हवा में तैरते रहे नक्सल अभियान के सवाल
देवेंद्र गौतम
मई महीने की भीषण गर्मी में केंद्रीय
गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे अपने लाव-लश्कर के साथ झारखंड दौरे पर आये. कुछ नक्सल
प्रभावित इलाकों का दौरा किया. अधिकारियों के साथ बैठकें कीं. आवश्यक निर्देश दिये
और वापस लौट गये. लेकिन इस दर्मियान माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच वर्षों से
चल रही जंग के कुछ बुनियादी मगर संवेदनशील सवालों पर कोई चर्चा नहीं हुई.
गृहमंत्री के आगमन के तीन-चार दिन पूर्व 2008 के
शहीद डीएसपी प्रमोद कुमार के परिजन रांची आये थे. उन्हें उम्मीद थी कि गृहमंत्री
के दौरे के दौरान उन्हें उनका हक दिये जाने की दिशा में कुछ बात बढ़ेगी लेकिन
उन्हें इसमें निराशा ही हाथ लगी. इस विषय पर औपचारिक चर्चा ही हो सकी. राज्य सरकार
से इसपर बात करने का आश्वासन भर मिला.
2008 के दौरान डीएसपी प्रमोद कुमार रांची
जिले के नक्सल प्रभावित बुंडू में पदस्थापित थे. उन्होंने माओवादियों के खिलाफ
जबर्दस्त अभियान चलाया था. 30 जून 2008 को नक्सलियों के साथ एक मुठभेड़ में वे
शहीद हो गये थे. उस वक्त झारखंड के तत्कालीन डीजीपी उनके जामताड़ा स्थित पैतृक
आवास पर गये थे. शहीद डीएसपी के परिजनों को रांची में सरकारी आवास और आश्रित को
नौकरी देने की घोषणा की थी लेकिन घटना के करीब पांच वर्ष गुजर चुकने के बाद भी
इनमें से कोई वादा पूरा नहीं हो सका.
प्रमोद कुमार झारखंड पुलिस सेवा में शहादत
के कुछ ही वर्ष पहले आये थे. अभी उनकी शादी भी नहीं हुई थी. उनके परिजनों ने एकमत
होकर उनके भतीजे अनिमेष कुमार को अनुकंपा के आधार पर वर्ग-2 राजपत्रित पद पर नौकरी
दिलाने का आवेदन दिया. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री कार्यालय समेत केंद्र और राज्य
के दर्जनों जन प्रतिनिधियों ने उनकी मांग को जायज बताते हुए इसे जल्द पूरा करने की
अनुशंसा की. गृह विभाग के वरीय अधिकारियों ने भी इसपर सहमति जतायी लेकिन बार-बार सरकारें
बदलने के कारण मामला लटका रहा. अभी भी यह परिवार झारखंड सरकार और डीजीपी की
घोषणाओं की पूर्ति की बाट जोह रहा है. यह कोई पहली घटना नहीं है. न ही आखिरी. इस
अभियान में शहीद हुए अधिकांश पुलिसकर्मियों के परिजनों को सरकारी तंत्र की
संवेदनहीनता का दंश झेलना पड़ता है.
एक जानकारी के मुताबिक माओवादी संगठन
पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने वाले अपने लड़ाकों के परिजनों को अपने नियमों के
अनुरूप तत्काल सहायता पहुंचाता है और आजीवन उनकी देखभाल का जिम्मा उठाता है. यही
कारण है कि उनके लोग जब हथियार लेकर मैदान में उतरते हैं तो उन्हें इस बात की
चिंता नहीं होती कि उनके बाद उनके परिवार का क्या होगा. उन्हें अपने संगठन पर
भरोसा होता है. यह भरोसा सुरक्षा बलों को नहीं होता. शहीदों के परिजनों के साथ
होने वाले व्यवहार और सरकारी वायदों की हकीकत वे अपनी आंखों से देख रहे होते हैं. प्रमोद
कुमार ही नहीं झारखंड राज्य के गठन के 12 वर्षों में इस जंग में शहादत देने वाले 417
पुलिसकर्मियों के अधिकांश परिजनों के अनुभव कटु ही रहे हैं. सरकारी तंत्र का काम
करने का तरीका इतना पेचीदा है कि घटना के बाद भावनात्मक प्रवाह में किये गये
सरकारी वायदे बाद में मृगमरीचिका प्रतीत होने लगते हैं. सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक
झारखंड में मात्र 2628 नक्सली हैं जो 17 संगठनों में विभाजित हैं. उनके नियंत्रण
के लिये 70 हजार जवान लगाये गये हैं. फिर भी नक्सलियों पर काबू पाने में सफलता
नहीं मिल पा रही है.
अभियान की राशि के दुरुपयोग का मुद्दा भी
काफी गंभीर है. नक्सल उन्मूलन के लिये कई करोड़ की राशि हर वर्ष आवंटित होती है.
गुप्त सेवा धन की राशि भी लगातार बढ़ती गयी है. उसके दुरुपयोग का मामला भी प्रमाण
सहित सामने आया. लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. सरकार ने मामले को दबाये रखने की ही
कोशिश की. कई वर्षों से गुप्त सेवा धन का उपयोगिता प्रमाण पत्र तक महालेखाकार को
नहीं दिया गया. फिर भी सरकार ने आंखें बंद रखीं. यह इस मामले में सरकारी तंत्र की मिलीभगत
या अगंभीरता को दर्शाता है.
आम ग्रामीण जनता के प्रति पुलिस
अधिकारियों के व्यवहार को नम्र रखने की लगातार कोशिश होती है. इस संबंध में
निर्देश दिये जाते हैं. कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं. पुलिस पब्लिक मीट कराया
जाता है लेकिन दारोगा और इंसपेक्टर स्तर तक के अधिकारी वर्दी की गर्मी को बर्दाश्त
ही नहीं कर पाते. वे अमीरों और दबंगों के साथ मित्रवत रहते हैं लेकिन गरीबों को
प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं चूकते. उनकी शिकायत तक दर्ज नहीं करते. इसके कारण
उन्हें जनता का सहयोग नहीं मिल पाता.
फिर भी पता नहीं क्यों नक्सल समस्या को लेकर
होने वाली उच्चस्तरीय बैठकों में इन विषयों पर कोई चर्चा नहीं होती. यही कारण है
कि इतनी तैयारियों और बेतहाशा खर्च के बावजूद इस समस्या का निदान नहीं हो पा रहा
है और सिर्फ सुरक्षा बलों की कमी का रोना रोया जाता है. कोई यह मानने को तैयार
नहीं होता कि कहीं न कहीं नीतिगत खामियां और रणनीतिक कमजोरियां हैं. इनकी पड़ताल
करने की जरूरत है. यदि शहीदों के प्रति आदर और सम्मान का सिर्फ दिखावा भर किया
जाता रहेगा तो सुरक्षा बलों और इस अभियान में लगे अधिकारियों का मनोबल कैसे ऊंचा
रह सकेगा. वे शांति व्यवस्था की बहाली के लिये जान न्यौछावर करने के जज्बे को कैसे
बरकरार रख सकेंगे. यदि अभियान के लिये मिलने वाली राशि का उपयोग ऐश मौज में किया
जायेगा, इसकी बंदरबांट की जायेगी तो अभियान का सकारात्मक परिणाम कैसे आयेगा. इसपर
विचार किये जाने की जरूरत है.