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गुरुवार, 11 सितंबर 2025

रचनाकर्म में एआई का उपयोग समय की मांग

 


आम पाठक को रोचक पाठ्य सामग्री से मतलब होता है। उसे इससे कोई फर्क नहीं प़ड़ता कि उसका रचनाकार कौन है।

एक जमाना था जब लेखक ताड़पत्र पर लिखते थे। बड़े-बड़े ग्रंथ ताड़ के पत्तों पर लिखे गए हैं। फिर कागज का आविष्कार हुआ, कंडा-कलम और स्याही उपलब्ध हुई तो लेखन कार्य में सुविधा मिली। 19 वीं-20 वीं शताब्दी में टाइपराइटर आया तो उसपर लेखन कार्य किया जाने लगा। 20 वीं शताब्दी के अंत में इलक्ट्रोनिक टाइपराइटर से लेकर कम्प्यूटर तक का आविष्कार हुआ तो वह लेखन का यंत्र बन गया।

मतलब विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ लेखन कार्य में सुविधाएं बढ़ती गईं और लेखक, कवि, साहित्यकार उसे अपनाते गए। आज की तारीख में गिने-चुने साहित्यकर ही कलम कागज का उपयोग करते हैं। अधिकांश लोग लैपटॉप और कंप्यूटर पर उतर चुके हैं। लेकिन गनीमत थी कि अभीतक का तकनीकी विकास लेखक को लेखन का श्रेय देता रहा है। उनके लेखन में अपना नाम अमर करने की बलवती इच्छा शामिल रही है।

लेकिन अब जो तकनीक सामने आई है उसने लेखन का श्रेय लूटने के युग पर ग्रहण लगा दिया है। वह तकनीक है एआई। मतलब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस। यह एक ऐसा टूल है जो हमारे आइडिया को एक स्पष्ट आकार दे देता है। आइडिया ह्युमन का होता है लेकिन आकार यंत्र देता है। निःसंदेह उसमें संवेदना नहीं होती लेकिन सौंदर्य होता है। यदि एआई द्वारा तैयार किए गए खाके में संवेदना भरने का काम हो जाए तो एक श्रेष्ठ रचना तैयार हो सकती है। यह काम मानव मस्तिष्क कर सकता है। मतलब आर्टिफियल इंटेलिजेंस और ह्युमन इंटेलिजेंस मिलकर कार्य करें तो पाठकों को शानदार पाठ्य सामग्री उपलब्ध करा सकते हैं। करा रहे भी हैं।

हाल में जापानी लेखिका Rai Qudan ने टोक्यो सिम्पैथी टॉवर नामक एक उपन्यास लिखा जिसमें उन्होंने एआई टूल GPT की भी सहायता ली। उस उपन्यास को जापान के सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पुरस्कार AKUTAGaWa Prize से सम्मानित किया गया। एक रचनाकार का दायित्व पाठकों को रुचिकर रचना उपलब्ध कराना है। यह काम भारत के साहित्यकार भी कर सकते हैं। लेकिन समस्या यह है कि इसमें वे अपने नाम का डंका बजाने से वंचित रह जाएंगे क्योंकि उस रचना का श्रेय अकेले नहीं ले सकेंगे। यह एआई और एचआई का संयुक्त प्रयास माना जाएगा। लेकिन पाठक को इससे क्या फर्क पड़ता है? उसे रचना की गुणवत्ता से मतलब है।

मुझे जानकारी मिली है कि कुछ मीडिया हाउस कंटेंट तैयार करने के लिए फीचर विभाग की जगह एआई तकनीशियनों को रख रहे हैं जो संपादक की अवधारणा पर एआई के जरिए लेख-फीचर निकाल सकें। इससे पूरी टीम रखने का खर्च बच जाएगा और जरूरत की सामग्री प्राप्त हो जाएगी। लेकिन अधिकांश प्रकाशक एआई की सहायता से तैयार की गई पुस्तकों को प्रकाशित करने से मना कर देते हैं। वैसे भी भारत किसी तकनीक को अपनाने में फिसड्डी ही रहता आया है।

चाहे लेखक हों या प्रकाशक इस बात को देर-सवेर स्वीकार करना ही होगा कि आने वाला समय एआई और एचआई के संयुक्त कार्य का होगा और लेखन का श्रेय लूटने का युग समाप्त हो जाएगा। इसे जितनी जल्द स्वीकार कर लें उतना बेहतर होगा अन्यथा रचनात्मकता की होड़ में फिसड्डी रह जाएंगे। जो एआई की गंध सूंघकर नौक-भौं सुकोड़ रहे हैं क्या वो ताड़पत्रों पर लिखी सामग्री को स्वीकार करने को तैयार हैं। तकनीक को स्वीकार करना ही पड़ेगा। आज करें या कल।

-देवेंद्र गौतम

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