सूरत और इंदौर की परिघटना गर्मागर्म बहस का विषय बना हुआ है। यह सिर्फ एक प्रयोग है। आनेवाले समय में यह व्यापक रूप ले सकता है। 2014 के बाद ऑपरेशन कमल काफी चर्चा में रहा है। इसके तहत दूसरे दलों के विधायकों को खरीद लिया जाता है और सरकार बना ली जाती है। बिकाऊ लिधायक को उसकी मुंहमांगी कीमत मिल जाती है और खरीदार दल को सत्ता। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है और सिर्फ भाजपा ने नहीं किया है। पहले भी यह काम होता रहा है। इसीलिए तो दल-बदल कानून बनाने की जरूरत पड़ी थी। भाजपा ने इसमें सिर्फ इतना बदलाव किया कि विधायकों का बाजार भाव बढ़ा दिया। पहले जहां कुछ लाख में या मंत्रीपद के आश्वासन पर खरीद बिक्री हो जाती है वहां अब मामला करोड़ों में जा पहुंचा है। इसके अलावा भ्रष्टाचार के मामलों से राहत और मनचाहा मंत्रालय बोनस में।
कई वर्षों तक ऑपरेशन का यह मोड सफलतापूर्वक चलता रहा। कई राज्यों मे इसी
ऑपरेशन के जरिए पार्टियां तोड़ी गईं, सरकार बनी गईं। लेकिन दिल्ली और झारखंड में
यह ऑपरेशन फेल हो गया। कई कोशिशें हुईं लेकिन नतीजा सिफर रहा। ऐसे में दोनों
राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सबक सिखा दिया गया।
लेकिन अब ऑपरेशन को फुलप्रूफ रूप देना जरूरी हो गया। चुनाव के बाद विधायकों की
खरीद ऑपरेशन कमल का पोस्ट पेड मोड था। लिहाजा सूरत में इसका प्रीपेड मोड लांच किया
गया। इसके तहत चुनाव मैदान में मौजूद सभी उम्मीदवारों के साथ मतदान के पहले ही डील
कर ली जाती है और एकतरफा जीत हासिल कर ली जाती है। सूरत के बाद इंदौर में भी इस
प्रयोग को सफलतापूर्वक दुहराया गया।
फिलहाल इस प्रीपेड स्कीम को लेकर कई राजनीतिक दलों ने तूफान मचा रखा है।
हालांकि इस तकनीक पर किसी दल का एकाधिकार नहीं है। किसी ने पेटेंट थोड़ी करा रखा है। गांठ में दम है तो कोई भी दल
इसे अपना सकता है। सत्ता में आ गए तो गांठ को दमदार बनाने के कई रास्ते भी दिखाए
गए हैं। सत्ता की राजनीति में यह प्रीपेड मोड आने वाले समय लोकप्रिय होगा। इसकी
गारंटी है।
-देवेंद्र गौतम