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गुरुवार, 15 सितंबर 2022

भाजपा को भारी पड़ सकती है स्मृति ईरानी की बौखलाहट

 


-देवेंद्र गौतम

स्मृति ईरानी बौखलाई हुई हैं। गोवा के सिली रेस्टोरेंट पर उनकी झूठ दस्तावेज़ी सबूतों की भेंट चढ़ गई है। यह साफ हो चुका है कि उस रेस्टोरेंट का संचालन उनका परिवार करता है। उसमें 70 प्रतिशत हिस्सेदारी उनके पतिदेव की है। जिस बेटी को वे कॉलेज की छात्रा बता रही थीं उसके वीडियो से और स्वयं मैडम के पूर्व बयानों से ज्ञात होता है कि उनकी बेटी रेस्टोरेंट की प्रबंधकीय व्यवस्था देखती है। होटल चलाने में कोई समस्या नहीं है।

समस्या वहां गोमांस और सुअर का मांस परोसे जाने को लेकर है। वे जिस पार्टी में हैं उसके मुखिया इतने ताकतवर हैं कि अपने अपने लोगों के बचाव में किसी हद तक जा सकते हैं। लेकिन वे कट्टर हिंदूवाद की राजनीति करते हैं। गोरक्षा की बात करते हैं। गोमांस के आरोप में कितने ही लोगों पर गाज गिर चुकी है। अब जब उनकी अपनी केंद्रीय मंत्री के रेस्टोरेंट में ही बीफ परोसे जाने की बात सामने आ रही है तो इसका बचाव कैसे करें। पार्टी अपने एजेंडे से पीछे कैसे हटे। पार्टी किसी की परवाह नहीं करती। अपने लोगों के सात खून को माफ कर देती है। पार्टी ने खाड़ी देशों की नाराजगी की कीमत पर अपनी प्रवक्ता नुपूर शर्मा और नवीन जिंदल का बचाव किया। दिखावे के तौर पर पार्टी के बाहर का रास्ता दिखाया लेकिन गिरफ्तारी नहीं होने दी। पुलिस सुरक्षा प्रदान की। यदि बीफ का मामला नहीं होता तो स्मृति ईरानी को भी सीधे संकट से निकाल लाती। अब उन्हें परोक्ष रूप से ही मदद की जा सकती है। वैसे स्मृति ईरानी के रहने से या नहीं रहने से भाजपा की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। वे किस धर्म से संबंध रखती हैं न उनसे किसी ने पूछा न उन्होंने बताया। लेकिन उन्हें एक एसी पार्टी ने लगातार मंत्री बनाया जो भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करना चाहती है। जो मुसलमानों के प्रति नफरत के भाव को बढ़ावा देने की नीति पर ध़ड़ल्ले से चलती है। ऐसी पार्टी में होने के नाते उन्हें ऐसे व्यवसाय में नहीं पड़ना चाहिए था जिसमें बीफ परोसना पड़े।

सिली सोल का मामला उजागर होने के बाद उनकी बौखलाहट इतनी बढ़ गी है कि वे क्या कर रही हैं क्या बोल रही हैं इसका जरा भी होश नहीं है। इसी बौखलाहट में वे लोकसभा में अनावश्यक चिल्ला-चिल्लाहट के बाद सोनिया गांधी से सिर लड़ा बैठीं। इस बौखलाहट के कारण ही वह यह जानकारी नहीं ले सकीं कि भारत जोड़ो यात्रा शुरू करने से पूर्व राहुल गांधी स्वामी विवेकानंद को श्रद्धा सुमन अर्पित करने गए थे या नहीं और सार्वजनिक रूप से आरोपों की बौछार कर मजाक का पात्र बन गईं। वैसे भी अब राजनीति करवट ले रही है और आने वाले समय में ईरानी और नुपूर शर्मा जैसे जहरीले बयानवीरों की क्या उपयोगिता रहेगी कहना कठिन है। फिलहाल स्मृति जी की बौखलाहट उनसे क्या-क्या बयान दिलवाएगी, कितना मखौल उड़वाएगी कहना कठिन है।      

रविवार, 4 नवंबर 2018

बीच मंझधार में न डूब जाए भाजपा की लुटिया




-देवेंद्र गौतम

हिंदू संगठनों और संत-महात्माओं ने न्यायपालिका के निर्णय का इंतजार करने की जगह दिसंबर में राम मंदिर का निर्माण शुरू कर देने की घोषणा कर दी है। जाहिर है इससे तनाव बढ़ेगा। उसका दायरा चाहे जो हो। लेकिन ध्रुवीकरण की प्रक्रिया जरूर शुरू हो जाएगी। भाजपा यही चाहती भी है। 2019 के गदर के लिए यही एक ब्रह्मास्त्र शेष बचा भी है। इस तरह विधायिका परोक्ष रूप से न्यायपालिका से टकराने से बच जाएगी।
विधायिका और न्यायपालिका के बीच विभिन्न मौकों पर तनाव उत्पन्न होता ही रहता है लेकिन हाल के दिनों में यह तनाव कुछ ज्यादा ही तीखा हो चला है। सीबीआई के दो शीर्ष अधिकारियों की नूराकुश्ती, सबरीमाला मामले में महिलाओं के पक्ष में निर्णय और राफेल सौदे में हस्तक्षेप। लोकतंत्र के दो पायों के बीच टकराव बढ़ने का कारण बने। खासतौर पर अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई टलने पर चुनावी रणनीति ही बिगड़ गई। इधर हिन्दूवादी संगठनों के सब्र की बांध भी टूट चली है। पहले उन्होंने मोदी सरकार पर अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने का दबाव डाला। संत-महात्मा और तमाम हिंदूवादी संगठनों से लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत तक यही सुझाव देने लगे। यह न्यायपालिका की भूमिका को नकार कर अलग राह चलने का सुझाव था। लेकिन इसके लिए स्थिति अनुकूल नहीं थी। केंद्र की मोदी सरकार को अगर यही करना होता तो इतने समय तक अदालत के रुख का इंतजार क्यों करती?
      पहली बात यह कि सरकार को पता है कि वह ऐसा कोई अध्यादेश लाती भी है तो उसे पारित नहीं करा सकेगी। इस मुद्दे पर विपक्ष तो क्या सहयोगी दलों का समर्थन मिलना भी कठिन है। इस भूमि विवाद के तीन दावेदार हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जब इसे तीनों के बीच बराबर-बराबर बांट देने का निर्णय दिया था तो किसी पक्ष को मंजूर नहीं हुआ। सभी पौने तीन एकड़ के पूरे भूखंड पर अपने हक में फैसला चाहते थे। सो सुप्रीम कोर्ट में अपील कर बैठे। अब यदि भाजपा सत्ता में होने के नाते एक पक्ष के दावे पर मुहर लगाएगी तो अन्य दो पक्षों की प्रतिक्रिया क्या होगी? इसपर भी तो विचार करना होगा। जब एक अदालत का फैसला किसी पक्ष को स्वीकार नहीं हुआ तो सरकार का फैसला मंजूर हो जाएगा, यह कैसे संभव है। अगर सरकार रामलला विराजमान या निर्मोही अखाड़ा के पक्ष में खड़ी होती है तो क्या मस्जिद समर्थक शांत होकर बैठ जाएंगे? जब सभी पक्ष जिद पर अड़े हों और साक्ष्यों को भी मानने को तैयार न हों तो फैसला देना किसी के लिए भी जटिल कार्य हो जाता है। न्यायपालिका के लिए भी यह आसान नहीं है। अब अगर सरकार अध्यादेश लाने पर विचार करती तो इसके पीछे आस्था का दबाव नहीं चुनावी लाभ उठाने की लालसा होती। अपने चुनावी वायदे को पूरा न कर पाने की खीज होती। न्यायपालिका को चुनावी लाभ-हानि के गणित से कोई मतलब नहीं है। वह भावनाओं के आधार पर नहीं बल्कि साक्ष्यों के आधार पर फैसला सुनाती है। यदि उसपर भरोसा जताया तो उसके कार्य में बाधा पहुंचाना उचित नहीं था। चुनाव की पूर्व बेला में अपनी वाणी और पहलकदमी पर नियंत्रण रखना होता है। लेकिन सत्ता के मद और उसके हाथ से फिसल जाने का डर इस कदर हावी है कि मर्यादाओं के उलंघन की नौबत भी आई। सुनवाई की तिथि से पूर्व सबरीमाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के महिलाओं के पक्ष में निर्णय और केरल के रूढ़िवादी लोगों  के इसके विरोध में उठ खड़े हे के दौरान भाजपा के अंदर का लैंगिक समानता का भाव तिरोहित हो गया। उसे इस हंगामे के बीच एक वोट बैंक की संभावना दिखाई पड़ने लगी। फैसले पर टिप्पणी करते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कोर्ट को हिदायत दे डाली कि वह ऐसे फैसले न दे जिसे लागू नहीं किया जा सके। अर्थात ऐसे ही फैसले दे जो सरकार के मनोनुकूल हो। विधायिका जब न्यायपालिका को हिदायत देने लगे तो कहीं न कहीं चार पायों पर खड़ी लोकतंत्र की इमारत पर खतरे की अनुभूति होने लगती है। शाह ने सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर सवाल उठाकर यह संकेत दिया कि कोर्ट की मर्यादा तभी बची रहेगी जब वह सरकार के मनोनुकूल फैसले दे। अन्यथा उसके आदेश धरे के धरे रह जाएंगे। इस हिदायत के पीछे कहीं न कहीं उनका इशारा अयोध्या मामले की ओर था जिसकी सुनवाई 27 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में होनी थी। लेकिन कोर्ट ने उनकी हिदायत पर अमल करने की जगह सुनवाई को जनवरी तक के लिए टाल दिया। इससे बौखलाहट उत्पन्न हो गई। सरकार चाहती थी कि चुनाव से पहले सुनवाई पूरी हो जाए और फैसला आ जाए।
जब यह संभव नहीं हुआ और अध्यादेश लाना भी लाभप्रद नहीं दिखा तो अब कट्टर हिंदूवादी संगठनों ने जबरदस्ती पर तरने का फैसला किया है। भाजपा का काम आसान हो जाएगा। उसे चुनावी वैतरणी पार करने का एक रास्ता मिल जाएगा। मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद कट्टर हिंदू संगठन अति उत्साहित थे। उन्होंने सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न करने की कई कोशिशें कीं लेकिन इसमें आंशिक सफलता ही मिली।
सत्ता में आने के पहले भाजपा ने कई चुनावी वायदे किए थे। उनमें कितने पूरे हुए सर्वविदित है। हिंदूवादी संगठनों से राम मंदिर बनाने का वादा उसमें एक था। लेकिन भाजपा सिर्फ उन्हीं के समर्थन से सत्ता में नहीं आई थी। भाजपा नेतृत्व को यह बात याद रखनी चाहिए कि हिंदूवादी संगठनों ने नहीं बल्कि भारत की आम जनता ने उसे सत्ता की चाबी सौंपी थी। वह भी किसी सांप्रदायिक आग्रह पर नहीं बल्कि तत्कालीन यूपीए सरकार की मनमानी से ऊबकर। लोगों ने भाजपा से लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की रक्षा करते हुए जनहित के कार्यों की अपेक्षा की थी। जनता के इस भरोसे को कायम रखकर ही सत्तारूढ़ भाजपा चुनाव की वैतरणी पार कर सकती है सांप्रदायिक उन्माद की नौका बीच मंझधार में उसकी लुटिया डुबो भी सकती है। 


मंगलवार, 12 जून 2018

कोई है जो बिगाड़ना चाहता है रांची का माहौल



देवेंद्र गौतम

रांची। रमजान का महीना अपने समापन की ओर पहुंच रहा है। ईद का त्योहार करीब है और ऐसे में रांची की शांति व्यवस्था को भंग करने की सुनियोजित साजिश चल रही है। पुलिस और प्रशासन की सतर्कता के कारण षडयंत्रकारियों के मंसूबे पूरे नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन तनाव बना हुआ है। इसे गहराने और भड़काने की कोसिश हो रही है। लेकिन यह साजिश कहां किसी संस्था की ओर से रची जा रही है, पता नहीं चल पा रहा है। रविवार 10 जून को भाजयुमो की मोटरसाइकिल रैली में शामिल कुछ लोगों ने अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में भड़काऊ नारे लगाकर टकराव की कोशिश की। रांची मेन रोड से लेकर शहर के की इलाकों में माहौल बिगाड़ने का प्रयास किया गया। मेन रोड पर दोनों ओर से पत्थरबाजी हुई जिसमें तीन पुलिसकर्मियों सहित कई लोग घायल हो गए। सुरक्षा बलों ने आधे घंटे के अंदर स्थिति पर काबू पा लिया।
रविवार की ही रात को शहर के दलादिली चौक पर दो मौलानाओं पर कुछ असामाजिक तत्वों ने जानलेवा हमला कर दिया। वे अस्पताल में इलाजरत हैं। पुलिस ने हमलावरों को अगले ही दिन गिरप्तार कर लिया। इस घटना के दो दिन बाद मंगलवार को नगड़ी में गड़बड़ी फैलाने की कोशिश की गई। सुरक्षा बलों ने इसे भी नियत्रित कर लिया।
सीधे तौर पर देखा जाए तो इसे भाजपा समर्थित संगठनों की 2019 के चुनाव की तैयारी का हिस्सा कहा जा सकता है। निश्चित रूप से सांप्रदायिक हिंसा भड़कने से ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज होगी और इसका चुनावी लाभ भाजपा को मिलेगा। भाजपा के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन रांची में आतंकी संगठनों से जुड़े लोग भी चिन्हित किए गए हैं। हिरासत में लिए गए हैं। पाकिस्तान समर्थित आतंकी देश को अशांत करने को कोई मौका चूकते नहीं। संभव है कोई आतंकी संगठन सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने के लिए भाजपा के कंधे पर बंदूक चला रहा हो। खुफिया संस्थाओं को इस मामले की जांच करनी चाहिए और राज्य सरकार को षडयंत्रकारियों की नकेल कसनी चाहिए। पुलिस प्रसासन के लोग जिस सतर्कता के साथ स्थिति को नियंत्रित कर रहे है इसके लिए उनकी सराहना की जानी चाहिए। झारखंड में भाजपा की सरकार है। लेकिन सरकार चुनावी लाभ के लिए आंख मूंदने की जगह शांति व्यवस्था को बनाए रखने को प्राथमिकता दे रही है। सुरक्षा बलों को काम करने की पूरी स्वतंत्रता दी जा रही है। रघुवर सरकार इसके लिए बधाई की पात्र है।

गुरुवार, 16 मई 2013

कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे

हवा में तैरते रहे नक्सल अभियान के सवाल


देवेंद्र गौतम

मई महीने की भीषण गर्मी में केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे अपने लाव-लश्कर के साथ झारखंड दौरे पर आये. कुछ नक्सल प्रभावित इलाकों का दौरा किया. अधिकारियों के साथ बैठकें कीं. आवश्यक निर्देश दिये और वापस लौट गये. लेकिन इस दर्मियान माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच वर्षों से चल रही जंग के कुछ बुनियादी मगर संवेदनशील सवालों पर कोई चर्चा नहीं हुई.
 गृहमंत्री के आगमन के तीन-चार दिन पूर्व 2008 के शहीद डीएसपी प्रमोद कुमार के परिजन रांची आये थे. उन्हें उम्मीद थी कि गृहमंत्री के दौरे के दौरान उन्हें उनका हक दिये जाने की दिशा में कुछ बात बढ़ेगी लेकिन उन्हें इसमें निराशा ही हाथ लगी. इस विषय पर औपचारिक चर्चा ही हो सकी. राज्य सरकार से इसपर बात करने का आश्वासन भर मिला.
2008 के दौरान डीएसपी प्रमोद कुमार रांची जिले के नक्सल प्रभावित बुंडू में पदस्थापित थे. उन्होंने माओवादियों के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चलाया था. 30 जून 2008 को नक्सलियों के साथ एक मुठभेड़ में वे शहीद हो गये थे. उस वक्त झारखंड के तत्कालीन डीजीपी उनके जामताड़ा स्थित पैतृक आवास पर गये थे. शहीद डीएसपी के परिजनों को रांची में सरकारी आवास और आश्रित को नौकरी देने की घोषणा की थी लेकिन घटना के करीब पांच वर्ष गुजर चुकने के बाद भी इनमें से कोई वादा पूरा नहीं हो सका.
प्रमोद कुमार झारखंड पुलिस सेवा में शहादत के कुछ ही वर्ष पहले आये थे. अभी उनकी शादी भी नहीं हुई थी. उनके परिजनों ने एकमत होकर उनके भतीजे अनिमेष कुमार को अनुकंपा के आधार पर वर्ग-2 राजपत्रित पद पर नौकरी दिलाने का आवेदन दिया. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री कार्यालय समेत केंद्र और राज्य के दर्जनों जन प्रतिनिधियों ने उनकी मांग को जायज बताते हुए इसे जल्द पूरा करने की अनुशंसा की. गृह विभाग के वरीय अधिकारियों ने भी इसपर सहमति जतायी लेकिन बार-बार सरकारें बदलने के कारण मामला लटका रहा. अभी भी यह परिवार झारखंड सरकार और डीजीपी की घोषणाओं की पूर्ति की बाट जोह रहा है. यह कोई पहली घटना नहीं है. न ही आखिरी. इस अभियान में शहीद हुए अधिकांश पुलिसकर्मियों के परिजनों को सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता का दंश झेलना पड़ता है.
एक जानकारी के मुताबिक माओवादी संगठन पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने वाले अपने लड़ाकों के परिजनों को अपने नियमों के अनुरूप तत्काल सहायता पहुंचाता है और आजीवन उनकी देखभाल का जिम्मा उठाता है. यही कारण है कि उनके लोग जब हथियार लेकर मैदान में उतरते हैं तो उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती कि उनके बाद उनके परिवार का क्या होगा. उन्हें अपने संगठन पर भरोसा होता है. यह भरोसा सुरक्षा बलों को नहीं होता. शहीदों के परिजनों के साथ होने वाले व्यवहार और सरकारी वायदों की हकीकत वे अपनी आंखों से देख रहे होते हैं. प्रमोद कुमार ही नहीं झारखंड राज्य के गठन के 12 वर्षों में इस जंग में शहादत देने वाले 417 पुलिसकर्मियों के अधिकांश परिजनों के अनुभव कटु ही रहे हैं. सरकारी तंत्र का काम करने का तरीका इतना पेचीदा है कि घटना के बाद भावनात्मक प्रवाह में किये गये सरकारी वायदे बाद में मृगमरीचिका प्रतीत होने लगते हैं. सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में मात्र 2628 नक्सली हैं जो 17 संगठनों में विभाजित हैं. उनके नियंत्रण के लिये 70 हजार जवान लगाये गये हैं. फिर भी नक्सलियों पर काबू पाने में सफलता नहीं मिल पा रही है.
अभियान की राशि के दुरुपयोग का मुद्दा भी काफी गंभीर है. नक्सल उन्मूलन के लिये कई करोड़ की राशि हर वर्ष आवंटित होती है. गुप्त सेवा धन की राशि भी लगातार बढ़ती गयी है. उसके दुरुपयोग का मामला भी प्रमाण सहित सामने आया. लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. सरकार ने मामले को दबाये रखने की ही कोशिश की. कई वर्षों से गुप्त सेवा धन का उपयोगिता प्रमाण पत्र तक महालेखाकार को नहीं दिया गया. फिर भी सरकार ने आंखें बंद रखीं. यह इस मामले में सरकारी तंत्र की मिलीभगत या अगंभीरता को दर्शाता है.
आम ग्रामीण जनता के प्रति पुलिस अधिकारियों के व्यवहार को नम्र रखने की लगातार कोशिश होती है. इस संबंध में निर्देश दिये जाते हैं. कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं. पुलिस पब्लिक मीट कराया जाता है लेकिन दारोगा और इंसपेक्टर स्तर तक के अधिकारी वर्दी की गर्मी को बर्दाश्त ही नहीं कर पाते. वे अमीरों और दबंगों के साथ मित्रवत रहते हैं लेकिन गरीबों को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं चूकते. उनकी शिकायत तक दर्ज नहीं करते. इसके कारण उन्हें जनता का सहयोग नहीं मिल पाता.
फिर भी पता नहीं क्यों नक्सल समस्या को लेकर होने वाली उच्चस्तरीय बैठकों में इन विषयों पर कोई चर्चा नहीं होती. यही कारण है कि इतनी तैयारियों और बेतहाशा खर्च के बावजूद इस समस्या का निदान नहीं हो पा रहा है और सिर्फ सुरक्षा बलों की कमी का रोना रोया जाता है. कोई यह मानने को तैयार नहीं होता कि कहीं न कहीं नीतिगत खामियां और रणनीतिक कमजोरियां हैं. इनकी पड़ताल करने की जरूरत है. यदि शहीदों के प्रति आदर और सम्मान का सिर्फ दिखावा भर किया जाता रहेगा तो सुरक्षा बलों और इस अभियान में लगे अधिकारियों का मनोबल कैसे ऊंचा रह सकेगा. वे शांति व्यवस्था की बहाली के लिये जान न्यौछावर करने के जज्बे को कैसे बरकरार रख सकेंगे. यदि अभियान के लिये मिलने वाली राशि का उपयोग ऐश मौज में किया जायेगा, इसकी बंदरबांट की जायेगी तो अभियान का सकारात्मक परिणाम कैसे आयेगा. इसपर विचार किये जाने की जरूरत है.


शनिवार, 2 जून 2012

खून-खराबे के एक नए दौर की आशंका



संदर्भ बरमेश्वर मुखिया हत्याकांड 

 बरमेश्वर मुखिया की हत्या के बाद उनके समर्थकों ने आरा समेत बिहार के विभिन्न इलाकों में जो उत्पात मचाया वह महज़ अपने नेता की हत्या के विरुद्ध उपजा आक्रोश भर नहीं था बल्कि उस जातीय उन्माद के जहर की अभिव्यक्ति थी जिसे मुखिया जी ने 90  के दशक के दौरान भरा था. उनका उद्देश्य सिर्फ शक्ति प्रदर्शन और प्रशासन को उसकी बेचारगी का अहसास कराना भर था. सरकार चाहे जिसकी रही हो इस सेना के हिमायती उसके अंदर मौजूद रहे हैं. नक्सल विरोध के नाम पर इसे सत्ता का सहयोग परोक्ष रूप से मिलता रहा है. यही कारण है कि इस घटना के विरुद्ध कानून-व्यवस्था को धत्ता बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी. साथ ही अन्य जातियों खासतौर पर दलितों और पिछड़ों को यह सन्देश दिया गया कि मुखिया जी की हत्या से वे कमजोर नहीं पड़े हैं उनके तेवर बरक़रार हैं. फासीवादी ताकतों का प्रदर्शन इसी तरह का होता है. यह राजनीति की ठाकरे शैली है. महाराष्ट्र में शिव सैनिकों के सामने सरकारी तंत्र इसी तरह लाचार दिखता है.
इस हत्याकांड में कई सवाल अनुत्तरित हैं. सूचनाओं के मुताबिक मुखिया जी पूजा-पाठ कर सुबह छः-सात बजे घर से निकला करते थे. हत्या के दिन वे चार बजे क्यों निकले और हत्यारों को इस बात की भनक कैसे मिली कि वे चार बजे सुबह टहलने के लिए निकलेंगे? यह जानकारी तो उनके बहुत करीबी लोगों को ही हो सकती है.
दूसरी बात यह कि मुखिया समर्थकों की सरकारी नुमाइंदों के प्रति नाराजगी और धक्का-मुक्की का कारण तो समझ में आता है लेकिन अपनी ही विरादरी के दो विधायकों के साथ दुर्व्यवहार क्यों किया. वे आपराधिक पृष्ठभूमि के जरूर थे लेकिन रणवीर सेना के करीबी लोगों में गिने जाते थे. अगर उन्हें उनपर हत्या की साजिश में शामिल होने का संदेह था तो आमजन और सार्वजानिक संपत्ति पर गुस्सा उतारने का क्या कारण था. निश्चित रूप से रणवीर सेना में दरार पड़ चुकी है और इसके दो घड़ों के बीच कार्यपद्धति को लेकर अंतर्विरोध था जो मुखिया जी के जेल से निकलने के बाद वर्चस्व की लड़ाई में परिणत हो गया. एक घड़ा उस रास्ते पर चलना चाहता है जिसपर मुखिया जी चलते रहे हैं और दूसरा घड़ा वह जो उस रास्ते पर चलना चाहता है जिसपर मुखिया जी के जेल जाने और नक्सलियों के साथ संघर्ष में ठहराव के बाद वह चलता रहा है. मुखिया जी की हत्या इन दो धाराओं के बीच टकराव का ही परिणाम प्रतीत होती है. संभव है आने वाले समय में इस टकराव के कारण भोजपुर की धरती पर खून-खराबे का एक नया दौर शुरू हो जाये.

----देवेंद्र गौतम

(बरमेश्वर मुखिया के सम्बन्ध में और जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंक क्लिक करें)


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शुक्रवार, 1 जून 2012

अप्रत्याशित नहीं है रणवीर सेना के संस्थापक की हत्या

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भोजपुर जिला मुख्यालय आरा में तडके सुबह रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद पूरे बिहार में तनाव की स्थिति बनी हुई है. हांलाकि नक्सली संगठनों और निजी सेनाओं के बीच कई दशकों के खूनी संघर्ष और जनसंहारों की फेहरिश्त की जानकारी रखने वालों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. उन्हें जमानत पर रिहा कराये जाने के साथ ही  उनकी हत्या की आशंका व्यक्त की जाने लगी थी. वास्तविकता यह है कि समय के अंतराल में रणवीर सेना का स्वरूप, उसकी प्राथमिकतायें पूरी तरह बदल चुकी हैं और अब मुखिया जी इसके लिए अप्रासंगिक हो चुके थे. उनके व्यक्तिगत समर्थकों की जरूर एक बड़ी संख्या है लेकिन संगठन को अब उनकी जरूरत नहीं रह गयी थी. 
अब रणवीर सेना और नक्सली संगठनों की लड़ाई में ठहराव सा आ गया है. नरसंहारों का सिलसिला थम सा गया है. ऐसे संकेत मिले हैं कि रणवीर सेना अपने आर्थिक स्रोतों की रक्षा और हथियारबंद लड़ाकों की उपयोगिता को बरकरार रखने के लिए हिन्दू आतंकवादी संगठन में परिणत हो चुकी है. यह बदलाव मुखिया जी के जेल में बंद होने के बाद का है. सेना का नेतृत्व करोड़ों की उगाही के जायज-नाजायज स्रोतों को किसी कीमत पर हाथ से नहीं निकलने दे सकता था. अब इस बात की आशंका थी कि मुखिया जी कहीं उसमें हिस्सा न मांग बैठें. संगठन के वर्तमान कार्यक्रमों में हस्तक्षेप न करें. 80 के करीब पहुंच चुके मुखिया जी सेना के अंदर और बाहर कई लोगों की आंख की किरकिरी बने हुए थे. हत्या की सीबीआई जांच की मांग हो रही है. जांच के बाद संभव है कि उनकी हत्या के रहस्यों का खुलासा हो जाये.  

----देवेंद्र गौतम  

रविवार, 20 नवंबर 2011

आखिर आप चाहतीं क्या हैं ?


उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधान सभा के चुनावी दंगल में लगभग सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत के साथ अपना - अपना बिगुल बजा दिया है ! कोई रथ यात्रा कर रहा है ,  कोई वहां की जनता को " भिखारी " कहकर जगा रहा है तो  कोई मुस्लिम आरक्षण के लिए प्रधानमंत्री को चिठ्ठी लिखने के साथ - साथ विकास के नाम पर पूरे उत्तर प्रदेश को ही चार भागों में पुनर्गठन करने की दांव चल रहा है ! राजनीतिक उठापटक के बीच सब के सब राजनैतिक दिग्गज अपने राजनैतिक समीकरण बैठाने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं ! होना भी ऐसे चाहिए क्योंकि यही तो एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है ! अभी तक के चुनावी दावों में उत्तर प्रदेश की वर्तमान मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी ने उत्तर प्रदेश को चार हिस्से में विभाजित करने का ऐसा तुरुप का इक्का चला है की किसी भी पार्टी को उसका तोड़ नहीं मिल रहा है ! लगता है कि उनके इस तुरुप के इक्के के आगे सभी राजनीतक पार्टियाँ  मात खा गयी ! 



अभी तेलंगाना को अलग राज्य बनाये जाने की मांग ठंडी हुई भी नहीं थी कि मायावती जी ने वर्तमान उत्तर प्रदेश को चार भागों पश्चिमी प्रदेश ( संभावित राजधानी : आगरा ) , बुंदेलखंड ( संभावित राजधानी : झांसी ) , अवध प्रदेश ( संभावित राजधानी : लखनऊ ) और पूर्वांचल प्रदेश ( संभावित राजधानी : वाराणसी ) में बाँटने का खाका पेश कर दिया ! इस पुनर्गठन के पीछे सुश्री मायावती और उनकी पार्टी बसपा का तर्क है कि छोटे राज्यों में कानून - व्यवस्था बनाये रखने के साथ - साथ विकास करना आसान होता है ! चूंकि वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार वहां की जनसँख्या लगभग २० करोड़ के पास है जो कि देश की आबादी का लगभग  १६ प्रतिशत है इसलिए समुचित प्रदेश के विकास के लिए प्रदेश को छोटे राज्यों में पुनर्गठन करना जरूरी है ! 

सैद्धांतिक रूप से लोकतंत्र में छोटे - छोटे राज्यों से जनता की भागीदारी अधिक होती है , इसलिए राहुल सांस्कृत्यायन ने भी एक बार ४९ राज्यों के गठन की बात कही थी ! मेरा व्यक्तिगत मत है कि अलग राज्यों की मांग उठने के पीछे कही न कहीं केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार है क्योंकि मांग उठाने वालों लोगों को लगता है कि उनके साथ भाषा , जाति, क्षेत्र  के आधार पर उनके साथ न्याय नहीं होता है ! ज्ञातव्य है कि भाषा के आधार  राज्य कर पुनर्गठन का श्रीगणेश तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए १९५२  में तेलगू भाषी राज्य की मांग मानकर किया था ! क्योंकि मैंने ऐसा पढ़ा है कि समय रहते हस्तक्षेप न करने के कारण एक समाजसेवी श्रीरामुलू के ५८ दिन के आमरण अनशन के बाद १६ दिसम्बर १९५२ में मृत्यु हो जाने के उपरान्त आंध्र प्रदेश में दंगे भड़क गए और आनन-फानन में नेहरू जी ने मात्र तीन दिन के अन्दर अलग राज्य की संसद में घोषणा कर दी ! 

एक लेख के अनुसार , दिसंबर १९५३ न्यायाधीश सैय्यद फजल अली की अध्यक्षता में पहला राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया ! सितम्बर १९५५ इस आयोग की रिपोर्ट आई और १९५६ में राज्य पुनर्गठन अभिनियम बनाया गया , जिसके द्वारा १४ राज्य और ६ केन्द्रशासित राज्य बनाये गए ! १९६० में राज्य पुनर्गठन का दूसरा दौर चला , परिणामतः बम्बई ( वर्तमान मुंबई ) को विभाजित कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाया गया ! १९६६ में पंजाब का बंटवारा कर हरियाणा राज्य बनाया गया !  इसके बाद पूर्वोत्तर क्षेत्र पुनर्गठन अधिनियम १९७१ के अंतर्गत त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर का गठन किया गया ! १९८६ के अधिनियम के अंतर्गत मिजोरम को राज्य के दर्जे के साथ १९८६ के केन्द्रशासित अरुणाचल प्रदेश अधिनियम के अंतर्गत अरुणाचल  प्रदेश को भी पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया ! १९८७ के अधिनियम के तहत गोवा को भी पूर्ण दर्जा दिया गया ! अंतिम पुनर्गठन वर्ष २००० में उत्तराखंड, झारखंड और छतीसगढ़ को बाँट कर किया गया !       

छोटे राज्यों के पुनर्गठन की वकालत करने वालों का मत है है कि भारत में जनसंख्या के आधार पर और क्षेत्रफल के आधार विषमता बहुत है ! एक तरफ जहां लक्षद्वीप का क्षेत्रफल ३२ वर्ग कि.मी. मात्र है तो वही राजस्थान का क्षेत्रफल लगभग ३.५ लाख वर्ग कि.मी. है ! जनसँख्या में जहा उत्तरप्रदेश लगभग २० करोड़ की संख्या को छूने वाला है तो वही सिक्किम की कुल आबादी ६ लाख मात्र है ! परन्तु यहाँ पर यह भी जानना बेहद जरूरी है कि अभी हाल में ही पुनर्गठित हुआ झारखंड राज्य अपने नौ सालों के इतिहासों में लगभग ६ मुख्यमंत्री बदल चुका है ! उसके एक और साथी राज्य छत्तीसगढ़ में किस तरह नक्सलवाद प्रभावी हुआ है यह लगभग हम सबको विदित है ! प्रायः हम समाचारों में देखते व सुनते भी है कि मिजोरम , नागालैंड और मणिपुर आज भी राजनैतिक रूप से किस तरह अस्थिर बने हुए है ! गौरतलब है कि असम से अलग हुए राज्य ( जो कि अपनी जनजातीय पहचान के कारण अलग हुए थे ) नागालैंड , मेघालय, मणिपुर और मिजोरम में कितना समुचित विकास हो पाया यह अपनेआप में ही एक प्रश्नचिंह है ! 

अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए किस तरह से दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री श्री ब्रहम प्रकाश ने दिल्ली , हरियाणा , राजस्थान के कुछ हिस्से और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को मिलाकर 'बृहत्तर दिल्ली' बनाना चाहा था क्योंकि इससे वो लम्बे समय तक अपने 'जाट वोटों' के जरिये राज कर सकते थे ! समय रहते तत्कालीन नेताओं जैसे गोविन्द बल्लभ पन्त ने उनकी महत्वकांक्षा को पहचान कर उनका जोरदार विरोध कर उन्हें उनके मंतव्य में सफल नहीं होने दिया ! और समय रहते उनकी मांग ढीली पड़ गयी ! वर्तमान समय में फिर एक प्रदेश मुख्यमंत्री ने अपने राज्य के पुनर्गठन की मांग उठाई है ! गौरतलब है कि मात्र छोटे राज्यों के गठन से विकास नहीं होता है ! किसी भी राज्य का विकास वहां  की राजनैतिक इच्छा शक्ति के साथ -साथ सुशासन से होता है !  राज्यों की पंचायत व्यवस्था को दुरुश्त किया जाय , जिसके लिए गांधी जी ने 'पंचायती राज' व्यवस्था की पुरजोर वकालत कर देश के संतुलित विकास की रूपरेखा बनाकर गाँव को समृद्ध बनाने के लिए लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास का सपना देखा था ! एक लेख में मैंने पढ़ा है कि अगर हम उत्तर प्रदेश पर एक नजर दौडाएं तो पाएंगे कि पूर्वी भाग के कई जिलों में  आज भी उद्योगों का सूखा पड़ा है ! चीनी मीलों के साथ - साथ खाद व सीमेंट के कारखाने बंद पड़े है ! सिर्फ पश्चिमी भाग में जो कि दिल्ली से सटा हुआ है , थोडा विकास जरूर हुआ है ( फार्मूला रेस -१ का आयोजन )  ऐसा कहा जा सकता है ! ऐसे में सवाल यह उठता है कि माननीय मुख्यमंत्री जी आखिर आप चाहती क्या है ? प्रदेश का समुचित विकास अथवा खालिश राजनीति !          
     
                                                       - राजीव गुप्ता 

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शनिवार, 30 जुलाई 2011

निजी स्कूलों का मायाजाल


 सरकारी सुविधाएं उठाने में निजी स्कूल हमेशा आगे रहते हैं लेकिन बच्चों और उनके अभिभावकों को किसी तरह की राहत नहीं देना चाहते. झारखंड सरकार ने सभी निजी स्कूलों को 20 फीसदी गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का निर्देश दिया था. लेकिन इसपर अभी कोई भी स्कूल अमल नहीं कर रहा है. करीब 8 वर्ष पूर्व राज्य सरकार ने निजी स्कूलों के बसों के अतिरिक्त कर में 40 फीसदी से अधिक की छूट दी थी. इस छूट के बाद बस भाड़े में बच्चों को कोई राहत नहीं दी गयी लेकिन पिछले 8 वर्षों में करोड़ों के राजस्व की बचत जरूर कर ली गयी.

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

उजड़े लोगों के नाम..ये घडियाली आंसू.....

  झारखंड में अतिक्रमण हटाओ अभियान अब स्वार्थ की राजनीति की रोटी सेंकने का जरिया बन चुका है. इस अभियान में उजाड़े गए लोगों के नाम पर घडियाली आंसू बहाने और इस बहाने अपना वोट बैंक मज़बूत करने की होड़ सी मची हुई है. मंगलवार 6 अप्रैल को पौलिटेक्निक की ज़मीन पर अवैध रूप से बसे इस्लामनगर में 300 घरों को बुलडोज़र से ढाह दिया गया. करीब 15 हज़ार की आबादी बेघर हो गयी. इस क्रम में पुलिस और स्थानीय लोगों के बीच हिंसक झड़प भी हुई जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी और 26 पुलिसकर्मियों सहित 41 लोग घायल हो गए.  घायलों में केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत भी शामिल थे. पता चला कि  इस्लामपुर के लोग जगह खाली करने को तैयार थे लेकिन मंत्री सुबोधकांत ने घोषणा की थी कि इस्लामपुर को उजाडा गया तो प्रशासन की ईंट से ईंट बजा दिया जायेगा. उनकी घोषणा ने वहां के निवासियों के अन्दर कुछ उम्मीद जगाई. ईंट से ईंट बजाने की मानसिक और सामरिक तैयारी हो गयी. लेकिन तिनके के इस सहारे ने तो और भी बेसहारा कर दिया. हाल में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी नागा बाबा खटाल के उजाड़े गए लोगों के पास गए थे. उनका जुलूस लेकर राजभवन गए. पुनर्वास की मांग की पुनर्वास होने तक खटाल के मलवे में ही रहने की सलाह दी.अब कोंग्रेस के लिए इसका जवाब देना ज़रूरी हो गया. सो केन्द्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय ने इस्लामपुर को मोर्चा बनाया. वह उनके चुनाव क्षेत्र में आता ही है. सो एक क्रांतिकारी ऐलान कर डाला. हिंसक झड़प में उन्हें भी कुछ चोट लगी. पुनर्वास की मांग और घटना की भर्त्सना करने बाद उन्हें भी गिरफ्तार किया गया. थोड़ी देर बाद रिहा हुए और वे बाहर चले गए. झारखंड विधान सभा के अध्यक्ष सीपी सिंह भी इस अभियान से काफी विचलित हैं. उनका चुनाव क्षेत्र भी यहीं पड़ता है. नागा बाबा खटाल में अभियान चलने के दिन वे झारखंड  हाई कोर्ट के  मुख्य न्यायधीश के पास वे गए थे. हालांकि बाद में उन्होंने  इसे अनौपचारिक भेंट बताया. बहरहाल इसके बाद उन्होंने नौकरशाहों की एक बैठक बुलाकर इस अभियान को अमानवीय होने से रोकने की सलाह दी. इस मुद्दे पर राज्यपाल को उन्होंने एक ज्ञापन भी दिया. पता नहीं क्यों उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष के पद में निहित शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया. वे चाहते तो विधान सभा का  विशेष सत्र बुलाकर इस अभियान पर रोक लगाने का आदेश पारित करा सकते थे. इधर उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन उजड़े गए लोगों के पुनर्वास के लिए ज़मीन चिन्हित कर चुकने की बात कर रहे हैं. आम लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि इतने लम्बे समय से इतने बड़े पैमाने पर अतिक्रमण की जानकारी सरकार और प्रशासन को कैसे नहीं थी. जानकारी थी तो ऐसी बस्तियों को बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं कैसे मुहैय्या करायी गयीं. अतिक्रमण हटाओ अभियान भी अचानक नहीं शुरू हुआ. इसकी जानकारी करुण रस में डूबे पक्ष-विपक्ष नेताओं को भी थी और इन बस्तियों के नागरिकों को भी. फिर बुलडोजर चलने तक का इंतज़ार क्यों किया गया. जहां तक उजड़े गए लोगों के पुनर्वास का सवाल है वैधानिक रूप से तो नहीं लेकिन मानवीय आधार पर इसकी ज़रुरत है लेकिन खतरा इस बात का है कि  कहीं यह उदारता सरकारी ज़मीन आवंटित कराने का फार्मूला न बन जाये. एक बड़ी आबादी के पास सर छुपाने को छत नहीं है. स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर, सार्वजनिक उद्यानों में, फुटपाथ पर रातें गुज़रते हैं लोग. क्यों नहीं सरकार शहर के बाहर एक-एक कमरे के फ्लैटों का निर्माण कराकर पहले आओ पहले पाओ के आधार पर खुले तौर पर, बिना किसी शर्त के आवंटित करे. आवास को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जाये. आवास ही क्यों भोजन, पेयजल, शिक्षा, चिकित्सा आदि तमाम बुनियादी ज़रूरतों को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल कर इनकी आपूर्ति की जिम्मेवारी सरकार को लेनी चाहिए. लेकिन यह सब किसी संवेदनशील सरकार में ही संभव है. घोटालों के ताने-बाने बुनने में व्यस्त घडियाली आंसू बहाने वाले इन स्वार्थी नेताओं से तो कभी यह उम्मीद नहीं ही की जा सकती है. 

-----देवेंद्र गौतम  

स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...