यह देश के 9 व्याघ्र अभयारण्यों में एक है। यह 1026 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसका कोर एरिया 226 वर्ग किलोमीटर में है। इसके किनारे 200 से अधिक गांव बसे हुए हैं। किसी जमाने में यहां बाघों की बहुतायत थी। ब्रिटिश शासन काल में इनका जमकर शिकार किया गया। उस समय बाघ का शिकार बहादुरी की अलामत मानी जाता थी। बाघ मारने पर सरकार की ओर से ईनाम दिया जाता था और शिकारियों का नागरिक सम्मान होता था। आजादी के बाद भी की वर्षों तक बाघों के शिकार का सिलसिला जारी रहा। बाद में शिकार पर रोक लगी और बाघों को संरक्षण की शुरुआत हुई। पलामू के बेतला टाइगर रिजर्व की स्थापना 1974 में की गई। यह देश का पहला टाइगर प्रोजेक्ट था। 1932 में बाघों की गिनती की शुरुआत यहीं से हुई थी। वर्ष 1992 में यहां 55 बाघ पाए गए थे। 2003 में उनमें से मात्र 36 बाघ बचे थे। 30 बाघ अवैध शिकार की भेंट चढ़ चुके थे। वर्ष 2010 में यूएनओ ने 29 जुलाई को विश्व व्याघ्र दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
सरकार ने वर्ष 2022 तक बाघों की संख्या दुगनी करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसके लिए आधारभूत संरचना को बेहतर करने का काम किया जा रहा है। बेतला टाइगर रिजर्व को इसके लिए 7 करोड़ की राशि आवंटित की गई थी लेकिन नक्सलियों के कारण इसमें बाधा आ रही है। 2012 में जब बाघों की गणना हुई तो पता चला कि मादा बाघ गिनती में सिर्फ पांच रह गई हैं। ऐसे में उनका प्रजनन सीमित संख्या में ही हो सकता था। दूसरे अभयारण्यों से मादा बाधों के लाने की योजना बनी लेकिन नक्सलियों के रहते वन्य जीवन की कोई योजना शायद ही फलीभूत हो सके। यहां बाघों के अलावा हाथी, तेंदुआ, सांभर, चीतल सहित हजारों नस्लों के छोटे बड़े जानवर, 174 प्रकार के पक्षी निवास करते थे। इसके जंगलों में 970 प्रकार के पेड़ पौधे और 139 तरह की दुर्लभ जड़ियां मिलती थीं। वन्य जीवन में रुचि रखने वाले हजारों देशी-विदेशी पर्यटक आते थे। अब उनकी संख्या नगण्य रह गई है। इससे स्थानीय ग्रामीणों के रोजगार के अवसर भी घटे हैं। जबसे यह इलाका नक्सल आंदोलन की जद में आया है, वन्य जीवन सिमटता जा रहा है। हाल में हाथियों के एक झुंड ने अभयारण्य में लगे दो ट्रैप कैमरों को तोड़ डाला था। वन्य जीवन की निगरानी के लिए लगे इन कैमरों पर नक्सलियों की भी कुदृष्टि रहती है। क्योंकि जंगली जानवरों के साथ उनकी गतिविधियां भी रिकार्ड होती हैं। बेतला टाइगर रिजर्व ही नहीं झारखंड के जंगलों में वन्य जीवन के भविष्य पर फिलहाल नक्सलवाद का ग्रहण लगा हुआ है।
-देवेंद्र गौतम


