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शनिवार, 27 सितंबर 2014

मानव अंगों की तस्करी से तो नहीं जुड़ा था निठारी कांड

नोएडा। निठारी कांड के मुख्य अभियुक्त सुरेंद्र कोली की फांसी की सजा पर 29 अक्टूबर तक रोक लगी दी गई है। 8 सितंबर की सुबह उसे फांसी दी जानी थी। इसकी पूरी तैयारी हो चुकी थी। इसके लिए इलाहाबाद की नैनी जेल से रस्सा आ चुका था। मेरठ के पवन जल्लाद ने फंदा तैयार कर लिया था। लेकिन एक दिन पूर्व उसकी अपील पर कोर्ट ने एक सप्ताह की छूट दे दी। फिर 29 अञ्चटूबर तक की मोहलत दे दी गई।
इस बीच कोली की मां मेरठ जेल में उससे मिली। उसने सीधे तौर पर कोली के मालिक मोहिंदर सिंह पंधेर को इस पूरे मामले के लिए दोषी ठहराते हुए कोली को फंसाने का आरेप लगाया। पंधेर को कुछ मामलों में जमानत मिल चुकी है। कुछ में मिलनी बाकी है। वह इस मामले से बच निकला है। सारी गाज कोली पर गिरी है। हाल में मिली कुछ जानकारियों से यह मामला कुछ और ही नजर आता है। इसपर नए सिरे से अनुसंधान की जरूरत है।
ग्रामीणों का कहना है कि उसकी कोठी न.-5 पर एंबुलेस का आना जाना लगा रहता था। इससे आशंका हो रही है कि कहीं यह मामला मानव अंगों की तस्करी का तो नहीं। पंधेर के फ्रिज में बच्चों की हत्या के बाद उनका मांस रखे जाने की बात अनुसंधान में सामने आई थी। कहा गया था कि कोली आदमखोर था और उनका मांस पकाकर खाता था। सवाल है कि कोई नौकर मनुष्य का मांस फ्रिज में रखेगा और मालिक को पता नहीं चलेगा। अनुसंधान का विषय यह है कि दो लोगों के निवास वाली कोठी में एंबुलेस ञ्चयों आता जाता था। कहीं ऐसा तो नहीं कि फ्रिज में किडनी, आंख जैसे अंग तो नहीं रखे जाते थे और बच्चों की सिरियल हत्या इसी के लिए तो नहीं की जा रही थी?
14 वर्षीय रीपा हलदर की हत्या और निठारी कंकाल कांड के चार अन्य मामलों में कोली को फांसी की सजा सुनायी गई थी। सुरेंद्र कोली की दया याचिका को राष्ट्रपति ने ठुकरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी। 12 सितंबर तक उसे फांसी पर लटका दिए जाने का आदेश था लेकिन सुप्रीम कोर्ट से एक मौके दिए जाने पर 7 सितंबर की रात उसने अपील की। इसपर कोर्ट ने फांसी पर एक हक्रते के लिए रोक लगा दी। अभी फांसी की कोई अगली तारीख और समय निश्चित नहीं किया गया है। सुरेंद्र कोली मोहिंदर पंधेर का नौकर था।
इस दिल दहला देने वाले मामले का खुलासा 29 दिसंबर 2006 को सेक्टर-31 स्थित निठारी गांव में 19 नरकंकालों की बरामदगी से हुआ था। घटना के खुलासे से पूरे देशभर में कोहराम मच गया था। निठारी कांड के बारे में जानने के बाद पूरा देश दंग रह गया था। 29 दिसंबर 2006 की उस सुबह गांव के लोगों के चेहरे पर भय था और आंखोंं में गुस्सा, जो आज तक बरकरार है। जिस दिन बच्चों की लगातार नृशंस हत्याओं और उनका मांस भक्षण किए जाने की घटना का खुलासा हुआ, देश के सुरक्षा तंत्र और कानून व्यवस्था पर लोगों का भरोसा डगमगा गया। इस कांड के मुक्चय आरोपी सुरेंद्र कोली के मृत्युदंड पर उच्चतम न्यायालय ने एक हक्रते तक रोक तो लगा दी लेकिन फांसी की अगली तारीख को स्पष्ट नहीं किया है। वहीं इस कांड के दूसरे मुक्चय आरोपी मोहिंदर पंधेर को जमानत मिल गई है। लेकिन अभी वह जेल से रिहा नहीं हो पाया है। ञ्चयोंकि कई अन्य मामलों में उसे जमानत नहीं मिली निठारी में कुल 19 मासूमों की बलि दी गई थी। नोएडा पुलिस गहन जांच-पड़ताल के बाद हत्यारे सुरेंद्र कोली तक पहुंची थी। पूछताछ के दौरान उसने बताया था कि निठारी के कोठी नंबर डी-5 के पीछे की तरफ  उसने एक युवती के शव को फेंक दिया था। जब तलाशी ली गई तो एक नहीं, बल्कि दर्जनों लड़कियों के कपड़े बरामद हुए। उस जगह की खुदाई की गई तो नर कंकाल मिलने लगे। निठारी कांड से नोएडा व पूरा देश सकते में आ गया था। इस कांड के खुलासे के बाद बच्चों के लापता होने की घटनाओं को गंभीरता से लिया जाने लगा।

ऐसे खुला निठारी कांड का राज
सनसनीखेज निठारी कांड का सुराग एक मोबाइल फोन से मिला था। दरअसल, वह मोबाइल फोन निठारी आने के बाद गायब हुई 23 वर्षीय सुमन (बदला हुआ नाम) का था। पता चला कि उस मोबाइल फोन में बरौला निवासी राजपाल नामक व्यक्ति अपना सिमकार्ड इस्तेमाल कर रहा है। पुलिस की एक टीम ने उसका पता लगाकर दबोच लिया। पूछताछ करने पर पता चला कि राजपाल ने वह मोबाइल फोन संजीव से खरीदा था। संजीव से भी पूछताछ करने पर पता चला कि उसने रिक्शा चलाने वाले सतलरे से खरीदा था। खोजबीन के बाद पुलिस सतलरे के पास पहुंची, लेकिन जवाब पाकर पुलिस की जांच थम गई। उसने बताया कि एक दिन उसने सेक्टर-36 से निठारी मेन रोड पर ही एक व्यक्ति को उतारा था। उसी ने अपना मोबाइल फोन छोड़ दिया था। इस तरह पुलिस को पता चल गया कि युवती को गायब करने के पीछे निठारी के ही किसी शक्चस का हाथ है। वह कौन है, इस पर संशय बना रहा। मोबाइल फोन में लगे सिमकार्ड के डिटेल की जांच करने पर पता चला कि उसमें सुरेंद्र कोली के नाम पर खरीदा गया सिम कार्ड इस्तेमाल किया गया है, लेकिन पता के नाम पर सिर्फ  निठारी गांव लिखा था। पुलिस टीम ने उस नंबर की कॉल डिटेल निकालकर जांच की।

कोली ने कबूली थी 17 बच्चों की हत्या की बात
कोमल की मौत का सच उगलवाने के लिए पुलिस की गहन पूछताछ के दौरान नौकर सुरेंद्र कोली ने केवल एक हत्या की बात स्वीकार की थी। उसने बताया था कि उसकी हत्या करने के बाद कोठी के पीछे ठिकाने लगा दिया था। छानबीन के दौरान पुलिस को कोठी के पीछे छोटे बच्चों के कपड़े और कंकाल मिले थे। इससे स्पष्ट हो गया कि निठारी से लगातार बच्चों के गायब होने के पीछे इसी कोठी में रहने वालों का हाथ था। पुलिस ने दोबारा पूछताछ की तो बच्चों के गायब होने का राज खुल गया। धीरे-धीरे नौकर ने 17 बच्चों की हत्या की बात कबूल की थी। लेकिन कोठी के मालिक मोहिंदर सिंह पंधेर पर उतने संगीन आरोपों का साक्ष्य नहीं मिल पाया।


हिन्दी-उर्दू साहित्य की त्रासदी

देवेंद्र गौतम
इक्कीसवीं सदी आते-आते बाजारवाद और उपभोक्तावाद का साहित्य और पत्रकारिता पर असर दिखने लगा । इस क्रम में जन-सरोकार की जगह बिकाउ रचनाओं के सृजन पर जोर दिया जाने लगा। बाजारवाद की इस कसौटी पर अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं ने तो अपनी जगह बना ली लेकिन हिन्दी और उर्दू साहित्य सामंजस्य नहीं बिठा पाया। इसका एक बड़ा कारण प्रकाशकों में उपभोक्ता बाजार तक जाने का जोखिम उठाने के साहस का अभाव रहा है। साहित्य के प्रकाशक सरकारी खरीद-फरोख्त से आगे बढऩे में हिचकते हैं। पुस्तक मेलों के जरिए  उपभोक्ताओं तक पहुंच बनाने की कोशिशें जरूर हुईं लेकिन कहीं से भी आक्रामक मार्केटिंग की शुरुआत नहीं की जा सकी। प्रचार के इस युग में भी प्रकाशक हिन्दी-उर्दू की की पुस्तकों का व्यावसायिक विज्ञापन नहीं देते। इसके लिए उनके पास कोई बजट नहीं होता। इसके कारण पाठकों को नए प्रकाशन की जानकारी नहीं मिल पाती। इसलिए इन भाषाओं की कोई पुस्तक, चाहे वह कितनी भी रोचक और महत्वपूर्ण हो, बेस्टसेलर नहीं बन पाती। प्रकाशकों की सुरक्षात्मक मार्केटिंग के कारण  उपभोक्ताओं तक सही साहित्य पहुंच नहीं पाता। इसकी जगह लुगदी साहित्य आम पाठकों तक पहुंच बनाने में अपेक्षाकृत ज्यादा सफल रहा है। इस दौर में कवि सम्मेलनों का स्तर भी गिरा है। इनके आयोजक अब हास्य-व्यंग्य या फूहड़ रचनाओं के जरिए ताली बटोरने वाले कवियों को प्राथमिकता देते हैं। जन सरोकार की कविताएं रचने वाले गंभीर कवियों को जनता के सामने नहीं लाया जाता।
जनवादी लेखक संघ से जुड़े अनवर शमीम कहते हैं, ‘ उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन करोड़ों में होते हैं लेकिन साहित्य के प्रचार-प्रसार पर एक छदाम भी खर्च नहीं किया जाता। बाजार के साथ नहीं चलने पर पिछड़ जाना तो स्वाभाविक ही है।’
शिक्षा की दुनिया में निजी स्कूलों के बढ़ते वर्चस्व का असर भी पड़ा है। बुनियादी स्तर पर पाठ्य पुस्तकों का चयन स्कूल प्रबंधन स्वयं करते हैं। वे अपने हिसाब से इन्हें तैयार करवाते हैं। इस क्रम में हिन्दी की पुस्तकों में अपने परिचितों की रचनाएं डलवाते हैं। इसके कारण बच्चों को साहित्य का संस्कार नहीं दिया जा पाता। सामाजिक बदलाव के साहित्य से इनका परिचय नहीं हो पाता। पत्रकारिता में भी साहित्य का पन्ना गायब हो चुका है। अधिकांश अखबार अब साहित्यिक रचनाओं और गतिविधियों को प्रमुखता नहीं देते। 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

किस दिशा में होगी हंस की अगली उड़ान

देवेंद्र गौतम
राजेंद्र यादव के देहांत के बाद हंस का प्रकाशन तो नियमित हो रहा है लेकिन इसमें साहित्य का वह रस नहीं रहा जो यादव जी के जमाने में था। इसमें बदलाव आ रहा है, जिसे कुछ हद तक सकारात्मक ही कहा जा सकता है।
साहित्यिक पत्रिका हंस की स्थापना भले 1930 में प्रेमचंद ने की थी लेकिन 1986 के बाद यह राजेंद्र यादव का ब्रांड बन गया। वामपंथी धारा के तहत स्त्री विमर्श और दलित विमर्श से संबंधित कहानियां और बहसें इसकी पहचान बन गईं थी। अब उनके देहांत के बाद उनके उत्तराधिकारी संपादक संजय सहाय और प्रबंध संपादक रचना यादव के नेतृत्व में जिस पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है वह हंस तो है लेकिन न राजेंद्र यादव की छाप होते हुए भी यह राजेंद्र यादव का हंस नहीं है। भले ही अभी इसके प्रारंभिक संकेत ही दिख रहे हैं लेकिन इसकी एक अलग दिशा में यात्रा शुरू हो चुकी है जिसे एक हद तक सकारात्मक ही कहा जा सकता है ।
राजेंद्र यादव के बेबाक और विवादास्पद संपादकीय लेख साहित्य प्रेमियों के मानस में एक अलग रस का प्रवाह करते थे। उनकी आलोचना भी खूब होती थी लेकिन राजेंद्र यादव की एक खासियत थी कि वे आलोचनाओं से नाराज अथवा विचलित नहीं होते थे, बल्कि उनका आनंद लेते थे। 28 अक्टूबर 2013 को उनके देहावसान के बाद वरिष्ठ कथाकार संजय सहाय संपादक बने। राजेंद्र यादव ने अपने जीवनकाल में ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। उन्हें सह संपादक की जिम्मेवारी देकर अपनी विरासत संभालने के लिए तैयार भी किया था। लेकिन यादव जी के देहांत के बाद संजय सहाय संपादकीय के नाम पर सिर्फ यादव जी के साथ बिताए दिनों के संस्मरण लिखे जा रहे हैं। इसके कारण एक संपादक के रूप में उनकी अपनी दृष्टि साहित्य जगत के सामने नहीं आ पा रही है। इस लिहाज से यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि संजय सहाय इसे वास्तव में किस दिशा में ले जाएंगे। जहां तक रचनाओं के चयन का सवाल है अभी तक छप रही अधिकांश रचनाएं यादव जी के काल में चयनित हैं। लेकिन एक अंतर जरूर आया है कि अब यौन कुंठित रचनाकारों को पहले जैसा स्पेस नहीं मिल रहा है। उनमें विविधता आई है। धनबाद के कवि और हंस के वर्षों से नियमित पाठक अनवर शमीम कहते हैं, ‘राजेंद्र जी के समय स्त्री विमर्श के नाम पर हंस में यौन कुंठितों का जमावड़ा हो गया था। अब कम से कम विविध विषयों से संबद्घ साफ-सुथरी कहानियां आ रही हैं। बहसें भी स्तरीय हो रही हैं। मुझे तो बदलाव बेहतर लग रहा है।’
आज हिंदी साहित्यकारों का एक वर्ग हंस की नई टीम को अक्षम और नाकारा बताने का प्रयास कर रहा है। बाजाप्ता एक अभियान चला रखा है। इसका कारण यह है कि यादव जी के विरासत के दावेदारों की लंबी फेहरिश्त थी। लेकिन राजेंद्र यादव ने बहुत कुछ सोच समझकर अपने उîाराधिकारियों का चयन किया था। अब  जिन लोगों की उक्वमीदों पर पानी फिरा वह किसी न किसी रूप में अपनी खीज मिटा रहे हैं।
हंस का इतिहास प्रेमचंद से जुड़ा था, वर्तमान राजेंद्र यादव से जुड़ा है मगर इसका भविष्य इसकी नई टीम के साथ निर्धारित होना है। राजेंद्र जी ने स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के रूप में साहित्य की एक नई धारा की शुरूआत की थी। इनसे जुड़ी बहसों और कहानियों, कविताओं को इसमें जगह मिलने लगी थी। लेकिन उनका स्त्री विमर्श स्त्री मुक्ति के नाम पर यौन उत्श्रृंखलता की ओर केंद्रीत हो गया था। सेक्स का खुलापन हंस का की रचनाओं का मुख्य स्वर बन गया था। बहरहाल, राजेंद्र जी के संपादकीय बेबाक और विवादास्पद होने के बावजूद सुगढ़ भाषा में लिखे होते थे जिनमें एक अलग रस हुआ करता था। जो हंस की एक अलग पहचान बनाते थे। उनके समय में पत्रिका का वैचारिक पक्ष बहुत मजबूत हुआ करता था।
निश्चित रूप से किसी संपादक की संपादकीय दृष्टि, रचना चयन के पैमाने और उसकी विचार यात्रा की क्षतिपूर्ति संभव नहीं होती। राजेंद्र यादव के उत्तराधिकारी व हंस के वर्तमान संपादक संजय सहाय हिंदी के एक प्रतिष्ठित कथाकार हैं। उनके अंदर पत्रिका निकालने की प्रतिबद्घता है लेकिन उनसे राजेंद्र यादव का क्लोन होने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
हिन्दी के चर्चित कवि मदन कश्यप कहते हैं, ‘संजय सहाय अच्छे कथाकार हैं। लेकिन संपादक बनने के बाद से अभी तक संपादकीय के रूप में वह राजेंद्र जी के प्रसंग ही लिखते आ रहे हैं। इसलिए फिलहाल हंस की भावी दशा और दिशा के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।’
फिर भी मदन कश्यप जी का मानना है, ‘पत्रिका पर असर तो पड़ा है। इसमें कमजोर कविताएं छप रही हैं कि राजेंद्र जी होते तो शायद ऐसी कविताएं नहीं छापते।  फिर भी रचना यादव के प्रबंधन कौशल और संजय सहाय की प्रतिबद्घता से यह उम्मीद जरूर बनती है कि पत्रिका का प्रकाशन नियमित रूप से जारी रहेगा और समय के अंतराल में इसकी एक नई पहचान भी बनेगी।’
हिंदी-उर्दू के गजलकार सौरभ शेखर का मानना है, ‘हंस में हिंदी गजल के नाम पर ऐसी रचनाएं छपती रही हैं जिनमें बहर का पालन नहीं होता। काफिया रदीफ तक की गल्तियां होती हैं। एक प्रतिष्टित पत्रिका के जरिए किसी विधा की कमजोर रचनाओं का प्रकाशन अफसोस जनक है। कम से कम नई टीम को इसपर ध्यान देना चाहिए।’
 हालांकि संपादक के देहांत के बाद एक लंबे समय तक पाठकों की स्मृति में उनकी छाप बनी रहती है। नई पहचान बनने में थोड़ा समय लग जाता है। युवा समीक्षक पंकज शर्मा का कहना है, ‘साहित्यिक पत्रिकाओं में प्राय: एक वर्ष के अंक तैयार रखे जाते हैं। अभी हंस में जो रचनाएं छप रही हैं उनमें से अधिकांश का चयन राजेंद्र जी का ही किया हुआ है। नई टीम की असली परख तो एक साल के बाद ही की जा सकेगी। फिर भी जितने बेहतर तरीके से हंस ने प्रेमचंद जयंती मनाई और उसके सालाना कार्यक्रम का आयोजन हुआ उससे बेहतर भविष्य की उक्वमीद बनती है।’
हालांकि हंस अगस्त अंक में प्रकाशित सर्वेश्वर प्रसाद सिंह के लेख ‘रामचरित मानस और प्रगतिशीलों के पूर्वाग्रह’ को हंस की वैचारिक यात्रा के किसी और दिशा में चल निकलने का संकेत बताया जा रहा है। मदन कश्यप कहते हैं, ‘रामचरित मानस के कुछ प्रसंगों पर दलितों और रूढि़वादियों का विरोध रहा है। प्रगतिशीलों का इससे खास वास्ता नहीं रहा है। इस बात को नजर-अंदाज कर दिया गया है। यह आलेख दक्षिणपंथी रूझान और सवर्णवादी मानसिकता को अभिव्यक्त करता है।’
संजय सहाय इसे जड़ता तोडऩे के एक प्रयास के रूप में देखते हैं उनका कहना है, ‘इस लेख को जानबूझ कर छापा गया है ताकि जड़ता टूटे। बहस छिड़े। तुलसी का मानस ने जनमानस को लंबे समय से प्रभावित किया है। साढ़े चार सौ वर्षों से बेस्ट सेलर बना हुआ है। इसके असर से इनकार नहीं किया जा सकता। बाल्मीकि के राम मानव थे जबकि तुलसी के राम अतिमानव। इसपर बहस होनी ही चाहिए।’
हालांकि संजय सहाय हंस को उसकी निर्धारित दिशा की ओर ले जाने की अपनी प्रतिबद्घता दुहराते हैं लेकिन राजेंद्र यादव की अपनी अलग व्याक्चया और सोच थी। वर्तमान वैश्विक और भारतीय परिस्थितियों को देखते हुए यदि हंस की नई टीम उदार वामपंथ अथवा वाममुखी मध्यमार्ग की धारा को अपनाती है तो इसे सकारात्मक बदलाव ही कहा जाएगा।




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devendra gautam
assistant editor
News Bench
NOIDA

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

आदिवासी पंचायतों की वैधानिकता का सवाल

वीरभूम जिले में पंचायत के  आदेश पर घटित सामुहिक बलात्कार कांड पर पश्चिम बंगाल के  राज्यपाल एमके० नारायणन ने देश भर में इस तरह के गैर कानूनी अदालत को  बंद करने की अपील की है 

DEVENDRAउन्होंने यह अपील राज्यपाल की हैसियत से की है अथवा एक संवेदनशील भारतीय नागरिक की हैसियत से अपने अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का प्रयोग करते हुए यह तो  पता नहीं लेकिन इसके  अंदर प्रशासनिक नज़रिये की जगह इस घटना से उपजा हुआ क्षोभ और आक्रोश ही दिखाई  पड़ रहा है। यदि उनकी अपील पर देश के  तमाम राज्यों  की सरकारें  अमल करती हैं तों ¨ यह सत्ता के विकेन्द्रीकरण की अवधारणा और पंचायती राज व्यवस्था की परिकल्पना के  विपरीत होगा ।
निश्चित रूप से यह घटना अ्त्यंत निंदनीय, अमानवीय और  शर्मनाक है। इसकी जितनी भी भर्त्सना  की जाये कम है। लेकिन इस एक फैसले से किसी एक पूरी संस्था के  वजूद के   नकारा जाना उचित नहीं है। बल्कि इस संस्था की गड़बडियों के  दुरुस्त करने पर विचार किया जाना चाहिए। भुक्तभोगी आदिवासी युवती का दोष सिर्फ इतना था कि वह समुदाय के  बाहर के  युवक से प्रेम करती थी। प्रेम करना किसी मायने में अपराध की श्रेणी में नहीं आता। इक्कीसवीं सदी में भी इतनी दकियानुसी सोच  का विद्यमान होना  इस बात की अलामत है कि पिछड़े समाजों के  ऊपर उठाने की अबतक की तमाम सरकारी गैर सरकारी को¨शिशें व्यर्थ गई हैं।
युवती का मां-बाप का दोष यह था कि वे गरीब थे और पंचायत के  25 हजार रुपये का दंड भरने की उनकी हैसियत नहीं थी। जाहिर तौर  पर पंच स्थानीय थे और उन्हें भुक्तभोगी परिवार की माली हालत की जानकारी रही होगी। फिर इतनी बड़ी रकम का दंड  लगाना उनकी कुत्सित मानसिकता का ही परिचायक था। माता पिता के  दंड भरने में असमर्थता जताने पर पंचायत ने आदिवासी युवती के  साथ सामुहिक बलात्कार का फरमान जारी कर दिया गया और  उसके आस पडोस के  ग्रामीण इसे अंजाम देने लगे। यह फरमान गैर कानूनी ही नहीं क्रूर और  पूरी तरह आपराधिक माना जाना चाहिए। इसे सामंती दबंगई का एक नमूना ही कहा जा सकता है। घटना के  कई दिन¨ बाद इस अपराध के लिए बलात्कार के 13 आरोपियों  के¨ न्यायिक हिरासत में लिया गया।
गिरफ्तारी में विलंब होने पर जिले के पुलिस कप्तान का तबादला कर दिया गया। लेकिन उन पंचों के कटघरे में खड़ा नहीं किया गया जिन्होंने यह शर्मनाक फैसला सुनाया था। उनकी भी गिरफ्तारी हो¨नी चाहिए। उनपर भी मुकदमा चलाया जाना चाहिए। इस घटना के लिए वे भी उतना ही दोषी हैं जितना उनके फैसले के अमली जामा पहनाने वाले युवती के आस-पडोस  के ग्राणीण। यदि राज्यपाल महोदय ने फरमान जारी करने वाले पंचों  की भी गिरफ्तारी का आदेश दिया होता तो  इसका स्वागत किया जाता। इसका संदेश दूर-दूर तक जाता। पंचायती राज के लिए यह एक नज़ीर बनता। तमा्म जातीय पंचायतों  के गैर कानूनी करार दिया जाना कहीं से भी उचित नहीं है।
आदिवासियों  की पड़हा पंचायत और  मानकी मुंडा प्रशासन के  ब्रिटिश सरकार के  जमाने में ही कानूनी मान्यता मिल गई थी। इसके लिए आदिवासी इलाके में कितने ही आंदोलन हुए। कुर्बानियां दी गईं। उन्हें एक सिरे से गैरकानूनी कहकर प्रतिबंधित कर देना न उचित है न संभव। जिस पंचायत ने यह क्रूर फैसला दिया उसकी कुछ न कुछ वैधानिक हैसियत तो अवश्य रही होगी। वे आदिवासियों  की पारंपरिक व्यवस्था के  तहत मान्यता प्राप्त पंच रहे हैं अथवा पंचायती राज व्यवस्था के  तहत चुने हुए मुखिया सरपंच। गांव समाज के खुद मुख्तार नेता रहे है अथवा ज¨ भी रहे है। उनका जो  भी स्वरूप रहा हो  लेकिन उन्हें पूरी तरह गैरकानूनी तो  नहीं करार दिया जा सकता।
आदिवासी पंचायतें कठोर  दंड देने के  लिए जरूर चर्चे में रही हैं। उनके  यहां डायन-विसाही के आरोप  में महिलाओं  को  मैला पिलाने, नंगा घुमाने का चलन रहा है लेकिन स्त्रियों की आबरू से खेलना उनकी संस्कृति या पारंपरिक दंड संहिता में शामिल नहीं रहा है। संभवतः यह पहला मौका है जब पूर्वांचल के किसी आदिवासी पंचायत ने हरियाणा की खाफ पंचायतो  की तर्ज पर फैसला किया है। इसके  पीछे कौन सी मानसिकता काम कर रही थी। आदिवासी समाज के  अंदर यह विकृति किधर से आयातित है रही है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार किये जाने की जरूरत है।
एक कड़वा सच यह भी है कि हमारे देश की न्याय व्यवस्था इतनी पेंचीदी है कि छोटे –छोटे  मामलें  का फैसला आने में भी कई-कई साल लग जाते हैं। न्याय मिलता भी है त¨ इतने विलंब से कि उससे संतुष्टि या असंतुष्टि के  भाव ही तिर¨हित ह¨ जाते हैं। फरियादी अदालते  के चक्कर लगाता-लगाता पूरी जवानी काटकर बूढ़ा है जाता है।
कभी-कभी तो  फैसला आने तक उसकी आयु ही समाप्त है  जाती है। आरो¨पी भी जमानत पर घूमते-घूमते दंड पाने से पहले ही स्वर्ग सिधार जाते हैं। न मुद्दई बचता है न मुदालय। बच जाते हैं सिर्फ मुकदमें ज¨ तारीख दर तारीख खिंचते चले जाते हैं। क¨यलांचल क¢ बहुर्चिर्चत दास हत्याकांड का फैसला आने आने में कई दशक निकल गए थे। तब तक सारे मुख्य आरोपियों का देहांत हो  चुका था। उनकी जगह परिवादियों  की सूची में शामिल किये उनके  भाई बंधु आजीवन कारावास के  भागी बने। ऐसे सैकडों उदाहरण हैं।
हमारी विलंबित न्याय प्रणाली के कारण ही नक्सल प्रभावित इलाका  में त्वरित फैसला करने वाली नक्सलियों  की जन अदालतें लगाकर  मान्य होती रही हैं। लोग अपनी फरियाद लेकर थाना और कोर्ट -कचहरी का चक्कर लगाने की जगह नक्सलियों  की कमेटियों  में अर्जी देने लगे हैं। उनका कई  वैधानिक अस्तित्व भले नहीं है  लेकिन उनके  इलाके में उनके प्रति एक किस्म की आस्था दिखाई देती है तो  यह हमारी न्याय प्रणाली की कमियों के  कारण ही। नक्सली न भारतीय संविधान के  मानते हैं न दंड संहिता के । उनका अपना अलग जंगल का कानून चलता है।
ग्राम स्तर पर मिल बैठकर मामलों  के  निपटाने की यह क¨ई नई व्यवस्था नहीं है। यह परंपरा प्राचीन काल से ही भारत में प्रचलित रही है। यहां पंच के  परमेश्वर का दर्जा दिया जाता रहा है। महात्मा गांधी भी पंचायती राज व्यवस्था क¨ ग्राम स्वराज का आधार मानते थे। वे सत्ता के  विकेद्रीकरण के हिमायती थे। तमाम राजनैतिक पार्टियां ग्राम पंचायतों को शक्ति संपन्न बनाने की वकालत करती हैं।
राज्यपाल महोदय ने जिस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की है वह सत्ता के केंद्रीकरण की दिशा में संकेत देता है। यह राजतंत्र अथवा तानाशाही की व्यवस्था में ही संभव है। ल¨कतांत्रिक व्यवस्था में विकेद्रीकरण का महत्व है। तब यह जरूरी है कि सत्ता की छो¨टी से छोटी इकाइयां भी एक नियम के तहत चलें। एक दंड विधान है  जिसका हर स्तर पर पालन है। अपराध और  सज़ा के बीच एक तारतम्य है । तमाम फैसले समाज के मान्य है ।
गलत, पक्षपातपूर्ण, मनमाने और  विधान के विरुद्ध फैसले सुनाने वालों  पर कार्रवाई का प्रावधान भी होना चाहिए। मेहनत मजदूरी करके  गुजारा करने वालों  पर छोटी-छोटी गल्ती के लिए बड़ी-बड़ी राशियों  का आर्थिक दंड लादा जाना अराजकता और मनमानी का प्रतीक है।
निश्चित रूप से विकेद्रीकरण अच्छी चीज है लेकिन इसके  नाम पर अराजकता और  वर्वरता के ¨ प्रश्रय नहीं दिया जा सकता। किसी युवती के  साथ सामुहिक बलात्कार करने का आदेश मध्ययुगीन बर्बर समाज¨ में भी नहीं दिया जाता था। यह पूरी तरह आपराधिक कृत्य है। ऐसा फरमान जारी करने करने वाले के  खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई तो  भविष्य में भी इस तरह के  फरमान जारी किये जा सकते हैं।
लेकिन यदि किसी एक पंचायत ने अपने ही पंचायत की बेटी के साथ इस तरह का अमानुषिक फैसला दिया तो इसके  कारण आदिवासियों  की पूरी परंपरागत स्वशासन की व्यवस्था का  गैरकानूनी करार देकर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। उस पंचायती इकाई क¨ भले भंग कर दिया जाए लेकिन पूरी व्यवस्था के  ध्वस्त नहीं किया जा सकता।
देवेंद्र गौतम 
1516, प्रथम तल, वजी़रपुर,कटला मुबारक़पुर, नई दिल्ली-110003

सोमवार, 13 जनवरी 2014

खेतो से दूर होते हम

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         दूर तक फैली थी हरियाली...बीच मे थे चटख पीले रंग के फूल...ऊपर से बरस रहा था गहरा नीला रंग..और किनारे था गंगा का सफेद निर्मल जल...एक वृहत रंगोली थी वो...जिसे अबतक न देखा था ना ही मह्सूसा था कभी..नतमस्तक थी उस महान कलाकार के सामने...अब किनारे खडे रहने का कोई मतलब नही था..उतर पडी मै भी रंगो के महासमंदर मे...दौड पडी...भागती रही...कभी सरसो के पौधो को निहारा ....कभी चने के साग को दुलराया... मटर की फलियो का ऐसा स्वाद होता है पहली बार जाना.....जी चाहा वही सो जाऊ धरा की गोद मे... ओढ लू उनका आंचल.....खूब रो लू....अपनी सारी गलतियो की माफी माग लू, जिसे जाने-अनजाने हम मनुज करते आ रहे है...पर नही.. कुछ नही किया बडप्पन का झूठा चादर ओढ लिया...और चुपके से मुट्ठी मे खेत की मिट्टी उठाकर माथे से लगा लिया. 


हा से लौटते समय कई विचार उठने लगे..कि वसुंधरा हमारी हर इच्छा की पूर्ति करती है. हमारी क्षुधा मिटाती है. और हम उसी की सबसे ज्यादा उपेक्षा करते है...देखिये न कितने पास तो है गाव, खेत..इतना कि हाथ बढाकर छू ले पर हम तो उसकी ओर ठीक से देखते तक ही...सह्यात्री भर मानते है...या सैर-सपाटे की एक जगह..किताबो, अखबारो से किसानो के हालात की जानकारी लेते है...पर कुछ मीटर के फासले पर खेत जोतते इंसान से मिल नही पाते? हमारी शहरी जिंदगी मे उनकी समस्यायो का कोई स्थान नही..मिलियन मे कमा रहे पर खेतो से दूर हो रहे...प्रकृति से भाग रहे...सोचिये तो कैसी जिंदगी जी रहे हम? आखिर कैसी जिंदगी है ये?-------स्वयम्बरा http://swayambara.blogspot.in/


पंकज त्रिपाठी बने "पीपुल्स एक्टर"

  न्यूयॉर्क यात्रा के दौरान असुविधा के बावजूद प्रशंसकों के सेल्फी के अनुरोध को स्वीकार किया   मुंबई(अमरनाथ) बॉलीवुड में "पीपुल्स ...