एक शेर था। उसकी मांद में कहीं से एक चूहा चला आया। दिनभर का थका-मांदा शेर रात को जब सो जाता तो चूहा उसके शरीर पर कूदने लगता। इससे उसकी नींद टूट जाती। वो झपट्टा मारता तो चूहा भाग जाता। कई दिनों तक वह सो नहीं पाया तो एक दिन एक बिल्ली को ले आया। उसकी खूब खातिर की। बिल्ली के डर से चूहा दुबका रहा. रात को शेर चैन से सोया। इसके बाद शेर रोज-रोज बिल्ली के खाने के लिए तरह-तरह की चीजें लाता। बिल्ली के दिन मज़े में कट रहे थे। एक दिन जब शेर जंगल में शिकार खेलने गया था। बिल्ली की नज़र चूहे पर पड़ी। उसने चूहे को मार डाला। कई दिनों बाद शेर ने बिल्ली से पूछा कि आजकल चूहा दिखाई नहीं देता तो बिल्ली ने बताया कि उसने उसे मार डाला है। शेर ने चैन कि साँस ली। लेकिन उसदिन के बाद चूहे की खातिरदारी बंद कर दी। बिल्ली को खाने पर आफत आ गयी। उसे समझ में आ गया कि चूहे को मारकर उसने अपनी सहूलियतों का रास्ता बंद कर दिया है। नक्सल प्रभावित राज्यों की सरकारों और पुलिस की हालत भी उस बिल्ली जैसी है जिसे चूहे की मौजूदगी के कारण सहूलियतें मिल रहीं हैं। चूहा गया सहूलियतें गयीं। नक्सल समस्या के नाम पर केंद्र से प्रतिवर्ष करोड़ों का आवंटन मिल रहा है जिसका अधिकांश हिस्सा राजनेताओं और नौकरशाहों की जेब में जाता है। वे तो चाहते हैं कि सूबे के बचे-खुचे जिले भी नक्सल प्रभावित घोषित हो जाएँ ताकि इस मद की राशि में और इजाफा हो।
यही कारण है कि युद्धविराम की घोषणा के बाद भी न सरकार इसपर अमल नहीं कर रही है। वार्ता का प्रस्ताव रखा गया है। इसपर सहमति भी बनी है लेकिन एक दूसरे के प्रति अविश्वास कायम है। सुरक्षाकर्मी माओवादी नेताओं की गिरफ्तारी में लगे हैं और राजनेता उनसे वार्ता की शर्तों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। राजनेताओं को नक्सल उन्मूलन के नाम पर आने वाली राशि के बंदरबांट में शेयर मिल ही जाता है। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों का वोट बैंक भी बना रहता है। इसी कारण वे अन्दर से माओवादियों के विरुद्ध ऑपरेशन के पक्ष में नहीं हैं। झारखण्ड के मुख्य मंत्री शिबू सोरेन मामले को टालने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। झारखण्ड में नक्सल उन्मूलन के मद की राशि के बंदरबांट के कई मामलों का खुलासा हो चुका है। लेकिन मामले की जांच को टालने की हर-संभव कोशिश चल रही है। सच यह है कि नक्सल समस्या एक दुधारू गाय बन चुकी है जिसे कोई गवांना नहीं चाहता।
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