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मंगलवार, 26 मार्च 2024

बांग्लादेशी मॉडल की ओर बढ़ता देश

 हाल में बांग्लादेश का चुनाव एकदम नए तरीके से हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी सहित 15 दलों ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया। मैदान में सिर्फ शेख हसीना के नेतृत्व वाली सत्ताधारी पार्टी अवामी लीग और उसके सहयोगी दल रहे। उसका मुकाबला निर्दलीय प्रत्याशियों से हुआ। उसमें भी बहुत से प्रत्याशी अवामी लीग के ही टिकटससे वंचित कार्यकर्ता थे। नतीजतन 300 सीटों वाली लोकसभा में से सत्ताधारी दल को 222 सीटों पर जीत मिली अर्थात तीन चौथाई बहुमत। इसे चुनाव कहने की जगह जनता की जबरिया सहमति कहा जा सकता है क्योंकि उसके सामने कोई विकल्प था ही नहीं। हालांकि इसका मकसद कट्टरपंथियों और आतंवाद के पोषकों को सत्ता से बाहर रखना था।

इधर भारत में चुनाव की घोषणा से पूर्व मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के सारे अकाउंट फ्रिज कर दिए गए हैं। दो मुख्यमंत्रियों सहित कई विपक्षी नेता बिना किसी सबूत के आरोपी करार देकर जेलों में बंद किए जा चुके हैं। एक-एक कर सभी मुख्य विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के कयास लगाए जा रहे हैं। जांच एजेंसियां ताबड़तोड़ छापेमारी कर रही हैं। इस बीच इलेक्टोरल बांड का खुलासा होने के बाद सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ भ्रष्टाचार के बहुत सारे मामलों का दस्तावेज़ी प्रमाण सामने आ चुका है। लेकिन उन मामलो पर जांच एजेंसियां मौन हैं। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है लेकिन चुनाव के पहले क्या आदेश पारित होंगे कहना कठिन है।

ऐसे में प्रतीत होता है कि कहीं भारत में भी बांग्लादेश की तर्ज पर चुनाव कराने की तैयारी तो नहीं चल रही है? अर्थात सत्ताधारी दल खाली मैदान में बल्लेबाजी करती हुई जीत की ट्राफी आराम से उठा ले जाए। हालांकि भारत के विपक्षी दलों ने चुनाव का बहिष्कार करने जैसा कोई आत्मघाती निर्णय नहीं लिया है। वे जेल में रहकर भी चुनाव लड़ने को तैयार हैं। हालांकि उन्हें एक-एक पैसे को मोहताज बनाकर ऐसी स्थिति बनाने का प्रयासचल रहा है जिसमें वे चुनाव लड़ने की स्थिति में ही नहीं आ सकें।

तो क्या सत्तारूढ़ भाजपा भारत में लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म करना चाहती है? जवाब है हां। इसलिए नहीं कि उसे सत्ता का बहुत ज्यादा लोभ है। ऐसा इसलिए कि वह भारत को हिंदूराष्ट्र बनाने के एजेंडे पर काम कर रही है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में धर्म आधारित राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकती। भारतीय संविधान के लागू रहते तो यह असंभव है। हिंदूराष्ट्र का गठन तानाशाही या राजशाही की व्यवस्था में ही संभव है। इसके लिए मौजूदा संविधान को निरस्त कर नया संविधान बनाने की जरूरत पड़ेगी। नई संविधान सभा का गठन करना होगा। नया संविधान बनेगा तभी यह संभव है। इसके लिए तीन चौथाई बहुमत और लोकतंत्र की विचारधारा को पूरी बेदर्दी से कुचल देने की जरूरत पड़ेगी। इसीलिए एक तरफ नैतिक, अनैतिक तरीके से अकूत धन इकट्ठा किया जा रहा है दूसरी तरफ देश को विदेशी कर्ज में आकंठ डुबोया जा रहा है। ताकि जब अपने एजेंडे की व्यवस्था लागू हो जाएगी तो जमा किए हुए धन से देश को विदेशी कर्ज से मुक्ति दिला दी जाए और तब जनता का ध्यान रखने की भी कोशिश होगी।

अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल में इसके लिए अनुकूल स्थिति नहीं थी। वह गठबंधन की बैसाखियों पर टिकी हुई सरकार थी। नरेंद्र मोदी का कार्यकाल इसके लिए सर्वथा अनुकूल है क्योंकि सरकार के पास प्रचंड बहुमत है और विपक्ष कमजोर है। सरकार विपक्षी दलों को पंगु बना देने की ताकत रखती है। भारत में एकतरफा चुनाव कराने का मकसद धार्मिक कट्टरता की जड़ों को फैलाना और मजबूत करना है।

चुनाव में विपक्ष सत्ता के हथकंडों के सामने मजबूती से खड़ा रह पाएगा या नहीं कहना कठिन है। अब देश की जनता को ही तय करना होगा कि वह लोकशाही में रहना चाहती है या राजशाही में।

-देवेंद्र गौतम

मंगलवार, 7 मई 2019

सैन्य राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा बनाना भाजपा की भयंकर भूल



देवेंद्र गौतम
भाजपा ने पुलवामा और बालाकोट को चुनावी मुद्दा बनाकर बड़ी भूल कर दी। यह कोई मुद्दा था ही नहीं। इतिहास बताता है कि सैन्य राष्ट्रवाद को हिटलर और मुसोलिनी ने मुद्दा बनाया था। पहले विश्व युद्ध के बाद बर्साय संधि के जरिए विक्षुब्ध राष्ट्रों को जिस तरह हाशिये पर ला खड़ा किया गया था उससे लोगों में आक्रोश था जिसका लाभ हिटलर और मुसोलिनी को मिला था। लेकिन भारत में सैन्य राष्ट्रवाद का राजनीतिक लाभ उठाने की स्थिति नहीं थी। यदि एयर स्ट्राइक के तुरंत बाद चुनाव होते तो भाजपा को इसका कुछ लाभ मिल सकता था लेकिन दोनों के बीच के अंतराल में बहुत से ऐसे तथ्य उजागर हुए जिन्होंने सैन्य राष्ट्रवाद की लहर कमजोर कर दी। इन दोनों घटनाओं में एक पुलवामा मोदी सरकार की इंटेलिजेंस नाकामी का प्रतीक था जिसपर सरकार को शर्मिंदगी प्रकट करनी चाहिए थी, लेकिन इस नाम पर वोट मांगे जाने लगे। दूसरा बालाकोट वायुसेना के शौर्य का जिसपर देशवासी गौरवान्वित हो सकते थे लेकिन उनके रोजमर्रे के जीवन से जुड़े दूसरे मुद्दे थे जिनपर सरकार की चर्चा ही नहीं करना चाहती थी। जो चर्चा करता था उसे पाकिस्तान का एजेंट और देशद्रोही करार दिया जाता था। चुनाव में मुख्य मुद्दा विकास, रोजगार, नोटबंदी, जीएसटी आदि थे जिनपर सरकार चाहती तो अपने सृजित तर्कों और आंकड़ों के जरिए लोगों को एक हद तक प्रभावित कर सकती थी। उनके भक्त और समर्थक तो थे ही। इन्हें हवा देने के लिए केंद्र सरकार ने तरह-तरह की योजनाएं लाईं उनके लाभुकों को भाजपा के पक्ष में मतदान के लिए प्रेरित भी कर सकती थी लेकिन उनका क्रियान्वयन जिस ढंग से किया गया उससे समाज के हिस्से को तात्कालिक लाभ तो मिला लेकिन दूरगामी परेशानी बढ़ गई। सोशल मीडिया पर भाजपा के कथित भक्तों ने गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल कर भाजपा का और भी नुकसान किया। कुछ इसी तरह की भाषा का प्रयोग स्वयं पीएम मोदी और उनके कई मंत्री करते रहे। राजीव गांधी पर टिप्पणी कर तो उन्होंने हद ही कर दी। भारत की जनता न तो यह भाषा बोलती है, न पसंद करती है।
भाजपा ने भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर जैसी आतंकवाद की आरोपी को उम्मीदवार बनाकर यह संकेत दे दिया कि वह भारत के हिंदूवाद को किस दिशा में ले जाना चाहती है। तेज़बहादुर यादव का नामांकन रद्द कराने के लिए जिस तरह तंत्र का उपयोग किया गया उसने मोदी सरकार के सैन्यवाद की असली तसवीर दिखा दी। यहां अखिलेश यादव की रणनीति सफल हो गई। इस तरह की कार्रवाइयों के जरिए पीएम मोदी ने अपने पावों में खुद कुल्हाड़ी मार ली। 2014 की बात और थी। उस समय लोग कांग्रेस से नाराज थे और मोदी को एक उम्मीद के रूप में देख रहे थे। 2014 की जीत किसी करिश्मे की नहीं कांग्रेस से नाराजगी की जीत थी। नकारात्मक वोटों से जीती थी भाजपा। जिसे नेरेंद्र मोदी ने अपना करिश्मा समझ लिया और मनमाने तरीके से काम करने लगे। मोदी सरकार ने अच्छी योजनाएं लीं लेकिन क्रियान्वयन बेढंगे तरीके से किया। यह चुनाव भी बेढंगे तरीके से ही लड़ा जिसका नतीजा 23 मई को सामने आ जाएगा। क्या होगा, इसका आभास तो भाजपा नेताओं को भी है।

सोमवार, 6 मई 2019

क्या इसी भाषा और संस्कार को लेकर विश्वगुरु बनेगा भारत!



देवेंद्र गौतम

पीएम नरेंद्र मोदी एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने चुनाव के समय बार-बार अपने पांव में खुद कुल्हाड़ी मारी। प्रज्ञा ठाकुर को चुनाव मैदान में उतारना, फौजी जवान तेज़ बहादुर का नामांकन रद्द करवाना, बनारस के साधु संतो के नामांकन को खारिज करवाना। चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ाना, पूर्व में सेना की कार्रवाइयों को वीडियो गेम बताना और शहीद प्रधानमंत्री राजीव गांध पर अपमानजनक टिप्पणी करना यह सब ऐसी गलतियां हैं जिनका खमियाजा उन्हें और उनकी पार्टी को भुगतना पड़ सकता है।
पीएम मोदी अभी जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं वह सभ्य लोगों की भाषा तो कत्तई नहीं हो सकती। पढ़ा लिखा आदमी तो दूर कोई अनपढ़ चायवाला भी इतनी उदंड भाषा नहीं बोलता। उनकी भाषा शुरू से कटाक्ष करने वाली रही है। लेकिन इतने निचले स्तर पर उतरकर कटाक्ष करना इतने बड़े और जिम्मेदार पर बैठे व्यक्ति को शोभा नहीं देता। ऐसी भाषा की देशवासियों पर क्या प्रतिक्रिया होती है कभी न इसे जानने की कोशिश की न इसकी परवाह की। वे स्वयं को चायवाला बोलते हैं। चायवाला भी अपने ग्राहकों से साथ इस तरह की बात नहीं करता। उनके साथ अदब से पेश आता है। यह जाहिल-जपाट और सड़क छाप लफंगों की भाषा देश के लोग पसंद नहीं करते। आश्चर्य होता है कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठक कैसे रहे। संघ का एक साधारण कार्यकर्ता भी इतनी शालीन भाषा बोलता है कि सैद्धांतिक विरोध रखने वाले भी उनसे प्रभावित हो जाते हैं। संघ जैसी संस्था में रहकर भी कोई संस्कार नहीं सीखे तो आश्चर्य होता है।
हालांकि राजनीति में गंदी भाषा और मूल्यहीनता की शुरुआत लालू यादव से मानी जाती है जो भूरा बाल साफ करो जैसे नारे लगाते थे। लेकिन लालू की भाषा किसी को कचोटती नहीं थी। लोग उनकी बातों का मज़ा लेते थे। उनका उद्देश्य किसी को अपमानित करना नहीं होता था बल्कि पिछड़ी जातियों को जागृत करना, उनके अंदर आत्मसम्मान की भावना भरना होता था। वे मसखरी कर लोगों को आकर्षित करने की कला जानते थे। आज भी वे देश के सबसे मुंहफट राजनेता माने जाते हैं। लेकिन उनकी भाषा कचोटती नहीं गुदगुदाती है। मायावती भी आक्रामक भाषण देती हैं लेकिन उन्होंने मनुवाद और ब्राह्मणवाद का विरोध किया किसी व्यक्ति अथवा जाति के लिए कभी अपमानजनक और चुभने वाली बातें नहीं की। अपने विरोधियों को देशद्रोही और पाकिस्तान परस्त घोषित करने और घटिया बातें करने की शुरुआत मोदी और शाह की जोड़ी ने की। वह भी सत्ता हासिल हो जाने के बाद। सत्ता पाते ही उनका अहंकार, बड़बोलापन सातवें आसमान पर पहुंच गया। भाजपा में और भी तो नेता हैं, उनकी भाषा और उनका आचरण तो मर्यादित है। वे विरोधियों को निशाना जरूर बनाते हैं लेकिन उनपर व्यक्तिगत हमला नहीं करते। राजनाथ सिंह हों, नितिन गडकरी हों या अन्य नेता। वे नपी तुली और तार्किक बातें करते हैं। सिर्फ मोदी और शाह के चहेते लोगों की ज़ुबान बेलगाम हो गई है। वे कब क्या बोल जाएंगे उन्हें खुद पता नहीं।
मोदी जी की भाषा ही नहीं काम करने का तरीका भी बेढंगा है। इसका ताज़ा उदाहरण संसदीय चुनाव में 75 पार के लोगों का टिकट काटने का तरीका है। वे वरिष्ठ नेता रहे हैं। भाजपा की नींव डालने वाले रहे हैं। अगर उनसे इस नीतिगत फैसले पर बात कर लेते और उन्हें इसपर सहमत कराकर उनका आशीर्वाद दिलाकर नए प्रत्याशी उतारते तो यह भारतीय परंपरा के मुताबिक होता। उनकी प्रतिष्ठा भी रह जाती और उनके समर्थकों में भी यह संदेश जाता कि उनके नेता को महत्व दिया गया। लेकिन इसकी जगह सीधे फरमान जारी कर दिया गया कि आपकी जगह फलां प्रत्याशी होंगे। कई नेताओं ने इस फरमान पर बगावत कर दी। कई बार रांची के सांसद रहे रामटहल चौधरी बागी उम्मीदवार के रूप में निर्दलीय मैदान में उतर गए और अब भाजपा के लिए इस जीती हुई सीट को गंवाने का खतरा है। गांधीनगर के मतदाता एलके आडवाणी जी के अपमान को लेकर नाराज हो गए और अब अमित शाह के लिए चुनाव जीतना संदिग्ध हो चला है। तकनीक का सहारा लेकर जीत भी गए तो नैतिक रूप से हार हो गई।


मंगलवार, 13 नवंबर 2018

वामपंथी बनाम दक्षिणपंथी रूढ़िवाद



देवेंद्र गौतम

सोशल मीडिया के इस जमाने में हर पर्व त्योहार या धार्मिक आयोजन के मौके पर कोई न कोई कथित वामपंथी विद्वान उसे ढोंग, ढकोसला, अंधविश्वास आदि करार दे ही देता है। फिर दक्षिणपंथी खेमे से इसके जवाबी पोस्ट आने लगते हैं। इस क्रम में भाषा की मर्यादा तक ताक़ पर रख दी जाती है। सच्चाई यह है कि दोनो ही अपने-अपने ढंग के रूढ़िवाद से ग्रसित हैं। अपने कालखंड की विशिष्टताओं, ज्ञान-विज्ञान से पूरी तरह के कटे हुए। लकीर के फकीर। वामपंथ चीजों को वैज्ञानिक नजरिए से देखने और तार्किक तरीके से विश्लेषण करने की प्रेरणा देता है। लेकिन वामपंथी अपने पूर्वजों यानी मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की कही बातों के आधार पर अपनी धारणा बनाते हैं और विभिन्न मंचों से व्यक्त करते हैं। इस क्रम में सामयिक घटनाओं और प्रवृतियों का विश्लेषम तो हो जाता है लेकिन धर्म और अध्यात्म के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं हो पाते। सवाल है कि क्या मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और माओं के देहांत के बाद विज्ञान का विकास रुक गया था? समय का पहिया थम गया था? उनकी प्रस्थापनाओं में कुछ नया जोड़ने की जरूरत नहीं है?
हाल के वर्षों में देशी-निदेशी विश्वविद्यालयों में जो शोध हुए हैं उनसे पता चलता है कि धार्मिक परंपराओं और रीति-रिवाजों के अंदर भी विज्ञान है। आधुनिक विज्ञान परमाणु से विकसित हुआ है तो आध्यात्मिक विज्ञान। विशुद्ध ऊर्जा, महाशून्य, कास्मिक रेज अथवा ब्रह्म से। आधुनिक शोधों से धर्म और विज्ञान के बीच की दूरी निरंतर कम होती जा रही है। माना जा रहा है कि धार्मिक ग्रंथों में वैज्ञानिक बातों को अंधविश्वास की भाषा में कहा गया है। संभवतः यह उस काल के बौद्धिक और सामान्य जन की चेतना के स्तर में अंतर के कारण किया गया हो। ठीक उसी तरह जैसे इतिहास को मिथिहास की भाषा में लिखा गया था। वैज्ञानिक स्वयं स्वीकार करते हैं कि यह भूमंडल और जीवमंडल अरवों-खरबों वर्षों से अस्तित्व में है। तो क्या यह मान लिया जाए कि मानव सभ्यता हड़प्पा, मिश्र और मेसेपोटानिया से पहले नहीं रही रही होगी इसलिए कि हम उससे अवगत नहीं हैं। तो क्या धर्मग्रंथों में जो बातें अंधविश्वास की भाषा में कही गई हैं उन्हें वैज्ञानिक भाषा में नहीं कहा जाना चाहिए? क्योंकि वामपंष के पूर्वजों ने उन्हें सिरे से नकार दिया था? धर्म के प्रति पूर्वाग्रह पूर्ण नकारात्मक धारणा के कारण ही वामपंथ की धारा सिमटती और व्यापक जन समुदाय से कटती जा रही है। भाकपा माले के पूर्व महासचिव विनोद मिश्र ने कहा था कि धर्म व्यक्तिगत आस्था की चीज है, उसे इसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। अगर माओ ने धर्म को अफीम करार दिया तो इसका कारण था कि उस समय तक उसके अंदर की वैज्ञानिकता की पड़ताल नहीं की गई थी। अब जब उसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा रहा है तो क्या इसे इसलिए अस्वीकार कर देना चाहिए कि वामपंथ के पूर्वजों ने स्वीकार नहीं किया था। स्थापित प्रस्थापना को मानने और बनी बनाई लीक पर चलना कत्तई वामपंथ नहीं है। यह एक किस्म का रूढ़िवाद है। हर विचारधारा अपने उदयकाल में सर्वाधिक आधुनिक और प्रासंगिक होती है लेकिन कालांतर में जब वह अपने समय, काल, परिस्थितियों और ज्ञान-विज्ञान के विकास के अनुरूप परिमार्जित नहीं होती तो रूढ़ होने लगती है। वामपंथ का रूढ़िवाद अभी शैशवकाल में है। इससे छुटकारा पाया जा सकता है। दक्षिणपंथ का रूढ़िवाद क्रोनिक है। से दूर करने के लिए वामपंथ को ही आगे आना होगा लेकिन अपने रूढ़िवाद से मुक्त होने के बाद। दक्षिणपंथियों को रूढ़िवादी और ढपोरपंथी क्यों कहा जाता है? इसीलिए न कि वे सदियों से स्थापित प्रस्थापनाओं के अनुरूप आचरण करते हैं। पूर्वजों की हर बात को ब्रह्मवाक्य मानते हैं। अगर वामपंथी भी यही करते रहेंगे तो फिर वामपंथी और दक्षिणपंथी में अंतर क्या है? दोनों अपने-अपने पूर्वजों की कही बातों को ब्रह्मवाक्य मानकर चलते हैं।
दक्षिणपंथियों की समस्या यह है कि वे विज्ञान को अपना शत्रु मानते हैं। ठीक जैसे वामपंथी धर्म को पूरी तरह अवैज्ञानिक मानते हैं। लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हम न तो आदिम युग में जी रहे हैं और न 19 वीं शताब्दी में। यह 21 वीं सदी है। कम से कम अब तो पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चीजों को नए सिरे से देखने का प्रयास करें। अभी दुर्गा पूजा, दीपावली, छठ आदि पर्वों के मौसम में एक दूसरे पर कटाक्ष करने की जगह अगर इनके अंदर के वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक तथ्यों पर स्वस्थ चर्चा करते तो हम सबका बौद्धिक विकास होता। आमलोगों को नए नज़रिए से चीजों को देखने की प्रेरणा मिलती। लेकिन मुझे लगता है कि सारी चीजें अंततः राजनीति पर आकर टिक जाती हैं। नास्तिकता और आस्तिकता के आधार पर जनता को विभाजित करने का मकसद ज्यादा होता है। स्वस्थ बहस और लोक शिक्षण का मकसद कम होता है। यही विडंबना है।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

नोटबंदी की दूसरी वर्षगांठ पर सिर्फ ज़ुबानी जंग क्यों



न सरकारी जश्न, न विपक्षी प्रतिरोध, न विजय दिवस, न शोक दिवस

देवेंद्र गौतम
चुनावी वर्ष की पूर्व संध्या पर कोई शोर, की हंगामा नहीं। नोटबंदी की दूसरी वर्षगांठ सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच ज़ुबानी जंग में गुजर गई। सत्तापक्ष ने इससे अर्थ व्यवस्था के पटरी पर आने का दावा किया तो विपक्ष ने इसे आजादी के बाद का सबसे बड़ा घोटाला करार दिया। अगर सत्तापक्ष इस फैसले को सही मानता है तो उसने देश के किसी हिस्से में इसका जश्न क्यों नहीं मनाया। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने सिर्फ विपक्ष के हमले का रक्षात्मक जवाब भर दिया। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मौके पर की टिप्पणी नहीं की। अरूण जेटली के तर्क और दावे किसी के गले के नीचे शायद ही उतर पाएं। निश्चित रूप से विपक्ष की आलोचना भी अतिरंजित हो सकती है। लेकिन नोटबंदी के दो साल बाद कम से कम इसके लाभ और नुकसान की निष्पक्ष समीक्षा तो की जानी चाहिए थी। दुनिया के किसी अर्थशास्त्री ने इसे सही कदम करार नहीं दिया है।
सेंटर आफ मानिटरिंग इंडियन इकोनोमिक्स की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक नोटबंदी के बाद बेरोजगारी की दर 6.9 प्रतिशत बढ़ी है। काम की तलाश करने वाले बालिग युवकों की भागीदारी के अनुपात में 42.4 प्रतिशत की गिरावट आई है जो दो वर्षों में सबसे नीचे आ चुकी है। श्रमिक वर्ग की भागीदारी दर में 47 प्रतिशत से ज्यादा गिरावट आई है। श्रमिक हाट में अबतक की सर्वाधिक गिरावट दर्ज की गई है। अक्टूबर 2018 में 397 मिलियन लोगों को काम मिला जबकि अक्टूबर 2017 में 407 मिलियन लोगों को काम मिला था। यानी 2,4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। सीआइइएल के सीइओ एवं एचआर सर्विसेज आदित्य नारायण मिश्रा के मुताबिक अक्टूबर से दिसंबर तक की अवधि विभिन्न सेक्टरों में रोजगार सृजन की अवधि होती है लेकिन इस वर्ष श्रमबल की मांग और आपूर्ति के बीच तालमेल गड़बड़ हो गया है। आमतौर पर हर वर्ष करीब 12 मिलियन लोग रोजगार की तलाश में श्रमिक हाटों का रुख करते हैं लेकिन इस अनुपात में रोजगार का सृजन नहीं हो सका।
सरकारी स्तर पर रोजगार की स्थिति का अध्ययन करने वाले सरकारी संस्थान अपनी रिपोर्ट नियमित रूप से जारी कर रहे हैं लेकिन 2016 के बाद उनकी किसी रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। आखिर उन्हें गोपनीय रखने की क्या विवशता आन पड़ी। दरअसल नोटबंदी एक प्रयोग था जिसका वह परिणाम नहीं निकल पाया जिसकी उम्मीद की गई थी। लेकिन इसे किसी साजिश के तहत लागू किया गया था, ऐसा कहना उचित नहीं है। हां, मोदी सरकार ने अति उत्साहित होकर यह प्रयोग किया था यह जरूर कहा जा सकता है। अति उत्साह का ही नतीजा था कि इसके तात्कालिक और दूरगामी प्रभावों का सटीक आकलन नहीं किया जा सका। इसकी पूरी तैयारी नहीं की जा सकी और जो घोषणा रिजर्व बैंक के गवर्नर को करनी थी वह स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर दी। प्रयोग, प्रयोग होते हैं। वे सफल भी हो सकते हैं और विफल भी। किसी भी प्रयोग का फलाफल नहीं देखा जाता सके पीछे की नीयत देखी जाती है। जेटली जी को इसके परिणाम सुखद दिखी दे रहे हैंष उन्हें अर्थ व्यवस्था पटरी पर आती दिख रही है। ऐसे तर्क जो विश्वसनीय नहीं होते, तथ्यों को नकारते हुए गढ़े जाते हैं उन्हें कुतर्क कहा जाता है। जब विफलता को सफलता के रूप में दर्शाने के तर्क गढ़े जाते हैं तो बहुत तरह की आशंकाएं भी उत्पन्न होती हैं। विश्वसनीयता पर संदेह होता है।
मोदी सरकार यदि नोटबंदी के पक्ष में थोथी दलील देने की जगह इसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों की स्वयं विवेचना कर स्वीकार कर लेती कि इस प्रयोग के अपेक्षित परिणाम नहीं आए तो उसके प्रति आम जनता के अंदर एक श्रद्धा और प्रेम का भाव जगता। फिर विपक्ष के कटाक्ष की धार भी कमजोर पड़ जाती। किसी शायर ने कहा है-
गिरते हैं घुडसवार ही मैदाने-जंग में
वे तिफ्ला क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चले।
लेकिन अपनी विफलताओं को स्वीकार करने के लिए बड़े नैतिक बल और साहस की जरूरत पड़ती है। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में अपनी भूलों को स्वीकार किया तो उसे विश्व साहित्य में श्रेष्ठ आत्मकथाओं में शामिल किया गया जबकि आत्मप्रवंचना पर आधारित आत्मकथाएं भारतीय पाठकों की स्मृति से भी धीरे-धीरे विलुप्त हो गईं।



सोमवार, 13 अगस्त 2018

अधिकारियों की खींचतान, खतरे में जान


* तालमेल के अभाव का खामियाजा भुगत रही जनता

संदर्भ : शहर में डेंगू,मलेरिया और चिकनगुनिया का प्रकोप


* नवल किशोर सिंह

रांची। शहर में फैली डेंगू,मलेरिया और चिकनगुनिया महामारी का रूप लेती जा रही है। दिन-ब-दिन इन बीमारियों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। राजधानी रांची के कई मुहल्ले प्रभावित हैं। स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम के बीच तालमेल नहीं होने की वजह से बीमारियों पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। विभागीय अधिकारियों की खींचतान के कारण डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया का प्रकोप बढ़ रहा है। स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम प्रशासन का कहना है कि आपसी तालमेल से इस महामारी से निबटने के लिए समुचित उपाय किए जा रहे हैं, लेकिन सतही तौर पर हकीकत कुछ और बयां कर रही है। शहर के हालात से यह साफ झलक रहा है कि विभागीय अधिकारियों के बीच समन्वय का घोर अभाव है। चिकनगुनिया से पीड़ित मरीजों की संख्या के बारे में स्वास्थ्य विभाग और सूबे के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल रिम्स के आंकड़ों में अंतर से यह स्पष्ट पता चलता है कि विभागों के बीच तालमेल नहीं है। यही नहीं, महामारी से निबटने के लिए अभियान चलाने और इसकी समुचित मानिटरिंग करने के लिए संयुक्त रूप से कोई कमिटी भी नहीं बनाई गई। गौरतलब है कि बीते दिनों स्वास्थ्य विभाग की ओर से जारी आंकडों के मुताबिक सिर्फ तीन लोगों को चिकनगुनिया से पीड़ित बताया गया, जबकि रिम्स प्रबंधन ने रिपोर्ट जारी कर पीड़ितों की संख्या 69 बताई। वहीं केन्द्र सरकार के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च की ओर से शहर में किए सर्वे के अनुसार चिकनगुनिया और डेंगू से प्रभावित घरों की संख्या 450 बताई गई है। जबकि राज्य सरकार का स्वास्थ्य महकमा के आंकड़े मात्र 103 घरों को ही इन रोगों से प्रभावित बताया।
 ये तो हुई आंकड़ों की बात। अब जरा विभागीय अधिकारियों की कार्यशैली पर नजर डालें। शहर महामारी की चपेट मे है। इस बीच नगर आयुक्त विदेश की सैर करने चले गए। यही नहीं, जाने से पहले उन्होंने सहायक लोक स्वास्थ्य पदाधिकारी के अधिकारों में कटौती कर सिटी मैनेजर को जिम्मा दे दिया। अब हालात ऐसे हैं कि स्वास्थ्य पदाधिकारी ने निर्देशानुसार शहर के सफाई कार्यों से अपने को अलग कर लिया है। उन्हें जो नई जिम्मेदारी दी गई है, उसके अनुसार वे सिर्फ जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर भर कर रही है। प्रशासनिक गलियारों में इसे पावर की लड़ाई कही जा रही है। वहीं कई पार्षद और अन्य जनप्रतिनिधियों ने इसे नगर आयुक्त की मनमानी मानते हुए विरोध जताया है। उनके मुताबिक शहर की स्थिति नारकीय होती जा रही है और नगर आयुक्त अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं। सक्षम पदाधिकारी के कार्यों में कटौती कर अपने चहेतों और अनुभवहीन कर्मियों को पावर सौंप दिया है। वहीं महापौर और उप महापौर का इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करने पर भी कुछ जनप्रतिनिधियों ने सवाल खड़े किए हैं।
 बहरहाल, शहरवासी महामारी को लेकर सशंकित हैं । उन्हें बेहतर चिकित्सा सेवाएं और प्रशासनिक महकमे से समुचित सहयोग की अपेक्षा है। ऐसे में निगम के नगर आयुक्त और अन्य अधिकारियों के बीच तालमेल जरूरी है। अन्यथा जनता को नुकसान होगा और फिर..........।

शनिवार, 11 अगस्त 2018

नीरो की तरह बंसी बजा रहे हैं रांची के नगर आयुक्त




देवेंद्र गौतम

रांची। आलम यह है कि रांची शहर रोम की तरह जल रहा है और नगर आयुक्त नीरो की तरह बंसी बजा रहे हैं। उनकी बंसी की धुन से लोगों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। शहर के तमाम जलाशयों में, गली-चौराहों में गंदगी का अंबार लगा हुआ है। डेंगू और चिकनगुनिया का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। पिछले 10-12 दिनों के अंदर पीड़ित मरीजों की संख्या 300 से पार कर चुकी है। खून के नमूने एकत्र कर उनकी जांच का कार्य युद्धस्तर पर चल रहा है। रोज नए-नए मरीजों की पहचान हो रही है। मरीजों का आकड़ा बढ़ता जा रहा है। महामारी से सर्वाधिक प्रभावित हिंदपीढ़ी के कई जियारिनों ने अपना हजयात्रा का कार्यक्रम स्थगित कर दिया है। शहर के निजी और सरकारी अस्पतालों में मरीजों के लिए बेड और दुकानों में दवा का अभाव हो गया है। मच्छरजनित रोगों के कारण महामारी फैलने की आशंका है लेकिन नगर निगम के आयुक्त को इससे कुछ भी लेना देना नहीं है। वे विभागीय उलटफेर की राजनीति कर नए सिरे से कार्य विभाजन कर विदेश यात्रा पर निकल गए हैं। जन-स्वास्थ्य के समक्ष इतनी गंभीर चुनौती के समय भी वे अपने चहेते अधिकारियों को उपकृत और अन्य को दंडित करने में लगे हैं। उन्होंने नगर स्वास्थ्य विभाग में कार्य विभाजन के जरिए सक्षम अधिकारियों के कार्यक्षेत्र में कटौती कर दी है और अनुभवहीन लोगों के कार्यक्षेत्र का विस्तार कर दिया है। इसी क्रम में नगर स्वास्थ्य अधिकारी किरन कुमारी के कार्य का जिम्मा सिटी मैनेजर को सौंप दिया है। उन्हें स्वच्छता अभियान चलाने का कोई अनुभव नहीं है। वे  सफाई अभियान चलाने में जी जान से लगे हैं लेकिन फिर भी यह प्रभावी ढंग से नहीं चल पा रहा है। उनका ध्यान सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में लगा है जबकि शहर के तमाम इलाके डेंगू, चिकनगुनिया और मलेरिया के मच्छरों का प्रजनन स्थल बने हुए हैं। उनके पनपने का अनुकूल माहौल बना हुआ है। नगर आयुक्त के इस गैर-जिम्मेदाराना आचरण पर पूर्व मंत्री सुबोधकांत सहाय ने भी सख्त नाराजगी व्यक्त की है। किरन कुमारी का कार्य अनुभव और प्रदर्शन सराहनीय रहा है। उनके कार्यकाल में बेहतर स्वच्छता के लिए नगर निगम की सराहना हुई है और पुरस्कृत भी किया गया है लेकिन जब शहर को इस कार्य के लिए उनकी तरह के सक्षम अधिकारी की सख्त जरूरत है तो नगर आयुक्त कार्य विभाजन के जरिए अपने प्रशासनिक अधिकारों के प्रदर्शन में लगे हैं। सच यह है कि अगर मच्छरों को पनपने से नहीं रोका गया तो स्थिति नियंत्रण के बाहर हो सकती है।
झारखंड सरकार के स्वास्थ्य मंत्री अपने वरीय अधिकारियों के साथ महामारी पर नियंत्रण में लगे हैं लेकिन नगर निगम का प्रदर्शन निराशाजनक है। नगर विकास मंत्रालय को अविलंब इस लालफीताशाही पर अंकुश लगाने की पहल करनी चाहिए और नगर आयुक्त से उनकी लापरवाही के लिए जवाब-तलब करना चाहिए।

रविवार, 22 जुलाई 2018

गौ-तस्करी के अफवाहों के लिए किसे जिम्मेदार ठहराएगी सरकार




इसके पीछे तो कोई व्हाट्स एप या फेसबुक नहीं

देवेंद्र गौतम

सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देश और प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री के कड़े बयान के बाद भी भीड़तंत्र की रक्तपिपासा शांत नहीं हो रही है। बच्चा चुराने के अफवाह के कारण एक साफ्टवेयर इंजीनियर की पीट-पीटकर हत्या के तुरंत बाद राजस्थान के अलवर जिले के रामगढ़ थाना क्षेत्र में गौ-तस्करी के संदेह में एक व्यक्ति को पीट-पीटकर मार डाला गया। जबकि दूसरा किसी तरह जान बचाकर भागने में सफल रहा। साफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या के लिए सरकार ने व्हाट्स एप प्लेटफार्म से बच्चा चोरों के सक्रिय होने की अफवाह को जिम्मेदार माना। लेकिन गौ-तस्करी की अफवाह को फैलाने के लिए सरकार आखिर किसे जम्मेदार ठहराएगी। किसे कटघरे में खड़ा करेगी। सच्चाई यही है कि माब लिंचिंग को रोकने की कोई इच्छाशक्ति मोदी सरकार में नज़र नहीं आ रही। लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान एक तर्क यह भी रखा गया कि माब लिंचिंग तो पहले भी होती थी। 1984 के सिख दंगे इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। सवाल है कि पहले भी होता था तो क्या इसे अब भी जारी रहने में कोई हर्ज नहीं है। यही कहना चाहती है सरकार। राजस्थान के रामगढ़ में उन्मादी भीड़ ने अकबर खान और असलम नामक जिन दो युवकों पर हमला किया वे एक ग्रामीण हाट से दो गायें खरीदकर हरियाणा ले जा रहे थे। भीड़ के हमले में अकबर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई जबकि असलम किसी तरह भाग निकला।
उन्माद का विवेक से कोई नाता नहीं होता। कथित गौरक्षकों ने उन युवकों से यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि वे गौवंश को किस मकसद से ले जा रहे हैं। मुसलिम संप्रदाय के लोग गाय के दूध का भी भरपूर स्तेमाल करते हैं। जरूरी नहीं कि वे गायों को वध करने ही ले जा रहे हों। गौरक्षकों ने देश में ऐसा दहशत का माहौल बना रखा है कि मुसलिम क्या हिन्दुओं के लिए भी गाय लेकर एक जगह से दूसरी जगह जाना मुश्किल हो रहा है। सवाल है कि यदि वे गायों की खरीद बिक्री को पूरी तरह रोक देना चाहते हैं तो मवेशी हाटों में गौवंश की बिक्री का विरोध क्यों नहीं करते। गौवंश को बेचने का काम तो गौपालक ही होते हैं। मोदी सरकार में भाजपा से जुड़े संगठन ही नहीं कट्टर हिन्दुवादी विचारधारा के लोग भी केंद्र में अपनी सरकार होने के भाव से संस्कारित हैं। उन्हें कानून व्यवस्था का कोई डर नहीं है। सरकारी तंत्र भी कहीं न कहीं उनकी पीठ थपथपा ही रहा है। झारखंड में रामगढ़ माब लिंचिंग मामले के आठ आरोपियों को जमानत मिली तो केंद्र सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री जयंत सिन्हा ने माला पहनाकर उनका स्वागत किया और मिठाई खिलाकर उत्साहवर्धन किया। दिल्ली के कुछ दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी गौरक्षा के नाम पर हत्या के आरोपियों की मदद के लिए कोश इकट्ठा कर रहे हैं और इसके लिए सोशल मीडिया का खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्मादी भीड़ के हाथों हत्या के मामले में विपक्ष सरकार को कोस रहा है और सरकार इसे पुरानी प्रवृत्ति बताकर अपना पल्ला झाड़ रही है। पार्टी और सत्ता के शीर्ष पर बैठे किसी नेता इस तरह की घटनाओं पर कोई टिप्पणी नहीं करते। उनका मौन कहीं न कहीं समर्थन और संरक्षण का संकेत देता है।












रविवार, 10 जून 2018

साख बचाने की जद्दो-जहद में अमित शाह



देवेंद्र गौतम

विजय रथ का चक्का थमने के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का बड़बोलापन थम गया है। परेशानी बढ़ गई है। उन्हें न सिर्फ गठबंधन के नाराज साथियों को मनाने की जरूरत महसूस हो रही है बल्कि भाजपा के अंदरूनी विवादों से भी निपटने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधान सभाओं के चुनाव इसी वर्ष होने हैं। इनका आम चुनावों पर गंभीर असर पड़ेगा। 2019 के आम चुनावों में भी ज्यादा समय नहीं रह गया है। विपक्षी गठबंधन बड़ी चुनौती के रूप में सामने है। गठबंधन के नाराज साथियों में सिवसेना के अधयक्ष उद्धव ठाकरे से उनके मुंबई स्थित आवास पर मिले लेकिन शिवसेना के तेवर नरम पड़ते नहीं दिख रहे। अब वह महाराष्ट्र में जूनियर पार्टनर की भूमिका में रहने को तैयार नहीं है। उसे 282 सदस्यीय विधान सभा में कम से कम 152 सीटें मिलेंगी तभी एनडीए गठबंधन में शामिल रहेगी अन्यथा सभी सीटों पर अकेले लड़ेगी। सेना आलाकमान ने शाह को अपनी शर्तें स्पष्ट तौर पर बता दी हैं। सेना चाहती है कि भाजपा केंद्र संभाले और महाराष्ट्र उसके लिए छोड़ दे। बिहार में नीतीश कुमार तो पहले ही सीनियर पार्टनर के रूप में मौजूद हैं। बिहार के भाजपा नेता सुशील मोदी उनका अग्रत्व पहले ही स्वीकार कर चुके हैं।
उधर राजस्थान की मुख्यमंत्री विजय राजे सिंधिया के साथ शाह का विवाद पहले से ही चल रहा है। इस विवाद के कारण अप्रैल से ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति रुकी हुई है। इसके कारण कार्यकर्ताओं में रोष व्याप्त है। उपचुनावों मे राजस्थान की दो संसदीय और एक विधान सभा सीट हारने के बाद अगले विधान सभा चुनाव के मद्दे-नज़र शाह राजस्थान के पार्टी ढांचे में फेरबदल करना चाहते थे। शाह ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अशोक प्रणामी से इस्तीफा ले लिया लेकिन शाह के पसंदीदा उम्मीदवार जोधपुर के सांसद एवं केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत पर वसुंधरा राजे सिंधिया ने आपत्ति व्यक्त कर दी। कई बैठकों के बाद भी इसपर निर्णय नहीं हो सका। शाह अपनी पसंद का प्रदेश अध्यक्ष चाहते हैं जबकि सिंधिया अपने प्रति समर्पित व्यक्ति को इस पद पर बिठाना चाहती हैं। वसुंधरा के तेवर शाह की नाराजगी का सबब बन रहे हैं। वसुंधरा का राजस्थान में अपना जनाधार है। उनकी उपेक्षा भाजपा को महंगी पड़ सकती है लेकिन शाह का स्वेच्छाचारी स्वभाव समझौते की जगह टकराव को प्रेरित कर रहा है। यदि कर्नाटक और उपचुनावों में भाजपा को मुंह की नहीं खानी पड़ती तो शाह के तेवर कुछ और होते संभवतः वसुंधरा की छुट्टी कर दी गई होती। पिछले दिनों शाह ने जयपुर ग्रामीण लोकसभा के कार्यकर्ताओं की बैठक दिल्ली में बुलाई। उन्हें जमकर चुनावी तैयारी करने को कहा। सभा में कुछ लोगों ने सवाल उठाए कि यह बैठक दिल्ली में क्यों बुलाई गई। इसे राजस्थान में ही किया जाना चाहिए था। इस बैठक में वसुंधरा राजे नहीं शामिल हुईं। कार्यकर्ताओं में यह संदेश गया कि शाह और राजे के विवाद के कारण बैठक दिल्ली में की गई। शाह ने बैठक में मोदी सरकार की उपलब्धियों का बखान किया और राजस्थान में उनके विजय रथ को आगे बढ़ाने का आह्वान किया लेकिन वसुंधरा सरकार के कार्यों और उपलब्धियों की कोई चर्चा नहीं की गई। जबकि विधानसभा चुनाव राज्य सकार के कार्यों के आधार पर लड़े जाते हैं।
शाह ने साफ संकेत दिया कि राजस्थान का चुनाव वसुंधरा राजे सीएम रहेंगी लेकिन चुनाव उनके नाम पर नहीं बल्कि मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा। दरअसल वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद से हटाने की पूरी तैयारी थी। पार्टी को डर था कि वसुंधरा बगावत कर सकी हैं। लेकिन अब शाह ने संकेत दिया कि बदली परिस्थितियों में यह जोखिम नहीं उठाया जाएगा वसुंधरा मुख्यमंत्री बनी रहेंगी। शाह के अहंकारी स्वभाव के कारण राजे ही नहीं भाजपा के बहुत से नेता खार खाए हुए हैं। अब अपराजेय होने का भ्रम टूटने के बाद सबको मनाने की कोशिश चल रही है। समें कितनी सफलता मिलती है और 2019 की लड़ाई में भाजपा अपनी साख बचा पाती है अथवा नहीं यही देखना है।

शुक्रवार, 8 जून 2018

मोदी जी. कल किसने देखा है



देवेंद्र गौतम

पीएम मोदी के अंध समर्थक दलील दे रहे हैं कि देश को उनके प्रयोगों का दूरगामी लाभ मिलेगा। दूरगामी लाभ तभी मिलता है जब दूरदर्शिता के साथ कोई यत्न किया गया हो। जब प्रयोग बिना होमवर्क के अति उत्साह में लोगों को चौंकाने की नीयत से किए गए हों और जिनका तात्कालिक असर जानलेवा दिखा हो तो उनके दूरगामी लाभ की उम्मीद नहीं की जा सकती है। दूरदर्शिता का आलम यह है कि मोदी ने जब नोटबंदी लागू की थी तो उन्हें यह भी पता नहीं था कि जो वैकल्पिक करेंसी छापी जा रही है वह एटीएम के खांचे में नहीं आएगी। उनके वित्तमंत्री जेटली भी नहीं जानते थे कि एटीएम मशीनों के कैलिब्रेट करना पड़ेगा। इसमें कितना समय लगेगा अंदाजा नहीं था। जब मामला फंस गया तो कैशलेस इकोनोमी की बात की जाने लगी। यह सलाह देते समय भी पता नहीं था कि भारत में इंटरनेट का स्पीड इतना नहीं कि डिजिटलाइजेशन का बोझ उठा सके। नोटबंदी की घोषणा करते वक्त मोदी जी ने कहा था कि दो दिनों बाद एटीएम से दो हजार रुपये प्रति सप्ताह निकाले जा सकेंगे। आतंकवाद का सफाया हो जाएगा। काला धन खत्म हो जाएगा। जाली नोटों का धंधा बंद हो जाएगा। नए नोट विशेष सतर्कता से तैयार के गए हैं। इनकी नकल नहीं की जा सकेगी। लेकिन उनके बयान के दूसरे-तीसरे दिन ही नोएडा के छात्रों ने दो हजार के नकली नोट बना लिए थे और बाजार में चलाने की कोशिश की थी। वे कोई जाली नोटों का धंधा करने वाले अपराधी नहीं थे। नोटों की उपलब्धता का आलम यह था कि आमलोग बैंकों के सामने कतारों में खड़े थे और कश्मीर में मारे गए आतंकी की जेब से नए नोट बरामद हो रहे थे। लाखों के नए नोटों का भुगतान कर रेल दुर्घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। नोटबंदी का प्रयोग पूरी तरह फ्लाप हो गया लेकिन आज भी न सरकार इसे मानने को तैयार है न उनके भक्त। अब लीपापोती के लिए दूरगामी लाभ की बात की जा रही है। कांग्रेस के 60 वर्षों के शासन से तुलना नहीं करने की बात की जा रही है। मोदी जी हाड़ मांस के मानव हैं। कोई अजर अमर नहीं। अपनी उम्र को देखते हुए अंदाजा लगाएं कि कितने वर्ष सक्रिय राजनीति में रह सकेंगे। यदि वे अच्छे दिन लाने में लंबा समय लगाने वाले हैं तो इतना इंतजार न उनका शरीर करेगा न भारत की जनता। जिन कम्युनिस्टों को भाजपा के लोग गाली देते हैं उन्होंने जरूर ऐतिहासिक गलतियां की हैं लेकिन उनमें इतनी ईमानदारी तो है कि अपनी गलतियों को स्वीकार करते हैं। यहां तो अपनी विफलताओं पर भी दूरगामी लाभ का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है। जनता ने मोदी जी को बड़े विश्वास और भरोसे के साथ पांच वर्षों के लिए चुना था तो उन्हें पांच वर्ष में लाभ देने वाले प्रयोग ही करने चाहिए थे। अपने चुनावी वादों में उन्होंने कभी यह नहीं कहा था कि उनके कार्यों का लाभ लंबे अंतराल के बाद होगा। इसमें समय लगेगा। बार-बार गद्दी सौंपिए और इंतजार कीजिए। मोदी जी, कल किसने देखा है। जो आज है वही सच है और सच यही है आपने देशवासियों उम्मीदों पर पानी फेरा है। भरोसे को तोड़ा है। अगर इत्तेफाक से एक मौका और मिल गया तो इसे अपना चमत्कार या शाह की प्रबंधन क्षमता नहीं बल्कि भारतीय जनता की उदारता और एहसान समझिएगा।

रविवार, 24 जून 2012

देश को रसातल में ले जाने की तैयारी


आज के एक अखबार की लीड खबर का शीर्षक है 'कड़े तेवर दिखायेंगे पीएम'. उप शीर्षक है 'पेट्रोल सस्ता कर डीजल महंगा करने की तैयारी' 
संप्रंग सर्कार कठोर फैसले लेने का यह बेहतर मौका मान रही है. अर्थात वह हमेशा ऐसे लेने के लिए मौके की ताक में रहती है जिससे आम आदमी का जीवन और कष्टमय हो जाए. उस आम आदमी का जिसके लिए प्रतिदिन 28  रुपये के खर्च करने की क्षमता को काफी मान रही है यह सरकार. क्योंकि इसी में आबादी के उस हिस्से की भलाई है जिसके बाथरूम की मरम्मत के लिए 35  लाख रुपये भी कम पड़ते हैं. देश का एक बच्चा भी जानता है की तमाम जिंसों की ढुलाई डीजल चालित वाहनों से होता है. डीजल को महंगा करने से उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें कैसे कम होंगी कम से कम हमारे जैसे मंद बुद्धि के लोगों की समझ से बाहर है. पीएम अर्थशास्त्री हैं. हो सकता है उनके अर्थशास्त्र में ऐसा कोई गणित हो. या फिर यह भी हो सकता है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का यह सिद्धांत कि अपने चरम पर पहुंचकर हर चीज विलीन हो जाती है काम कर रहा हो. सरकार को यकीन हो कि महंगाई को उसके चरम तक पहुंचा दो वह खुद ही ख़त्म हो जायेगी.
पेट्रोल की कीमत घटने से एलिट क्लास के उन लोगों को राहत मिलेगी.जिनके पास धन है. जिनकी क्रयशक्ति बेहतर है. लेकिन डीजल की कीमत बढ़ने पर निम्न मध्यवर्ग और मजदूर-किसान यानी हर वर्ग के लोग प्रभावित होंगे. इसी तरह रसोई गैस की राशनिंग जैसे कड़े कदम उठाने की तैयारी हो रही है. बाकी कड़े फैसले भी जनता पर कहर ढानेवाले ही हैं. अब भारत की जनता पांच वर्ष के लिए सत्ता की बागडोर थमाने की भूल कर ही बैठी है तो भुगतना तो उसी को पड़ेगा. इसलिए जनाब! आप चिंता मत कीजिये. जो मर्जी हो कर लीजिये. पूरी आबादी का गला घोंट दीजिये. लेकिन भगवान के लिए कुछ तो शर्म कीजिये आखिर आप 2014  में जनता को क्या मुंह दिखायेंगे.  

----देवेंद्र गौतम  

बुधवार, 25 मई 2011

विस्थापितों की एक नई फ़ौज तैयार करना आत्मघाती कदम


राजेंद्र प्रसाद सिंह
पांच राज्यों  के चुनाव परिणामों  ने यह सिद्ध कर दिया है कि जनता से कटकर रहने वालों को राजनीति के हाशिये  में भी जगह नहीं मिलती और लोकतंत्र में कोई अपराजेय  नहीं होता। जनता को झांसा देकर सत्ता की चाबी नहीं हासिल की जा सकती। कट्टरता और साम्प्रदायिकता  की राजनीति करने वाली भाजपा पांचो राज्यों में  चारो खाने चित गिरी। प. बंगाल में  वामफ्रंट का 34 साल पुराना किला ढह गया। ज्योति बसु ने प. बंगाल में 34 वर्ष पहले जो व्यूह रचना की थी उसे भेदना असंभव माना जा रहा था।वामफ्रंट का अपराजेय होने का अहंकार ही उसे ले डूबा. मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतो से तो वे कट ही चुके थे, जनता से भी कटते गये थे। पूरी तरह मनमानी पर उतर आये थे। नंदीग्राम और सिंगुर में उन्होंने आम जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। इसीलिए जनता ने उसे सबक सिखा दिया। केरल में भी कड़े संघर्ष के बाद जनता ने सत्ता की चाबी कांग्रेस को ही सौंपी। असम की जनता ने कांग्रेस पर भरोसा कर तीसरी बार सेवा करने का मौका दिया। तमिल नाडू में कांग्रेस गठबंधन को जरूर झटका लगा. लेकिन कांग्रेस ने यह सिद्ध कर दिया कि उसकी नीतियां सही हैं। जनता का उसपर विश्वास लगातार बढ़ रहा है और आने वाले दिनों यह विश्वास और बढ़ेगा.
हाल के वर्षो में जो राजनैतिक परिवर्तन हुए हैं। विभिन्न चुनावों के जो नतीजे निकले हैं उनसे एक बात तो साफ हो चुकी है कि जनता अब जागरुक हो चुकी है। वह मौन रहकर राजनैतिक दलों के क्रियाकलाप देखती रहती है और समय  आने पर अपना फैसला सुना देती है। अब वोटरों को डरा-धमकाकर, फुसलाकर, जाति धरम और क्षेत्रीयता का हवाला देकर वोट बटोरने का जमाना लद चुका है। इस बात को जो नहीं समझेंगे वे जनता की नजरों से हमेशा के लिये उतर जायेंगे। राजनीति पर बाहुबलियों के दबदबे का युग भी बीत चुका है। हाल के वर्षों में कई बाहुबलियों को पराजय का मुंह देखना पड़ा है। निश्चित रूप से इसमें चुनाव आयोग की अहम  भूमिका है। उसने आधुनिक चुनाव प्रणाली के जरिये, बेहतर सुरक्षा व्यवस्था के जरिये ऐसा माहौल बनाया कि शांतिप्रिय लोग भी निर्भय होकर अपना वोट देने बूथों पर पहुंचने लगे। युवा और महिला वर्ग के मतदाता भी पूरे उत्साह के साथ बूथों तक पहुंचने लगे. जनता को जागरूक करने में सोशल नेटवर्किंग साइटों ने भी अहम भूमिका निभायी.
झारखंड सरकार को इन चुनाव परिणामों से सबक लेना चाहिए. अतिक्रमण हटाओ के नाम पर जनता के विरुद्ध जंग छेडने की कार्रवाई से बाज आना चाहिए. आज सरकार उन मजदूरों पर गोली चलवा रही है जो कई पीढ़ियों से कोयलांचल में रह रहे हैं. जिनकी जीवन स्थितियों को सुधारने और देश के इस्पात तथा थर्मल पावर प्लांटों की उर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1970 में कोकिंग और १९७२ में नन कोकिंग कोयले का राष्ट्रीयकरण किया था. खानगी मालिकों की परिसंपत्तियों का अधिग्रहण करते वक़्त केंद्र सरकार ने कुल मानव श्रम को बेहतर सुविधाएं मुहैय्या करने की जिम्मेवारी ली थी. उनपर गोली चलाने से इंदिरा गांधी जी की आत्मा दुखी हो रही होगी. कोयला मंत्री और प्रधान मंत्री को स्वयं पहल लेकर कोयलांचल में पुनर्वास की एक ठोस नीति बनानी चाहिए और राज्य सरकार के तानाशाही रुख पर अंकुश लगाना चाहिए. कोयलांचल की स्थितियों को राज्य सरकार नहीं समझ सकती. मजदूरों का दर्द उनके बीच रहने वाले ही महसूस कर सकते हैं.
आज झारखंड में समस्यायों का अंबार लगा है. उनका निबटारा करने की जगह यह सरकार सिर्फ बसे-बसाये लोगों को उजाड़ने में लगी है. यह पूरी तरह जनविरोधी रवैया है। कांग्रेस इसे कत्तई बरदाश्त नहीं करेगी. चाहे इसके लिये जो भी कुर्बानी देनी पड़े.
झारखंड में औद्योगीकरण की प्रक्रिया में जो लाखों लोग मुआवजा, पुनर्वास और नियोजन के लिये वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं उन्हें उनका हक दिलाने की पहल किये जाने की जरूरत है. जन-समस्याओं को सुलझाने की जगह राज्य में विस्थापितों की एक नई फ़ौज तैयार करना एक आत्मघाती कदम होगा। सरकार यदि समय  रहते नहीं चेती तो इसका खमियाजा उसी तरह भुगतना होगा जिस तरह वामफ्रंट को प. बंगाल और केरल में  भुगतना पड़ा. जनता ने उसे सिरे से खारिज कर दिया.

(लेखक इंटक के राष्ट्रीय महामंत्री  और झारखंड विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता हैं.)

रविवार, 22 मई 2011

राग-द्वेष से संचालित झारखंड का गृह विभाग


    19 मई को को कैट ने आईजी निर्मला अमिताभ चौधरी को अवमानना का दोषी करार देते हुए 15 दिनों के कारावास की सजा सुनाई है. उनके विरुद्ध वारंट भी जारी हो चुका है. लेकिन अभी तक न तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और न ही गृह विभाग ने उन्हें निलंबित किया. कुछ समय पूर्व आईजी डीके पांडेय के विरुद्ध करीब तीन वर्षों तक फर्जी तरीके से आवास भत्ता उठाने का मामला प्रमाण सहित प्रकाश में आया था लेकिन उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई. उलटे उन्हें प्रोन्नत कर दिया गया. वर्ष 2005 में तत्कालीन डीआइजी परवेज़ हयात के विरुद्ध सुषमा बड़ाइक नामक महिला ने बलात्कार का आरोप लगाया. उनके विरुद्ध विभागीय जांच भी गठित की गयी कोर्ट में भी मामला चला लेकिन उन्हें न तो निलंबित किया गया न कोई कार्रवाई की गयी. उसी युवती के यौन शोषण से सम्बंधित एक सीडी के प्रसारण के मात्र दो घंटे के बाद रविवार की बंदी के बावजूद  तत्कालीन जोनल आइजी पीएस नटराजन के निलंबन की अधिसूचना जारी कर दी गयी. 




उनसे कोई स्पष्टीकरण तक मांगने की ज़रुरत नहीं महसूस की गयी. उनपर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाया गया. निलंबन की अधिसूचना जारी करने की तिथि तक न तो उनके विरुद्ध कोई प्राथमिकी दर्ज थी और न ही कोई विभागीय जांच ही लंबित थी. इसके बाद भी उन्हें करीब छः वर्षों तक निलंबित रखा गया. उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए कैट ने 9 फ़रवरी 2011 को उनके निलंबन को अवैध करार दिया और निलंबन की अधिसूचना को तत्काल खारिज कर उसी तिथि से सेवा बहाल करने का आदेश दिया. गृह सचिव ने कैट के आदेश को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट में अपील की. हाईकोर्ट ने कैट के आदेश को रद्द करने से इनकार करते हुए अन्य बिन्दुओं पर सुनवाई के लिए उनकी याचिका स्वीकार कर ली.इस बीच श्री नटराजन ने अवमानना याचिका दर्ज कर दी.  इसके बाद भी गृह सचिव ने कैट के आदेश का पालन करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली. वे मामले को लम्बे समय तक टालने के प्रयास में लग गए. कैट ने उन्हें कारण बताओ नोटिस का जवाब देने के लिए एक माह से भी ज्यादा समय दिया. 19  मई को गृह सचिव ने अधिवक्ता के माध्यम से अपना जवाब दिया लेकिन कैट न्यायधीश ने उसे खारिज कर उन्हें अगले दिन सशरीर हाज़िर होने का आदेश दिया. अगले दिन गृह सचिव ने पुनः अपने अधिवक्ता के माध्यम से अपना पक्ष रखने की कोशिश की लेकिन जब न्यायधीशों ने उनके विरुद्ध वारंट जारी करने की बात कही तो अधिवक्ता ने उन्हें मोबाइल से खबर कर तुरंत  कोर्ट में हाज़िर कराया.कैट के इसी बेंच ने एक दिन पहले आइजी निर्मला अमिताभ चौधरी को  कारावास की सजा सुनाई थी इसलिए गृह सचिव की हवा ख़राब हो गयी. कोर्ट की फटकार के बाद उन्होंने अंडरटेकिंग लेकर 15 दिनों के अंदर श्री नटराजन का निलंबन रद्द कर सेवा बहाल करने की बात कही लेकिन कोर्ट के रुख को देखते हुए २० मई को ही 2005 के निलंबन आदेश को खारिज करने सम्बन्धी अधिसूचना जारी कर दी. शनिवार 21 मई को श्री नटराजन ने झारखंड पुलिस मुख्यालय में अपना योगदान दे भी दिया. राज्य सरकार न्यायपालिका के प्रति अपने सम्मान की भावना का अक्सर प्रदर्शन करती है लेकिन कोर्ट के आदेश की उसे कितनी परवाह है इसे इन उदाहरणों के जरिये समझा जा सकता है. 
                        आईपीएस अधिकारियों के साथ इस दोहरे व्यवहार का एकमात्र कारण है लॉबी. श्री नटराजन पुलिस मुख्यालय की ताक़तवर लॉबी के नहीं थे इसलिए उन्हें छः वर्षों तक गैरकानूनी निलंबन का दंश झेलना पड़ा. बाकि लोगों की लॉबी मज़बूत थी तो उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई. व्यक्तिगत राग और द्वेष के आधार पर काम करने वाले इन अधिकारियों के जिम्मे राज्य की पूरी सुरक्षा व्यवस्था है. शायद यही कारण है की इस राज्य का हर नागरिक स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है. 
---देवेंद्र गौतम  

बुधवार, 18 मई 2011

इसे कहते हैं प्रबंधकीय तानाशाही

झारखंड  के औद्योगिक प्रतिष्ठान राज्य सरकार के अतिक्रमण हटाओ अभियान की आड़ में प्रबंधकीय तानाशाही स्थापित करने में लगी हैं. इसका एक दिलचस्प उदाहरण सामने आया है. नियमतः ऐसे सेवानिवृत कर्मी जिनके सेवा लाभ का पूरा भुगतान नहीं हो पाया है उन्हें भुगतान मिलने तक सेवाकाल में आवंटित क्वार्टर में रहने का अधिकार है. इसके एवज में उनकी देय राशि से क्वार्टर का निर्धारित किराया काट लेने का प्रावधान है. हाई कोर्ट ने भी ऐसा ही आदेश दिया है जिसके मुताबिक जिन सेवानिवृत कर्मियों की बकाया राशि का मामला कोर्ट में लंबित है वे राशि भुगतान तक अपने आवास में रह सकते हैं. लेकिन रांची के एचइसी प्रबंधन ने ऐसे कर्मियों के क्वार्टरों को भी अवैध कब्जे की सूची में डाल दिया है और उन्हें जिला प्रशासन की मदद से जबरन खाली कराने की साजिश रच रही है. इसमें नियमों की पूरी तरह अनदेखी की जा रही है. 
सादे कागज पर नोटिस 
           
 एचइसी के एक सेवानिवृत कर्मी हैं सुरेन्द्र सिंह. वे क्वार्टर नंबर बी-98 (टी) में रहते हैं. उनके पीएफ, ग्रेच्युटी आदि का भुगतान नहीं हो सका है. उनका मामला कोर्ट में है. उनका क्वार्टर भी अवैध कब्जे की सूची में डाल दिया गया. उन्होंने कोर्ट के आदेश की प्रति संलग्न करते हुए 15 अप्रैल को ही रांची जिले के उपायुक्त,  को एक आवेदन देकर वस्तुस्थिति स्पष्ट की. इसकी प्रति निबंधक, माननीय उच्च न्यायालय,  एचइसी और आवासीय दंडाधिकारी, रांची को दी. लेकिन हाल में प्रबंधन की और से एक सादे कागज पर बिना किसी मुहर के एक नोटिस उनकी अनुपस्थिति में उनके क्वार्टर पर चिपका कर दो दिन के अंदर अवैध कब्ज़ा हटा देने का फरमान जरी कर दिया गया. सुरेन्द्र सिंह जैसा ही व्यवहार अन्य सेवानिवृत कर्मियों के साथ किया जा रहा है. उन्हें बकाया राशि का भुगतान किये बिना रांची से भगाने की साजिश रची जा रही है. जाहिर है कि घर चले जाने के बाद बार-बार भुगतान के लिए उनका रांची आना संभव नहीं होगा. प्रबंधन सेवा निवृत कर्मियों को लम्बे समय तक भुगतान से वंचित रख पायेगी. राज्य सरकार अभी अतिक्रमण हटाओ अभियान के नशे में गलत और सही के बीच फर्क करने की मनः स्थिति में नहीं है. जाहिर है कि प्रबंधन की नीयत साफ़ नहीं है. 
                    एचइसी के 284 क्वार्टर अवैध कब्जे की चपेट में हैं. इनमें 50 फीसदी क्वार्टरों पर पुलिस अधिकारियों और नेताओं का कब्ज़ा है. जिस भी पुलिस अधिकारी को क्वार्टर मिला उसने तबादला होने के बाद भी कब्ज़ा बरक़रार रखा. जो नए पदस्थापित हुए उन्हें दूसरे क्वार्टर दिए गए. इस तरह अधिकारी आते गए कब्ज़ा बढ़ता गया. कुछ क्वार्टरों पर विभिन्न दलों के नेताओं का कब्ज़ा है. .खुद केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय पर दो एक्सीक्युटिव बंगलों पर कब्जे का आरोप है. कुछ क्वार्टरों पर अपराधियों ने भी कब्ज़ा जमा रखा है. एचइसी प्रबंधन के लिए उन्हें खाली करना टेढ़ी खीर है. 25 फीसदी क्वार्टरों को एचइसी के स्टेट डिपार्टमेंट के अधिकारी ही हेराफेरी कर भाड़े पर चला रहे हैं. शेष 25 प्रतिशत क्वार्टरों में या तो बकाया राशि के भुगतान का इंतजार करते सेवानिवृत कर्मी रह रहे हैं या फिर मृत  कर्मियों के आश्रित जिन्हें अनुकम्पा के आधार पर नियोजन दिया गया लेकिन दूसरा क्वार्टर आवंटित नहीं किया गया. नतीजतन वे पिता के ज़माने में आवंटित क्वार्टर में ही रहकर अपनी सेवा दे रहे हैं. प्रबंधन ऐसे क्वार्टरों को भी अवैध कब्जे की सूची में जोड़ता है. पिछले वर्ष लव भाटिया नामक एक व्यवसायी का अपहरण कर एचइसी का ही एक क्वार्टर में रखा गया था. पुलिस ने उसे वहीँ से एक मुठभेड़ के बाद बरामद किया था. मुठभेड़ में चार अपराधी मारे गए थे. उस  वक़्त भी क्वार्टरों से अवैध कब्ज़ा हटाने की बात चली थी. लेकिन बात आयी -गयी हो गयी थी. अपहरण कांड का मुख्य साजिशकर्ता राजू पांडे कई  क्वार्टरों पर पूर्ववत काबिज रहा था. बाद में ओरमांझी में एक ज़मीन विवाद में उसकी हत्या हो गयी थी. इस तरह के लोगों के कब्जे से प्रबंधन को परेशानी  नहीं है.परेशानी  अपने पूर्व कर्मियों और उनके  आश्रितों से है. हैरत की बात है कि राज्य सरकार और प्रशासन भी प्रबंधन की इस साजिश में जाने-अनजाने भागीदार बन जा रहे हैं. सबसे हैरत ट्रेड यूनियन नेताओं पर है जो सबकुछ जानते हुए भी मौन धारण किये हुए हैं. ले-देकर कुछ आवाज उठा भी रहे हैं तो केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ही उठा रहे हैं. 

-----देवेंद्र गौतम   

सोमवार, 9 मई 2011

पुरानी कहानी की नयी पटकथा

शहरी इलाके की प्राइम लोकेशन पर बसी स्लम बस्ती. उसपर भू-माफिया की गिद्धदृष्टि. उसे खाली कराने  के लिए इलाके के सबसे बड़े माफिया डान के साथ करोड़ों का सौदा. स्लम बस्ती के गरीबों को उजड़ने से बचाने के लिए एक हीरो और हिरोइन का पदार्पण. फिर टकराव और अंत में गरीबों की जीत. यह वालीवुड की कई फिल्मों का कथानक बन चुका है. झारखंड में अभी इसी कथानक की एक नयी पटकथा तैयार की जा रही है. इसमें खुद राज्य सरकार प्रमुख शहरों की प्राइम लोकशन के भूखंड खाली कराने का काम बड़ी क्रूरता के साथ अंजाम देती है. इसके लिए आड़ बनाती है कोर्ट के एक आदेश को.
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झारखंड हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए चार मुख्य औद्योगिक शहरों की भीड़भाड़ वाली सड़कों के दोनों किनारों से अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया था ताकि ट्रैफिक समस्या से निजात पाया जा सके. इस समस्या के लिए प्रशासन को फटकार भी लगाई. यह काम आसानी से हो गया. अधिकांश लोगों ने खुद ही अतिक्रमित ढांचा तुडवा दिया. हालांकि वीआइपी लोगों पर हाथ डालने से परहेज़ किया गया. इस बीच एक अप्रैल को राज्य सरकार के अधिव्यक्ता ने हाईकोर्ट में एक हलफनामा दायर कर जानकारी दी कि राज्य सरकार पूरे राज्य में अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाने का निर्णय ले चुकी है और सभी जिलों के उपायुक्तों को इस संबंध में निर्देश दिया जा चुका है. कोर्ट को इसमें आपत्ति का कोई कारण नहीं था. लिहाज़ा मुख्य न्यायधीश ने इसपर सहमति जता दी. 
                   इसी सहमति को राज्य सरकार ने अपना हथियार बना लिया और वैध ज़मीनों की वैधानिकता को भी संदिग्ध बनाकर लोगों को निर्ममता के साथ उजाड़ना शुरू कर दिया. रांची, बोकारो और धनबाद में इस क्रम में गोलीकांड हुए करीब आधे दर्ज़न लोग मारे गए. जनता और पुलिस दोनों और से काफी लोग घायल हुए. हंगामा हुआ तो मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने बड़ी मासूमियत के साथ कहा कि यह अभियान कोर्ट के आदेश पर चलाया जा रहा है. सरकार के हाथ बंधे हुए हैं. इन घटनाओं को लेकर लोगों के अंदर न्यायपालिका के प्रति श्रद्धा के भाव में भी कमी आने लगी. इस बीच केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने कोर्ट के आदेश और सरकार के हलफनामा की प्रति निकलवाकर सरकार के इस झूठ का खुलासा किया. वे शुरू से ही पुनर्वास के बिना अभियान चलाने का विरोध कर रहे थे. रांची के इस्लामनगर में तो गोलीकांड के दौरान उनकी हत्या तक की कोशिश की गयी जिसमें वे बाल-बाल बचे. विरोध के स्वर तमाम विपक्षी दलों की और से ही नहीं स्वयं सत्तारूढ़ दल की और से भी उठे. भाजपा के कई नेता पार्टी छोड़कर चले गए. कुछ दल विरोधी गतिविधि के आरोप में निष्कासित भी कर दिए गए. सत्तारूढ़ गठबंधन के मुख्य सहयोगी झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन भी बिदक उठे. समर्थन वापसी और सरकार गिराने तक की कवायद शुरू हो गयी. इससे पहले कि मामला तूल पकड़ता अचानक  भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष  नितिन गडकरी तारणहार बनकर रांची पहुंचे. पता नहीं कौन सी जादू की छड़ी घुमाई कि शिबू सोरेन शांत हो गए और सरकार गिराने के प्रयासों को ब्रेक लग गया.  गडकरी साहब का मुंडा सरकार के प्रति शुरू से ही विशेष स्नेह रहा है. राष्ट्रपति शासन ख़त्म करने और मुंडा सरकार का गठन कराने में उनकी अहम् भूमिका थी. भाजपा के दिग्गज नेताओं की असहमति के बावजूद उन्होंने झारखंड  मुक्ति मोएचा का समर्थन लिया था. उन दिनों मीडिया में कई रिपोर्ट ऐसी आयी थी कि गडकरी साहब के नागपुर के तीन पूंजीपतियों ने मुंडा सरकार के लिए समर्थन जुटाने में करोड़ों रुपये खर्च किये थे. बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाले  झारखंड विकास मोर्चा के विधायक समरेश सिंह ने सार्वजानिक रूप से यह आरोप लगाया है कि उन्हीं पूंजीपतियों को प्राइम लोकेशन के भूखंड उपलब्ध कराने के लिए अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया जा रहा है. इस पूरे खेल का संचालन वहीँ से हो रहा है. 
                         विधानसभा के अध्यक्ष सीपी सिंह इस अभियान को पूरी तरह जनविरोधी मान रहे हैं. संवैधानिक पद की विवशता के बावजूद वे इस अभियान के विरोध में पूर्व केन्द्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और इसके बाद राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के अनशन स्थल पर गए. और विधानसभा की याचिका समिति में प्रशासन की खबर ली. एक मामला कचहरी मार्केट का था जहां 152 दुकानदारों के नाम बाज़ार समिति ने 40 वर्ष पूर्व पट्टा काटा था और बंदोबस्ती की थी. हर साल बंदोबस्ती का नवीकरण होता था.इस वर्ष यह अवधि 31 मार्च तक थी. लेकिन राज्य सरकार के इशारे पर नवीकरण करने की जगह 72 घंटे की  नोटिस पर बुलडोज़र चलाकर दुकानों को उजाड़ दिया गया.याचिका समिति ने ममले की सुनवाई के दौरान इस संदर्भ में कोर्ट के विशेष आदेश की प्रति मांगी तो प्रशासन की बोलती बंद हो गयी.समिति को किसी सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं मिल सका. इसी तरह एचईसी के नगर प्रशासक से पूछा गया कि कोर्ट ने सीबीआई जाँच का आदेश दिया है तो उसकी रिपोर्ट आने के पहले कर्मचारियों के परिजनों को क्यों उजाडा जा रहा है. तो उनका कहना था कि राज्य सरकार ने निर्धारित पैकेज देने के लिए 320 एकड़ ज़मीन उपलब्ध कराने की शर्त रखी है. इसलिए वे विवश थे. बहरहाल याचिका समिति दोनों मामलों में प्रस्तुत किये गए जवाब के प्प्रती असंतोष व्यक्त किया और अगली सुनवाई  के दिन ठोस जवाब के साथ उपस्थित होने का निर्देश दिया.
                  यह पुरानी कहानी की नयी पटकथा है. इसका द एंड कहां पर होगा यह पता नहीं. लेकिन इतना तय है कि वालीवुड की फिल्मों की तरह यह सुखांत नहीं होगा. खुद इस सरकार के लिए भी. 

----देवेंद्र गौतम        

रविवार, 1 मई 2011

ये विधायक हैं या मरखंडे बैल

धनबाद के पाटलीपुत्र मेडिकल हॉस्पीटल के अधीक्षक डॉक्टर अरुण कुमार के साथ शनिवार 30 अप्रैल को कुछ विधायकों ने धक्का-मुक्की कर दी. वे गोलीकांड में घायलों को देखने आये थे. अधीक्षक की गलती  थी कि उन्हें   पहचान नहीं पाए. धक्का-मुक्की के बाद पहचाना. यह कोई पहली घटना नहीं है. झारखंड के विधायक सरकारी अधिकारियों को पीटने का एक रिकार्ड बनाते जा रहे हैं. इस वर्ष आधे दर्जन से अधिक अधिकारियों को विधायकों के कोप का भाजन बनाया जा चुका है. कुछ ही रोज पहले गोड्डा विधायक संजय यादव और उनकी जिला परिषद् अध्यक्ष पत्नी कल्पना देवी ने वहां के उप विकास आयुक्त दिलीप कुमार झा की सरेआम पिटायी कर दी थी. सिमरिया विधायक जयप्रकाश भोक्ता ने राशन कार्ड के लिए गिद्धौर के बीडीओ हीरा कुमार की पिटाई की. बडकागांव के विधायक योगेन्द्र साव ने केरेडारी के बीडीओ कृष्णबल्लभ सिंह को पीट डाला. 27 फ़रवरी को बरकत्ता  के विधायक अमित कुमार ने विद्युत् विभाग के अभियंता चंद्रदेव महतो की धुनाई कर दी. राजमहल के विधायक अरुण मंडल ने विद्युत् विभाग के कनीय अभियंता रघुवंश प्रसाद को पीट डाला.
                   विधायकों की दबंगई यहीं तक सीमित नहीं. आमजन भी उनके कोप का शिकार होते हैं. वे अपने इलाके में न्यायपालिका और कार्यपालिका का काम भी करने लगते हैं. डुमरी विधायक जगन्नाथ महतो ने 9 जनवरी को चन्द्रपुरा के आमाटोली में जन अदालत लगाकर महेंद्र महतो और मिथुन अंसारी नामक दो मनचले युवकों को सरेआम लाठी से पीता था. खिजरी के विधायक सावना लकड़ा ने तो विद्युत् ग्रिड के निर्माण में लगे मजदूरों को ही बंधक बना लिया था.
                     ऐसा नहीं कि झारखंड में शालीन और सुसंस्कृत विधायक नहीं हैं. वे हैं लेकिन दबंगों  और उदंडों की अच्छी खासी संख्या  है. इनमें ज्यादातर या तो पहली बार चुनकर आये हैं या फिर पहले से ही आपराधिक पृष्ठभूमि के रहे हैं. विधायक बनने के बाद वे अपने को जनता का सेवक नहीं बल्कि अपने इलाके का राजा समझने लगते हैं. खुद को कानून-व्यवस्था से ऊपर की चीज मान लेते हैं. हमेशा अहंकार में डूबे रहते हैं. उनके हाव-भाव सहज नहीं रह पाते. यही कारण है कि जरा-जरा सी बात पर मरखंडे बैल सा व्यवहार करने लगते हैं. अधिकारी वर्ग के लोग भी अपनी प्रताड़ना के लिए काफी हद तक स्वयं जिम्मेवार होते हैं. वे सत्ताधारी दल के विधायकों को उचित सम्मान देते हैं लेकिन विपक्ष के विधायकों की ज्यादा परवाह नहीं करते. सत्तापक्ष के कुछ लोगों से संपर्क रहने पर तो वे विपक्षी विधायकों की और भी उपेक्षा करते हैं. इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है. हालांकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों के शालीन और सभ्य होने की उम्मीद की जाती है. यदि किसी ग्रंथि से ग्रसित न हों तो विधायकों को इतने संवैधानिक अधिकार होते हैं कि किसी अधिकारी को सबक सिखा सकें लेकिन वे कानून को तुरंत हाथ में ले बैठते हैं जिसके कारण अधिकारी की गलती गौण हो जाती है और उन्हें अपराधी मान लिया जाता है.
                          यह पूरी तरह मनोवैज्ञानिक मामला है. अपरिपक्वता के कारण ही व्यवहार सामान्य नहीं रह पाता. परिपक्व नेता अच्छे-अच्छों को सबक सिखा देते हैं और किसी को हवा भी नहीं लगने देते. बहरहाल  इस तरह की घटनाओं से राज्य में विकास और रचनात्मकता का माहौल नहीं बन पाता. बिहार में लालू-राबड़ी के ज़माने में विधायिका में उदंडता का माहौल अपने चरम पर था. उस वक़्त विकास का पहिया भी पूरी तरह थमा हुआ था. अब इसपर अंकुश लगा है तो तरक्की के नए आयाम खुले हैं. झारखंड में तो राजनैतिक अस्थिरता के कारण शुरू से अराजकता का माहौल बना रहा है. इसलिए राज्य गठन के एक दशक के बाद भी हालत ज्यों की त्यों है. जबतक धीर-गंभीर और समझदार नेताओं के हाथ में राज्य की सत्ता की बागडोर  नहीं आएगी यही हालत बनी रहेगी.  

------देवेंद्र गौतम 

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

बर्बरता की सीमा पार करती पुलिस

धनबाद गोलीकांड 


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झारखंड के चार प्रमुख नगरों में शुमार और देश का सबसे बड़ा कोयलांचल धनबाद कल शाम से कर्फ्यू के हवाले है. वहां आमजन और प्रशासन के बीच जंग का माहौल बना हुआ है. पुलिसिया आतंक अपने चरम पर है. ब्रिटिश सरकार भी स्वतंत्रता  सेनानियों के साथ संभवतः इतनी बर्बरता के साथ पेश नहीं आई होगी जितनी बर्बरता झारखंड पुलिस ने बुधवार को धनबाद में दिखायी. लोगों को घरों से खींच-खींचकर मारा. छह लोगों को मौत के घाट उतार दिया. दर्जनों लोग घायल हो गए. अतिक्रमण हटाने के नाम पर आम लोगों पर जितनी गोलियां बरसायी गयीं उतनी नक्सली  मुठभेड़ों में भी शायद ही बरसायी गयी हो. निश्चित रूप से जिले के एसपी को पथराव में घायल होता देख पुलिस अपना आप खो बैठी और उग्र भीड़ पर बेतहासा गोली बरसाने लगी. अतिक्रमण हटाओ अभियान में इससे पूर्व रांची के नागा बाबा खटाल और इस्लामनगर में भी गोलीकांड हो चुका है. यह अभियान हाई कोर्ट के आदेश पर चलाया जा रहा है. पुलिस-प्रशासन आज्ञाकारी बालक की तरह पूरी बर्बरता के साथ आदेश के पालन में जुटे हैं. राज्य की मुंडा सरकार बेचारगी का प्रदर्शन कर रही है. लेकिन हकीकतन यह पूरा कार्यक्रम क्षेत्रीयतावाद के आधार पर एक खास इलाके के गरीबों के खिलाफ चलाया जा रहा है. केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय ने ऐसा खुला आरोप लगाया है. कोर्ट के कितने ही आदेश ठंढे बस्ते में पड़े हुए हैं.लेकिन इसे जान बूझकर बदले की भावना के तहत चलाया जा रहा है. 
                 धनबाद में कोयला खदान इलाकों की आवासीय कॉलोनियों में बीसीसीएल के क्वार्टरों को खाली कराने के क्रम में गोलीबारी की गयी. एक सामान्य आदमी भी जानता है कि कोयलांचल में ट्रेड यूनियन के लोगों की चलती है. यदि प्रशासन के लोग अभियान चलने के पहले यूनियन नेताओं से बात कर लेते तो शायद अतिक्रमण हटाने का शांतिपूर्ण रास्ता निकल आता. लेकिन यहां तो सरकारी आतंक का सिक्का जमाना था. इसलिए दंगानिरोधी ब्रज वाहन समेत अर्द्ध सैनिक बलों की भारी फौज लेकर पहुंची कुछ  क्वार्टरों को लाठी गोली की धौंस देकर खाली कराया भी. स्थानीय विधायक और यूनियन नेताओं ने विरोध किया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद ही भीड़ उग्र हुयी. यदि प्रशासन ने इसे वर्दी का रोब ज़माने अवसर समझने की जगह बातचीत का रास्ता अपनाया होता तो यह काम शांति से निपट सकता था. वर्दी का आतंक तो रांची में हुए गोलीकांडों से कायम हो ही चुका था. बहरहाल झारखंड सरकार चाहे कितना भी मासूम और असहाय होने का ढोंग रचे इस बर्बरता का खामियाजा तो उसे भुगतना ही होगा. 

-----देवेंद्र गौतम    

स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...