हमारी महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले 'बचपन' वाकई कही खोता जा रहा है...हमें डॉक्टर , इंजीनियर या आई. ए. एस. चाहिए, एक अच्छा नागरिक नही... परिणामतः बच्चे सभी चीजों से दूर होते जा रहे है, फिर चाहे वो प्रकृति हो , संस्कृति हो , खेल हो या संवेदनाएं हों ....याद कीजिये हमने अपना बचपन कैसे जिया था...क्या नहीं लगता की बच्चों के साथ हम अन्याय कर रहे है ???
बच्चे नहीं जानते,
आम, अमरुद, इमली, जामुन आदि पेड़ों के फर्क,
कनईल, हरसिंगार, गुडहल के फूलों के रंग,
नहीं लुभाती उन्हें
गौरैया की चहचहाहट,
मैना की मीठी बोली ,
तितलिओं के पंख ,
'होरहा' की सोंधी महक ,
ताज़ा बनते 'गुड' की मिठास,
कोयले पर सीके 'भुट्टों' का स्वाद ,
नहीं सुनी कभी 'राजा- रानी' की कहानियां
'बिरहा' और 'पूर्वी' के आलाप
महसूसा ही नहीं
'बगईचा' में झुला झूलने ,
'देंगा-पानी', 'दोल्हा-पाती' खेलने का सुख
बच्चे भूल चुके हैं सपने देखना
'बचपन' नहीं जीते वे
क्यूंकि जरुरी होता है 'बड़ा' बन जाना ,
तय की है हमने उनकी 'नियति',
उन्हें हमारे बनाए 'सांचे' में ही ढलना है
और 'इन्सान' नहीं,
एक 'मशीन' सदृश बनकर ही निकलना है
......स्वयम्बरा
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