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शनिवार, 27 सितंबर 2014

हिन्दी-उर्दू साहित्य की त्रासदी

देवेंद्र गौतम
इक्कीसवीं सदी आते-आते बाजारवाद और उपभोक्तावाद का साहित्य और पत्रकारिता पर असर दिखने लगा । इस क्रम में जन-सरोकार की जगह बिकाउ रचनाओं के सृजन पर जोर दिया जाने लगा। बाजारवाद की इस कसौटी पर अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं ने तो अपनी जगह बना ली लेकिन हिन्दी और उर्दू साहित्य सामंजस्य नहीं बिठा पाया। इसका एक बड़ा कारण प्रकाशकों में उपभोक्ता बाजार तक जाने का जोखिम उठाने के साहस का अभाव रहा है। साहित्य के प्रकाशक सरकारी खरीद-फरोख्त से आगे बढऩे में हिचकते हैं। पुस्तक मेलों के जरिए  उपभोक्ताओं तक पहुंच बनाने की कोशिशें जरूर हुईं लेकिन कहीं से भी आक्रामक मार्केटिंग की शुरुआत नहीं की जा सकी। प्रचार के इस युग में भी प्रकाशक हिन्दी-उर्दू की की पुस्तकों का व्यावसायिक विज्ञापन नहीं देते। इसके लिए उनके पास कोई बजट नहीं होता। इसके कारण पाठकों को नए प्रकाशन की जानकारी नहीं मिल पाती। इसलिए इन भाषाओं की कोई पुस्तक, चाहे वह कितनी भी रोचक और महत्वपूर्ण हो, बेस्टसेलर नहीं बन पाती। प्रकाशकों की सुरक्षात्मक मार्केटिंग के कारण  उपभोक्ताओं तक सही साहित्य पहुंच नहीं पाता। इसकी जगह लुगदी साहित्य आम पाठकों तक पहुंच बनाने में अपेक्षाकृत ज्यादा सफल रहा है। इस दौर में कवि सम्मेलनों का स्तर भी गिरा है। इनके आयोजक अब हास्य-व्यंग्य या फूहड़ रचनाओं के जरिए ताली बटोरने वाले कवियों को प्राथमिकता देते हैं। जन सरोकार की कविताएं रचने वाले गंभीर कवियों को जनता के सामने नहीं लाया जाता।
जनवादी लेखक संघ से जुड़े अनवर शमीम कहते हैं, ‘ उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन करोड़ों में होते हैं लेकिन साहित्य के प्रचार-प्रसार पर एक छदाम भी खर्च नहीं किया जाता। बाजार के साथ नहीं चलने पर पिछड़ जाना तो स्वाभाविक ही है।’
शिक्षा की दुनिया में निजी स्कूलों के बढ़ते वर्चस्व का असर भी पड़ा है। बुनियादी स्तर पर पाठ्य पुस्तकों का चयन स्कूल प्रबंधन स्वयं करते हैं। वे अपने हिसाब से इन्हें तैयार करवाते हैं। इस क्रम में हिन्दी की पुस्तकों में अपने परिचितों की रचनाएं डलवाते हैं। इसके कारण बच्चों को साहित्य का संस्कार नहीं दिया जा पाता। सामाजिक बदलाव के साहित्य से इनका परिचय नहीं हो पाता। पत्रकारिता में भी साहित्य का पन्ना गायब हो चुका है। अधिकांश अखबार अब साहित्यिक रचनाओं और गतिविधियों को प्रमुखता नहीं देते। 

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