झारखंड में जल की नहीं जल के प्रबंधन की समस्या
नारायण विश्वकर्मा
राजधानी रांची सहित झारखंड के अधिकांश इलाकों में भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। अधिकांश बोरवेल विफल हो चुके हैं। जलाशयों की हालत भी बदहाल है। कंक्रीट के जंगल खड़े किए गए। भारी संख्या में डीप बोरिंग होती रही। रेन वाटर हार्वेस्टिंग 20 फीसदी आवासीय प्लाटों पर भी नहीं हुआ। भूमिगत जल का स्तर पाताल छूने लगा। पानी के लिए चाकूबाजी तक की घटना हुई। लेकिन यह जानते हुए भी कि कोयला खदानों में पानी का इतना विशाल भंडार है कि इससे न सिर्फ लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है, बल्कि खेतों की सिंचाई भी की जा सकती है, उसके दोहन की व्यवस्था नहीं की जा सकी। इस जल भंडार की तरफ सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने 2006 में ही विधानसभा में पेयजल पर चर्चा के दौरान ध्यान आकृष्ट कराया था। करीब ढाई वर्ष पहले सीसीएल के सीएमडी गोपाल सिंह ने भी इस जल भंडार की ओर इशारा किया था। इसमें झारखंड सरकार को सिर्फ जल शोधन संयंत्र लगाना था और पाइपलाइन बिछाकर विभिन्न क्षेत्रों तक पहुंचाने की व्यवस्था करनी थी।
यह मामला मुख्यमंत्री जन संवाद के पोर्टल पर शिकायत संख्या 2018-26763 के तहत दर्ज है। कोल इंडिया की बीसीसीएल और सीसीएल कंपनी की सारी और ईसीएल की कई परियोजनाएं झारखंड की सीमा में आती हैं। हर परियोजना में दर्जनों खदानें हैं। उनमें अरबों-खरबों गैलन पानी उपलब्ध है। हर क्षेत्र में वाटर फिल्टर प्लांट भी लगे हैं।
ऐसा नहीं कि झारखंड सरकार ने कुछ किया नहीं। कोयला खदानों के जल भंडार के दोहन के लिए कंसल्टेंट नियुक्त किया। डीपीआर कार्यादेश भी निर्गत हुआ। जिसकी चार माह की अवधि फरवरी 2019 में समाप्त हो गई, लेकिन लालफीताशाही के कारण इसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। यदि इसपर 2018 के अंत तक भी काम शुरू किया गया होता तो गर्मी का मौसम आने से पहले सरकार के पास जलापूर्ति की पूरी व्यवस्था होती। लेकिन सरकारी तंत्र उदासीन बना रहा। अब मानसून आने पर भूमिगत जल के स्तर में कुछ सुधार हो जाएगा।
झारखंड में डबल इंजन की सरकार है, लेकिन इच्छाशक्ति नहीं होना, इसका सबसे बड़ा कारण है.फिर अगली गर्मियों तक के लिए मामला ठंढे बस्ते में चला जाएगा।
नारायण विश्वकर्मा
राजधानी रांची सहित झारखंड के अधिकांश इलाकों में भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। अधिकांश बोरवेल विफल हो चुके हैं। जलाशयों की हालत भी बदहाल है। कंक्रीट के जंगल खड़े किए गए। भारी संख्या में डीप बोरिंग होती रही। रेन वाटर हार्वेस्टिंग 20 फीसदी आवासीय प्लाटों पर भी नहीं हुआ। भूमिगत जल का स्तर पाताल छूने लगा। पानी के लिए चाकूबाजी तक की घटना हुई। लेकिन यह जानते हुए भी कि कोयला खदानों में पानी का इतना विशाल भंडार है कि इससे न सिर्फ लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है, बल्कि खेतों की सिंचाई भी की जा सकती है, उसके दोहन की व्यवस्था नहीं की जा सकी। इस जल भंडार की तरफ सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने 2006 में ही विधानसभा में पेयजल पर चर्चा के दौरान ध्यान आकृष्ट कराया था। करीब ढाई वर्ष पहले सीसीएल के सीएमडी गोपाल सिंह ने भी इस जल भंडार की ओर इशारा किया था। इसमें झारखंड सरकार को सिर्फ जल शोधन संयंत्र लगाना था और पाइपलाइन बिछाकर विभिन्न क्षेत्रों तक पहुंचाने की व्यवस्था करनी थी।
यह मामला मुख्यमंत्री जन संवाद के पोर्टल पर शिकायत संख्या 2018-26763 के तहत दर्ज है। कोल इंडिया की बीसीसीएल और सीसीएल कंपनी की सारी और ईसीएल की कई परियोजनाएं झारखंड की सीमा में आती हैं। हर परियोजना में दर्जनों खदानें हैं। उनमें अरबों-खरबों गैलन पानी उपलब्ध है। हर क्षेत्र में वाटर फिल्टर प्लांट भी लगे हैं।
ऐसा नहीं कि झारखंड सरकार ने कुछ किया नहीं। कोयला खदानों के जल भंडार के दोहन के लिए कंसल्टेंट नियुक्त किया। डीपीआर कार्यादेश भी निर्गत हुआ। जिसकी चार माह की अवधि फरवरी 2019 में समाप्त हो गई, लेकिन लालफीताशाही के कारण इसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। यदि इसपर 2018 के अंत तक भी काम शुरू किया गया होता तो गर्मी का मौसम आने से पहले सरकार के पास जलापूर्ति की पूरी व्यवस्था होती। लेकिन सरकारी तंत्र उदासीन बना रहा। अब मानसून आने पर भूमिगत जल के स्तर में कुछ सुधार हो जाएगा।
झारखंड में डबल इंजन की सरकार है, लेकिन इच्छाशक्ति नहीं होना, इसका सबसे बड़ा कारण है.फिर अगली गर्मियों तक के लिए मामला ठंढे बस्ते में चला जाएगा।
