एक छोटा-सा गाँव था, जहाँ रमेश नाम का एक युवक रहता था। रमेश मेहनती और ईमानदार था, पर उसका पड़ोसी सुरेश लालची और धोखेबाज। दोनों की जिंदगी एक-दूसरे के बिल्कुल उलट थी। एक दिन रमेश ने गाँव के मंदिर में एक गरीब बूढ़ी माँ को भोजन कराया। उसकी इस नेकी की बात पूरे गाँव में फैल गई। लोग उसकी तारीफ करने लगे, और उसका व्यापार भी दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की करने लगा।
दूसरी ओर, सुरेश ने एक साहूकार को धोखा देकर कुछ पैसे हड़प लिए। शुरू
में तो उसे लगा कि वह चतुर है, पर जल्द ही उसका धोखा उजागर हो गया। गाँव वालों ने उससे
मुँह मोड़ लिया, और उसका व्यापार चौपट हो गया।एक शाम, जब रमेश और सुरेश गाँव के
तालाब के पास बैठे थे, एक बछड़ा अपनी माँ के पीछे दौड़ता हुआ आया। रमेश ने
मुस्कुराते हुए कहा, "देखो सुरेश, जैसे ये बछड़ा अपनी माँ के पीछे चलता है, वैसे ही हमारे
कर्म हमारे पीछे चलते हैं। मैंने नेकी की, तो मुझे सम्मान मिला। तूने धोखा दिया, तो तुझे
अपमान।"सुरेश चुप रहा, पर उस दिन उसने फैसला किया कि वह अपने कर्म सुधारेगा। समय
बीता, और धीरे-धीरे सुरेश ने भी ईमानदारी का रास्ता अपनाया। उसके कर्मों का फल उसे
मिलने लगा, और गाँव में उसकी भी इज्जत होने लगी।
सार: आचार्य चाणक्य की नीति पर आधारित यह लघुकथा सिखाती है कि हमारे कर्म, चाहे अच्छे हों या बुरे,
हमारे पीछे
छाया की तरह चलते हैं और हमारी जिंदगी को आकार देते हैं।
(जैसे एक बछड़ा हज़ारो गायों के झुंड मे अपनी माँ के पीछे चलता है। उसी प्रकार
आदमी के अच्छे और बुरे कर्म उसके पीछे चलते हैं।" ~ आचार्य चाणक्य)