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शनिवार, 27 सितंबर 2014

मानव अंगों की तस्करी से तो नहीं जुड़ा था निठारी कांड

नोएडा। निठारी कांड के मुख्य अभियुक्त सुरेंद्र कोली की फांसी की सजा पर 29 अक्टूबर तक रोक लगी दी गई है। 8 सितंबर की सुबह उसे फांसी दी जानी थी। इसकी पूरी तैयारी हो चुकी थी। इसके लिए इलाहाबाद की नैनी जेल से रस्सा आ चुका था। मेरठ के पवन जल्लाद ने फंदा तैयार कर लिया था। लेकिन एक दिन पूर्व उसकी अपील पर कोर्ट ने एक सप्ताह की छूट दे दी। फिर 29 अञ्चटूबर तक की मोहलत दे दी गई।
इस बीच कोली की मां मेरठ जेल में उससे मिली। उसने सीधे तौर पर कोली के मालिक मोहिंदर सिंह पंधेर को इस पूरे मामले के लिए दोषी ठहराते हुए कोली को फंसाने का आरेप लगाया। पंधेर को कुछ मामलों में जमानत मिल चुकी है। कुछ में मिलनी बाकी है। वह इस मामले से बच निकला है। सारी गाज कोली पर गिरी है। हाल में मिली कुछ जानकारियों से यह मामला कुछ और ही नजर आता है। इसपर नए सिरे से अनुसंधान की जरूरत है।
ग्रामीणों का कहना है कि उसकी कोठी न.-5 पर एंबुलेस का आना जाना लगा रहता था। इससे आशंका हो रही है कि कहीं यह मामला मानव अंगों की तस्करी का तो नहीं। पंधेर के फ्रिज में बच्चों की हत्या के बाद उनका मांस रखे जाने की बात अनुसंधान में सामने आई थी। कहा गया था कि कोली आदमखोर था और उनका मांस पकाकर खाता था। सवाल है कि कोई नौकर मनुष्य का मांस फ्रिज में रखेगा और मालिक को पता नहीं चलेगा। अनुसंधान का विषय यह है कि दो लोगों के निवास वाली कोठी में एंबुलेस ञ्चयों आता जाता था। कहीं ऐसा तो नहीं कि फ्रिज में किडनी, आंख जैसे अंग तो नहीं रखे जाते थे और बच्चों की सिरियल हत्या इसी के लिए तो नहीं की जा रही थी?
14 वर्षीय रीपा हलदर की हत्या और निठारी कंकाल कांड के चार अन्य मामलों में कोली को फांसी की सजा सुनायी गई थी। सुरेंद्र कोली की दया याचिका को राष्ट्रपति ने ठुकरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी। 12 सितंबर तक उसे फांसी पर लटका दिए जाने का आदेश था लेकिन सुप्रीम कोर्ट से एक मौके दिए जाने पर 7 सितंबर की रात उसने अपील की। इसपर कोर्ट ने फांसी पर एक हक्रते के लिए रोक लगा दी। अभी फांसी की कोई अगली तारीख और समय निश्चित नहीं किया गया है। सुरेंद्र कोली मोहिंदर पंधेर का नौकर था।
इस दिल दहला देने वाले मामले का खुलासा 29 दिसंबर 2006 को सेक्टर-31 स्थित निठारी गांव में 19 नरकंकालों की बरामदगी से हुआ था। घटना के खुलासे से पूरे देशभर में कोहराम मच गया था। निठारी कांड के बारे में जानने के बाद पूरा देश दंग रह गया था। 29 दिसंबर 2006 की उस सुबह गांव के लोगों के चेहरे पर भय था और आंखोंं में गुस्सा, जो आज तक बरकरार है। जिस दिन बच्चों की लगातार नृशंस हत्याओं और उनका मांस भक्षण किए जाने की घटना का खुलासा हुआ, देश के सुरक्षा तंत्र और कानून व्यवस्था पर लोगों का भरोसा डगमगा गया। इस कांड के मुक्चय आरोपी सुरेंद्र कोली के मृत्युदंड पर उच्चतम न्यायालय ने एक हक्रते तक रोक तो लगा दी लेकिन फांसी की अगली तारीख को स्पष्ट नहीं किया है। वहीं इस कांड के दूसरे मुक्चय आरोपी मोहिंदर पंधेर को जमानत मिल गई है। लेकिन अभी वह जेल से रिहा नहीं हो पाया है। ञ्चयोंकि कई अन्य मामलों में उसे जमानत नहीं मिली निठारी में कुल 19 मासूमों की बलि दी गई थी। नोएडा पुलिस गहन जांच-पड़ताल के बाद हत्यारे सुरेंद्र कोली तक पहुंची थी। पूछताछ के दौरान उसने बताया था कि निठारी के कोठी नंबर डी-5 के पीछे की तरफ  उसने एक युवती के शव को फेंक दिया था। जब तलाशी ली गई तो एक नहीं, बल्कि दर्जनों लड़कियों के कपड़े बरामद हुए। उस जगह की खुदाई की गई तो नर कंकाल मिलने लगे। निठारी कांड से नोएडा व पूरा देश सकते में आ गया था। इस कांड के खुलासे के बाद बच्चों के लापता होने की घटनाओं को गंभीरता से लिया जाने लगा।

ऐसे खुला निठारी कांड का राज
सनसनीखेज निठारी कांड का सुराग एक मोबाइल फोन से मिला था। दरअसल, वह मोबाइल फोन निठारी आने के बाद गायब हुई 23 वर्षीय सुमन (बदला हुआ नाम) का था। पता चला कि उस मोबाइल फोन में बरौला निवासी राजपाल नामक व्यक्ति अपना सिमकार्ड इस्तेमाल कर रहा है। पुलिस की एक टीम ने उसका पता लगाकर दबोच लिया। पूछताछ करने पर पता चला कि राजपाल ने वह मोबाइल फोन संजीव से खरीदा था। संजीव से भी पूछताछ करने पर पता चला कि उसने रिक्शा चलाने वाले सतलरे से खरीदा था। खोजबीन के बाद पुलिस सतलरे के पास पहुंची, लेकिन जवाब पाकर पुलिस की जांच थम गई। उसने बताया कि एक दिन उसने सेक्टर-36 से निठारी मेन रोड पर ही एक व्यक्ति को उतारा था। उसी ने अपना मोबाइल फोन छोड़ दिया था। इस तरह पुलिस को पता चल गया कि युवती को गायब करने के पीछे निठारी के ही किसी शक्चस का हाथ है। वह कौन है, इस पर संशय बना रहा। मोबाइल फोन में लगे सिमकार्ड के डिटेल की जांच करने पर पता चला कि उसमें सुरेंद्र कोली के नाम पर खरीदा गया सिम कार्ड इस्तेमाल किया गया है, लेकिन पता के नाम पर सिर्फ  निठारी गांव लिखा था। पुलिस टीम ने उस नंबर की कॉल डिटेल निकालकर जांच की।

कोली ने कबूली थी 17 बच्चों की हत्या की बात
कोमल की मौत का सच उगलवाने के लिए पुलिस की गहन पूछताछ के दौरान नौकर सुरेंद्र कोली ने केवल एक हत्या की बात स्वीकार की थी। उसने बताया था कि उसकी हत्या करने के बाद कोठी के पीछे ठिकाने लगा दिया था। छानबीन के दौरान पुलिस को कोठी के पीछे छोटे बच्चों के कपड़े और कंकाल मिले थे। इससे स्पष्ट हो गया कि निठारी से लगातार बच्चों के गायब होने के पीछे इसी कोठी में रहने वालों का हाथ था। पुलिस ने दोबारा पूछताछ की तो बच्चों के गायब होने का राज खुल गया। धीरे-धीरे नौकर ने 17 बच्चों की हत्या की बात कबूल की थी। लेकिन कोठी के मालिक मोहिंदर सिंह पंधेर पर उतने संगीन आरोपों का साक्ष्य नहीं मिल पाया।


हिन्दी-उर्दू साहित्य की त्रासदी

देवेंद्र गौतम
इक्कीसवीं सदी आते-आते बाजारवाद और उपभोक्तावाद का साहित्य और पत्रकारिता पर असर दिखने लगा । इस क्रम में जन-सरोकार की जगह बिकाउ रचनाओं के सृजन पर जोर दिया जाने लगा। बाजारवाद की इस कसौटी पर अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं ने तो अपनी जगह बना ली लेकिन हिन्दी और उर्दू साहित्य सामंजस्य नहीं बिठा पाया। इसका एक बड़ा कारण प्रकाशकों में उपभोक्ता बाजार तक जाने का जोखिम उठाने के साहस का अभाव रहा है। साहित्य के प्रकाशक सरकारी खरीद-फरोख्त से आगे बढऩे में हिचकते हैं। पुस्तक मेलों के जरिए  उपभोक्ताओं तक पहुंच बनाने की कोशिशें जरूर हुईं लेकिन कहीं से भी आक्रामक मार्केटिंग की शुरुआत नहीं की जा सकी। प्रचार के इस युग में भी प्रकाशक हिन्दी-उर्दू की की पुस्तकों का व्यावसायिक विज्ञापन नहीं देते। इसके लिए उनके पास कोई बजट नहीं होता। इसके कारण पाठकों को नए प्रकाशन की जानकारी नहीं मिल पाती। इसलिए इन भाषाओं की कोई पुस्तक, चाहे वह कितनी भी रोचक और महत्वपूर्ण हो, बेस्टसेलर नहीं बन पाती। प्रकाशकों की सुरक्षात्मक मार्केटिंग के कारण  उपभोक्ताओं तक सही साहित्य पहुंच नहीं पाता। इसकी जगह लुगदी साहित्य आम पाठकों तक पहुंच बनाने में अपेक्षाकृत ज्यादा सफल रहा है। इस दौर में कवि सम्मेलनों का स्तर भी गिरा है। इनके आयोजक अब हास्य-व्यंग्य या फूहड़ रचनाओं के जरिए ताली बटोरने वाले कवियों को प्राथमिकता देते हैं। जन सरोकार की कविताएं रचने वाले गंभीर कवियों को जनता के सामने नहीं लाया जाता।
जनवादी लेखक संघ से जुड़े अनवर शमीम कहते हैं, ‘ उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन करोड़ों में होते हैं लेकिन साहित्य के प्रचार-प्रसार पर एक छदाम भी खर्च नहीं किया जाता। बाजार के साथ नहीं चलने पर पिछड़ जाना तो स्वाभाविक ही है।’
शिक्षा की दुनिया में निजी स्कूलों के बढ़ते वर्चस्व का असर भी पड़ा है। बुनियादी स्तर पर पाठ्य पुस्तकों का चयन स्कूल प्रबंधन स्वयं करते हैं। वे अपने हिसाब से इन्हें तैयार करवाते हैं। इस क्रम में हिन्दी की पुस्तकों में अपने परिचितों की रचनाएं डलवाते हैं। इसके कारण बच्चों को साहित्य का संस्कार नहीं दिया जा पाता। सामाजिक बदलाव के साहित्य से इनका परिचय नहीं हो पाता। पत्रकारिता में भी साहित्य का पन्ना गायब हो चुका है। अधिकांश अखबार अब साहित्यिक रचनाओं और गतिविधियों को प्रमुखता नहीं देते। 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

किस दिशा में होगी हंस की अगली उड़ान

देवेंद्र गौतम
राजेंद्र यादव के देहांत के बाद हंस का प्रकाशन तो नियमित हो रहा है लेकिन इसमें साहित्य का वह रस नहीं रहा जो यादव जी के जमाने में था। इसमें बदलाव आ रहा है, जिसे कुछ हद तक सकारात्मक ही कहा जा सकता है।
साहित्यिक पत्रिका हंस की स्थापना भले 1930 में प्रेमचंद ने की थी लेकिन 1986 के बाद यह राजेंद्र यादव का ब्रांड बन गया। वामपंथी धारा के तहत स्त्री विमर्श और दलित विमर्श से संबंधित कहानियां और बहसें इसकी पहचान बन गईं थी। अब उनके देहांत के बाद उनके उत्तराधिकारी संपादक संजय सहाय और प्रबंध संपादक रचना यादव के नेतृत्व में जिस पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है वह हंस तो है लेकिन न राजेंद्र यादव की छाप होते हुए भी यह राजेंद्र यादव का हंस नहीं है। भले ही अभी इसके प्रारंभिक संकेत ही दिख रहे हैं लेकिन इसकी एक अलग दिशा में यात्रा शुरू हो चुकी है जिसे एक हद तक सकारात्मक ही कहा जा सकता है ।
राजेंद्र यादव के बेबाक और विवादास्पद संपादकीय लेख साहित्य प्रेमियों के मानस में एक अलग रस का प्रवाह करते थे। उनकी आलोचना भी खूब होती थी लेकिन राजेंद्र यादव की एक खासियत थी कि वे आलोचनाओं से नाराज अथवा विचलित नहीं होते थे, बल्कि उनका आनंद लेते थे। 28 अक्टूबर 2013 को उनके देहावसान के बाद वरिष्ठ कथाकार संजय सहाय संपादक बने। राजेंद्र यादव ने अपने जीवनकाल में ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। उन्हें सह संपादक की जिम्मेवारी देकर अपनी विरासत संभालने के लिए तैयार भी किया था। लेकिन यादव जी के देहांत के बाद संजय सहाय संपादकीय के नाम पर सिर्फ यादव जी के साथ बिताए दिनों के संस्मरण लिखे जा रहे हैं। इसके कारण एक संपादक के रूप में उनकी अपनी दृष्टि साहित्य जगत के सामने नहीं आ पा रही है। इस लिहाज से यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि संजय सहाय इसे वास्तव में किस दिशा में ले जाएंगे। जहां तक रचनाओं के चयन का सवाल है अभी तक छप रही अधिकांश रचनाएं यादव जी के काल में चयनित हैं। लेकिन एक अंतर जरूर आया है कि अब यौन कुंठित रचनाकारों को पहले जैसा स्पेस नहीं मिल रहा है। उनमें विविधता आई है। धनबाद के कवि और हंस के वर्षों से नियमित पाठक अनवर शमीम कहते हैं, ‘राजेंद्र जी के समय स्त्री विमर्श के नाम पर हंस में यौन कुंठितों का जमावड़ा हो गया था। अब कम से कम विविध विषयों से संबद्घ साफ-सुथरी कहानियां आ रही हैं। बहसें भी स्तरीय हो रही हैं। मुझे तो बदलाव बेहतर लग रहा है।’
आज हिंदी साहित्यकारों का एक वर्ग हंस की नई टीम को अक्षम और नाकारा बताने का प्रयास कर रहा है। बाजाप्ता एक अभियान चला रखा है। इसका कारण यह है कि यादव जी के विरासत के दावेदारों की लंबी फेहरिश्त थी। लेकिन राजेंद्र यादव ने बहुत कुछ सोच समझकर अपने उîाराधिकारियों का चयन किया था। अब  जिन लोगों की उक्वमीदों पर पानी फिरा वह किसी न किसी रूप में अपनी खीज मिटा रहे हैं।
हंस का इतिहास प्रेमचंद से जुड़ा था, वर्तमान राजेंद्र यादव से जुड़ा है मगर इसका भविष्य इसकी नई टीम के साथ निर्धारित होना है। राजेंद्र जी ने स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के रूप में साहित्य की एक नई धारा की शुरूआत की थी। इनसे जुड़ी बहसों और कहानियों, कविताओं को इसमें जगह मिलने लगी थी। लेकिन उनका स्त्री विमर्श स्त्री मुक्ति के नाम पर यौन उत्श्रृंखलता की ओर केंद्रीत हो गया था। सेक्स का खुलापन हंस का की रचनाओं का मुख्य स्वर बन गया था। बहरहाल, राजेंद्र जी के संपादकीय बेबाक और विवादास्पद होने के बावजूद सुगढ़ भाषा में लिखे होते थे जिनमें एक अलग रस हुआ करता था। जो हंस की एक अलग पहचान बनाते थे। उनके समय में पत्रिका का वैचारिक पक्ष बहुत मजबूत हुआ करता था।
निश्चित रूप से किसी संपादक की संपादकीय दृष्टि, रचना चयन के पैमाने और उसकी विचार यात्रा की क्षतिपूर्ति संभव नहीं होती। राजेंद्र यादव के उत्तराधिकारी व हंस के वर्तमान संपादक संजय सहाय हिंदी के एक प्रतिष्ठित कथाकार हैं। उनके अंदर पत्रिका निकालने की प्रतिबद्घता है लेकिन उनसे राजेंद्र यादव का क्लोन होने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
हिन्दी के चर्चित कवि मदन कश्यप कहते हैं, ‘संजय सहाय अच्छे कथाकार हैं। लेकिन संपादक बनने के बाद से अभी तक संपादकीय के रूप में वह राजेंद्र जी के प्रसंग ही लिखते आ रहे हैं। इसलिए फिलहाल हंस की भावी दशा और दिशा के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।’
फिर भी मदन कश्यप जी का मानना है, ‘पत्रिका पर असर तो पड़ा है। इसमें कमजोर कविताएं छप रही हैं कि राजेंद्र जी होते तो शायद ऐसी कविताएं नहीं छापते।  फिर भी रचना यादव के प्रबंधन कौशल और संजय सहाय की प्रतिबद्घता से यह उम्मीद जरूर बनती है कि पत्रिका का प्रकाशन नियमित रूप से जारी रहेगा और समय के अंतराल में इसकी एक नई पहचान भी बनेगी।’
हिंदी-उर्दू के गजलकार सौरभ शेखर का मानना है, ‘हंस में हिंदी गजल के नाम पर ऐसी रचनाएं छपती रही हैं जिनमें बहर का पालन नहीं होता। काफिया रदीफ तक की गल्तियां होती हैं। एक प्रतिष्टित पत्रिका के जरिए किसी विधा की कमजोर रचनाओं का प्रकाशन अफसोस जनक है। कम से कम नई टीम को इसपर ध्यान देना चाहिए।’
 हालांकि संपादक के देहांत के बाद एक लंबे समय तक पाठकों की स्मृति में उनकी छाप बनी रहती है। नई पहचान बनने में थोड़ा समय लग जाता है। युवा समीक्षक पंकज शर्मा का कहना है, ‘साहित्यिक पत्रिकाओं में प्राय: एक वर्ष के अंक तैयार रखे जाते हैं। अभी हंस में जो रचनाएं छप रही हैं उनमें से अधिकांश का चयन राजेंद्र जी का ही किया हुआ है। नई टीम की असली परख तो एक साल के बाद ही की जा सकेगी। फिर भी जितने बेहतर तरीके से हंस ने प्रेमचंद जयंती मनाई और उसके सालाना कार्यक्रम का आयोजन हुआ उससे बेहतर भविष्य की उक्वमीद बनती है।’
हालांकि हंस अगस्त अंक में प्रकाशित सर्वेश्वर प्रसाद सिंह के लेख ‘रामचरित मानस और प्रगतिशीलों के पूर्वाग्रह’ को हंस की वैचारिक यात्रा के किसी और दिशा में चल निकलने का संकेत बताया जा रहा है। मदन कश्यप कहते हैं, ‘रामचरित मानस के कुछ प्रसंगों पर दलितों और रूढि़वादियों का विरोध रहा है। प्रगतिशीलों का इससे खास वास्ता नहीं रहा है। इस बात को नजर-अंदाज कर दिया गया है। यह आलेख दक्षिणपंथी रूझान और सवर्णवादी मानसिकता को अभिव्यक्त करता है।’
संजय सहाय इसे जड़ता तोडऩे के एक प्रयास के रूप में देखते हैं उनका कहना है, ‘इस लेख को जानबूझ कर छापा गया है ताकि जड़ता टूटे। बहस छिड़े। तुलसी का मानस ने जनमानस को लंबे समय से प्रभावित किया है। साढ़े चार सौ वर्षों से बेस्ट सेलर बना हुआ है। इसके असर से इनकार नहीं किया जा सकता। बाल्मीकि के राम मानव थे जबकि तुलसी के राम अतिमानव। इसपर बहस होनी ही चाहिए।’
हालांकि संजय सहाय हंस को उसकी निर्धारित दिशा की ओर ले जाने की अपनी प्रतिबद्घता दुहराते हैं लेकिन राजेंद्र यादव की अपनी अलग व्याक्चया और सोच थी। वर्तमान वैश्विक और भारतीय परिस्थितियों को देखते हुए यदि हंस की नई टीम उदार वामपंथ अथवा वाममुखी मध्यमार्ग की धारा को अपनाती है तो इसे सकारात्मक बदलाव ही कहा जाएगा।




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devendra gautam
assistant editor
News Bench
NOIDA

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