शहरी क्षेत्र में 28 .65 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र में 22 .42 रुपये में क्या-क्या किया जा सकता है उसकी क्रय शक्ति क्या हो सकती है..? कभी सोचा है आपने..? शायद नहीं लेकिन हमारे देश के योजना आयोग ने इसपर विचार किया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि एक परिवार के भरण-पोषण के लिए इतनी राशि काफी है. प्रतिदिन इससे कम खर्च करने वाले ही गरीबी रेखा के अंदर आते है. इससे ज्यादा खर्च करने वाले बीपीएल नहीं माने जा सकते. वे एपीएल की श्रेणी में आयेंगे. इस फार्मूले का निर्धारण करने के साथ ही देश में गरीबों की संख्या 40 .72 करोड़ से घटकर 34 .47 करोड़ पर चली आई. क्यों! है न यह गरीबी मिटाने का अनूठा फार्मूला..?इस रेखा को छोटा करते जाइये गरीबी स्वयं कम होती जाएगी. इस लिहाज़ से जिन्हें न्यूनतम मजदूरी मिल रही है उन्हें अमीरों में गिना जाना चाहिए. उन्हें करदाताओं की श्रेणी में लाया जाना चाहिए. क्योंकि वे तो गरीबी रेखा से काफी ऊपर हैं.
यह भारत ही है जहां शासन तंत्र जनता के साथ इस तरह का भद्दा मजाक कर सकता है और जनता चुप रह सकती है. दूसरा कोई देश होता तो इस अवधारणा के जनकों को उनके परिवार के साथ एक टेंट में कैद कर भरण-पोषण के लिए इतनी ही रकम प्रतिदिन देकर देखती कि वे कैसे अपना परिवार चलाते हैं. अपनी बुनियादी जरूरतों को इतने पैसों में कैसे पूरा करते है. यदि वे कर दिखाते तो तो उनके चरण छूती. नहीं कर पाते तो गला................!
----देवेंद्र गौतम
अरे भई साधो......: गरीबी मिटाने का नायाब फार्मूला
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मंगलवार, 20 मार्च 2012
शनिवार, 17 मार्च 2012
अरे भई साधो......: सरकार बनाई तो अब भुगतो
हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विश्वविख्यात अर्थशास्त्री हैं. लेकिन उनका अर्थशास्त्र आम भारतीयों के पल्ले नहीं पड़ रहा है. बजट में रेल किराया से लेकर तमाम जरूरी जिंसों के दाम बढ़ा दिए. टैक्स में कोई खास छूट नहीं दी. रसोई गैस और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की धमकी दे रहे हैं. फिर भी उनका दावा है कि इस बजट से महंगाई घटेगी. कैसे?....यह नहीं बता रहे. विद्वान आदमी हैं उन्हें समझाना चाहिए. यह चमत्कार कैसे होगा.........
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अरे भई साधो......: सरकार बनाई तो अब भुगतो
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अरे भई साधो......: सरकार बनाई तो अब भुगतो
गुरुवार, 15 मार्च 2012
जिन्दगी अब भी 'खूबसूरत' है...
नाम
है ज्ञान्ति....उम्र करीब बीस साल...घर-घर में चौका-बर्तन करके अपना और
अपने तीन बच्चों का पेट पालती है...आँखों में एक ही सपना संजोये है कि
बच्चे पढ़-लिख जाएँ...उन्हें अच्छे संस्कार मिले...आप सोच रहे होंगे कि
इसमें नया क्या है... ऐसी कहानियों से तो रोज ही दो-चार होना पड़ता है
....पर जनाब, इस एक कहानी में जो जिजीविषा है वो हम भाषण देनेवालों में
नहीं....हम बोलते बहुत है पर जिन्दगी जब इम्तहान लेने लगती है तो हमारे
पसीने छुट जाते है...और यहाँ??? यहाँ तो कड़ी मिहनत, समाज के तीखे तेवरों के
बावजूद चेहरे से मुस्कराहट जाती ही नहीं...वो छम-छम करती आती
है....गुनगुनाती हुई घर के काम करती है और चली जाती है ...
पर यह सबकुछ जितना आसान, खूबसूरत, सुकून से भरा दिखता है उतना है नहीं...जानते है क्यूँ??? जनाब, वो एक विधवा है ... जवान भी ... ईश्वर ने खूबसूरती भी दोनों हाथो से लुटाई है....और ये सभी बाते उसके खिलाफ जाती है... kyunki चाहे लाख दावा कर ले पर रूढ़ियाँ और मानसिक विकृतियाँ अब भी हमें जकड़े हुए है ... समाज विधवा को हेय दृष्टि से देखता है...मांगलिक कार्यों में उसका होना अशुभ है तो दूसरी तरफ वह आसानी से उपलब्ध 'सर्वभोग्या' है..जैसे कि पुरुष (पति) के न होने पर स्त्री सड़क पर पड़ी वस्तु बन जाती हो ....सोचिये तो हम कहा चले आये है..21 सदी में है...स्त्री-पुरुष समानता की बाते जोर-शोर से हो रही है, पर समाज के किसी कोने में स्त्री-अस्मिता आज भी सिसकती रहती है...
खैर, छोडिये ...अब कहानी 'ज्ञान्ति' की ...बाल विवाह हुआ था , यही कोई 6 साल पहले..तब उसकी उम्र 14 साल की थी...(अब सरकार चाहे लाख दुहाई दे 18 साल से कम उम्र में लड़कियों की शादी अभी भी हो रही है, वैसे ही, जैसे कानूनन अपराध घोषित होने के बावजूद 'दहेज़' एक स्वीकृत परंपरा है) ..6 सालों में तीन बच्चे हुए..पति, कभी कमाता, कभी नहीं...पीने में सारे पैसे उडाता...नशे की हालत में पत्नी को मारना उसकी आदत थी.. फिर भी वो ज्ञान्ति का 'देवता' था (जैसा की हम भारतीय स्त्रिओं के होते है-पति परमेश्वर ??) ...और एक दिन 'पति' का 'अपनी मां' से झगडा हुवा..उसने जहर खा लिया और मर गया...
.
ज्ञान्ति की अबतक की जिन्दगी भी संघर्षरत थी पर पति के मरने के बाद समाज की नज़रें बदल गयी ...एक नए सच से परिचय हुआ...पति का दसवां भी नहीं हुआ कि 'देवर' ने अपना 'रंग' दिखाना शुरू कर दिया ...नियत बदल गयी...रात में उसके कमरे का दरवाज़ा खोलने का प्रयास करने लगा...ज्ञान्ति ने एक बार बहुत पूछने पर बताया -"दीदी, देवर के बुरा नज़र हमरा पर बा...ऊ कहता कि तहरा हमरे संगे रहे के बा ...सास भी विरोध नईखी करत...बाकिर हम ता लताड़ देले बनी...खूब बोलले बानी".
ज्ञान्ति के नहीं मानने पर देवर ने पंचायती (कुछ रिश्तेदारों को बुलाकर किसी बात पर संवाद करना) कर उसपर शादी का दबाव डाला... मैंने कहा कि शादी क्यूँ नहीं कर लेती?..तो ज्ञान्ति बिलख पड़ी ..उसने एक अजीब बात बताई, कहा -"दीदी हम बियाह कर लेती बाकि ऊ कहता कि हमर बेटीयन से ओकरा कोई मतलब ना रही, आ हमरो मतलब न रखे दिही ..बाकिर बेटा के अपना संगे राखी ..ता बताई कि हम आपन बेटी सब के कैसे पालब-पोसब...ओकरा सब के अनाथ जैसन कैसे छोड़ दिहब. हमरा नइखे करके बिअह..केतना लोग रहेला..हमहू रह लेब ...हमरा आपन बाल-बच्चा के लायक बनावे के बा...बस."
उसके बाद कि कहानी ये है कि शादी से इंकार करने के 'अपराध' में ससुराल ने उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया है ...वह अलग रहती है ...सूरज उगने से पहले जाग जाना और सबके सोने के बाद बिस्तर पर जाना उसकी नियति बन चुकी है...अपने घर के काम-काज निपटा कर वह निकल जाती है अपनी 'कर्मभूमि' की ओर...पांच घरों में चौका-बर्तन करती है , जिसमे हमारा घर भी शामिल है...हाल में उसने मुझसे अपना नाम लिखने भर 'पढने' की इच्छा ज़ाहिर की है ...
...समाज विकृत इशारे करता है...प्रलोभन देता है ...आरोप भी लगाता है ...ज्ञान्ति कभी अनदेखा करती है कभी गालिओं की बौछार कर देती है...बार- बार उसे खुद को साबित करना पड़ता है ... ' परिश्रम' ही उसका एकमात्र संबल है ..और बच्चे जीने का आधार ... कठोर श्रम और उचित भोज़न के अभाव में वह अनीमिया, लो ब्लड प्रेशर जैसे रोगों को पाल चुकी है....वज़न दिनोदिन कम होता जा रहा है...पर मन की दृढ़ता बढती ही जाती है ...चेहरे कि कान्ति कम नहीं होती...उसके लिए जिन्दगी अब भी 'खूबसूरत' है...
-----स्वयम्बरा
http://swayambara.blogspot.in/
पर यह सबकुछ जितना आसान, खूबसूरत, सुकून से भरा दिखता है उतना है नहीं...जानते है क्यूँ??? जनाब, वो एक विधवा है ... जवान भी ... ईश्वर ने खूबसूरती भी दोनों हाथो से लुटाई है....और ये सभी बाते उसके खिलाफ जाती है... kyunki चाहे लाख दावा कर ले पर रूढ़ियाँ और मानसिक विकृतियाँ अब भी हमें जकड़े हुए है ... समाज विधवा को हेय दृष्टि से देखता है...मांगलिक कार्यों में उसका होना अशुभ है तो दूसरी तरफ वह आसानी से उपलब्ध 'सर्वभोग्या' है..जैसे कि पुरुष (पति) के न होने पर स्त्री सड़क पर पड़ी वस्तु बन जाती हो ....सोचिये तो हम कहा चले आये है..21 सदी में है...स्त्री-पुरुष समानता की बाते जोर-शोर से हो रही है, पर समाज के किसी कोने में स्त्री-अस्मिता आज भी सिसकती रहती है...
खैर, छोडिये ...अब कहानी 'ज्ञान्ति' की ...बाल विवाह हुआ था , यही कोई 6 साल पहले..तब उसकी उम्र 14 साल की थी...(अब सरकार चाहे लाख दुहाई दे 18 साल से कम उम्र में लड़कियों की शादी अभी भी हो रही है, वैसे ही, जैसे कानूनन अपराध घोषित होने के बावजूद 'दहेज़' एक स्वीकृत परंपरा है) ..6 सालों में तीन बच्चे हुए..पति, कभी कमाता, कभी नहीं...पीने में सारे पैसे उडाता...नशे की हालत में पत्नी को मारना उसकी आदत थी.. फिर भी वो ज्ञान्ति का 'देवता' था (जैसा की हम भारतीय स्त्रिओं के होते है-पति परमेश्वर ??) ...और एक दिन 'पति' का 'अपनी मां' से झगडा हुवा..उसने जहर खा लिया और मर गया...
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ज्ञान्ति की अबतक की जिन्दगी भी संघर्षरत थी पर पति के मरने के बाद समाज की नज़रें बदल गयी ...एक नए सच से परिचय हुआ...पति का दसवां भी नहीं हुआ कि 'देवर' ने अपना 'रंग' दिखाना शुरू कर दिया ...नियत बदल गयी...रात में उसके कमरे का दरवाज़ा खोलने का प्रयास करने लगा...ज्ञान्ति ने एक बार बहुत पूछने पर बताया -"दीदी, देवर के बुरा नज़र हमरा पर बा...ऊ कहता कि तहरा हमरे संगे रहे के बा ...सास भी विरोध नईखी करत...बाकिर हम ता लताड़ देले बनी...खूब बोलले बानी".
ज्ञान्ति के नहीं मानने पर देवर ने पंचायती (कुछ रिश्तेदारों को बुलाकर किसी बात पर संवाद करना) कर उसपर शादी का दबाव डाला... मैंने कहा कि शादी क्यूँ नहीं कर लेती?..तो ज्ञान्ति बिलख पड़ी ..उसने एक अजीब बात बताई, कहा -"दीदी हम बियाह कर लेती बाकि ऊ कहता कि हमर बेटीयन से ओकरा कोई मतलब ना रही, आ हमरो मतलब न रखे दिही ..बाकिर बेटा के अपना संगे राखी ..ता बताई कि हम आपन बेटी सब के कैसे पालब-पोसब...ओकरा सब के अनाथ जैसन कैसे छोड़ दिहब. हमरा नइखे करके बिअह..केतना लोग रहेला..हमहू रह लेब ...हमरा आपन बाल-बच्चा के लायक बनावे के बा...बस."
उसके बाद कि कहानी ये है कि शादी से इंकार करने के 'अपराध' में ससुराल ने उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया है ...वह अलग रहती है ...सूरज उगने से पहले जाग जाना और सबके सोने के बाद बिस्तर पर जाना उसकी नियति बन चुकी है...अपने घर के काम-काज निपटा कर वह निकल जाती है अपनी 'कर्मभूमि' की ओर...पांच घरों में चौका-बर्तन करती है , जिसमे हमारा घर भी शामिल है...हाल में उसने मुझसे अपना नाम लिखने भर 'पढने' की इच्छा ज़ाहिर की है ...
...समाज विकृत इशारे करता है...प्रलोभन देता है ...आरोप भी लगाता है ...ज्ञान्ति कभी अनदेखा करती है कभी गालिओं की बौछार कर देती है...बार- बार उसे खुद को साबित करना पड़ता है ... ' परिश्रम' ही उसका एकमात्र संबल है ..और बच्चे जीने का आधार ... कठोर श्रम और उचित भोज़न के अभाव में वह अनीमिया, लो ब्लड प्रेशर जैसे रोगों को पाल चुकी है....वज़न दिनोदिन कम होता जा रहा है...पर मन की दृढ़ता बढती ही जाती है ...चेहरे कि कान्ति कम नहीं होती...उसके लिए जिन्दगी अब भी 'खूबसूरत' है...
-----स्वयम्बरा
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सोमवार, 20 फ़रवरी 2012
कहा गए ये बहुरूपिये ??
बहुरुपिया!! याद आया??? यही मौसम हुआ करता था न! फाग का!...आते-जाते विभिन्न रास्तों पर तरह-तरह का स्वांग रचे बहुरूपिये नज़र आते थे .. फाग की मस्ती इनके कारण दोगुनी हो जाया करती थी ... होली के दिन गाँव-कस्बों में निकलनेवाले गोला(टोली) में एक बहुरूपिये का होना जरूरी होता था.. बुजुर्गों से सुना कि तब इनकी विशेष मांग थी..लोग इनकी कलाकारी पर चर्चाएँ करते और इन्हें इनाम भी देते थे .... इनकी रूपसज्जा ऐसी की आज के मेकअप आर्टिस्ट भी मात खा जाये...कभी हनुमान बनते तो लोग चढ़ावा चढाने लगते...राक्षस बनते तो लोग डरकर दूर भागने लगते...कभी-कभी पेट में तलवार घुसेड़े होने का स्वांग करके लोगो का मनोरंजन करते...मेरी माँ बताती है कि एक बार बहुरुपिया पोस्टमैन बनकर आ गया..मम्मी ने सोचा नाना की चिट्टी है..वो दौड़ी-दौड़ी आयी....कुछ देर अभिनय के बाद वह हसने लगा तबतक बाबा भी आ गए वो भी हसने लगे ....
बहुरूपिये हम बच्चों की भी उत्सुकता का केंद्रबिंदु होते थे...हम कभी खुश होते तो कभी घबराते ...इनके पास जाकर इन्हें छूकर देखते थे ...विद्वानों कि राय है कि बहुरुपिया मुग़ल दरबार का विशेष आकर्षण होते थे...मध्यकाल में बहुरुपिया एक व्यवसाय बन गया ... बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी से प्रकाशित, श्री महेश कुमार सिन्हा द्वारा लिखित किताब "बिहार की नाटकीय लोक विधाएं" में इस विधा को 'लोक नाटक' माना गया है, जो आदिवासी क्षेत्रों में भी किया जाता है . कुछ साल पहले तक ये काफी प्रचलित था..होली,दशहरा आदि अवसर पर ये विभिन्न स्वांग भरकर लोगों का मनोरंजन करते थे ...घर-घर, दरवाज़े-दरवाज़े जाते ...घर का आँगन, चौपाल, नुक्कड़, दरवाज़ उनका मंच होता...इनका अभिनय और प्रदर्शन एक स्थान पर रुक कर देर तक नहीं होता बल्कि इनकी यात्रा जारी रहती , साथ-साथ अभिनय और प्रदर्शन भी चलता रहता ...
बहुरूपिये कभी लैला-मजनू तो कभी सन्यासी, पागल, शैतान, भगवान शंकर, डाकू, नारद और मुनीम जैसे तमाम किरदारो को निभाते .... ये इन्हें इस कदर पेश करते हैं कि एक बारगी लोग उन्हे वास्तविक समझ बैठते थे.... कई ऐसे बहुरूपिये भी रहे जो अपनी कलाकारी में इतने तल्लीन हो गए कि अपना मूल रूप, पहचान ही भूल गए...कृत्रिम रूप ही वास्तविक बन गया...
पर आज दो जून की रोटी भी इन्हें दूभर है. दूसरों के होठो पर मुस्कुराहटें लानेवाले बहुरूपियों की जिंदगी तल्ख़ है.... उचित मेहनताना व सम्मान के अभाव से उपजी हताशा ने इन्हें इस पेशे से विमुख कर दिया है...वर्तमान दौर में मनोरंजन के इतने स्रोत मौजूद है कि मात्र इस कला से पेट पालन नामुमकिन सा हो गया है .... आज ये कलाकार उपहास के पात्र बन चुके है .... बहुरूपिये बच्चों में बहुत लोकप्रिय होते थे, किन्तु आज के बच्चे बहुरुपिया के बारे में जानते तक नहीं ..लोगो का नजरिया भी इसके प्रति बदल चूका है ..संरक्षण नहीं मिलने से ये भी अन्य परम्पराओं की तरह लुप्तप्राय हो रहा है.....पुश्तैनी धंधा वाले परिवारों में बच्चे इसे अपनाने में शर्म महसूस करते है...आज बहुरूपिये कभी-कभी ही किसी गाँव में दीखते है ....कई साल हो गए इन्हें देखे...अब तो एक सपना सा लगता है .....क्या आपको याद है ये बहुरूपिये ?? इनका स्वांग?? इनसे मिलने वाली ख़ुशी ?? कहा गए ये बहुरूपिये ??
-----swayambara
http://swayambara.blogspot.in/
रविवार, 15 जनवरी 2012
शाबाश! अभिनव प्रकाश!
हाल के वर्षों में बिहार झारखंड के कस्बाई इलाकों की कई प्रतिभाओं ने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी उपलब्धियां हासिल कर यह साबित किया है कि ऊंची उड़ान कहीं से भी लगाई जा सकती है. इसके लिए महानगरों में जन्म लेना या वहां की आबो-हवा में पलना ज़रूरी नहीं है. ऐसा ही एक कारनामा कर दिखाया है बिहार के भोजपुर जिला मुख्यालय आरा के एक मध्यमवर्गीय परिवार से आये युवक अभिनव प्रकाश ने.उसने कैट की 2012 की परीक्षा में 99 .98 प्रतिशत अंक प्राप्त कर सबको चौंका दिया है. उसके पिता अनिल कुमार सिन्हा और मां गीता सिन्हा का सीना तो गर्व से चौड़ा हो ही गया है. पूरे सूबे के लोग स्वयं को गर्वान्वित महसूस कर रहे हैं.
अभिनव आरा के राजेंद्र नगर का रहना वाला है. उसने डीएवी, आरा से 10 वीं और डीएवी खगौल से 12 वीं पास किया. सुपर 30 के जरिये उसने कोचिंग की और 2005 में आईआईटी-जेईई की प्रतियोगी परीक्षा पास कर आईआईटी, बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में दाखिला लिया. वर्ष 2009 में वहां की पढाई पूरी की. कैम्पस प्लेसमेंट के तहत उसे कोल इंडिया लिमिटेड में मैनेजमेंट ट्रेनी के लिए चयनित किया गया. उसने कोल इंडिया में योगदान दिया लेकिन उसे अभी और ऊंची उड़ान भरनी थी लिहाज़ा 2010 में उसे छोड़ कर जेडएस एसोसिएट्स, नई दिल्ली को ज्वाइन कर लिया. इस बीच जमकर तैयारी की और 2012 में कैट की परीक्षा में शानदार प्रदर्शन किया. अब उसकी अगली उड़ान क्या होगी यही देखना है.
----देवेंद्र गौतम
शनिवार, 14 जनवरी 2012
'आल्हा'-लुप्त होती परंपरा
आरा, बिहार की ह्रदय स्थली रमना मैदान में लगभग हर शाम बुलंद आवाज़ में एक लोकगीत गूंजने लगता है.....इस गीत का जादू ऐसा की देखते ही देखते चारो ओर भीड़ इकठी हो जाती है....तालियाँ बजने लगती है ....वो हुंकार भरता है -"रन में दपक -दप बोले तलवार ,
पनपन-पनपन तीर बोलत है ,
कहकह कहे अगिनिया बाण,
कटकट मुंड गिरे धरती पर "
जोश भर देनेवाली इस गायिकी को 'आल्हा' कहते है. इसे गानेवाले गायक का नाम है 'भोला'. इस लोक गायक का 'आल्हा' जब अपने चरम पर होता है तो सुननेवाले की भुजाएं फरकने लगती है ...खून की गति बढ़ जाती है....देश पर बलिदान हो जाने की इच्छा बलवती हो जाती है...... कहते है की इन गीतों के नायक आल्हा और ऊदल ने अपना सर्वस्व मातृभूमि को अर्पित कर दिया . उनका प्रण था की दुश्मन के हाथ देश की एक अंगुल धरती नहीं जाने देंगे-
"एक अंगुली धरती न देहब
चाहे प्राण रहे चली जाये "
जगनिक के लोककाव्य “आल्ह-खण्ड” की लोकप्रियता देशव्यापी है. महोबा के शासक परमाल के शूरवीर आल्हा और ऊदल की शौर्य-गाथा केवल बुन्देलखण्ड तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों की बोलियों में भी विकसित हुईं. मुख्य रूप से यह बुन्देली और अवधी का एक महत्त्वपूर्ण छन्दबद्ध काव्य है, जिसे लगभग सन १२५० में लिखा गाया था . 'आल्हा' लोक गाथा है, जिसे भारत के लगभग सारे हिंदी प्रदेश में गाया जाता है..... हालाँकि क्षेत्रीय भाषा का प्रभाव इनपर पड़ा है....भोजपुर में इनमे भोजपुरी मिली होती है...मगध में मगही.....अन्य दूसरे प्रदेशों में भी कुछ ऐसा ही हाल है. लोकगाथा में कथा तत्व मुख्य रूप से और गेयता गौड़ रूप से विद्यमान होती है. मतलब ये कि वह गाथा जिसे गा कर सुनाया जाये लोकगाथा कहलाती है.आल्हा ऊदल ११वीं सदी में चंदेल शासक के सेनानायक थे, जिनकी वीरता का वर्णन कालिंजर के परमार राजाओं के दरबारी कवि जयनिक ने गेय काव्य के रूप में किया है . इन्होने महोबे के विख्यात वीर आल्हा - ऊदल की कथा 'आल्हा' नामक छंद में लिखी है. यह छंद इतना लोकप्रिय हो गया कि पुस्तक का नाम ही 'आल्हा' पड़ गया. इसके बाद जो भी कविता इस छंद में लिखी गयी उसे 'आल्हा' कहा जाने लगा.वीर रस से ओत-प्रोत भोजपुरी प्रदेशों में आल्हा गाने की प्रथा बड़ी पुरानी है. दोनों वीर भाइयों आल्हा और ऊदल ने किस प्रकार अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए पृथ्वीराज से भीषण युद्ध किया. पावस ऋतु के अन्तिम चरण से लेकर पूरे शरद ऋतु तक सामूहिक रूप से अथवा व्यक्तिगत स्तर पर इन दोनों प्रदेशों में आल्हा-गायन होता है. आल्हा के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें कहीं ५२ तो कहीं ५६ लड़ाइयाँ वर्णित हैं. इस लोकमहाकाव्य की गायिकी की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं. आल्हा या वीर छन्द अर्द्धसम मात्रिक छन्द है, जिसके हर पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६ मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता है. यह छन्द वीररस से ओत-प्रोत होता है. इस छन्द में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रचुरता से प्रयोग होता है। एक लोककवि ने आल्हा के छन्द-विधान को इस प्रकार समझाया है-
आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य।
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।
आल्हा-गायन में प्रमुख संगति वाद्य ढोलक, झाँझ, मँजीरा आदि है। विभिन्न क्षेत्रों में संगति-वाद्य बदलते भी हैं। ब्रज क्षेत्र की आल्हा-गायकी में सारंगी के लोक-स्वरूप का प्रयोग किया जाता है, जबकि अवध क्षेत्र के आल्हा-गायन में सुषिर वाद्य का प्रयोग भी किया जाता है। आल्हा का मूल छन्द कहरवा ताल में होता है। प्रारम्भ में आल्हा गायन विलम्बित लय में होता है। धीरे-धीरे लय तेज होती जाती है। आल्हा गानेवाले गायक के पास एक ढोल होता है..... गाने की गति ज्यों-ज्यों तीव्र होती जाती है, ढोल बजने की गति में वैसा ही परिवर्तन होता जाता है. युद्ध भूमि में आल्हा और ऊदल के अद्भुत शौर्य के कारनामों के प्रसंग के समय गायकों की मुखाकृति देखते ही बनती है.............कभी कभी ये जोश में आकर ढोलक पर ही चढ़ जाते हैं और उसे घुटनों से दबाकर "हई जवान" की हुंकार के साथ युद्ध वर्णन करने लगते है. आल्हा गानेवालों की खूबी होती है की अपने लम्बे गायन के क्रम में ये अपने श्रोताओं को जैसे बहा ले जाते है.... वो भी गायक के साथ एकत्व का अनुभव करने लगता है...वैसी ही उद्दाम भावना...वैसा ही जोश....देश पर मर मिटने कि वैसे ही अभिलाषा जाग जाती है जैसी कभी आल्हा और ऊदल कि रही होगी.
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।
आल्हा-गायन में प्रमुख संगति वाद्य ढोलक, झाँझ, मँजीरा आदि है। विभिन्न क्षेत्रों में संगति-वाद्य बदलते भी हैं। ब्रज क्षेत्र की आल्हा-गायकी में सारंगी के लोक-स्वरूप का प्रयोग किया जाता है, जबकि अवध क्षेत्र के आल्हा-गायन में सुषिर वाद्य का प्रयोग भी किया जाता है। आल्हा का मूल छन्द कहरवा ताल में होता है। प्रारम्भ में आल्हा गायन विलम्बित लय में होता है। धीरे-धीरे लय तेज होती जाती है। आल्हा गानेवाले गायक के पास एक ढोल होता है..... गाने की गति ज्यों-ज्यों तीव्र होती जाती है, ढोल बजने की गति में वैसा ही परिवर्तन होता जाता है. युद्ध भूमि में आल्हा और ऊदल के अद्भुत शौर्य के कारनामों के प्रसंग के समय गायकों की मुखाकृति देखते ही बनती है.............कभी कभी ये जोश में आकर ढोलक पर ही चढ़ जाते हैं और उसे घुटनों से दबाकर "हई जवान" की हुंकार के साथ युद्ध वर्णन करने लगते है. आल्हा गानेवालों की खूबी होती है की अपने लम्बे गायन के क्रम में ये अपने श्रोताओं को जैसे बहा ले जाते है.... वो भी गायक के साथ एकत्व का अनुभव करने लगता है...वैसी ही उद्दाम भावना...वैसा ही जोश....देश पर मर मिटने कि वैसे ही अभिलाषा जाग जाती है जैसी कभी आल्हा और ऊदल कि रही होगी.
किन्तु देशप्रेम कि भावना को जगाने वाले आल्हा गायकों कि स्थिति बहुत दयनीय है. इनकी बदतर आर्थिक स्थिति इन्हें इस से मुह मोरने पर बाध्य कर रही है. कोई भी आल्हा गायक अपने बच्चों को यह हुनर नहीं सिखाता. अपने शहर के जिस भोला उर्फ आकाश राज बादल के बारे में मै बता रही थी उनकी हालत भी बहुत ख़राब है. इन्होने कभी लाल कृष्ण आडवानी, गवर्नर हाऊस, लालू यादव के यहाँ गायिकी का प्रदर्शन किया तो कोलकाता, रामेश्वरम, लखनऊ के बड़े मंचो पर अपना जोहर दिखाकर तालियाँ बटोरी....आज ये रमना मैदान में मजमा लगाकर गाते है और पेट भरने कि कोशिश करते है.......हम सब ने भी इसकी आदत बना ली है...इसे सुनते हुए गुज़र जाते है...थोड़ी बहुत चर्चा भी कर लेते है.....बहुत हुआ तो ऐसे ही लिख मारते है.....पर मदद के लिए कुछ नहीं करते........कुछ भी नहीं करते.......अपनी परंपरा को यु ही मिटने के लिए छोड़ देते है ........
रविवार, 20 नवंबर 2011
आखिर आप चाहतीं क्या हैं ?
उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधान सभा के चुनावी दंगल में लगभग सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत के साथ अपना - अपना बिगुल बजा दिया है ! कोई रथ यात्रा कर रहा है , कोई वहां की जनता को " भिखारी " कहकर जगा रहा है तो कोई मुस्लिम आरक्षण के लिए प्रधानमंत्री को चिठ्ठी लिखने के साथ - साथ विकास के नाम पर पूरे उत्तर प्रदेश को ही चार भागों में पुनर्गठन करने की दांव चल रहा है ! राजनीतिक उठापटक के बीच सब के सब राजनैतिक दिग्गज अपने राजनैतिक समीकरण बैठाने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं ! होना भी ऐसे चाहिए क्योंकि यही तो एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है ! अभी तक के चुनावी दावों में उत्तर प्रदेश की वर्तमान मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी ने उत्तर प्रदेश को चार हिस्से में विभाजित करने का ऐसा तुरुप का इक्का चला है की किसी भी पार्टी को उसका तोड़ नहीं मिल रहा है ! लगता है कि उनके इस तुरुप के इक्के के आगे सभी राजनीतक पार्टियाँ मात खा गयी !
अभी तेलंगाना को अलग राज्य बनाये जाने की मांग ठंडी हुई भी नहीं थी कि मायावती जी ने वर्तमान उत्तर प्रदेश को चार भागों पश्चिमी प्रदेश ( संभावित राजधानी : आगरा ) , बुंदेलखंड ( संभावित राजधानी : झांसी ) , अवध प्रदेश ( संभावित राजधानी : लखनऊ ) और पूर्वांचल प्रदेश ( संभावित राजधानी : वाराणसी ) में बाँटने का खाका पेश कर दिया ! इस पुनर्गठन के पीछे सुश्री मायावती और उनकी पार्टी बसपा का तर्क है कि छोटे राज्यों में कानून - व्यवस्था बनाये रखने के साथ - साथ विकास करना आसान होता है ! चूंकि वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार वहां की जनसँख्या लगभग २० करोड़ के पास है जो कि देश की आबादी का लगभग १६ प्रतिशत है इसलिए समुचित प्रदेश के विकास के लिए प्रदेश को छोटे राज्यों में पुनर्गठन करना जरूरी है !
सैद्धांतिक रूप से लोकतंत्र में छोटे - छोटे राज्यों से जनता की भागीदारी अधिक होती है , इसलिए राहुल सांस्कृत्यायन ने भी एक बार ४९ राज्यों के गठन की बात कही थी ! मेरा व्यक्तिगत मत है कि अलग राज्यों की मांग उठने के पीछे कही न कहीं केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार है क्योंकि मांग उठाने वालों लोगों को लगता है कि उनके साथ भाषा , जाति, क्षेत्र के आधार पर उनके साथ न्याय नहीं होता है ! ज्ञातव्य है कि भाषा के आधार राज्य कर पुनर्गठन का श्रीगणेश तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए १९५२ में तेलगू भाषी राज्य की मांग मानकर किया था ! क्योंकि मैंने ऐसा पढ़ा है कि समय रहते हस्तक्षेप न करने के कारण एक समाजसेवी श्रीरामुलू के ५८ दिन के आमरण अनशन के बाद १६ दिसम्बर १९५२ में मृत्यु हो जाने के उपरान्त आंध्र प्रदेश में दंगे भड़क गए और आनन-फानन में नेहरू जी ने मात्र तीन दिन के अन्दर अलग राज्य की संसद में घोषणा कर दी !
एक लेख के अनुसार , दिसंबर १९५३ न्यायाधीश सैय्यद फजल अली की अध्यक्षता में पहला राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया ! सितम्बर १९५५ इस आयोग की रिपोर्ट आई और १९५६ में राज्य पुनर्गठन अभिनियम बनाया गया , जिसके द्वारा १४ राज्य और ६ केन्द्रशासित राज्य बनाये गए ! १९६० में राज्य पुनर्गठन का दूसरा दौर चला , परिणामतः बम्बई ( वर्तमान मुंबई ) को विभाजित कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाया गया ! १९६६ में पंजाब का बंटवारा कर हरियाणा राज्य बनाया गया ! इसके बाद पूर्वोत्तर क्षेत्र पुनर्गठन अधिनियम १९७१ के अंतर्गत त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर का गठन किया गया ! १९८६ के अधिनियम के अंतर्गत मिजोरम को राज्य के दर्जे के साथ १९८६ के केन्द्रशासित अरुणाचल प्रदेश अधिनियम के अंतर्गत अरुणाचल प्रदेश को भी पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया ! १९८७ के अधिनियम के तहत गोवा को भी पूर्ण दर्जा दिया गया ! अंतिम पुनर्गठन वर्ष २००० में उत्तराखंड, झारखंड और छतीसगढ़ को बाँट कर किया गया !
छोटे राज्यों के पुनर्गठन की वकालत करने वालों का मत है है कि भारत में जनसंख्या के आधार पर और क्षेत्रफल के आधार विषमता बहुत है ! एक तरफ जहां लक्षद्वीप का क्षेत्रफल ३२ वर्ग कि.मी. मात्र है तो वही राजस्थान का क्षेत्रफल लगभग ३.५ लाख वर्ग कि.मी. है ! जनसँख्या में जहा उत्तरप्रदेश लगभग २० करोड़ की संख्या को छूने वाला है तो वही सिक्किम की कुल आबादी ६ लाख मात्र है ! परन्तु यहाँ पर यह भी जानना बेहद जरूरी है कि अभी हाल में ही पुनर्गठित हुआ झारखंड राज्य अपने नौ सालों के इतिहासों में लगभग ६ मुख्यमंत्री बदल चुका है ! उसके एक और साथी राज्य छत्तीसगढ़ में किस तरह नक्सलवाद प्रभावी हुआ है यह लगभग हम सबको विदित है ! प्रायः हम समाचारों में देखते व सुनते भी है कि मिजोरम , नागालैंड और मणिपुर आज भी राजनैतिक रूप से किस तरह अस्थिर बने हुए है ! गौरतलब है कि असम से अलग हुए राज्य ( जो कि अपनी जनजातीय पहचान के कारण अलग हुए थे ) नागालैंड , मेघालय, मणिपुर और मिजोरम में कितना समुचित विकास हो पाया यह अपनेआप में ही एक प्रश्नचिंह है !
अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए किस तरह से दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री श्री ब्रहम प्रकाश ने दिल्ली , हरियाणा , राजस्थान के कुछ हिस्से और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को मिलाकर 'बृहत्तर दिल्ली' बनाना चाहा था क्योंकि इससे वो लम्बे समय तक अपने 'जाट वोटों' के जरिये राज कर सकते थे ! समय रहते तत्कालीन नेताओं जैसे गोविन्द बल्लभ पन्त ने उनकी महत्वकांक्षा को पहचान कर उनका जोरदार विरोध कर उन्हें उनके मंतव्य में सफल नहीं होने दिया ! और समय रहते उनकी मांग ढीली पड़ गयी ! वर्तमान समय में फिर एक प्रदेश मुख्यमंत्री ने अपने राज्य के पुनर्गठन की मांग उठाई है ! गौरतलब है कि मात्र छोटे राज्यों के गठन से विकास नहीं होता है ! किसी भी राज्य का विकास वहां की राजनैतिक इच्छा शक्ति के साथ -साथ सुशासन से होता है ! राज्यों की पंचायत व्यवस्था को दुरुश्त किया जाय , जिसके लिए गांधी जी ने 'पंचायती राज' व्यवस्था की पुरजोर वकालत कर देश के संतुलित विकास की रूपरेखा बनाकर गाँव को समृद्ध बनाने के लिए लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास का सपना देखा था ! एक लेख में मैंने पढ़ा है कि अगर हम उत्तर प्रदेश पर एक नजर दौडाएं तो पाएंगे कि पूर्वी भाग के कई जिलों में आज भी उद्योगों का सूखा पड़ा है ! चीनी मीलों के साथ - साथ खाद व सीमेंट के कारखाने बंद पड़े है ! सिर्फ पश्चिमी भाग में जो कि दिल्ली से सटा हुआ है , थोडा विकास जरूर हुआ है ( फार्मूला रेस -१ का आयोजन ) ऐसा कहा जा सकता है ! ऐसे में सवाल यह उठता है कि माननीय मुख्यमंत्री जी आखिर आप चाहती क्या है ? प्रदेश का समुचित विकास अथवा खालिश राजनीति !
- राजीव गुप्ता
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