्ते भी खुलते. 

तोहफा संभाल नहीं पाए

सूबे के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी बाघमारा की धरती पर पांव रखते ही नागरिकों को एक अनमोल तोहफा दिया था.उन्होनें न सिर्फ बाघमारा को अनुमंडल बनाने की घोषणा की बल्कि सारी प्रकिया को अमलीजामा भी पहनाया. लेकिन यहां के नागरिक इस तोहफे को संभाल नहीं पाए. वर्षो से आंदोलित नागरिकों की इस मांग को जायज ठहराते हुए पूर्व मंत्री जलेश्वर महतो, पूर्व मंत्री बच्चा सिंह, पूर्व मंत्री समरेश सिंह, पूर्व मंत्री पशुपतिनाथ सिंह, पूर्व सांसद टेकलाल महतो, सांसद रवीन्द्र  पाण्डेय ने भी बाघमारा को अनुमंडल बनाने के लिए राज्य सरकार से अनुशंसा की थी.

बढ़ता गया विवाद 

सचिवों की रिपोर्ट के बाद बाघमारा एंव गोविन्दपुर प्रखंड के अंचलाधिकारी के पास अलग-अलग पत्र कार्मिक प्रशासनिक सुधार तथा राज्यसभा विभाग झारखंड सरकार द्धारा भेजे गए. जिसके पत्रांक नंबर झास. पत्रांक 7-विप्र 101-2001 का.67 दिनांक 10 जनवरी 2001 में लिखा गया है कि गोविन्दपुर प्रखंड और बलियापुर प्रखंड को मिलाकर गोविन्दपुर अनुमंडल बनाना है. जिसका प्रस्तावित मुख्यालय गोविन्दपुर में हैं. इसी तरह बाघमारा प्रखंड ओर तोपचांची प्रखंड को मिलाकर बाघमारा अनुमंडल बनाना हैं.जिसका प्रस्तावित मुख्यालय कतरास नगर में होने का आदेश पारित किया गया हैं. बाघमारा के पूर्व सीओ कार्तिक कुमार प्रभात द्धारा जमीन का व्यौरा भेजने के बाद बाघमारा के नागरिको ने मुख्यालय बाघमारा में बनाने की मांग को लेकर आंदोलन तेज का दिया. दूसरी ओर कतरास के नागरिक भी कतरास मे ही मुख्यालय बनाने को लेकर अड गये.
1956 से ही बाघमारा अनुमंडल था: धनबाद जिला अंतर्गत बाघमारा अनुमंडल का सृजन सन 1956 में हुआ था. जिसके अंतर्गत बाघमारा प्रखंड, तोपचांची प्रखंड, चंदनकियारी एंव चास प्रखंड को अंगीभूत किया गया था. सन 1956 से 1978 तक इसका मुख्यालय धनबाद रहा. 1979 से 1991 तक इसका मुख्यालय चास में रहा. बोकारो का जिला के रूप में सृजन होने के बाद बाघमारा और तोपचांची प्रखंड को धनबाद में समाहित कर दिया गया. बाघमारा के नाम से अभी भी पुलिस अनुमंडल है. पीएचईडी विभाग के चास सबडिविजन के अंतर्गत अभी भी बाघमारा प्रखंड क्षेत्र आता हैं.राजनैतिक दृष्टिकोण से बाघमारा विधानसभा क्षेत्र चुनाव आयोग द्धारा मान्यता प्राप्त हैं. बाघमारा प्रखंड में 60 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र. हैं.

पदोन्नति की ओवर रिपोर्टिंग


(शंकर प्रसाद साव बाघमारा, धनबाद के वरीय पत्रकार हैं. अपने इलाके के जनमुद्दों को विभिन्न अख़बारों में लगातार उठाते रहने के कारण चर्चित और लोकप्रिय रहे हैं. अपनी बेबाक लेखनी के कारण उन्हें कई बार कोयला माफिया का कोपभाजन भी बनना पड़ा है. खबरगंगा के लेखकों टीम में शामिल होने पर उन्होंने सहमति जताई है. इस ब्लॉग पर उनका स्वागत है.--देवेंद्र गौतम )

शंकर प्रसाद साव

बाघमारा धनबाद :बीसीसीएल में ओवर रिपोर्टिंग का इतिहास बहुत पुराना हैं. एक दशक पूर्व बीमार घोषित उद्योग बीसीसीएल को बीआईएफआर से निकालने के लिए खेल कोयले का ओवर रिपोर्टिंग कर ही किया गया. अब अधिकारी अपना पदोन्नति पाने के लिए कर रहे है. जहां तक ओवर रिपोर्टिंग की बात है तो वर्ष 1987-88 में भारत सरकार द्धारा रिपोर्टिंग को दूर करने के लिए आरएन मिश्रा कमेटी गठित की थी. कमेटी ने वर्ष 1991-92 तक रिर्पोट ली. लेकिन कोयले की ओवर रिपोर्टिंग का दस्तूर जारी रहा. वर्ष 1994-95 तक 104 लाख टन लगभग कोयले की ओवर रिपोर्टिंग की गयी थी. जिस समय बीसीसीएल को बीआईएफआर से निकाला जाना था, उस वर्ष 1997-98 में करीबन आठ लाख टन कोयले का स्टॉक सॉटेज प्रकाश में आया. अधिकारिक सूत्रों के मुताबिक इसमें सिर्फ ब्लॉक दो क्षेत्र में सात लाख टन का स्टॉक सॉटेज पाया गया था. वर्ष 1998-99 के दौरान भी 9.46 लाख टन कोयले का स्टॉक सॉटेज पाया गया. यह सारा खेल बीआईएफआर से निकालने के लिए किया गया था.
मिली जानकारी के अनुसार कोल इंडिया जांच कमेटी द्धारा वर्ष 1997-98 में आठ लाख टन तथा वर्ष 1998-99 में 9.46 लाख टन कोयले का सॉटेज दर्ज किया था. सूत्रों के मुताबिक इस जांच में जो कि सिर्फ कुछ ही कोलियरियों के स्टॉक की नापी की गयी थी. तब 17 लाख 46 हजार टन कोयले का सॉटेज पकडा गया. अगर सभी कोलियरियों की ठीक से जांच की जाती तो कागजी उत्पादन पकड में आ जाता. इस कोयले के सॉटेज के मामजे में उन्हीं लोगों को भागीदारी बनाया गया जो पहले से ही मिश्रा कमेटी ने अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा की थी. जिनमें सीपी सिंह, एम झा, एसएन उपाध्याय, यूके रोहतली, एमके गुप्ता ,पीपी सिंह, केएल सिंह आदि अधिकारी है, जो अभी फिलहाल महाप्रबंधक बन कर रिटायर्ड हो गये. इस दौरान कोयले की बिक्री के नाम पर नये-नये साइडिंग में प्राइवेट रैक के लिए खोला गया और पावर सेक्टर की उपेक्षा की गयी. जिस कोल माफिया को प्रोत्साहन किया गया. जिन अधिकारियों ने इस संबंध में जरा भी आवाज उठायी, उन्हें उल्टा-सीधा आरोप लगाकर कार्य से निलंबित किया गया. इस ओवर रिपोर्टिंग के इस खेल में थोडी कमी तब आई जब सीबीआई ने कुछ कोलियरियों में छापा मारा और स्टॉक सॉटेज पकड में आया.
   ओवर रिपोर्टिंग के खेल में मुख्यालय की भूमिका
इस ओवर रिपोर्टिंग के खेल में मुख्यालय की भुमिका काफी महत्वपूर्ण रही और अपनी गर्दन बचाने के लिए फील्ड ऑफिसर को बलि का बकरा बनाया गया. इस पूरे खेल में वैसे ऑफिसर जिनकी कोलियरी में काफी मात्रा में स्टॉक सॉटेज पकडा गया, वे मुख्यालय के काफी करीब थे. उन्हें बोनस में अच्छी-अच्छी पोस्टिंग दी गयी. सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार रामकनाली के तत्कालीन परियोजना पदाधिकारी आर के सिंह के कार्यकाल में वहां एक लाख 30 हजार टन कोयला सॉटेज पाया गया था. लेकिन श्री सिंह को पुन: साउथ तिसरा का एजेंट बना दिया गया था. इसी तरह एसएस पाल जिनके कार्यकाल में एक लाख 60 हजार टन कोयला सॉटेज वेस्ट मोदीडीह में मिला. लेकिन उसे सेंद्रा बांसजोडा कोलियरी में पदस्थापित कर दिया गया था. परियोजना पदाधिकारी पीके शर्मा जिनके कार्यकाल में एक लाख 50 हजार टन कोयला सॉटेज तिसरा कोलियरी में था. उन्हें पुन: ब्लॉक दो ओसीपी का परियोजना पदाधिकारी बनाया गया था. जब ब्लॉक दो ओसीपी में 2 लाख टन कोयले का सॉटेज हो गया तो श्री शर्मा को पुन: राजापुर का चार्ज दिया गया था. परियोजना पदाधिकारी ए धर के कार्यकाल में सेंद्रा बांसजोडा कोलियरी में काफी मात्रा में कोयले का सॉटेज मिला था. लेकिन उन्हें प्रोन्नत कर केशलपुर वेस्ट मोदीडीह का एजेंट बनाया गया था. उपरोक्त सभी मुद्दों पर प्रकाश डालने पर निष्कर्ष यह निकलता है कि भ्रष्ट अधिकारियों के हाथों बीसीसीएल किस तरह  लूटता रहा है इसका अंदाजा लगाया जा सकता हैं.

वर्ष 1994-95 तक ओवर रिपोर्टिंग का मामला जो प्रकाश में आया वो सूत्रों के अनुसार आंकडे के अनुसार इस प्रकार है.
वर्ष               लाख टन में
1987-88          3.82
1988-89          7.82
1989-90          3.82
1990-91          23.76
1991-92          33.29
1992-93          6.9
1993-94          5.67
1994-95          20.30

बुधवार, 17 अगस्त 2011

एक उजडी हुई बस्ती की दास्तां


शंकर प्रसाद साव

बाघमारा : मैं रायटोला हूं. कभी मैं बहुत सुंदर थी. सैकडों लोग यहां बसा करते थे. 50 से अधिक घरों का यह टोला में लोग खुशहाल थे. सभी चिजों की सुख सुविधा थी. बिजली पानी की कभी परेशानी नही हुई. यहां आ कर लोग राहत महशूस करते थे. आज मै बहुत बदसुरत हो गयी हूं. दर्जनों घर एक-एक कर के गोफ में समा गये. जान बचाने के लिए लोग इधर-उधर भाग रहे हैं.कुछ दिनों के बाद मेरा नामोनिशान मिट जायेगा. मुझे इस हाल में बीसीसीएल ने पहुंचाया हैं. अगर रायटोला बस्ती न होकर कोई मनुष्य होता तो यह दर्दभरी दास्तां इसी तरह से बयान करता. जिस तरह यहां के ग्रामीण अपना दुखडा सुनाते हैं.

                       सुर्खियों में है यह मामला
 वर्ष 2005 में घटी घटना को अभी तक लोग भुला नहीं पाये हैं. लोगों के जहन मे डर अभी तक खौफ खाये हुए है. इसी तरह बरसात के समय अचानक 6 घर गोफ में समा गये थे. इसके ठिक दूसरे-तिसरे दिन लगाातार कुल 12 घर भी भरभरा कर गिर गया. जिसमें दर्जनों की संख्या में बैल, बकरी, मुर्गी भी गोफ में समा गये थे. अधिकांश लोग घायल हो गये थे. इस घटना के बाद मची कोहराम से जिला प्रशासन को आगे आना पडा था. तत्कालीन डीसी श्रीमती बिला राजेश की हस्तक्षेप के बाद बीसीसीएल प्रबंधन ने पीडित परिवारों को भिमकनाली क्वाटर में सिट कराया था
                      क्या था योजना
विश्व बैंक की मदद से चालु किये गये ब्लॉक टू ओसीपी का विस्तारी करण के एद्देश्य से रायटोला  बस्ती को खाली कर ग्रामीणों को पूर्नवास कराने को था. यह योजना बर्ष 1992  में ही पूर्व सीएमडी ए के गंप्ता के कुशल नेतृत्व में बनी थी. योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए बीसीसीएल की हाई पावर की टिम द्धारा सर्वे भी किया गया था. जिसमें जिला प्रशासनिक अधिकारियों भी शामिल किया गया था.
                      अधर में लटका मामला
सर्वे के दौरान की कॉरपोरेट विलेज की अवधारणा 27 भू-स्वामियों को नियोजन देने के अलावा सभी ग्रामीणों को खानूडीह के पास सरकारी लैंड में बसाने के साथ पानी, बिजली, सडक, सामुदायिक भवन, स्कूल, अस्पताल सहित सभी सुविधायुक्त व्यवस्था देने के अलावा विस्थापित बेरोजगारों कोलडंप  रोजगार देने की योजना बनी थी. इस योजना पर आंदोलित सभी ट्रेड यूनियनों ने सहमति जतायी थी. फिलहाल मामला अधर में लटका हुआ हैं.
                      आंदोलन की रूप रेखा तैयार
रायटोला के ग्रामीणों की मांग एंव अस्तित्व की लडाई लड रहे घटवार आदिवासी समाज के लोग आर-पार की लडाई लडने के लिए प्रबंधन को नोटिस थमाया हैं. जिसमें कोलियरी का चक्का जाम करने की चेतावनी दी हैं. आंदोलन का नेतृत्व जिप सदस्य सह समाज के वरिय नेता सहदेव सिंह कर रहे हैं.

रविवार, 7 अगस्त 2011

नक्सलवाद..आतंकवाद और ड्रग माफिया

 दंतेवाडा कांड के बाद लम्बे समय तक चुप्पी साधे केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम की भृकुटी फिर तनी दिखने लगी है. उन्होंने माओवादियों के विरुद्ध एक बड़ा अभियान चलने की तैयारी के संकेत दिए हैं. ऑपरेशन ग्रीन हंट की कमियों की उन्होंने किस हद तक समीक्षा की है और उन्हें दूर करने के क्या उपाय किये हैं. सूचना तंत्र कितनी मजबूत हुई है  यह तो पता नहीं लेकिन माओवादियों की ताक़त पहले से और बढ़ गयी है. इसका संकेत हाल के दिनों में उनकी गतिविधियों से जरूर मिला है. खनन क्षेत्रों में उनके आर्थिक स्रोत और मजबूत हुए हैं. स्थितियां पहले से कहीं ज्यादा जटिल हो गयी हैं. गृह मंत्रालय के पास ख़ुफ़िया संस्थानों की रिपोर्ट क्या कहती है यह तो पता नहीं लेकिन देश में अभी काले धन पर आधारित जो तंत्र  चल रहा है अपने प्रभाव क्षेत्रों में माओवादी उसका एक अहम हिस्सा बन चुके हैं.

शनिवार, 30 जुलाई 2011

निजी स्कूलों का मायाजाल


 सरकारी सुविधाएं उठाने में निजी स्कूल हमेशा आगे रहते हैं लेकिन बच्चों और उनके अभिभावकों को किसी तरह की राहत नहीं देना चाहते. झारखंड सरकार ने सभी निजी स्कूलों को 20 फीसदी गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का निर्देश दिया था. लेकिन इसपर अभी कोई भी स्कूल अमल नहीं कर रहा है. करीब 8 वर्ष पूर्व राज्य सरकार ने निजी स्कूलों के बसों के अतिरिक्त कर में 40 फीसदी से अधिक की छूट दी थी. इस छूट के बाद बस भाड़े में बच्चों को कोई राहत नहीं दी गयी लेकिन पिछले 8 वर्षों में करोड़ों के राजस्व की बचत जरूर कर ली गयी.

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

हीरा भी है सोना भी लेकिन किस काम का

जहांगीर के शासन काल में झारखंड में  एक राजा दुर्जन सिंह थे. वे हीरे के जबरदस्त पारखी हुआ करते थे. वे नदी की गहराई में पत्थर चुनने के लिए गोताखोरों को भेजते थे और उनमें से हीरा पहचान कर अलग कर लेते थे. एक बार मुग़ल सेना ने उनका राजपाट छीनकर उन्हें कैद कर लिया. जहांगीर हीरे का बहुत शौक़ीन था. एक दिन की बात है.  उसके दरबार में एक जौहरी दो हीरे लेकर आया. उसने कहा कि इनमें एक असली है एक नकली. क्या उसके दरबार में कोई है जो असली नकली की पहचान कर ले. कई दरबारियों ने कोशिश की लेकिन विफल रहे. तभी एक दरबारी ने बताया कि कैदखाने में झारखंड का राजा दुर्जन सिंह हैं. उन्हें हीरे की पहचान है. वे बता देंगे. जहांगीर के आदेश पर तुरंत उन्हें दरबार में बुलाया गया. उनहोंने हीरे को देखते ही बता दिया कि कौन असली है कौन नकली. जहांगीर ने साबित करने को कहा. उनहोंने दो भेड़ मंगाए एक के सिंघ पर नकली हीरा बांधा और दूसरे के सिंघ पर असली दोनों को अलग-अलग रंग के कपडे से बांध दिया. फिर दोनों को लड़ाया गया. नकली हीरा टूट गया. असली यथावत रहा. दरबार की इज्ज़त बच गयी. जहांगीर इतना खुश हुआ कि दुर्जन सिंह तो तुरंत रिहा कर उसका राजपाट वापस लौटा दिया.

सोमवार, 25 जुलाई 2011

काले धन को मौलिक अधिकार का दर्जा दे सरकार

यदि आप विदेशी बैंकों से काले धन की वापसी की मांग करते हैं तो आप सरकार की नज़र में एक जघन्य अपराध  करते हैं. आपके खिलाफ सरकार के हर विभाग को लगा दिया जायेगा. आपकी जन्म कुंडली खंगाल दी जाएगी. जबतक कांग्रेस की सरकार है न आप महंगाई के खिलाफ शोर मचाएंगे न काले धन का विरोध करेंगे. समझे आप! वरना सोचिये बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण की डिग्री की सीबीआई जांच की जरूरत क्यों पड़ी. क्या वे सरकारी नौकरी करते थे..?...किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन दिया था...?...नहीं न! अपना जड़ी-बूटी बेचते रहते. योग सिखाते रहते. कोई समस्या नहीं थी. उन्हें काले धन के चक्कर में पड़ने की क्या जरूरत थी...? वैश्वीकरण के युग में किसी ने विदेश में धन रख दिया तो क्या हुआ. सरकार से दुश्मनी..? ...अब भुगतो...श्रीमती गांधी ने आपातकाल के दौरान सत्ता का सही इस्तेमाल सिखा दिया था. क्या हुआ अगर उतनी मजबूत महिला को भी सत्ता से हाथ धोना पड़ गया. जनता सब भूल गयी. फिर उन्हें सिंहासन पर बिठा दिया.

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

प्रिंट मीडिया : अंध प्रतिस्पर्द्धा की भेंट चढ़ते एथिक्स

  अभी मीडिया जगत की दो ख़बरें जबरदस्त चर्चा का विषय बनी हैं. पहली खबर है अंतर्राष्ट्रीय मीडिया किंग रुपर्ट मर्डोक के साम्राज्य पर मंडराता संकट और दूसरी हिंदुस्तान टाइम्स  इंदौर संस्करण में लिंग परिवर्तन से संबंधित एक अपुष्ट तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट को लेकर चिकित्सा जगत में उठा बवाल. इन सबके पीछे दैनिक अख़बारों के बीच बढती प्रतिस्पर्द्धा के कारण आचार संहिता की अनदेखी की प्रवृति है. इस क्रम में एक और गंभीर बात सामने  आई की मीडिया हाउसों का नेतृत्व नैतिक दृष्टिकोण से लगातार कमजोर होता जा रहा है. विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने की जगह वह हार मान लेने या अपनी जिम्मेवारी अपने मातहतों के सर मढने की और अग्रसर होता जा रहा है.

जल पंचायतों के गठन की तैयारी

रांची: झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में जल संकट से निपटने के लिए भूजल पंचायत के गठन की पहल पर विचार किया जा रहा है. इसके जरिये सिंचाई और पेयजल के लिए जल संरक्षण के कारगर उपाय किये जायेंगे. यह जल संरक्षण अभियान के तहत एक नया मॉडल तैयार करने के प्रयास का हिस्सा होगा. इस अभियान के तहत आम ग्रामीणों को जल संरक्षण और वाटर रिचार्ज के प्रति जवाबदेह बनाया जायेगा. हर राज्य के हर पंचायत में भू-जल पंचायत का गठन करने का निर्णय केंद्र सरकर ने लिया है. इस योजना में मैग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित जल पुरुष के नाम से विख्यात राजेंद्र प्रसाद सिंह अहम् भूमिका निभा रहे हैं.इसमें जल संसाधन का दुरूपयोग करने वालों पर उसके उपयोग पर रोक लगाने का अधिकार पंचायतों को दिया जाना है. जल स्रोतों की सुरक्षा पर खास तौर पर ध्यान केन्द्रित किया जायेगा.नदियों, तालाबों को बचने और सिंचाई सुविधाओं को बढ़ाना इस अभियान का मुख्य उद्देश्य होगा. झारखंड के जल संसाधन विभाग के अधिकारियों को इस संदर्भ में आवश्यक निर्देश दिए जा चुके हैं    

पुलिसिया प्रताड़ना से त्रस्त एक गरीब परिवार

झारखंड की राजधानी रांची से महज 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित खेलाडी का एक गरीब यादव परिवार स्थानीय थाना के प्रभारी के जुल्मो-सितम से त्रस्त है. तीन वर्षों से भी अधिक समय से खेलाडी थाना में पदस्थापित थाना प्रभारी अरविन्द कुमार सिंह ने इस परिवार का जीना हराम कर रखा है. वे स्वयं को रांची के सीनियर एसपी  का रिश्तेदार बताते हुए दावा करते हैं कि उनका कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता.  

भुक्तभोगी परिवार का एक सदस्य मीनू यादव कई महीनों से लापता है. वह ट्रेकर चलता था. खेलाडी पुलिस उसे रांची के कमड़े से पूछताछ के बहाने ले गयी थी. इसके बाद उसका कोई अता-पता नहीं है. उसकी पत्नी ने इस मामले को लेकर रांची के एसएसपी तक के पास गयी लेकिन उसे डांटकर भगा दिया गया. उसने न्यायलय में शिकायत दर्ज कराई लेकिन अज्ञात दबाव में आकर उसने समझौता कर अपना कम्प्लेन वापस ले लिया. इसके बाद वह अपने एकलौते बेटे के साथ लापता है. न ससुराल वालों को उसकी कोई जानकारी है न नैहर वालों को.
इसके बाद थाना प्रभारी ने शेष दो भाइयों के परिवार पर कहर ढाना शुरू कर दिया और इसके विरुद्ध उठी आवाज़ को भी दबाने में सफल रहे. मीनू यादव के अन्य दो भाइयों की पत्नियों ने अलग-अलग तिथि में थाना प्रभारी के विरुद्ध यौन प्रताड़ना की शिकायत कोर्ट में दायर की लेकिन अज्ञात दबाव में आकर एक ही तिथि में समझौता कर अपनी शिकायत वापस ले ली. अब इस परिवार को यह समझ में नहीं आ रहा है कि वे न्याय के लिए कौन सा दरवाज़ा खटखटायें... कहां जाकर गुहार लगायें. 
भैरो यादव की पत्नी गीता देवी ने कोर्ट में दिए अपने बयान में कहा था कि थाना प्रभारी २९ अक्टूबर 2010 को शाम 7 .30 बजे पूरे फ़ोर्स के साथ उसके घर पर पहुंचे और दरवाजे को धक्का देते हुए अंदर घुस गए. उसके पति संतोष यादव के बारे में पूछा और उसके घर में नहीं होने का जवाब मिलने पर उसके दोनों स्तन पकड़ लिए और खुश कर देने की मांग करने लगे. परिजनों और अन्य लोगों के जुटने पर वे इसमें  सफल नहीं हो सके तो उसे रंडी कहते हुए गंदी-गंदी गलियां देने लगे और जाते-जाते उसके पति को फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की धमकी दी. उसी रात 9.30 बजे थाना प्रभारी दुबारा पहुंचे और भैरो यादव को पकड़कर ले गए हथियार की बरामदगी दिखाकर उसे नक्सली करार देते हुए जेल भेज दिया.   थाना में शिकायत दर्ज होने का कोई प्रश्न ही नहीं था. लिहाज़ा उषा इसकी शिकायत लेकर रांची एसएसपी के पास गयी वहां कोई सुनवाई नहीं हुई तो कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई. इसके बाद भी कई महीने तक थाना प्रभारी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. 16 .5 .2011 को कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर रहस्यमय परिस्थितियों में उसने अपनी शिकायत वापस ले ली. रहस्यमय इसलिए भी कि दूसरे भाई संतोष यादव की पत्नी ने भी उसी तिथि को हलफनामा दायर कर समझौता किया था.
संतोष यादव की पत्नी उषा देवी की शिकायत के मुताबिक  1 नवम्बर 2010 की शाम थाना प्रभारी उसके घर पहुंचे और जबरन घर में घुसकर उसके पति को ढूँढने लगे.
उसके नहीं मिलने पर पर उसे गंदी-गंदी गलियां देते हुए उसके गुप्तांग में गोली मारकर मुंह से निकालने की साथ ही पति का इनकाउन्टर  करने की धमकी देने लगे.  उषा देवी ने भी न्यायालय  की शरण ली और 16 मई 2011 को अपनी गोतनी के साथ ही शिकायत वापस ले ली. 
थाना प्रभारी के इस व्यवहार के पीछे एक उद्योगपति और पुलिस के एक वरीय अधिकारी के बीच का गुप्त डील होने की आशंका व्यक्त की जा रही है. इस परिवार की ज़मीन एसीसी सीमेंट कारखाने की स्थापना के वक़्त लीज़ पर ली गई थी. लीज़ की अवधि ख़त्म हो चुकी है. कम्पनी को उसे वापस लौटना या लीज़ का नवीकरण कराना था. ज़मीन संबंधी कागज़ मीनू यादव के पास रहता था. अब मीनू के लापता होने के बाद कागजात भी लापता हैं. सम्भावना व्यक्द्त की जा रही है कि ज़मीन हड़पने के लिए पुलिस को मैनेज कर यह सारा खेल उद्योगपति के इशारे पर हो रहा है. पीड़ित परिवार ने रांची के जोनल आइजी को एक आवेदन देकर मामले की जांच करने और थाना प्रभारी के जुल्मो-सितम से बचने की गुहार लगाई है.

---देवेंद्र गौतम 

रविवार, 17 जुलाई 2011

क्या सचमुच यह कोई खबर थी?



मुंबई सीरियल ब्लास्ट के बाद झारखंड के अख़बारों ने मुख्यपृष्ठ पर सचित्र खबर छापकर एक नया रहस्योद्घाटन किया. खबर यह थी कि जब मुंबई में सीरियल ब्लास्ट हो रहे तो रांची के सांसद और  केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय दिल्ली के  एक फैशन शो में मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत कर रहे थे. यह शो एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने आयोजित किया था. इसे सनसनीखेज़ बनाने के लिए सुबोधकांत सहाय की तसवीर को अलग से घेर दिया गया था ताकि सनद रहे कि यह तसवीर केंद्रीय मंत्री की ही है और मीडिया की तीखी नज़र ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ा है. क्या सचमुच यह कोई रहस्य या खबर थी. जब ख़ुफ़िया एजेंसियों या मुंबई पुलिस को यह जानकारी नहीं थी कि सीरियल ब्लास्ट होनेवाले हैं तो भला केंद्रीय पर्यटन मंत्री को दिल्ली में बैठकर यह जानकारी कैसे हो सकती थी कि मुंबई पर आतंकी हमला होने जा रहा है और उन्हें फैशन शो में नहीं जाना चाहिए था. सीरियल ब्लास्ट के समय कौन-कौन से महत्वपूर्ण व्यक्ति कहां-कहां थे इसकी पड़ताल की जाये तो अखबार का एक विशेष बुलेटिन ही निकाला  जा सकता है लेकिन पाठकों को माथापच्ची करनी पड़ जाएगी कि मीडिया के लोग इसके जरिये कहना क्या चाहते हैं? न तो फैशन शो का आयोजन करना प्रतिबंधित है और न ही उसमें शिरकत करना गैरकानूनी. यह कोई अनैतिक कारोबार भी नहीं है. कोई मनोरंजन का आयोजन भी नहीं. फैशन की दुनिया के नए ट्रेंड का प्रदर्शन मात्र. लिहाजा मंत्री का किसी फैशन शो का मुख्य अतिथि बनना कोई हैरत की बात तो नहीं. बिना मतलब बात का बतंगड़ बनाना कहां की पत्रकारिता है. मात्र कीचड उछालना या सनसनी फैलाना स्वस्थ पत्रकारिता का परिचायक नहीं है. इससे परहेज़ किया जाना चाहिए.

----देवेंद्र गौतम

सोमवार, 11 जुलाई 2011

झारखंड: विलुप्त हो चली हैं ये आदिम जनजातियां

झारखंड के अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आये 11 साल हो गए. इस बीच जितनी भी सरकारें बनीं उनमें मुख्यमंत्री का पद आदिवासियों के लिए अघोषित रूप से आरक्षित रखा गया. लेकिन सरकार की कृपादृष्टि उन्हीं जजतियों की और रही जो वोट बैंक बनने की हैसियत रखते थे.  झारखंड की उन नौ आदिम जनजातियों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया जिनका अस्तित्व आज खतरे में है. उनकी जनसंख्या में ह्रास होता जा रहा है. मृत्यु दर में वृद्धि और जन्म दर में कमी के कारण ऐसा हो रहा है. भूख, कुपोषण और संक्रामक रोगों के कारण उनके यहां अकाल मौत के साये मंडराते रहते हैं. अशिक्षा, गरीबी और रोजगार के अवसरों का अभाव उनकी नियति बन चुकी है. वे आज भी जंगलों पहाड़ों के बीच पर्णकुटी बनाकर आदिम युग की मान्यताओं के बीच रह रहे हैं. भूत-प्रेत, ओझा-डायन बिसाही में अभी भी उनका गहरा विश्वास है. बीमार होने पर वे अस्पताल में नहीं बल्कि अपने इलाके के ओझा-सोखा की शरण में जाते हैं.




उनके इलाके में टीबी, मलेरिया, डायरिया, हैजा, कुष्ठ आदि रोगों का भीषण  प्रकोप है. यह कोई नयी परिघटना नहीं है. झारखंड के मानवशास्त्री कई दशकों से उनके अस्तित्व पर मंडराते खतरे के प्रति आगाह करते आ रहे हैं. उनके संरक्षण के लिए हर बजट में अरबों की राशि का प्रावधान किया जाता है. कई कल्याणकारी योजनायें चलाई जाती हैं लेकिन उनतक पहुंचते-पहुंचते सुविधाएं इतनी संकुचित हो जाती हैं कि उन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाता. झारखंड राज्य के गठन के बाद भी इन्हें कोई लाभ नहीं हुआ. आदिवासी मुख्यमंत्री का मिथक तो इनके नाम पर रचा गया लेकिन लाभ आदिवासियों की सामाजिक आर्थिक रूप से विकसित जातियों के मलाईदार तबके ने उठाया.
            2001 की जनगणना के मुताबिक हिल पहाड़िया जनजाति की कुल आबादी मात्र 1625  रह गयी है. सावर पहाड़िया 9946  की संख्या में है. असुर, विरिजिया और विरहोर जाति की भी यही हालत है. उनकी आबादी चार अंकों में ही सिमटी है. कोरवा, माल पहाड़िया, पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया आदि की आबादी जरूर पांच अंकों में है लेकिन उसमें तेजी से गिरावट आ रही है.इन नौ जनजातियों की कुल आबादी एक लाख 94  हजार आंकी जाती है. विडंबना यह है कि इन जातियों के लोग 50 वर्ष की आयु भी पार नहीं कर पाते. संतुलित आहार के अभाव में कुपोषण का शिकार हो जाते हैं. इनकी उत्पादन क्षमता में भी काफी कमी आ गयी है. सुरक्षित प्रसूति की सुविधा नहीं होने के कारण गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की मौत भी आम बात है.
             असुर जनजाति के लोग गुमला और दुमका जिले में निवास करते हैं. लौह अयस्क से लोहा बनाना उनकी आजीविका का पारंपरिक साधन रहा है. लोहे के औजार बनाने में इस जनजाति को महारत हासिल है. लेकिन उनके उत्पाद के खरीदार कम रह गए हैं. छोटे किसान भी बड़े कारखानों में निर्मित औजार खरीदना पसंद करते हैं. नतीजतन पुश्तैनी धंधे से उनका पेट नहीं भर पता. खेती लायक ज़मीन भी इनके पास नाममात्र की है.दैनिक मजदूरी का मिल गयी तोदो जून की रोटी का जुगाड़ हुआ वर्ना फाकाकशी के अलावा रास्ता नहीं. सरकार चाहती तो उन्हें पारंपरिक कौशल के उत्पाद तैयार करने के लिए आवश्यक सुविधाए प्रदान कर उनके लिए बाजार उपलब्ध कराती लेकिन वे कोई वोट बैंक तो नहीं कि उनकी चिंता की जाये. बिरिजिया जनजाति के लोग लोहरदगा, गुमला और लातेहार के इलाकों में पाए जाते हैं. बिरहोर जनजाति के लोग सूबे के विभिन्न जिलों के पहाड़ों जंगलों के आसपास छोटे-छोटे समूहों में रहते हैं. यह शिकारी श्रेणी की जनजाति है. जंगली जानवरों का शिकार करना इनका पुश्तैनी व्यवसाय रहा है. रस्सी बुनने कि कला भी इन्हें विरासत में मिली है. इनके उत्थान के लिए कई योजनायें बनीं लेकिन इनकी जगह नौकरशाहों और दलालों का उत्थान हुआ. पहाड़िया जनजाति संथाल परगना के इलाकों में रहती है. यह आज भी टोने-टोटके के आदिम विश्वास के बीच जीती है. इनमें शिक्षा का घोर अभाव है.
             विलुप्ति के कगार पर खड़ी इन जनजातियों के पुनर्वास के लिए राज्य गठन के बाद बिरसा मुंडा आवास योजना के तहत १२,५३६ आवास बनाने का निर्णय हुआ था लेकिन यह योजना अभी तक अधूरी है. लकड़ी तस्कर और जंगल माफिया उनका भरपूर शोषण करते हैं लेकिन सरकारी तंत्र शोषकों के ही साथ खड़ा रहता है. विश्व के सभी देशों में मानव आबादी बढ़ रही है लेकिन झारखंड में कुछ जजतियां विलुप्ति का संकट झेल रही हैं. यही विडंबना है.
            झारखंड में अबतक की बनी सरकारें कुर्सी की बाधा दौड़ में ही उलझी रही हैं. कोई बहुमत की सरकार बने तो शायद इनके दिन भी फिरें वरना पाठ्य पुस्तकों के एक अध्याय के सिमट जाना ही इनकी नियति है.

-----------देवेंद्र गौतम

बुधवार, 25 मई 2011

विस्थापितों की एक नई फ़ौज तैयार करना आत्मघाती कदम


राजेंद्र प्रसाद सिंह
पांच राज्यों  के चुनाव परिणामों  ने यह सिद्ध कर दिया है कि जनता से कटकर रहने वालों को राजनीति के हाशिये  में भी जगह नहीं मिलती और लोकतंत्र में कोई अपराजेय  नहीं होता। जनता को झांसा देकर सत्ता की चाबी नहीं हासिल की जा सकती। कट्टरता और साम्प्रदायिकता  की राजनीति करने वाली भाजपा पांचो राज्यों में  चारो खाने चित गिरी। प. बंगाल में  वामफ्रंट का 34 साल पुराना किला ढह गया। ज्योति बसु ने प. बंगाल में 34 वर्ष पहले जो व्यूह रचना की थी उसे भेदना असंभव माना जा रहा था।वामफ्रंट का अपराजेय होने का अहंकार ही उसे ले डूबा. मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतो से तो वे कट ही चुके थे, जनता से भी कटते गये थे। पूरी तरह मनमानी पर उतर आये थे। नंदीग्राम और सिंगुर में उन्होंने आम जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। इसीलिए जनता ने उसे सबक सिखा दिया। केरल में भी कड़े संघर्ष के बाद जनता ने सत्ता की चाबी कांग्रेस को ही सौंपी। असम की जनता ने कांग्रेस पर भरोसा कर तीसरी बार सेवा करने का मौका दिया। तमिल नाडू में कांग्रेस गठबंधन को जरूर झटका लगा. लेकिन कांग्रेस ने यह सिद्ध कर दिया कि उसकी नीतियां सही हैं। जनता का उसपर विश्वास लगातार बढ़ रहा है और आने वाले दिनों यह विश्वास और बढ़ेगा.
हाल के वर्षो में जो राजनैतिक परिवर्तन हुए हैं। विभिन्न चुनावों के जो नतीजे निकले हैं उनसे एक बात तो साफ हो चुकी है कि जनता अब जागरुक हो चुकी है। वह मौन रहकर राजनैतिक दलों के क्रियाकलाप देखती रहती है और समय  आने पर अपना फैसला सुना देती है। अब वोटरों को डरा-धमकाकर, फुसलाकर, जाति धरम और क्षेत्रीयता का हवाला देकर वोट बटोरने का जमाना लद चुका है। इस बात को जो नहीं समझेंगे वे जनता की नजरों से हमेशा के लिये उतर जायेंगे। राजनीति पर बाहुबलियों के दबदबे का युग भी बीत चुका है। हाल के वर्षों में कई बाहुबलियों को पराजय का मुंह देखना पड़ा है। निश्चित रूप से इसमें चुनाव आयोग की अहम  भूमिका है। उसने आधुनिक चुनाव प्रणाली के जरिये, बेहतर सुरक्षा व्यवस्था के जरिये ऐसा माहौल बनाया कि शांतिप्रिय लोग भी निर्भय होकर अपना वोट देने बूथों पर पहुंचने लगे। युवा और महिला वर्ग के मतदाता भी पूरे उत्साह के साथ बूथों तक पहुंचने लगे. जनता को जागरूक करने में सोशल नेटवर्किंग साइटों ने भी अहम भूमिका निभायी.
झारखंड सरकार को इन चुनाव परिणामों से सबक लेना चाहिए. अतिक्रमण हटाओ के नाम पर जनता के विरुद्ध जंग छेडने की कार्रवाई से बाज आना चाहिए. आज सरकार उन मजदूरों पर गोली चलवा रही है जो कई पीढ़ियों से कोयलांचल में रह रहे हैं. जिनकी जीवन स्थितियों को सुधारने और देश के इस्पात तथा थर्मल पावर प्लांटों की उर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1970 में कोकिंग और १९७२ में नन कोकिंग कोयले का राष्ट्रीयकरण किया था. खानगी मालिकों की परिसंपत्तियों का अधिग्रहण करते वक़्त केंद्र सरकार ने कुल मानव श्रम को बेहतर सुविधाएं मुहैय्या करने की जिम्मेवारी ली थी. उनपर गोली चलाने से इंदिरा गांधी जी की आत्मा दुखी हो रही होगी. कोयला मंत्री और प्रधान मंत्री को स्वयं पहल लेकर कोयलांचल में पुनर्वास की एक ठोस नीति बनानी चाहिए और राज्य सरकार के तानाशाही रुख पर अंकुश लगाना चाहिए. कोयलांचल की स्थितियों को राज्य सरकार नहीं समझ सकती. मजदूरों का दर्द उनके बीच रहने वाले ही महसूस कर सकते हैं.
आज झारखंड में समस्यायों का अंबार लगा है. उनका निबटारा करने की जगह यह सरकार सिर्फ बसे-बसाये लोगों को उजाड़ने में लगी है. यह पूरी तरह जनविरोधी रवैया है। कांग्रेस इसे कत्तई बरदाश्त नहीं करेगी. चाहे इसके लिये जो भी कुर्बानी देनी पड़े.
झारखंड में औद्योगीकरण की प्रक्रिया में जो लाखों लोग मुआवजा, पुनर्वास और नियोजन के लिये वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं उन्हें उनका हक दिलाने की पहल किये जाने की जरूरत है. जन-समस्याओं को सुलझाने की जगह राज्य में विस्थापितों की एक नई फ़ौज तैयार करना एक आत्मघाती कदम होगा। सरकार यदि समय  रहते नहीं चेती तो इसका खमियाजा उसी तरह भुगतना होगा जिस तरह वामफ्रंट को प. बंगाल और केरल में  भुगतना पड़ा. जनता ने उसे सिरे से खारिज कर दिया.

(लेखक इंटक के राष्ट्रीय महामंत्री  और झारखंड विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता हैं.)

रविवार, 22 मई 2011

राग-द्वेष से संचालित झारखंड का गृह विभाग


    19 मई को को कैट ने आईजी निर्मला अमिताभ चौधरी को अवमानना का दोषी करार देते हुए 15 दिनों के कारावास की सजा सुनाई है. उनके विरुद्ध वारंट भी जारी हो चुका है. लेकिन अभी तक न तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और न ही गृह विभाग ने उन्हें निलंबित किया. कुछ समय पूर्व आईजी डीके पांडेय के विरुद्ध करीब तीन वर्षों तक फर्जी तरीके से आवास भत्ता उठाने का मामला प्रमाण सहित प्रकाश में आया था लेकिन उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई. उलटे उन्हें प्रोन्नत कर दिया गया. वर्ष 2005 में तत्कालीन डीआइजी परवेज़ हयात के विरुद्ध सुषमा बड़ाइक नामक महिला ने बलात्कार का आरोप लगाया. उनके विरुद्ध विभागीय जांच भी गठित की गयी कोर्ट में भी मामला चला लेकिन उन्हें न तो निलंबित किया गया न कोई कार्रवाई की गयी. उसी युवती के यौन शोषण से सम्बंधित एक सीडी के प्रसारण के मात्र दो घंटे के बाद रविवार की बंदी के बावजूद  तत्कालीन जोनल आइजी पीएस नटराजन के निलंबन की अधिसूचना जारी कर दी गयी. 




उनसे कोई स्पष्टीकरण तक मांगने की ज़रुरत नहीं महसूस की गयी. उनपर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाया गया. निलंबन की अधिसूचना जारी करने की तिथि तक न तो उनके विरुद्ध कोई प्राथमिकी दर्ज थी और न ही कोई विभागीय जांच ही लंबित थी. इसके बाद भी उन्हें करीब छः वर्षों तक निलंबित रखा गया. उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए कैट ने 9 फ़रवरी 2011 को उनके निलंबन को अवैध करार दिया और निलंबन की अधिसूचना को तत्काल खारिज कर उसी तिथि से सेवा बहाल करने का आदेश दिया. गृह सचिव ने कैट के आदेश को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट में अपील की. हाईकोर्ट ने कैट के आदेश को रद्द करने से इनकार करते हुए अन्य बिन्दुओं पर सुनवाई के लिए उनकी याचिका स्वीकार कर ली.इस बीच श्री नटराजन ने अवमानना याचिका दर्ज कर दी.  इसके बाद भी गृह सचिव ने कैट के आदेश का पालन करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली. वे मामले को लम्बे समय तक टालने के प्रयास में लग गए. कैट ने उन्हें कारण बताओ नोटिस का जवाब देने के लिए एक माह से भी ज्यादा समय दिया. 19  मई को गृह सचिव ने अधिवक्ता के माध्यम से अपना जवाब दिया लेकिन कैट न्यायधीश ने उसे खारिज कर उन्हें अगले दिन सशरीर हाज़िर होने का आदेश दिया. अगले दिन गृह सचिव ने पुनः अपने अधिवक्ता के माध्यम से अपना पक्ष रखने की कोशिश की लेकिन जब न्यायधीशों ने उनके विरुद्ध वारंट जारी करने की बात कही तो अधिवक्ता ने उन्हें मोबाइल से खबर कर तुरंत  कोर्ट में हाज़िर कराया.कैट के इसी बेंच ने एक दिन पहले आइजी निर्मला अमिताभ चौधरी को  कारावास की सजा सुनाई थी इसलिए गृह सचिव की हवा ख़राब हो गयी. कोर्ट की फटकार के बाद उन्होंने अंडरटेकिंग लेकर 15 दिनों के अंदर श्री नटराजन का निलंबन रद्द कर सेवा बहाल करने की बात कही लेकिन कोर्ट के रुख को देखते हुए २० मई को ही 2005 के निलंबन आदेश को खारिज करने सम्बन्धी अधिसूचना जारी कर दी. शनिवार 21 मई को श्री नटराजन ने झारखंड पुलिस मुख्यालय में अपना योगदान दे भी दिया. राज्य सरकार न्यायपालिका के प्रति अपने सम्मान की भावना का अक्सर प्रदर्शन करती है लेकिन कोर्ट के आदेश की उसे कितनी परवाह है इसे इन उदाहरणों के जरिये समझा जा सकता है. 
                        आईपीएस अधिकारियों के साथ इस दोहरे व्यवहार का एकमात्र कारण है लॉबी. श्री नटराजन पुलिस मुख्यालय की ताक़तवर लॉबी के नहीं थे इसलिए उन्हें छः वर्षों तक गैरकानूनी निलंबन का दंश झेलना पड़ा. बाकि लोगों की लॉबी मज़बूत थी तो उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई. व्यक्तिगत राग और द्वेष के आधार पर काम करने वाले इन अधिकारियों के जिम्मे राज्य की पूरी सुरक्षा व्यवस्था है. शायद यही कारण है की इस राज्य का हर नागरिक स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है. 
---देवेंद्र गौतम  

बुधवार, 18 मई 2011

इसे कहते हैं प्रबंधकीय तानाशाही

झारखंड  के औद्योगिक प्रतिष्ठान राज्य सरकार के अतिक्रमण हटाओ अभियान की आड़ में प्रबंधकीय तानाशाही स्थापित करने में लगी हैं. इसका एक दिलचस्प उदाहरण सामने आया है. नियमतः ऐसे सेवानिवृत कर्मी जिनके सेवा लाभ का पूरा भुगतान नहीं हो पाया है उन्हें भुगतान मिलने तक सेवाकाल में आवंटित क्वार्टर में रहने का अधिकार है. इसके एवज में उनकी देय राशि से क्वार्टर का निर्धारित किराया काट लेने का प्रावधान है. हाई कोर्ट ने भी ऐसा ही आदेश दिया है जिसके मुताबिक जिन सेवानिवृत कर्मियों की बकाया राशि का मामला कोर्ट में लंबित है वे राशि भुगतान तक अपने आवास में रह सकते हैं. लेकिन रांची के एचइसी प्रबंधन ने ऐसे कर्मियों के क्वार्टरों को भी अवैध कब्जे की सूची में डाल दिया है और उन्हें जिला प्रशासन की मदद से जबरन खाली कराने की साजिश रच रही है. इसमें नियमों की पूरी तरह अनदेखी की जा रही है. 
सादे कागज पर नोटिस 
           
 एचइसी के एक सेवानिवृत कर्मी हैं सुरेन्द्र सिंह. वे क्वार्टर नंबर बी-98 (टी) में रहते हैं. उनके पीएफ, ग्रेच्युटी आदि का भुगतान नहीं हो सका है. उनका मामला कोर्ट में है. उनका क्वार्टर भी अवैध कब्जे की सूची में डाल दिया गया. उन्होंने कोर्ट के आदेश की प्रति संलग्न करते हुए 15 अप्रैल को ही रांची जिले के उपायुक्त,  को एक आवेदन देकर वस्तुस्थिति स्पष्ट की. इसकी प्रति निबंधक, माननीय उच्च न्यायालय,  एचइसी और आवासीय दंडाधिकारी, रांची को दी. लेकिन हाल में प्रबंधन की और से एक सादे कागज पर बिना किसी मुहर के एक नोटिस उनकी अनुपस्थिति में उनके क्वार्टर पर चिपका कर दो दिन के अंदर अवैध कब्ज़ा हटा देने का फरमान जरी कर दिया गया. सुरेन्द्र सिंह जैसा ही व्यवहार अन्य सेवानिवृत कर्मियों के साथ किया जा रहा है. उन्हें बकाया राशि का भुगतान किये बिना रांची से भगाने की साजिश रची जा रही है. जाहिर है कि घर चले जाने के बाद बार-बार भुगतान के लिए उनका रांची आना संभव नहीं होगा. प्रबंधन सेवा निवृत कर्मियों को लम्बे समय तक भुगतान से वंचित रख पायेगी. राज्य सरकार अभी अतिक्रमण हटाओ अभियान के नशे में गलत और सही के बीच फर्क करने की मनः स्थिति में नहीं है. जाहिर है कि प्रबंधन की नीयत साफ़ नहीं है. 
                    एचइसी के 284 क्वार्टर अवैध कब्जे की चपेट में हैं. इनमें 50 फीसदी क्वार्टरों पर पुलिस अधिकारियों और नेताओं का कब्ज़ा है. जिस भी पुलिस अधिकारी को क्वार्टर मिला उसने तबादला होने के बाद भी कब्ज़ा बरक़रार रखा. जो नए पदस्थापित हुए उन्हें दूसरे क्वार्टर दिए गए. इस तरह अधिकारी आते गए कब्ज़ा बढ़ता गया. कुछ क्वार्टरों पर विभिन्न दलों के नेताओं का कब्ज़ा है. .खुद केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय पर दो एक्सीक्युटिव बंगलों पर कब्जे का आरोप है. कुछ क्वार्टरों पर अपराधियों ने भी कब्ज़ा जमा रखा है. एचइसी प्रबंधन के लिए उन्हें खाली करना टेढ़ी खीर है. 25 फीसदी क्वार्टरों को एचइसी के स्टेट डिपार्टमेंट के अधिकारी ही हेराफेरी कर भाड़े पर चला रहे हैं. शेष 25 प्रतिशत क्वार्टरों में या तो बकाया राशि के भुगतान का इंतजार करते सेवानिवृत कर्मी रह रहे हैं या फिर मृत  कर्मियों के आश्रित जिन्हें अनुकम्पा के आधार पर नियोजन दिया गया लेकिन दूसरा क्वार्टर आवंटित नहीं किया गया. नतीजतन वे पिता के ज़माने में आवंटित क्वार्टर में ही रहकर अपनी सेवा दे रहे हैं. प्रबंधन ऐसे क्वार्टरों को भी अवैध कब्जे की सूची में जोड़ता है. पिछले वर्ष लव भाटिया नामक एक व्यवसायी का अपहरण कर एचइसी का ही एक क्वार्टर में रखा गया था. पुलिस ने उसे वहीँ से एक मुठभेड़ के बाद बरामद किया था. मुठभेड़ में चार अपराधी मारे गए थे. उस  वक़्त भी क्वार्टरों से अवैध कब्ज़ा हटाने की बात चली थी. लेकिन बात आयी -गयी हो गयी थी. अपहरण कांड का मुख्य साजिशकर्ता राजू पांडे कई  क्वार्टरों पर पूर्ववत काबिज रहा था. बाद में ओरमांझी में एक ज़मीन विवाद में उसकी हत्या हो गयी थी. इस तरह के लोगों के कब्जे से प्रबंधन को परेशानी  नहीं है.परेशानी  अपने पूर्व कर्मियों और उनके  आश्रितों से है. हैरत की बात है कि राज्य सरकार और प्रशासन भी प्रबंधन की इस साजिश में जाने-अनजाने भागीदार बन जा रहे हैं. सबसे हैरत ट्रेड यूनियन नेताओं पर है जो सबकुछ जानते हुए भी मौन धारण किये हुए हैं. ले-देकर कुछ आवाज उठा भी रहे हैं तो केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ही उठा रहे हैं. 

-----देवेंद्र गौतम   

सोमवार, 9 मई 2011

पुरानी कहानी की नयी पटकथा

शहरी इलाके की प्राइम लोकेशन पर बसी स्लम बस्ती. उसपर भू-माफिया की गिद्धदृष्टि. उसे खाली कराने  के लिए इलाके के सबसे बड़े माफिया डान के साथ करोड़ों का सौदा. स्लम बस्ती के गरीबों को उजड़ने से बचाने के लिए एक हीरो और हिरोइन का पदार्पण. फिर टकराव और अंत में गरीबों की जीत. यह वालीवुड की कई फिल्मों का कथानक बन चुका है. झारखंड में अभी इसी कथानक की एक नयी पटकथा तैयार की जा रही है. इसमें खुद राज्य सरकार प्रमुख शहरों की प्राइम लोकशन के भूखंड खाली कराने का काम बड़ी क्रूरता के साथ अंजाम देती है. इसके लिए आड़ बनाती है कोर्ट के एक आदेश को.
गूगल सर्च 
                 
झारखंड हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए चार मुख्य औद्योगिक शहरों की भीड़भाड़ वाली सड़कों के दोनों किनारों से अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया था ताकि ट्रैफिक समस्या से निजात पाया जा सके. इस समस्या के लिए प्रशासन को फटकार भी लगाई. यह काम आसानी से हो गया. अधिकांश लोगों ने खुद ही अतिक्रमित ढांचा तुडवा दिया. हालांकि वीआइपी लोगों पर हाथ डालने से परहेज़ किया गया. इस बीच एक अप्रैल को राज्य सरकार के अधिव्यक्ता ने हाईकोर्ट में एक हलफनामा दायर कर जानकारी दी कि राज्य सरकार पूरे राज्य में अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाने का निर्णय ले चुकी है और सभी जिलों के उपायुक्तों को इस संबंध में निर्देश दिया जा चुका है. कोर्ट को इसमें आपत्ति का कोई कारण नहीं था. लिहाज़ा मुख्य न्यायधीश ने इसपर सहमति जता दी. 
                   इसी सहमति को राज्य सरकार ने अपना हथियार बना लिया और वैध ज़मीनों की वैधानिकता को भी संदिग्ध बनाकर लोगों को निर्ममता के साथ उजाड़ना शुरू कर दिया. रांची, बोकारो और धनबाद में इस क्रम में गोलीकांड हुए करीब आधे दर्ज़न लोग मारे गए. जनता और पुलिस दोनों और से काफी लोग घायल हुए. हंगामा हुआ तो मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने बड़ी मासूमियत के साथ कहा कि यह अभियान कोर्ट के आदेश पर चलाया जा रहा है. सरकार के हाथ बंधे हुए हैं. इन घटनाओं को लेकर लोगों के अंदर न्यायपालिका के प्रति श्रद्धा के भाव में भी कमी आने लगी. इस बीच केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने कोर्ट के आदेश और सरकार के हलफनामा की प्रति निकलवाकर सरकार के इस झूठ का खुलासा किया. वे शुरू से ही पुनर्वास के बिना अभियान चलाने का विरोध कर रहे थे. रांची के इस्लामनगर में तो गोलीकांड के दौरान उनकी हत्या तक की कोशिश की गयी जिसमें वे बाल-बाल बचे. विरोध के स्वर तमाम विपक्षी दलों की और से ही नहीं स्वयं सत्तारूढ़ दल की और से भी उठे. भाजपा के कई नेता पार्टी छोड़कर चले गए. कुछ दल विरोधी गतिविधि के आरोप में निष्कासित भी कर दिए गए. सत्तारूढ़ गठबंधन के मुख्य सहयोगी झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन भी बिदक उठे. समर्थन वापसी और सरकार गिराने तक की कवायद शुरू हो गयी. इससे पहले कि मामला तूल पकड़ता अचानक  भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष  नितिन गडकरी तारणहार बनकर रांची पहुंचे. पता नहीं कौन सी जादू की छड़ी घुमाई कि शिबू सोरेन शांत हो गए और सरकार गिराने के प्रयासों को ब्रेक लग गया.  गडकरी साहब का मुंडा सरकार के प्रति शुरू से ही विशेष स्नेह रहा है. राष्ट्रपति शासन ख़त्म करने और मुंडा सरकार का गठन कराने में उनकी अहम् भूमिका थी. भाजपा के दिग्गज नेताओं की असहमति के बावजूद उन्होंने झारखंड  मुक्ति मोएचा का समर्थन लिया था. उन दिनों मीडिया में कई रिपोर्ट ऐसी आयी थी कि गडकरी साहब के नागपुर के तीन पूंजीपतियों ने मुंडा सरकार के लिए समर्थन जुटाने में करोड़ों रुपये खर्च किये थे. बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाले  झारखंड विकास मोर्चा के विधायक समरेश सिंह ने सार्वजानिक रूप से यह आरोप लगाया है कि उन्हीं पूंजीपतियों को प्राइम लोकेशन के भूखंड उपलब्ध कराने के लिए अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया जा रहा है. इस पूरे खेल का संचालन वहीँ से हो रहा है. 
                         विधानसभा के अध्यक्ष सीपी सिंह इस अभियान को पूरी तरह जनविरोधी मान रहे हैं. संवैधानिक पद की विवशता के बावजूद वे इस अभियान के विरोध में पूर्व केन्द्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और इसके बाद राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के अनशन स्थल पर गए. और विधानसभा की याचिका समिति में प्रशासन की खबर ली. एक मामला कचहरी मार्केट का था जहां 152 दुकानदारों के नाम बाज़ार समिति ने 40 वर्ष पूर्व पट्टा काटा था और बंदोबस्ती की थी. हर साल बंदोबस्ती का नवीकरण होता था.इस वर्ष यह अवधि 31 मार्च तक थी. लेकिन राज्य सरकार के इशारे पर नवीकरण करने की जगह 72 घंटे की  नोटिस पर बुलडोज़र चलाकर दुकानों को उजाड़ दिया गया.याचिका समिति ने ममले की सुनवाई के दौरान इस संदर्भ में कोर्ट के विशेष आदेश की प्रति मांगी तो प्रशासन की बोलती बंद हो गयी.समिति को किसी सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं मिल सका. इसी तरह एचईसी के नगर प्रशासक से पूछा गया कि कोर्ट ने सीबीआई जाँच का आदेश दिया है तो उसकी रिपोर्ट आने के पहले कर्मचारियों के परिजनों को क्यों उजाडा जा रहा है. तो उनका कहना था कि राज्य सरकार ने निर्धारित पैकेज देने के लिए 320 एकड़ ज़मीन उपलब्ध कराने की शर्त रखी है. इसलिए वे विवश थे. बहरहाल याचिका समिति दोनों मामलों में प्रस्तुत किये गए जवाब के प्प्रती असंतोष व्यक्त किया और अगली सुनवाई  के दिन ठोस जवाब के साथ उपस्थित होने का निर्देश दिया.
                  यह पुरानी कहानी की नयी पटकथा है. इसका द एंड कहां पर होगा यह पता नहीं. लेकिन इतना तय है कि वालीवुड की फिल्मों की तरह यह सुखांत नहीं होगा. खुद इस सरकार के लिए भी. 

----देवेंद्र गौतम        

रविवार, 1 मई 2011

ये विधायक हैं या मरखंडे बैल

धनबाद के पाटलीपुत्र मेडिकल हॉस्पीटल के अधीक्षक डॉक्टर अरुण कुमार के साथ शनिवार 30 अप्रैल को कुछ विधायकों ने धक्का-मुक्की कर दी. वे गोलीकांड में घायलों को देखने आये थे. अधीक्षक की गलती  थी कि उन्हें   पहचान नहीं पाए. धक्का-मुक्की के बाद पहचाना. यह कोई पहली घटना नहीं है. झारखंड के विधायक सरकारी अधिकारियों को पीटने का एक रिकार्ड बनाते जा रहे हैं. इस वर्ष आधे दर्जन से अधिक अधिकारियों को विधायकों के कोप का भाजन बनाया जा चुका है. कुछ ही रोज पहले गोड्डा विधायक संजय यादव और उनकी जिला परिषद् अध्यक्ष पत्नी कल्पना देवी ने वहां के उप विकास आयुक्त दिलीप कुमार झा की सरेआम पिटायी कर दी थी. सिमरिया विधायक जयप्रकाश भोक्ता ने राशन कार्ड के लिए गिद्धौर के बीडीओ हीरा कुमार की पिटाई की. बडकागांव के विधायक योगेन्द्र साव ने केरेडारी के बीडीओ कृष्णबल्लभ सिंह को पीट डाला. 27 फ़रवरी को बरकत्ता  के विधायक अमित कुमार ने विद्युत् विभाग के अभियंता चंद्रदेव महतो की धुनाई कर दी. राजमहल के विधायक अरुण मंडल ने विद्युत् विभाग के कनीय अभियंता रघुवंश प्रसाद को पीट डाला.
                   विधायकों की दबंगई यहीं तक सीमित नहीं. आमजन भी उनके कोप का शिकार होते हैं. वे अपने इलाके में न्यायपालिका और कार्यपालिका का काम भी करने लगते हैं. डुमरी विधायक जगन्नाथ महतो ने 9 जनवरी को चन्द्रपुरा के आमाटोली में जन अदालत लगाकर महेंद्र महतो और मिथुन अंसारी नामक दो मनचले युवकों को सरेआम लाठी से पीता था. खिजरी के विधायक सावना लकड़ा ने तो विद्युत् ग्रिड के निर्माण में लगे मजदूरों को ही बंधक बना लिया था.
                     ऐसा नहीं कि झारखंड में शालीन और सुसंस्कृत विधायक नहीं हैं. वे हैं लेकिन दबंगों  और उदंडों की अच्छी खासी संख्या  है. इनमें ज्यादातर या तो पहली बार चुनकर आये हैं या फिर पहले से ही आपराधिक पृष्ठभूमि के रहे हैं. विधायक बनने के बाद वे अपने को जनता का सेवक नहीं बल्कि अपने इलाके का राजा समझने लगते हैं. खुद को कानून-व्यवस्था से ऊपर की चीज मान लेते हैं. हमेशा अहंकार में डूबे रहते हैं. उनके हाव-भाव सहज नहीं रह पाते. यही कारण है कि जरा-जरा सी बात पर मरखंडे बैल सा व्यवहार करने लगते हैं. अधिकारी वर्ग के लोग भी अपनी प्रताड़ना के लिए काफी हद तक स्वयं जिम्मेवार होते हैं. वे सत्ताधारी दल के विधायकों को उचित सम्मान देते हैं लेकिन विपक्ष के विधायकों की ज्यादा परवाह नहीं करते. सत्तापक्ष के कुछ लोगों से संपर्क रहने पर तो वे विपक्षी विधायकों की और भी उपेक्षा करते हैं. इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है. हालांकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों के शालीन और सभ्य होने की उम्मीद की जाती है. यदि किसी ग्रंथि से ग्रसित न हों तो विधायकों को इतने संवैधानिक अधिकार होते हैं कि किसी अधिकारी को सबक सिखा सकें लेकिन वे कानून को तुरंत हाथ में ले बैठते हैं जिसके कारण अधिकारी की गलती गौण हो जाती है और उन्हें अपराधी मान लिया जाता है.
                          यह पूरी तरह मनोवैज्ञानिक मामला है. अपरिपक्वता के कारण ही व्यवहार सामान्य नहीं रह पाता. परिपक्व नेता अच्छे-अच्छों को सबक सिखा देते हैं और किसी को हवा भी नहीं लगने देते. बहरहाल  इस तरह की घटनाओं से राज्य में विकास और रचनात्मकता का माहौल नहीं बन पाता. बिहार में लालू-राबड़ी के ज़माने में विधायिका में उदंडता का माहौल अपने चरम पर था. उस वक़्त विकास का पहिया भी पूरी तरह थमा हुआ था. अब इसपर अंकुश लगा है तो तरक्की के नए आयाम खुले हैं. झारखंड में तो राजनैतिक अस्थिरता के कारण शुरू से अराजकता का माहौल बना रहा है. इसलिए राज्य गठन के एक दशक के बाद भी हालत ज्यों की त्यों है. जबतक धीर-गंभीर और समझदार नेताओं के हाथ में राज्य की सत्ता की बागडोर  नहीं आएगी यही हालत बनी रहेगी.  

------देवेंद्र गौतम 

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

बर्बरता की सीमा पार करती पुलिस

धनबाद गोलीकांड 


google search 



झारखंड के चार प्रमुख नगरों में शुमार और देश का सबसे बड़ा कोयलांचल धनबाद कल शाम से कर्फ्यू के हवाले है. वहां आमजन और प्रशासन के बीच जंग का माहौल बना हुआ है. पुलिसिया आतंक अपने चरम पर है. ब्रिटिश सरकार भी स्वतंत्रता  सेनानियों के साथ संभवतः इतनी बर्बरता के साथ पेश नहीं आई होगी जितनी बर्बरता झारखंड पुलिस ने बुधवार को धनबाद में दिखायी. लोगों को घरों से खींच-खींचकर मारा. छह लोगों को मौत के घाट उतार दिया. दर्जनों लोग घायल हो गए. अतिक्रमण हटाने के नाम पर आम लोगों पर जितनी गोलियां बरसायी गयीं उतनी नक्सली  मुठभेड़ों में भी शायद ही बरसायी गयी हो. निश्चित रूप से जिले के एसपी को पथराव में घायल होता देख पुलिस अपना आप खो बैठी और उग्र भीड़ पर बेतहासा गोली बरसाने लगी. अतिक्रमण हटाओ अभियान में इससे पूर्व रांची के नागा बाबा खटाल और इस्लामनगर में भी गोलीकांड हो चुका है. यह अभियान हाई कोर्ट के आदेश पर चलाया जा रहा है. पुलिस-प्रशासन आज्ञाकारी बालक की तरह पूरी बर्बरता के साथ आदेश के पालन में जुटे हैं. राज्य की मुंडा सरकार बेचारगी का प्रदर्शन कर रही है. लेकिन हकीकतन यह पूरा कार्यक्रम क्षेत्रीयतावाद के आधार पर एक खास इलाके के गरीबों के खिलाफ चलाया जा रहा है. केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय ने ऐसा खुला आरोप लगाया है. कोर्ट के कितने ही आदेश ठंढे बस्ते में पड़े हुए हैं.लेकिन इसे जान बूझकर बदले की भावना के तहत चलाया जा रहा है. 
                 धनबाद में कोयला खदान इलाकों की आवासीय कॉलोनियों में बीसीसीएल के क्वार्टरों को खाली कराने के क्रम में गोलीबारी की गयी. एक सामान्य आदमी भी जानता है कि कोयलांचल में ट्रेड यूनियन के लोगों की चलती है. यदि प्रशासन के लोग अभियान चलने के पहले यूनियन नेताओं से बात कर लेते तो शायद अतिक्रमण हटाने का शांतिपूर्ण रास्ता निकल आता. लेकिन यहां तो सरकारी आतंक का सिक्का जमाना था. इसलिए दंगानिरोधी ब्रज वाहन समेत अर्द्ध सैनिक बलों की भारी फौज लेकर पहुंची कुछ  क्वार्टरों को लाठी गोली की धौंस देकर खाली कराया भी. स्थानीय विधायक और यूनियन नेताओं ने विरोध किया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद ही भीड़ उग्र हुयी. यदि प्रशासन ने इसे वर्दी का रोब ज़माने अवसर समझने की जगह बातचीत का रास्ता अपनाया होता तो यह काम शांति से निपट सकता था. वर्दी का आतंक तो रांची में हुए गोलीकांडों से कायम हो ही चुका था. बहरहाल झारखंड सरकार चाहे कितना भी मासूम और असहाय होने का ढोंग रचे इस बर्बरता का खामियाजा तो उसे भुगतना ही होगा. 

-----देवेंद्र गौतम    

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मियां की जूती मियां के सर

इसे कहते हैं मियां की जूती मियां के सर. झारखंड में अतिक्रमण हटाओ अभियान के दौरान आदिवासियों के दिशोम गुरु शिबू सोरेन का अपना ही बयान उनके लिए घातक सिद्ध हुआ. सिर्फ गरीबों के आशियाने उजाड़े जाने से क्षुब्ध होकर उन्होंने कहा कि ताक़तवर और रसूखदारों के आवास भी खाली कराये जायें. इसपर बोकारो इस्पात प्रबंधन ने अपने आवासीय क्षेत्र में स्थित उनके भाई लालू सोरेन और दिवंगत पुत्र दुर्गा सोरेन के आवास को खाली करा दिया. अब स्वयं शिबू सोरेन के आवास की बारी है. उन्होंने सिर्फ बोकारो स्टील के आवास ही नहीं बल्कि उसके आसपास के 4-5 एकड़ खाली ज़मीं को भी खेती और गौपालन के लिए घेर रखा है. अब वे प्रबंधन पर कोई दबाव भी नहीं डाल सकते क्योंकि वह तो उन्हीं के आदेश का पालन कर रहा है. यदि वे अपने रुतबे का इस्तेमाल करते हैं तो आम जनता के बीच गलत संदेश जायेगा. 
      झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो और झारखंड राज्य समन्वय समिति के अध्यक्ष शिबू सोरेन का परिवार झारखंड के सबसे रसूखदार राजनैतिक घरानों में गिना जाता है. उनके पुत्र हेमंत सोरेन अभी राज्य के उपमुख्यमंत्री हैं. पुत्रवधु सीता सोरेन विधायक हैं. बोकारो इस्पात प्रबंधन को कभी उम्मीद ही नहीं थी कि इस परिवार के लोगों से आवास खाली कराये जा सकेंगे. 
       पिछले करीब दो महीने से हाई कोर्ट के आदेश पर पूरे झारखंड में अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया जा रहा है. सत्ता में बैठे लोग इसे अमानवीय बता रहे हैं. उजड़े लोगों के पुनर्वास की बात कर रहे हैं. लेकिन इसके प्रति उनकी गंभीरता संदिग्ध दिखती है. अब वे इसके लिए विधानसभा में अध्यादेश लाने की बात कर रहे हैं. जबकि सरकार के पास जवाहर लाल नेहरू शहरी विकास योजना के हजारों करोड़ रुपये अनुपयोगी हालत में पड़े हुए हैं. इस योजना में स्लम बस्तियों के लोगों को शहर के बाहर बसाये जाने का प्रावधान है. इंदिरा आवास आवंटित किये जा सकते हैं. लेकिन हालत यह है कि सरकार ने विस्थापितों की तात्कालिक राहत  के लिए नगर निगमों को एक करोड़ रुपये आवंटित कर दिए लेकिन अभी तक कहीं भी कोई पंडाल नहीं बना. कोई राहत शिविर नहीं खुला. उजड़े गए परिवारों के लोग महिलाओं, बच्चों और अपने मवेशियों के साथ सड़क किनारे, खुले मैदानों में बिलकुल असुरक्षित अवस्था में रात गुजारने को विवश हैं. उनकी रोजी-रोटी छीन गयी. सर के ऊपर छत हटा ली गयी और सरकार उन्हें बसाने पर अभी विचार ही कर रही है. हास्यास्पद तो यह है कि इंदिरा आवास में रह रहे लोगों को भी अतिक्रमण हटाने की नोटिस दी गयी है. इंदिरा आवास के स्थल चयन और नक्षा पास करने की जिम्मेवारी सर्कार की है. अब वे लोग भी प्रखंड कार्यालय के चक्कर लगा रहे हैं. बिल्कुल  अराजक स्थिति उत्पन्न हो गयी है. अब इसपर राजनीति भी शुरू हो गयी है. चूंकि यह अभियान अभी शहरी इलाकों में ही चलाया जा रहा है इसलिए उजड़े गए ज्यादातर लोग गैर झारखंडी हैं. अलगाववादी राजनीति करनेवाले अब यह मांग कर रहे हैं कि सिर्फ स्थानीय खतियानी लोगों का ही पुनर्वास किया जाये. सवाल है कि क्या कुछलोग झारखंड में भी जम्मू कश्मीर की तरह धारा 370 जैसा कोई प्रावधान लागु करने का इरादा रखते हैं.तृतीय और चतुर्थ वर्गीय नौकरियों से तो गैर झारखंडी लोगों को लगभग वंचित किया ही जा चूका है. अब उन्हें उजाड़कर सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया जाये यही वे चाहते हैं. अभी संकीर्ण दायरों से जरा ऊपर उठकर भोजन, आवास, शिक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी ज़रूरतों को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किये जाने की मांग को लेकर एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ने की ज़रुरत है. क्षेत्रीयतावाद की जगह गरीबी और अमीरी के बीच बढ़ते फर्क को समझने की ज़रुरत है. किसी एक तबके की भलाई की लड़ाई लड़ने से पूरे राष्ट्र का भला नहीं होनेवाला. सत्ताधारी तो चाहते ही हैं कि लोग छोटे-छोटे दायरों में बंटे रहें ताकि वे राज करते रहें. उन्हें वोटों का गणित तय करने में आसानी हो. बहरहाल झारखंड की मुंडा सरकार ने यदि विस्थापितों के पुनर्वास के मामले में टालमटोल का रवैया जारी रखा तो आनेवाले समय में भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा.

फर्क बाप बेटे के नज़रिये  का 

हाल में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन ने एक बयां जारी कर कहा कि झारखंड में सरकारी नौकरी सिर्फ मूलवासियों को मिलेगी. इधर उनके सुपुत्र उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने एक बयान में कहा कि बेहतर था कि झारखंड संयुक्त बिहार का ही हिस्सा बना रहता. जाहिर है कि शिबू सोरेन ने अपने जनाधार को मज़बूत बनाये रखने की नीयत से अपना बयान दिया जबकि हेमंत ने राज्य गठन के दस वर्षों बाद भी राज्य का समुचित विकास नहीं हो पाने से क्षुब्ध होकर अपनी बात कही. उनकी प्रतिक्रिया एक युवा नेता की अनुभूतियों का स्वाभाविक इज़हार था. उसके अन्दर कोई राजनीति नहीं बल्कि जनाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो पाने का दर्द था. साथ ही यह संदेश कि वे सभी समुदायों को एक नज़र से देखने वाले और सच्चाई का खुला इज़हार करने का साहस रखने वाले एक विजिनरी नेता हैं. अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि अलग राज्य बन्ने के दस वर्षों बाद भी नए झारखंड के निर्माण की दिशा में ठोस कदम क्यों नहीं उठाये जा सके. सिर्फ घोटालों का अंबार क्यों लगता चला गया जबकि राज्य के मुख्यमंत्री का पद अघोषित रूप से आदिवासियों के लिए आरक्षित रहा. उन्हें कम से कम आदिवासी समुदाय के उत्थान का काम तो करना चाहिए था. लेकिन उन्होंने सिर्फ अपने और अपने करीबी लोगों के विकास का काम किया. सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए समुदाय की भावनाओं को भड़काते रहे. राज्य के विकास के लिए इन छोटे-छोटे दायरों से बाहर निकलना होगा. अपने साथ गठित राज्यों से कुछ सबक लेनी होगी. राज्य का गठन चंद लोगों के लिए नहीं पूरी आबादी के उत्थान के उद्देश्य से किया गया था. इसमें विफल हुए तो आनेवाली नस्लों को क्या जवाब देंगे.   

----देवेंद्र गौतम    

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

उजड़े लोगों के नाम..ये घडियाली आंसू.....

  झारखंड में अतिक्रमण हटाओ अभियान अब स्वार्थ की राजनीति की रोटी सेंकने का जरिया बन चुका है. इस अभियान में उजाड़े गए लोगों के नाम पर घडियाली आंसू बहाने और इस बहाने अपना वोट बैंक मज़बूत करने की होड़ सी मची हुई है. मंगलवार 6 अप्रैल को पौलिटेक्निक की ज़मीन पर अवैध रूप से बसे इस्लामनगर में 300 घरों को बुलडोज़र से ढाह दिया गया. करीब 15 हज़ार की आबादी बेघर हो गयी. इस क्रम में पुलिस और स्थानीय लोगों के बीच हिंसक झड़प भी हुई जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी और 26 पुलिसकर्मियों सहित 41 लोग घायल हो गए.  घायलों में केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत भी शामिल थे. पता चला कि  इस्लामपुर के लोग जगह खाली करने को तैयार थे लेकिन मंत्री सुबोधकांत ने घोषणा की थी कि इस्लामपुर को उजाडा गया तो प्रशासन की ईंट से ईंट बजा दिया जायेगा. उनकी घोषणा ने वहां के निवासियों के अन्दर कुछ उम्मीद जगाई. ईंट से ईंट बजाने की मानसिक और सामरिक तैयारी हो गयी. लेकिन तिनके के इस सहारे ने तो और भी बेसहारा कर दिया. हाल में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी नागा बाबा खटाल के उजाड़े गए लोगों के पास गए थे. उनका जुलूस लेकर राजभवन गए. पुनर्वास की मांग की पुनर्वास होने तक खटाल के मलवे में ही रहने की सलाह दी.अब कोंग्रेस के लिए इसका जवाब देना ज़रूरी हो गया. सो केन्द्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय ने इस्लामपुर को मोर्चा बनाया. वह उनके चुनाव क्षेत्र में आता ही है. सो एक क्रांतिकारी ऐलान कर डाला. हिंसक झड़प में उन्हें भी कुछ चोट लगी. पुनर्वास की मांग और घटना की भर्त्सना करने बाद उन्हें भी गिरफ्तार किया गया. थोड़ी देर बाद रिहा हुए और वे बाहर चले गए. झारखंड विधान सभा के अध्यक्ष सीपी सिंह भी इस अभियान से काफी विचलित हैं. उनका चुनाव क्षेत्र भी यहीं पड़ता है. नागा बाबा खटाल में अभियान चलने के दिन वे झारखंड  हाई कोर्ट के  मुख्य न्यायधीश के पास वे गए थे. हालांकि बाद में उन्होंने  इसे अनौपचारिक भेंट बताया. बहरहाल इसके बाद उन्होंने नौकरशाहों की एक बैठक बुलाकर इस अभियान को अमानवीय होने से रोकने की सलाह दी. इस मुद्दे पर राज्यपाल को उन्होंने एक ज्ञापन भी दिया. पता नहीं क्यों उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष के पद में निहित शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया. वे चाहते तो विधान सभा का  विशेष सत्र बुलाकर इस अभियान पर रोक लगाने का आदेश पारित करा सकते थे. इधर उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन उजड़े गए लोगों के पुनर्वास के लिए ज़मीन चिन्हित कर चुकने की बात कर रहे हैं. आम लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि इतने लम्बे समय से इतने बड़े पैमाने पर अतिक्रमण की जानकारी सरकार और प्रशासन को कैसे नहीं थी. जानकारी थी तो ऐसी बस्तियों को बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं कैसे मुहैय्या करायी गयीं. अतिक्रमण हटाओ अभियान भी अचानक नहीं शुरू हुआ. इसकी जानकारी करुण रस में डूबे पक्ष-विपक्ष नेताओं को भी थी और इन बस्तियों के नागरिकों को भी. फिर बुलडोजर चलने तक का इंतज़ार क्यों किया गया. जहां तक उजड़े गए लोगों के पुनर्वास का सवाल है वैधानिक रूप से तो नहीं लेकिन मानवीय आधार पर इसकी ज़रुरत है लेकिन खतरा इस बात का है कि  कहीं यह उदारता सरकारी ज़मीन आवंटित कराने का फार्मूला न बन जाये. एक बड़ी आबादी के पास सर छुपाने को छत नहीं है. स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर, सार्वजनिक उद्यानों में, फुटपाथ पर रातें गुज़रते हैं लोग. क्यों नहीं सरकार शहर के बाहर एक-एक कमरे के फ्लैटों का निर्माण कराकर पहले आओ पहले पाओ के आधार पर खुले तौर पर, बिना किसी शर्त के आवंटित करे. आवास को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जाये. आवास ही क्यों भोजन, पेयजल, शिक्षा, चिकित्सा आदि तमाम बुनियादी ज़रूरतों को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल कर इनकी आपूर्ति की जिम्मेवारी सरकार को लेनी चाहिए. लेकिन यह सब किसी संवेदनशील सरकार में ही संभव है. घोटालों के ताने-बाने बुनने में व्यस्त घडियाली आंसू बहाने वाले इन स्वार्थी नेताओं से तो कभी यह उम्मीद नहीं ही की जा सकती है. 

-----देवेंद्र गौतम  

बांग्लादेशी मॉडल की ओर बढ़ता देश

  हाल में बांग्लादेश का चुनाव एकदम नए तरीके से हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार...