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रविवार, 15 फ़रवरी 2015

वह एक पागल बुढ़िया थी

वह एक पागल बुढ़िया थी
अनजानी सी
पर पहचानी भी
शहर का हर कोना था
उसका ठिकाना
दिख जाती थी चौराहे पर
मूर्तियों के पीछे
गोलंबर पर
फुटपाथ पर भी
बसेरा था उसका
सब डरते, पास न जाते
फेक जाते बचा-खुचा
संतोष पा लेते
दान-पुण्य का
वह हरदम बड़बड़ाती
आकाश की ओर
हाथ उठाकर
गालियाँ देती
जैसे कि चल रही हो
एक लडाई
उसके और
भगवान के बीच
एक बड़ी सी गठरी में
छिपाए रहती
अपनी पूंजी
कोइ देखने की
कोशिश भी करता
तो पत्थरें चलाती
बहुत जतन से संजोया था उसने
कतरनो को
चिथडो को
पन्नियों को
रंगीन धागों को
फूटे बर्तनो को
बेरौनक आईना को
और
टूटी टांगो वाली एक गुडिया को
जिसे चिपकाये रहती थी
सीने से
उसके बाल बनाती
कपडे पहनाती
टांगो की पट्टी करती
और जब वह
उसे सुला रही होती
तो धीमे -धीमे
लोरी भी गाती
इस थाती को सहेजते
दिन गुज़रता
इश्वर से लड़ते
राते गुज़रती
पर कभी -कभी
सुनाई देती थी
एक तीव्र कांपती आवाज़
जो चीर दे किसी का कलेजा
तब वह
कसकर चिपटाए रहती गुडिया को
पनीली आँखे
ऊपर ही देखती जाती
उस पल वह कुछ न कहती
कुछ न करती
और एक दिन
बस अचानक ही
बुढ़िया मर गयी
सुना था
किसी ने
उसकी गुडिया चुरा ली
वह दिन भर
बदहवास भागती रही थी
यहाँ वहा ढूढती रही थी
जाने कितनो से मिन्नतें की थी
कितनो के सामने गिडगिडाई थी
देवालयों में सर पटकी थी
रोई छटपटाई थी
पर सब व्यर्थ
उस रात
गठरी खोल दिया था उसने
उसकी पूंजी बिखेर दिया था
वह जोर-जोर से लोरी गा रही थी
उसकी कांपती आवाज़ की तीव्रता
अपनी चरम पर थी
और सुबह,
उसका शरीर मृत हो चुका था
(एक सच )
....स्वयम्बरा

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