झारखंड में अतिक्रमण हटाओ अभियान अब स्वार्थ की राजनीति की रोटी सेंकने का जरिया बन चुका है. इस अभियान में उजाड़े गए लोगों के नाम पर घडियाली आंसू बहाने और इस बहाने अपना वोट बैंक मज़बूत करने की होड़ सी मची हुई है. मंगलवार 6 अप्रैल को पौलिटेक्निक की ज़मीन पर अवैध रूप से बसे इस्लामनगर में 300 घरों को बुलडोज़र से ढाह दिया गया. करीब 15 हज़ार की आबादी बेघर हो गयी. इस क्रम में पुलिस और स्थानीय लोगों के बीच हिंसक झड़प भी हुई जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी और 26 पुलिसकर्मियों सहित 41 लोग घायल हो गए. घायलों में केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत भी शामिल थे. पता चला कि इस्लामपुर के लोग जगह खाली करने को तैयार थे लेकिन मंत्री सुबोधकांत ने घोषणा की थी कि इस्लामपुर को उजाडा गया तो प्रशासन की ईंट से ईंट बजा दिया जायेगा. उनकी घोषणा ने वहां के निवासियों के अन्दर कुछ उम्मीद जगाई. ईंट से ईंट बजाने की मानसिक और सामरिक तैयारी हो गयी. लेकिन तिनके के इस सहारे ने तो और भी बेसहारा कर दिया. हाल में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी नागा बाबा खटाल के उजाड़े गए लोगों के पास गए थे. उनका जुलूस लेकर राजभवन गए. पुनर्वास की मांग की पुनर्वास होने तक खटाल के मलवे में ही रहने की सलाह दी.अब कोंग्रेस के लिए इसका जवाब देना ज़रूरी हो गया. सो केन्द्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय ने इस्लामपुर को मोर्चा बनाया. वह उनके चुनाव क्षेत्र में आता ही है. सो एक क्रांतिकारी ऐलान कर डाला. हिंसक झड़प में उन्हें भी कुछ चोट लगी. पुनर्वास की मांग और घटना की भर्त्सना करने बाद उन्हें भी गिरफ्तार किया गया. थोड़ी देर बाद रिहा हुए और वे बाहर चले गए. झारखंड विधान सभा के अध्यक्ष सीपी सिंह भी इस अभियान से काफी विचलित हैं. उनका चुनाव क्षेत्र भी यहीं पड़ता है. नागा बाबा खटाल में अभियान चलने के दिन वे झारखंड हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश के पास वे गए थे. हालांकि बाद में उन्होंने इसे अनौपचारिक भेंट बताया. बहरहाल इसके बाद उन्होंने नौकरशाहों की एक बैठक बुलाकर इस अभियान को अमानवीय होने से रोकने की सलाह दी. इस मुद्दे पर राज्यपाल को उन्होंने एक ज्ञापन भी दिया. पता नहीं क्यों उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष के पद में निहित शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया. वे चाहते तो विधान सभा का विशेष सत्र बुलाकर इस अभियान पर रोक लगाने का आदेश पारित करा सकते थे. इधर उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन उजड़े गए लोगों के पुनर्वास के लिए ज़मीन चिन्हित कर चुकने की बात कर रहे हैं. आम लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि इतने लम्बे समय से इतने बड़े पैमाने पर अतिक्रमण की जानकारी सरकार और प्रशासन को कैसे नहीं थी. जानकारी थी तो ऐसी बस्तियों को बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं कैसे मुहैय्या करायी गयीं. अतिक्रमण हटाओ अभियान भी अचानक नहीं शुरू हुआ. इसकी जानकारी करुण रस में डूबे पक्ष-विपक्ष नेताओं को भी थी और इन बस्तियों के नागरिकों को भी. फिर बुलडोजर चलने तक का इंतज़ार क्यों किया गया. जहां तक उजड़े गए लोगों के पुनर्वास का सवाल है वैधानिक रूप से तो नहीं लेकिन मानवीय आधार पर इसकी ज़रुरत है लेकिन खतरा इस बात का है कि कहीं यह उदारता सरकारी ज़मीन आवंटित कराने का फार्मूला न बन जाये. एक बड़ी आबादी के पास सर छुपाने को छत नहीं है. स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर, सार्वजनिक उद्यानों में, फुटपाथ पर रातें गुज़रते हैं लोग. क्यों नहीं सरकार शहर के बाहर एक-एक कमरे के फ्लैटों का निर्माण कराकर पहले आओ पहले पाओ के आधार पर खुले तौर पर, बिना किसी शर्त के आवंटित करे. आवास को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जाये. आवास ही क्यों भोजन, पेयजल, शिक्षा, चिकित्सा आदि तमाम बुनियादी ज़रूरतों को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल कर इनकी आपूर्ति की जिम्मेवारी सरकार को लेनी चाहिए. लेकिन यह सब किसी संवेदनशील सरकार में ही संभव है. घोटालों के ताने-बाने बुनने में व्यस्त घडियाली आंसू बहाने वाले इन स्वार्थी नेताओं से तो कभी यह उम्मीद नहीं ही की जा सकती है.
-----देवेंद्र गौतम
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