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मंगलवार, 3 जुलाई 2018

सत्ता और विपक्ष के बीच रस्साकशी का दिन

कल 5 जुलाई है। झारखंड में भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच रस्साकशी को दिन। झामुमो और कांग्रेस समेत सारे विपक्षी दलों का झारखंड बंद का आह्वान और उसे विफल करने की सरकारी तैयारी। यह शक्ति प्रदर्शन का मामला है।  इसकी घोषणा एक पखवारे पहले ही हो चुकी थी। इस बीच प्रचार युद्ध चल रहा था। इस क्रम में एक दूसरे की पोल भी खोली गई। इस मामले में सबसे संतुलित सुझाव आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो ने दिया है। उनका कहना है कि मानसून सत्र में इस मुद्दे पर दो दिनों तक सदन में बहस हो। अभी आम जनता पूरी तरह अनभिज्ञ है कि बिल में क्या संशोधन किया जा रहा है और उसके किन बिंदुओं पर विरोध है। आम जनता के लिए यह कैसे लाभदायक अथवा हानिकारक है। सदन में अथवा खुले मंच पर बहस होने पर ही आम जनता पूरी बात समझ पाएगी। दोनों पक्षों के आरोप-प्रत्यारोप के दौर के कारण लोग दिग्भ्रमित हैं। बिल का पूरा मसौदा पक्ष विपक्ष के नेताओं के पास है। इसे सार्वजनिक नहीं किया गया है।
ऐसे में बंद का मतलब सिर्फ शक्ति प्रदर्शन ही हो सकता है। लोग बंद में इसलिए साथ देंगे क्योंकि वे हेमंत सोरेन, सुबोधकांत सहाय अथवा अन्य नेताओं के समर्थक हैं। यह बंद नेताओं के प्रति समर्थन की अभिव्यक्ति होगा मुद्दा विशेष पर आम जनता की राय नहीं। बेहतर होता कि इस लड़ाई को पहले सदन में लड़ा जाता। इसके बाद उसे सड़क पर लाया जाता। सुदेश महतो ने बहुत ही व्यावहारिक और सुलझा हुआ सुझाव दिया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में  बंद और आंदोलन किसी मुद्दे पर जनता की राय का आखिरी हथियार होता है। विधायी मामलों को पहले विधायी संस्थाओं में निपटाने की कोशिश करनी चाहिए। इसके बाद ही जनता की अदालत में जाना चाहिए। राजनीति सिर्फ राजनीति के लिए नहीं होनी चाहिए। एक दिन के बंद का दिहाड़ी मजदूरों और रोज कमाने खाने वालों पर क्या प्रभाव होता है, एक बार िसपर भी विचार कर लेना चाहिए। धनी वर्ग के लोगों को  इससे कोई नुकसान नहीं होता। एक दिन की कमाई की भरपाई वे ्अगले दिन ही  कर लेते हैं। लेकिन गरीबों को भरपाई में कई दिन लग जाते हैं। हमारे यहां बात-बात में बंद का आह्वान करने का प्रचलन हो गया है और ुसे जबरन सफल अथवा असफल बनाया जाता है। बंद का आह्वान करके यदि उसे जमता की मर्जी पर छोड़ दिया जाए। लाठी-डंडा लेकर सड़कों पर न उतरा जाए तो शायद ही कोई बंद सफल हो पाए। लोग नुकसान के डर से सड़कों पर निकलने अथवा दुकानें बंद करते हैं। अपनी मर्जी से बहुत कम ही बंद में शामिल होते हैं। संघर्ष का यह हथियार लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं बल्कि अराजकता को बढ़ावा देने वाला होता है। हर लड़ाई को सड़कों पर नहीं लाना चाहिए। विधायी और न्यायपालिका के संस्थानों का आखिर गठन किसलिए हुआ है...य़

सोमवार, 2 जुलाई 2018

ऐतिहासिक होगा 5 जुलाई का बंद : सुबोधकांत सहाय

दावाः कार्पोरेट की कठपुतली सरकार के खिलाफ उमड़ेगा जन सैलाब

रांची।  पूर्व केंद्रीय मंत्री और झारखंड प्रदेश कांग्रेस के कद्दावर नेता सुबोधकांत सहाय का दावा है कि भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ विपक्ष की ओर से 5 जुलाई को प्रस्तावित झारखंड बंद ऐतिहासिक होगा। रघुवर सरकार की जनविरोधी नीतियों के कारण झारखंड की जनता त्रस्त है। पांच जुलाई को सड़कों पर जनसैलाब उमड़ेगा। उन्होंने कहा कि केन्द्र व राज्यों की भाजपा सरकार कारपोरेट घरानों की कठपुतली बनकर रह गई है। सिर्फ बड़े पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए भाजपा ने भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन कराया है। इससे किसानों की कृषि योग्य भूमि भी छिन जाएगी। रघुवर सरकार  ने पेसा एक्ट, पंचायती राज व्यवस्था के विरूद्ध काम किया है। आदिवासियों और मूलवासियों के हक छीने जा रहे हैं। मेहनतकश मजदूर, गरीब किसानों की जमीन औने-पौने दाम पर जबरन अधिग्रहित कर कारपोरेट घरानों को सस्ते दर पर देने के लिए मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल पास कराया है। श्री सहाय ने कहा कि मुख्यमंत्री रघुवर दास जब सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन कराने मे सफल नहीं हो सके तो एक सोची समझी साजिश के तहत कारपोरेट घरानों को कौड़ी के भाव जमीन देने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून मे संशोधन कराने की साजिश रची। सरकार ग्राम सभा को भी नजरअंदाज कर गरीबों की जमीन हथियाने पर आमादा है। उन्होंने कहा कि सरकार के इस कुकृत्य का कांग्रेस पार्टी पुरजोर विरोध करती है। बिल के विरोध में तमाम विपक्षी पार्टियों की एकजुटता सराहनीय है। उन्होंने झारखंड की जनता से बंद को पूर्ण सफल बनाने में सहयोग करने की अपील की।

सोमवार, 18 जून 2018

भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ झारखंड बंद बेअसर



सालखन की जल्दबाजी से विपक्षी आंदोलन को झटका
रांची। आदिवासी सेंगल अभियान और झारखंड दिशोम पार्टी के भारत बंद का कुछ खास असर नहीं पड़ा। भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन प्रस्ताव को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने की खबर का सभी विपक्षी दल विरोध कर रहे हैं। उनकी बैठक सोमवार 18 जून को प्रतिपक्ष के नेता हेमंत सोरेन के आवास पर बुलाई गई है। उस बैठक में आंदोलन का स्वरूप तय किया जाएगा और रणनीति बनेगी। लेकिन आदिवासी सेंगल अभियान तथा झारखंड दिशोम पार्टी के नेता सालखन सोरेन ने बैठक में शामिल होने से पूर्व ही बंद का आह्वान कर विपक्षी दलों से सहयोग का अनुरोध कर दिया। यह आंदोलन की अगुवाई का श्रेय लेने के लिए जल्दबाजी में उठाया गया कदम था। उन्होंने सड़क जाम कर आह्वान को सफल बनाने की कोशिश भी की लेकिन पुलिस-प्रशासन ने इनपर आसानी से काबू पा लिया। कई लोग हिरासत में लिए गए। बोकारो जिला के जेरीडीह पंचायत के तुपकाडीह के पास उन्होंने सड़क जाम करने का प्रयास किया लेकिन 20 लोगों के हिरासत में लिए जाने के बाद शांत पड़ गए। इस आह्वान के निष्फल हो जाने से रघुवर दास सरकार के पास दो संदेश गए। पहला यह कि उनके पास जनाधार का अभाव है। वे स्थानीय लोगों के स्वयंभू फौजदार बने बैठे हैं। दूसरा संदेश यह गया कि संशोधन का विरोध करने वाले विपक्षी दलों के बीच अहं का टकराव और नेतृत्व की होड़ है। सालखन सोरेन यदि विपक्षी दलों की बैठक में शामिल होते और जल्दबाजी में एकला चलने का प्रयास नहीं करते तो उनकी प्रतिष्ठा रह जाती और पार्टी की साख पर आंच नहीं आती। अब सरकार आसानी से यह दावा कर सकती है कि झारखंड की आम जनता संशोधन के खिलाफ नहीं है। व्यवहारतः विपक्षी दलों के लोग अपनी प्रस्तावित बैठक छोड़कर उनके पीछे नहीं आ सकते थे। यह आंदोलन की कमान सालखन मुर्मु के हाथों में सौंप देने और सभी दलों के उनके पिछलग्गू होने का संदेश देने जैसा होता। विपक्षी नेता इतने कमजोर या नासमझ भी नहीं हैं।

रविवार, 17 जून 2018

झारखंडी अस्मिता पर दावेदारी की जंग


रांची। झारखंड में स्थानीयता के सवाल पर झारखंड नामधारी दलों के बीच रस्साकशी चल रही है। हर दल स्वयं को इसके प्रति दूसरों से ज्यादा प्रतिबद्ध होने का दावा कर रहा है। एक तरफ झारखंड विधानसभा में विपक्ष के नेता हेमंत सोरेन इस मुद्दे पर विपक्षी दलों को एकत्र कर आंदोलन खड़ा करने की तैयारी में हैं दूसरी तरफ आजसू प्रमुख सुदेश महतो ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। उनकी नीतियों पर सावाल खड़े किए हैं। आजसू झारखंड में एनडीए के सहयोगी दलों में प्रमुख हैं। सिल्ली और गोमिया विधानसभाओं के उपचुनावों में थोड़े अंतर से दूसरे स्थान पर रहने के बाद आजसू आलाकमान सुदेश महतो एनडीए से नाराज चल रहे हैं। उन्होंने एनडीए में रहते हुए मुख्यमंत्री रघुवर दास की स्थानीय नीति का लगातार विरोध किया है। अभी भूमि अधिग्रहण संशोधन प्रस्ताव को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद ताल ठोकते हेमंत सोरेन को आजसू के महासचिव राजेंद्र मेहता ने आड़े हाथों लिया है। श्री मेहता के मुताबिक झारखंड मुक्ति मोर्चा झारखंड आंदोलन की सौदागीरी करता रहा है। कई बार आंदोलन को बेचा है। उसे स्थानीय नीति पर बोलने का कोई हक नहीं है। उनका कहना है कि हेमंत ने 2010 में सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन प्रस्ताव पर सहमति व्यक्त की थी। 14 महीने तक मुख्यमंत्री रहे लेकिन स्थानीय नीति बनाने की जरूरत नहीं समझी। जेपीएससी से क्षेत्रीय भाषाओं को हटाने पर सहमति दी। अगस्त 2017 में जब भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक सदन में आया तो उसका विरोध नहीं किया। सरकार की जनविरोदी नीतियों पर कभी आपत्ति नहीं की। अब सीएनटी-सीपीटी एक्ट में संशोधन के मामले में रघुवर सरकार के बैकफुट पर आने का श्रेय ले रहे हैं। झारखंड की जनता जानती है कि संशोधन का विरोध आजसू ने किया था और सी के विरोध के कारण सरकार को पीछे हटना पड़ा। विपक्ष के नेता ने तो अपनी सहमति दे ही दी थी। उन्होंने कहा कि आजसू एनडीए में जरूर है लेकिन झारखंडी अस्मिता के सवाल पर कभी समझौता नहीं करता। झामुमो अराजक कार्रवाइयां कर सकता है कोई निर्णायक आंदोलन नहीं। स्थानीयता की लड़ाई आजसू के अलावा कोई ईमानदारी से नहीं लड़ सकता।

-देवेंद्र गौतम

हंगामा क्यों है वरपा.....


हंगामा क्यों है वरपा.....

झारखंड में भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद राजनीतिक फिज़ा गर्म होती जा रही है। तमाम विपक्षी दलों ने इसके खिलाफ आंदोलन की चेतावनी दी है। यह विपक्षी गठबंधन को मजबूत करने का अवसर प्रदान करने वाला मुद्दा बन गया है। 18 जून को इस मुद्दे को लेकर विपक्ष के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के आवास पर विपक्षी दलों की बैठक बुलाई गई है। वे चाहते हैं कि सीएनटी-सीपीएनटी एक्ट के संशोधन प्रस्ताव की तरह सरकार इसे भी वापस ले-ले। यह स्थिति इसलिए त्पन्न हुई कि सरकार संशोधन के औचित्य पर सर्व सहमति नहीं बना पाई और अब इसे लेकर जिद पर अड़ी हुई है।  दूसरी तरफ विपक्ष को पता है कि जब वे इसके विरोध में सड़कों पर हंगामा करेंगे और जन-जीवन अस्त-व्यस्त होने लगेगा तो सरकार बैकफुट पर आने को विवश हो जाएगी। लेकिन विपक्ष को थोड़ी देर के लिए यह समझना चाहिए कि राष्ट्रपति किसी ऐसे प्रस्ताव को कैसे मंजूरी दे सकते हैं जो जनता के हित में न हो। उनके विवेक पर थोड़ा विश्वास करना चाहिए। सच यही है कि फिलहाल सरकार और विपक्ष के संयुक्त प्रयास से झारखंड का जन-जीवन अशांत करने की तैयारी की जा रही है।
     राज्य के भू-राजस्व मंत्री अमर बाउरी ने इसे जनोपयोगी कार्यों के लिए आवश्यक और राज्य के हित में बताया है। उनके अनुसार जमीन केवल सरकारी कार्यों और विकास योजनाओं के लिए अधिगृहित की जाएगी। विपक्ष की आशंका है कि इस संशोधन का इस्तेमाल कार्पोरेट घरानों को ज़मीन देने के लिए किया जाएगा। मंत्री अमर बाउरी भी झारखंड की मिट्टी से ही उपजे नेता हैं। लिहाजा उनपर या भाजपा के दूसरे नेताओं पर क्षेत्रीय वैमनस्य या पूर्वाग्र का आरोप नहीं लगाया जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि इतना बड़ा निर्णय लेने और इसपर अमल की प्रक्रिया शुरू करने के पहले सरकार यदि एक सर्वदलीय बैठक बुला चुकी होती तो आज यह आशंकाएं नहीं उठतीं। या तो प्रस्वाव लिया ही नहीं जाता या फिर इसमें कोई अवरोध नहीं आता। सवाल है कि प्रस्ताव सदन की स्वीकृति के बिना राष्ट्रपति तक नहीं पहुंच सकता था तो फिर सदन में विपक्ष ने वह आशंकाएं क्यों नहीं व्यक्त कीं जो अब कर रही हैं। विपक्ष का राजनीतिक धर्म होता है सत्तापक्ष के हर निर्णय का विरोध करना। लेकिन अगर सचमुच कोई लोकहितकारी काम हो रहा हो तो उसे हो जाने देना चाहिए। उसमें अडंगा नहीं डालना चाहिए। प्रस्ताव का वास्तविक चित्र इस विधेयक के प्रावधानों के बिंदुवार विश्लेषण के बाद ही साफ हो सकेगा। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि बिंदुओं पर कोई बात नहीं हो रही है। संशोधन के पीछे की भावना अथवा दुर्भावना को समझने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। रघुवर दास की सरकार कोई आकाश से नहीं टपकी है। झारखंड की जनता ने इसे जनादेश दिया है। सरकार सिर्फ पांच साल के लिए है। इसमें डेढ़ साल बचे हैं। इसके बाद से जनता की अदालत में फिर हाजिरी लगानी होगी। ऐसे में वह कोई ऐसा काम करने का जोखिम नहीं उठा सकती जिसके कारण जनता से मुंह छुपाना पड़े। सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने का कोई मतलब नहीं होता।
     निश्चित रूप से रघुवर सरकार कहीं न कहीं ब्रिटिश काल में आदिवासियों के हित में बनाए गए कानूनों में बदलाव चाहती है। सीएनटी-एसपीएनटी एक्ट में संशोधन के असफल प्रयास से यह स्पष्ट है। लेकिन वह ऐसा क्यों चाहती है। उसके क्या तर्क हैं। इसे समझने की जरूरत है। इस सरकार को मूलवासियों का दुश्मन तो करार नहीं दिया जा सकता। अगर वह उद्योग-धंधों का विस्तार चाहती है। बाहरी निवेश लाना चाहती है तो इसमें गलत क्या है। निवेश आएगा तो राज्य का विकास होगा। रोजगार के अवसर सृजित होंगे। हम जांगल युग में तो वापस नहीं लोट सकते। समय के साथ चलना ही होगा। लड़ाई इस बात की होनी चाहिए कि विकास का ज्यादा से ज्यादा लाभ स्थानीय लोगों को मिले। औद्योगीकरण और विकास के लिए ज़मीन की जरूरत तो पड़ेगी ही। अगर ज़मीन का अधिग्रहण नहीं होगा तो विकास का पहिया आगे कैसे बढ़ेगा। दूसरी सोचने की बात यह है कि क्या अभी भी अंग्रेजों के बनाए उन कानूनों को उसी रूप में बने रहने देना चाहिए जिस रूप में ये बने थे। क्या आज 21 सदी में भी स्थितियां वही हैं जो 18 वीं, 19 वीं शताब्दी में थीं। ब्रिटिश शासन आदिवासियों के हित में था और आजाद भारत की सरकारें उनके विरोध में रही हैं यह सोच गलत है। अगर अंग्रेज झारखंड वासियों के इतने ही हितैषी थे तो उनके खिलाफ थोड़े-थोड़े अंतराल पर विद्रोह क्यों होते रहे...। उन्हें सर पर बिठाकर क्यों नहं रखा गया। गुजरात और तेलंगाना जैसे राज्यों ने आखिर उनके बनाए कानूनों में संशोधन क्यों स्वीकार किया...। क्या उन्हें वह खतरे नहीं दिखाई दे रहे जो झारखंड के विपक्षी दलों को दिख रहे हैं। विकास और औद्योगीकरण की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता। इनका लाभ अथवा नुकसान किसी एक सरकार के कार्यकाल तक सीमित नहीं रहता। आज जो विपक्ष में है, कल सत्ता में होगा। जो सरकार में है वह विपक्ष में बैठेगा लेकिन जो कार्य होंगे वह लंबे समय तक दिखाई देंगे। इस बात को समझने की जरूरत है और सत्ता तथा विपक्ष की आपसी खींचातानी का आम जनजीवन पर असर नहीं आने देना चाहिए। राजनीति हो लेकिन सदन में हो सड़कों पर नहीं।

-देवेंद्र गौतम



स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...