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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मियां की जूती मियां के सर

इसे कहते हैं मियां की जूती मियां के सर. झारखंड में अतिक्रमण हटाओ अभियान के दौरान आदिवासियों के दिशोम गुरु शिबू सोरेन का अपना ही बयान उनके लिए घातक सिद्ध हुआ. सिर्फ गरीबों के आशियाने उजाड़े जाने से क्षुब्ध होकर उन्होंने कहा कि ताक़तवर और रसूखदारों के आवास भी खाली कराये जायें. इसपर बोकारो इस्पात प्रबंधन ने अपने आवासीय क्षेत्र में स्थित उनके भाई लालू सोरेन और दिवंगत पुत्र दुर्गा सोरेन के आवास को खाली करा दिया. अब स्वयं शिबू सोरेन के आवास की बारी है. उन्होंने सिर्फ बोकारो स्टील के आवास ही नहीं बल्कि उसके आसपास के 4-5 एकड़ खाली ज़मीं को भी खेती और गौपालन के लिए घेर रखा है. अब वे प्रबंधन पर कोई दबाव भी नहीं डाल सकते क्योंकि वह तो उन्हीं के आदेश का पालन कर रहा है. यदि वे अपने रुतबे का इस्तेमाल करते हैं तो आम जनता के बीच गलत संदेश जायेगा. 
      झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो और झारखंड राज्य समन्वय समिति के अध्यक्ष शिबू सोरेन का परिवार झारखंड के सबसे रसूखदार राजनैतिक घरानों में गिना जाता है. उनके पुत्र हेमंत सोरेन अभी राज्य के उपमुख्यमंत्री हैं. पुत्रवधु सीता सोरेन विधायक हैं. बोकारो इस्पात प्रबंधन को कभी उम्मीद ही नहीं थी कि इस परिवार के लोगों से आवास खाली कराये जा सकेंगे. 
       पिछले करीब दो महीने से हाई कोर्ट के आदेश पर पूरे झारखंड में अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया जा रहा है. सत्ता में बैठे लोग इसे अमानवीय बता रहे हैं. उजड़े लोगों के पुनर्वास की बात कर रहे हैं. लेकिन इसके प्रति उनकी गंभीरता संदिग्ध दिखती है. अब वे इसके लिए विधानसभा में अध्यादेश लाने की बात कर रहे हैं. जबकि सरकार के पास जवाहर लाल नेहरू शहरी विकास योजना के हजारों करोड़ रुपये अनुपयोगी हालत में पड़े हुए हैं. इस योजना में स्लम बस्तियों के लोगों को शहर के बाहर बसाये जाने का प्रावधान है. इंदिरा आवास आवंटित किये जा सकते हैं. लेकिन हालत यह है कि सरकार ने विस्थापितों की तात्कालिक राहत  के लिए नगर निगमों को एक करोड़ रुपये आवंटित कर दिए लेकिन अभी तक कहीं भी कोई पंडाल नहीं बना. कोई राहत शिविर नहीं खुला. उजड़े गए परिवारों के लोग महिलाओं, बच्चों और अपने मवेशियों के साथ सड़क किनारे, खुले मैदानों में बिलकुल असुरक्षित अवस्था में रात गुजारने को विवश हैं. उनकी रोजी-रोटी छीन गयी. सर के ऊपर छत हटा ली गयी और सरकार उन्हें बसाने पर अभी विचार ही कर रही है. हास्यास्पद तो यह है कि इंदिरा आवास में रह रहे लोगों को भी अतिक्रमण हटाने की नोटिस दी गयी है. इंदिरा आवास के स्थल चयन और नक्षा पास करने की जिम्मेवारी सर्कार की है. अब वे लोग भी प्रखंड कार्यालय के चक्कर लगा रहे हैं. बिल्कुल  अराजक स्थिति उत्पन्न हो गयी है. अब इसपर राजनीति भी शुरू हो गयी है. चूंकि यह अभियान अभी शहरी इलाकों में ही चलाया जा रहा है इसलिए उजड़े गए ज्यादातर लोग गैर झारखंडी हैं. अलगाववादी राजनीति करनेवाले अब यह मांग कर रहे हैं कि सिर्फ स्थानीय खतियानी लोगों का ही पुनर्वास किया जाये. सवाल है कि क्या कुछलोग झारखंड में भी जम्मू कश्मीर की तरह धारा 370 जैसा कोई प्रावधान लागु करने का इरादा रखते हैं.तृतीय और चतुर्थ वर्गीय नौकरियों से तो गैर झारखंडी लोगों को लगभग वंचित किया ही जा चूका है. अब उन्हें उजाड़कर सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया जाये यही वे चाहते हैं. अभी संकीर्ण दायरों से जरा ऊपर उठकर भोजन, आवास, शिक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी ज़रूरतों को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किये जाने की मांग को लेकर एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ने की ज़रुरत है. क्षेत्रीयतावाद की जगह गरीबी और अमीरी के बीच बढ़ते फर्क को समझने की ज़रुरत है. किसी एक तबके की भलाई की लड़ाई लड़ने से पूरे राष्ट्र का भला नहीं होनेवाला. सत्ताधारी तो चाहते ही हैं कि लोग छोटे-छोटे दायरों में बंटे रहें ताकि वे राज करते रहें. उन्हें वोटों का गणित तय करने में आसानी हो. बहरहाल झारखंड की मुंडा सरकार ने यदि विस्थापितों के पुनर्वास के मामले में टालमटोल का रवैया जारी रखा तो आनेवाले समय में भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा.

फर्क बाप बेटे के नज़रिये  का 

हाल में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन ने एक बयां जारी कर कहा कि झारखंड में सरकारी नौकरी सिर्फ मूलवासियों को मिलेगी. इधर उनके सुपुत्र उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने एक बयान में कहा कि बेहतर था कि झारखंड संयुक्त बिहार का ही हिस्सा बना रहता. जाहिर है कि शिबू सोरेन ने अपने जनाधार को मज़बूत बनाये रखने की नीयत से अपना बयान दिया जबकि हेमंत ने राज्य गठन के दस वर्षों बाद भी राज्य का समुचित विकास नहीं हो पाने से क्षुब्ध होकर अपनी बात कही. उनकी प्रतिक्रिया एक युवा नेता की अनुभूतियों का स्वाभाविक इज़हार था. उसके अन्दर कोई राजनीति नहीं बल्कि जनाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो पाने का दर्द था. साथ ही यह संदेश कि वे सभी समुदायों को एक नज़र से देखने वाले और सच्चाई का खुला इज़हार करने का साहस रखने वाले एक विजिनरी नेता हैं. अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि अलग राज्य बन्ने के दस वर्षों बाद भी नए झारखंड के निर्माण की दिशा में ठोस कदम क्यों नहीं उठाये जा सके. सिर्फ घोटालों का अंबार क्यों लगता चला गया जबकि राज्य के मुख्यमंत्री का पद अघोषित रूप से आदिवासियों के लिए आरक्षित रहा. उन्हें कम से कम आदिवासी समुदाय के उत्थान का काम तो करना चाहिए था. लेकिन उन्होंने सिर्फ अपने और अपने करीबी लोगों के विकास का काम किया. सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए समुदाय की भावनाओं को भड़काते रहे. राज्य के विकास के लिए इन छोटे-छोटे दायरों से बाहर निकलना होगा. अपने साथ गठित राज्यों से कुछ सबक लेनी होगी. राज्य का गठन चंद लोगों के लिए नहीं पूरी आबादी के उत्थान के उद्देश्य से किया गया था. इसमें विफल हुए तो आनेवाली नस्लों को क्या जवाब देंगे.   

----देवेंद्र गौतम    

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