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गुरुवार, 6 मई 2021

हम संसदीय लोकतंत्र के लिए अनुकूल नागरिक नहीं

 


-देवेंद्र गौतम

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी समस्या यह है कि संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था तो लागू है लेकिन यहां की जनता अभी तक अपने अंदर इसके लिए आवश्यक नागरिक गुणों का विकास नहीं कर सकी है। गुलाम भारत की पीढी के लोगों की आबादी कम बची है लेकिन आजाद भारत की पीढ़ियां भी प्रत्यक्ष का परोक्ष रूप से उनकी मानसिकता से स्वयं को अलग नहीं कर सकी हैं। वे आज भी व्यक्तिपूजा के भक्तिकाल में जी रही हैं। अपने लिए एक सही प्रतिनिधि का चन भी नहीं कर पा रही हैं। इसीलिए तमाम संसदीय संस्थाएं बाहुबलियों और आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों से भर गई हैं।  

हम भारतीय लोग स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हुए गर्व के साथ अपना कॉलर ऊंचा करते हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन के प्रति चिंता भी व्यक्त करते हैं। लेकिन कभी आत्ममंथन करते हुए ईमानदारी के साथ स्वयं से यह नहीं पूछते कि हम लोकतांत्रिक व्यवस्था के लायक हुए भी हैं या नहीं। तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसने वाला कोई व्यक्ति किसी नेता को पसंद कर सकता है लेकिन उसका अंधभक्त नहीं हो सकता। ऐसा अंधभक्त कि अपने नेता के गलत निर्णयों को भी कुतर्कों के जरिए सही करार देने की कोशिश करे। सही और गलत के बीच फर्क नहीं कर सके।

26 जनवरी 1950 को हमने संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था अपनाई थी। इस घटना के 71 साल से ज्यादा की अवधि गुजर चुकी है। हर 10 वर्ष के अंतराल पर एक नई पीढ़ी के आगमन को मान लें तो। संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था लागू होने के बाद आजाद भारत की 7 पीढ़ियां सामने आ चुकीं हैं। लेकिन हमारे अंदर नागरिक गुण अभी तक राजतंत्र और औपनिवेशिक व्यवस्था वाले हैं। लोकतंत्र की व्यवस्था के लायक हम हैं ही नहीं। हम अपने जन प्रतिनिधि का चुनाव जाति, धर्म, क्षेत्र और कुटुंब के आधार पर करते हैं। उम्मीदवार की सामाजिक भूमिका के आधार पर नहीं। उसके गुण-दोष के आधार पर नहीं। अक्सर तो हम उसे जानते तक नहीं। कोई राजनीतिक दल धर्म का पताका लहराता हुआ हमारे पास आता है तो हम उसे वोट दे डालते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था का नागरिक ऐसा नहीं करता। वह तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखने के बाद ही किसी को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करता है। आंख मूंदकर किसी पर विश्वास नहीं करता।

आज हिंदुत्व की खूब दुहाई दी जाती है। लेकिन भक्तियोग के अलावा हिंदुत्व के अन्य आयामों को देखने की कोशिश नहीं की जाती। सनातन धर्म के व्यापक कैनवास पर नज़र डालें तो इसमें कर्मयोग और ज्ञानयोग भी शामिल है। इसे हम भूल जाते हैं। यह सिर्फ मोक्षप्राप्ति के मार्ग ही नहीं हमारे अंदर विशिष्ठ गुणों को उत्पन्न के माध्यम भी हैं। भक्तियोग किसी अदृश्य शक्ति के सामने आत्मसमर्पण की सीख देता हैं। शक्ति चाहे किसी व्यक्ति की हो अथवा किसी देवी-देवता की। राजा के दैवी अधिकार का सिद्धांत यहीं से निकला है। इस पद्यति को अपनानेवाले लोग किसी को भी भगवान समझ बैठते हैं और उसकी पूजा करने लगते हैं। ऐसे लोग मानसिक रूप से गुलाम होते हैं और राजतंत्र अथवा औपनिवेशिक सत्ता के लिए अनुकूल गुणों से युक्त आदर्श नागरिक होते हैं। हमारे यहां ऐसे ही नागरिकों की बहुतायत है। कर्मयोगी समाजवादी व्यवस्था के लिए आदर्श नागरिक होता है जबकि ज्ञानयोगी लोकतंत्र के लिए अनुकूल नागरिक होता है।

भक्तियोग अध्यात्म की सबसे निचली सीढ़ी है। यह निम्न चेतना वाले लोगों के लिए है। उन्नत चेतना का व्यक्ति कभी किसी का भक्त नहीं हो सकता। वह जिसके गुणों से पसंद करता है उसके अवगुणों की समीक्षा भी करता रहता है। हमारे देश में नरेंद्र मोदी के भक्तों की बड़ी संख्या है। वे अंधभक्त हैं। वे उनके गलत निर्णयों को भी सही मानते हैं और उसे सही ठहराने के लिए तर्क गढ़ते हैं। जब कोई तर्क नहीं मिलता तो गाली-गलौच पर उतर जाते हैं। एक वर्ग है जिसे कोई भी अपना भक्त बना सकता है। चाहे वह आसाराम बापू हों अथवा डेरा सच्चा सौदा वाले रामरहीम। ऐसे लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था को कभी अपनी पटरी पर नहीं आने दे सकता।

धर्म के नाम पर सत्ता पर काबिज होने की लालसा रखने वाले राजनीतिक दल कभी कर्मयोग और ज्ञानयोग की बात नहीं कर सकते। उन्हें निम्न चेतना वाले अंधभक्तों की जरूरत होती है। वही उन्हें सत्ता में टिकाए रख सकते हैं और मनमानी की छूट दे सकते हैं। ज्ञानयोगी और कर्मयोगियों की जिस दिन बहुतायत होगी इनकी सत्तालोलुपता हवा हो जाएगी। तब वे लोगों को बहला पुसलाकर उनका वोट नहीं ले सकेंगे।

भारत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां व्यवस्था तो लोकतंत्र की है लेकिन नागरिक गुणों को उत्पन्न करने का कारखाना राजतांत्रिक व्यवस्था वाला है। इसे बदलने की जरूरत वह आध्यात्मिक संस्थाएं भी महसूस नहीं करतीं जिनकी सत्ता की राजनीति से कोई मतलब नहीं रहता और जो शुद्ध रूप से अध्यात्मवाद के विकास में लगी हुई हैं। अध्यात्म के अंदर के विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने के बाद ही लोगों की सोच तर्कसंगत हो सकती है लोकिन यह काम किसी स्तर पर नहीं हो रहा है। यही इस युग की विडंबना है।        

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