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रविवार, 16 अगस्त 2015

भारत भाग्य विधाता ..

एक छोटी कहानी पहली बार लिखने की कोशिश की जो कल की एक घटना की उपज है ....कृपया जरुर बताए कैसी है .....
भारत भाग्य विधाता
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चोर कही का ? चोरी करता है ? .....लात घूंसों की बौछार के बाद उसे घसीटते हुए नाले के पास फेंक दिया गया ...गलती तो की थी उसने . दूकान में सजे तिरंगे को छूने की कोशिश की थी . अरे ये तिरंगे बिकने के लिए थे. बड़ी बड़ी जगहों पर फहराए जाने के लिए थे. पैसे मिलते उसके पैसे. और ये जाने कहा से आ गया नंग धडंग. लगा उन्हें छूने . गन्दा हो जाता तो कौन खरीदता ? इन्हें सिर्फ बच्चा समझने की भूल मत कीजिये ...बित्ता भर का है पर देखी उसकी हिम्मत ? ये हरामी की औलाद होते है ? इनकी जात ही ऐसी होती है कि सबक नहीं सिखाया गया तो ...
उधर उसका चेहरा सुबक रहा था ....चोटों के नीले निशान उभर आये थे .....जिन्हें वह रह रह कर सहला रहा था ....पर आँखे तो अब भी चोरी-चोरी उधर ही देख रही थी जिधर तिरंगे टंगे थे .... जाने क्यों उसे ये बहुत भाते है ...केसरिया, हरा, सफ़ेद रंग ...जैसे इन्द्रधनुष हाथ में आ गया हो ...इसलिए तो आज के दिन का वह महीनो इंतज़ार करता है ....वैसे तो शाम तक ऐसे कई रंग बिरंगे कागज़ सड़को पर फेंके मिल जाते है .....वह इन्हें चुन लेता है और अपनी पोटली में सहेज कर रख लेता है ...किसी को नहीं दिखाता ....
पर पता नहीं कैसे आज इन्हें दूकान पर सज़ा देख मन में लालच आ गया ...न न वह सिर्फ छू भर लेना चाहता था .....लेकिन ....
अरे वह क्या ...उसकी आँखे चमक उठी ...ये तो वही है ...हाँ हाँ बिलकुल वही ....वह झपट कर उस नाले के और करीब गया और उसमे बह रहे प्लास्टिक के छोटे से तिरंगे को उठाया, पोछा और दौड़ पडा ....तभी बगल के सरकारी कार्यालय में राष्ट्र गान बजने लगा ...जन गण मन अधिनायक जय हो
.......................स्वयंबरा

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

वह एक पागल बुढ़िया थी

वह एक पागल बुढ़िया थी
अनजानी सी
पर पहचानी भी
शहर का हर कोना था
उसका ठिकाना
दिख जाती थी चौराहे पर
मूर्तियों के पीछे
गोलंबर पर
फुटपाथ पर भी
बसेरा था उसका
सब डरते, पास न जाते
फेक जाते बचा-खुचा
संतोष पा लेते
दान-पुण्य का
वह हरदम बड़बड़ाती
आकाश की ओर
हाथ उठाकर
गालियाँ देती
जैसे कि चल रही हो
एक लडाई
उसके और
भगवान के बीच
एक बड़ी सी गठरी में
छिपाए रहती
अपनी पूंजी
कोइ देखने की
कोशिश भी करता
तो पत्थरें चलाती
बहुत जतन से संजोया था उसने
कतरनो को
चिथडो को
पन्नियों को
रंगीन धागों को
फूटे बर्तनो को
बेरौनक आईना को
और
टूटी टांगो वाली एक गुडिया को
जिसे चिपकाये रहती थी
सीने से
उसके बाल बनाती
कपडे पहनाती
टांगो की पट्टी करती
और जब वह
उसे सुला रही होती
तो धीमे -धीमे
लोरी भी गाती
इस थाती को सहेजते
दिन गुज़रता
इश्वर से लड़ते
राते गुज़रती
पर कभी -कभी
सुनाई देती थी
एक तीव्र कांपती आवाज़
जो चीर दे किसी का कलेजा
तब वह
कसकर चिपटाए रहती गुडिया को
पनीली आँखे
ऊपर ही देखती जाती
उस पल वह कुछ न कहती
कुछ न करती
और एक दिन
बस अचानक ही
बुढ़िया मर गयी
सुना था
किसी ने
उसकी गुडिया चुरा ली
वह दिन भर
बदहवास भागती रही थी
यहाँ वहा ढूढती रही थी
जाने कितनो से मिन्नतें की थी
कितनो के सामने गिडगिडाई थी
देवालयों में सर पटकी थी
रोई छटपटाई थी
पर सब व्यर्थ
उस रात
गठरी खोल दिया था उसने
उसकी पूंजी बिखेर दिया था
वह जोर-जोर से लोरी गा रही थी
उसकी कांपती आवाज़ की तीव्रता
अपनी चरम पर थी
और सुबह,
उसका शरीर मृत हो चुका था
(एक सच )
....स्वयम्बरा

बांग्लादेशी मॉडल की ओर बढ़ता देश

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