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रविवार, 9 सितंबर 2012

खुश रहो न !





कई दिनों की बारिश के बाद बादल एकदम चुप से थे..न गरजना न बरसना ... ठंडी हवाएं जरुर रह-रह कर सहला जाती थी...धूली, निखरी प्रकृति की सुन्दरता अपने चरम पर थी ....मुझे पटना जाना था ...ट्रेन में खिड़की वाली सीट मिली (मेरा सौभाग्य )...हमारा सफ़र शुरू हुआ .... दूर तक पसरे हरे-भरे खेत, पेड़ो की  कतारें, बाग़-बगीचे दिखने लगे....मैं  बिलकुल 'खो' सी गयी थी ...कि एक जगह ट्रेन 'शंट' कर दी गयी...माहौल में ऊब और बेचैनी घुलने लगी.. बचने के लिए इधर-उधर देखना शुरू किया कि 'निगाहे' पटरी के पार झाड़ियों में कुछ खोजती औरत पर गयी.....इकहरा बदन ..सांवली रंगत...वह बेहद परेशान दिख रही थी ...पास ही बैठा उसका छोटा सा बच्चा रोये जा रहा था, पर वह, अपनी ही धुन में थी ...मुझे कुछ अजीब सा लगा इसलिए  उन्हें ध्यान से देखने लगी..अचानक उसके हाथ में एक सूखी टहनी नज़र आयी...अब उसके चेहरे पर राहत थी...धीरे-धीरे उसने कई लकड़ियों को इकट्ठा किया ...उसका गठ्ठर बनाया..बच्चे को उठाया और चली गयी....

ट्रेन थोड़ी आगे बढ़ी तो देखा चार-पांच छोटी बच्चियां सिर पर लकड़ियों का गठ्ठर उठाये हंसती -खिलखिलाती चली जा रही थी...बाल बिखरे..ढंग के कपडे नहीं पर उदासियों को ठेंगा दिखाती वो अपने में मगन थी .... सूखी लकड़ियाँ इन लोगो के चूल्हे  की आग  थी, जिसपर पूरे परिवार का भरपेट खाने का सपना पकता होगा ...इसके लिए दर-दर का भटकना भी उनकी मुस्कानों को, हौसलों को कम नहीं कर सकता ...

उस औरत को वहां पसरी गंदगी, रोता बच्चा और झाड़ियों में छिपे विषैले जीव का डर रोक नहीं पाया ...और ये बच्चियां  अपने 'बचपन' में ही 'बड़ी' हो गयी..अभावो में खिलखिलाना सीख लिया ....

इस बरसात में लकड़ियाँ ना मिले तो..... तो उन्हें 'भूखा' ही रह जाना पड़ेगा ...या पानी से ही पेट भर कर तृप्त हो जाना पड़ेगा और गर कई दिनों तक बारिश होती रहे तो ??? ...पर उन्हें परवाह कहा ...

और एक 'हम' है जो 'गैस' ख़त्म हो जाने पर आसमा सिर पर उठा लिया करते है...कुकर, रेफ्रीजेरेटर, अवन के बिना हमारा काम ही नहीं चलता.. हर बात पर हाय-तौबा मचाते है..सारी सुविधाओं के होने के बावजूद असंतुष्ट रहते है ... असल में इस भागती हुई जिन्दगी में कुछ पल ठहरकर, रूककर सोचने की 'जरुरत' है कि 'हमारी जरूरते' जिस अनुपात में बढ़ रही है 'खुशियाँ'  उसी अनुपात में घटती नहीं जा रही है?? जरा सोचिये!

---------स्वयम्बरा 
http://swayambara.blogspot.in/

सोमवार, 20 अगस्त 2012

.....और टल गया एक हादसा

आज रांची के हटिया डैम में मत्स्य विभाग के निदेशक और विभागीय सचिव भीषण दुर्घटना का शिकार होते-होते बचे. कुछ इलेक्ट्रोनिक चैनल के कैमरा मैनों  के चोंगे पानी में गिरकर गुम हो गए,  घटना दिन के करीब 3 .50  की है. कार्यक्रम में झारखंड के मंत्री सत्यानन्द झा बातुल को भी आना था लेकिन कुछ कारणों से वे नहीं आ सके. मौका था मत्स्य विभाग के सतत मत्स्य उत्पादन कार्यक्रम के तहत केज प्रणाली द्वारा पंगास मछली के उत्पादन के प्रदर्शन और उसे पतराटोली मत्स्य सहयोग समिति को हस्तांतरित किये जाने का. यह केज बीच जलाशय में फैक्ट्री फौर्मुलेटेड फ्लोटिंग फीड की तकनीक के जरिये बनाये गए थे. कार्यक्रम स्थल तक पहुंचने के लिए छोटी-छोटी नौकाओं की व्यवस्था थी. लाइफ जैकेट भी उपलब्ध थे. एक नाव पर तीन-चार लोग जा सकते थे. सेक्रेट्री और डाइरेक्टर सहित दो विभागीय कर्मियों के लिए ड्रमों पर बंधे एक प्लेटफार्मनुमा नौका थी. सुरक्षा के दृष्टिकोण से केज से किनारे तक एक रस्सी बंधी हुई थी. जाते वक़्त तो सभी लोग रोमांचक यात्रा का आनंद लेते हुए आराम से गए. वापसी के दौरान सेक्रेट्री और निदेशक के प्लेटफार्मनुमा नौका पर सवार होते ही कुछ संवाददाता और कैमरामेन भी सवार होने लगे. इसी में संतुलन बिगड़ा और सारे लोग पानी के अंदर गिर गए. सेक्रेट्री साहब ने रेलिंग पकड़ कर खुद को बचाया कुछ लोगों ने उनको पकड़ कर अपनी सुरक्षा की. कुछ लोगों के मोबाइल फोन पानी के अंदर चले गए. इलेक्ट्रोनिक चैनल के कैम्रमेनों के चोंगे भी पानी में चले गए. तुरंत ग़ोताखोर सक्रिय हुए और सभी लोगों को बाहर निकला गया लेकिन प्लेटफार्मनुमा नौका बिखर गयी थी. इस बीच छोटी नौका पर सवार कुछ कैमरामेन इस दृश्य को कैमरे में कैद करने की नीयत से बीच रस्ते से बोट को घुमाकर वापस आये. बाद में छोटी नौकाओं के जरिये ही सभी लोग किनारे आये.

---देवेंद्र गौतम  .

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

रांची में बाइकर्स गिरोह का आतंक

रांची में इन दिनों झपट्टामार या बाइकर्स गिरोह का आतंक छाया हुआ है. आमलोग सड़कों पर चलते हुए भयभीत रहते हैं की पता नहीं कब बाइक पर सवार अपराधी आयें और उनकी कोई कीमती चीज झपट्टा मार कर ले जाएं. आये दिन इस गिरोह की वारदातें हो रही हैं. किसी के बैग में रखी नकदी. किसी के कान की बाली, किसी का नेकलेस, किसी की मोबाइल छीन चुकी है. पुलिस परेशान है. सांप निकल जाता है. पीटने के लिए लकीर भी नहीं छोड़ता. पुलिस अपराधियों को रंगे हाथ गिरफ्तार करना चाहती है.
दरअसल पुलिस इस गिरोह की सही ढंग से पड़ताल ही नहीं कर पा रही है. पहली बात यह है यह कोई पेशेवर अपराधियों का सुगठित गिरोह नहीं है. इसमें शामिल लड़के संभ्रांत घरों के बुरी संगत में पड़े लड़के हैं जिनमें ज्यादातर ड्रग एडिक्ट हैं. बाप चाहे कितना भी पैसेवाला हो बेटे को ड्रग सेवन के लिए या कॉलगर्ल के साथ रंगरेलियां मनाने  के लिए पैसे नहीं देगा. इस खर्च को पूरा करने के लिए उन्हें इस तरह के रस्ते अपनाने होते हैं.
इतना तय है कि इस गिरोह के लड़के बाइकर्स क्लब से प्रशिक्षित और बाइक चलाने में माहिर हैं. पुलिस यदि शहर में अवैध रूप से चल रहे बाइकर्स क्लब के संचालकों की गर्दन पकडे और उनके यहां के प्रशिक्षित और प्रशिक्षु छात्रों का विवरण प्राप्त कर जांच शुरू करे तो गिरोह तक पहुंचना संभव हो सकता है.
दूसरी बात यह कि शहर की सड़कों पर अक्सर बहुत तेज़ गति से सर्पाकार तरीके से भागते बाइक सवार दिखाई देते हैं. उन्हें कोई ट्राफिक पुलिस  या टोकने की जरूरत नहीं समझती. बीच शहर में ऐसे जानलेवा स्टंटबाजों की नकेल कसी जाये तो अपराधियों तक पहुंचा जा सकता है.
अभी यह स्पस्ट नहीं है कि बाइकर्स क्लब के संचालक ही इन झपट्टामारों का नेतृत्व कर रहे हैं या बिगड़े लड़कों नें स्वयं छोटे-छोटे गिरोह बना रखे हैं जो अपनी अय्याशी की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति  के लिए कभीकभार वारदात कर बैठते हैं. दौलतमंद बाप उन्हें उनकी पसंद की बाइक तो दे चुका होता ही है और उसे इतनी फुर्सत नहीं होती कि बेटे की गतिविधियों पर नज़र रख सके.
यह स्टंटबाज लड़के स्टंट करने के चक्कर में सड़क दुर्घटना का शिकार भी खूब होते हैं. दुर्घटना के बाद ही उनके मां-बाप को पता चल पाटा है कि उनका बेटा क्या करता फिरता रहा है. हां...यदि पुलिस उन्हें झपट्टामारी के मामले में गिरफ्तार करना शुरू कर दे तो ऐसे नवधनाढ्य बापों को कुछ बात समझ में आ सकती है.
वैसे इतना तय है की इस गिरोह के तार नशीली दवाओं के कारोबारियों से किसी न किसी रूप में जरूर जुडती है. पुलिस चाह ले तो इस आतंक का खात्मा हो सकता है और ड्रग माफिया की गर्दन भी नापी जा सकती है.

----देवेंद्र गौतम 

शनिवार, 28 जुलाई 2012

इस शहर में हर शख्स परेशां सा क्यूँ है



'अपना बिहार' दोड़े जा रहा है विकास की पटरी पर...बड़े-बड़े दावे ....बड़ी-बड़ी बातें...खूब बड़े आंकडे .....सब कहते है विकास हो रहा है...मै भी गर्व से भर जाती हूँ...अकड़ जाती है गर्दन...पर जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो वही बेहाल, परेशां, बेचारे से लोग नज़र आते है....जिनसे उनका हक छीन लिया गया है....आबोहवा के बदलने का अहसास तो है पर कहानी अब भी यही है कि धनबल, बाहुबल या ऊँची पहुँचवाले ही 'सस्टेन' कर सकते है ....आप ये न समझना कि मै यूँ ही आंय- बांय बके जा रही हूँ ...हमारे घर में एक पत्रकार, एक वकील है (और मै कलाकार हूँ ही)...इनके पास जिस तरह के 'केसेज' आते है वह चकित कर देनेवाला होता है.....बहुत छोटे स्तर से ही अफसरशाही, पुलिस और दबंगों की दबंगई शुरू हो जाती है...जनता हलकान होती है, यहाँ-वहां भागती फिरती है और 'इनकी' मौज होती है,,,जरा बानगी देखिए


१. एक शिक्षक की जमीन पर इलाके के 'दबंग' ने कब्ज़ा कर लिया...प्राथमिकी दर्ज करने गए शिक्षक को थानेदार ने भगा दिया...धमकी भी दी कि ज्यादा तेज़ बनोगे तो झूठे मुक़दमे में 'अन्दर' कर देंगे......अदालत की शरण ली गयी....मामला अभी कोर्ट में चल ही रहा था की 'दबंग' ने उस पर मकान बनवाना शुरू कर दिया..... एस.डी. ओ. ने धरा १४४ लगाया..थानेदार ने मानने से इनकार कर दिया.....

२. हाल में हुई शिक्षक नियुक्ति में नियोजित हुए एक मेधावी युवक का वेतन बिना किसी कारण के रोक दिया गया...उसका नाम भी लिस्ट से गायब हो गया,,,उसकी जगह किसी और की बहाली हो गयी...युवक, अफसरों के पास खूब दौड़ा....गिड़गिड़ाया ...पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी...अंततः वह हाई कोर्ट, पटना गया.. वहा उसके पक्ष में फैसला हुआ....पर शिक्षा विभाग ने उस फैसले को मानने से इनकार (?) कर दिया .....है न हैरान करनेवाली बात!

३. 'आंगनबाड़ी सेविका' पद के लिए आवेदन माँगा गया...नियुक्ति उसकी की गयी जिसका प्राप्तांक कम था ( aakhir kyun, जरा sochiye) अधिक प्राप्तांक वाली विवाहिता को बताया गया कि चूँकि ये पद सरकारी है और उनका देवर सरकारी पद (शिक्षा मित्र) पर है इसलिए उनकी नियुक्ति नहीं हो सकती....आर . टी .आई. के तहत जानकारी मांगने पर पता चला कि उक्त पद सरकारी नहीं है....

क्या कहेंगे इसे? विकास? सुशासन? खुशहाली? ..ये तो हमारी नज़रों में आ गए पर ऐसी न जाने कितनी  घटनाएँ है....ये बाते गाँव की है इसलिए  इनपर शोर भी नहीं होता...ये ख़बरें मीडिया के भी किसी काम की नहीं ...आपको भी ये बाते छोटी लग रही होंगी जो आस-पास बिखरी पड़ी रहती है ....पर इन बातो से ही 'विकास; की बाते बेमानी लगने लगती है.....

'डायन' : औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका


वे बचपन के दिन थे ....मोहल्ले में दो बच्चों की मौत होने के बाद  काना-फूसी शुरू हो गयी और एक बूढी विधवा को 'डायन' करार दिया गया...हम उन्हें प्यार से 'दादी' कहा करते थे...लोगो की ये बाते हम बच्चों तक भी पहुची और हमारी प्यारी- दुलारी दादी एक  'भयानक डर' में तब्दील हो गयी... उनके घर के पास से हम दौड़ते हुए निकलते कि वो पकड़ न ले...उनके बुलाने पर भी पास नहीं जाते ...उनके परिवार को अप्रत्यक्ष तौर पर बहिष्कृत कर दिया गया ....आज सोचती हूँ तो लगता है कि हमारे बदले व्यवहार ने उन्हें कितनी 'चोटे' दी होंगी ...और ये सब इसलिए कि हमारी मानसिकता सड़ी हुई थी....जबकि हमारा मोहल्ला बौद्धिक (?) तौर पर परिष्कृत (?) लोगो का था ..!

वक़्त बीता ..हालात बदले....पर डायन कहे जाने की यातना से स्त्री को आज भी मुक्ति नहीं मिली है.... अखबार की इन कतरनों को देखिए ...बिहार के एक दैनिक समाचार-पत्र में इसी माह की 7 से 12 तारीख के बीच, ऐसी चार खबरे छपी....यानी की छह दिनों में चार बार ऐसी घटना हुई .....जिनमे से दो में 'हत्या' कर दी गयी ....पर इससे ये कतई न सोचे कि बिहार में ही ऐसी अमानवीय  प्रथाएं हैं... ये बेशर्मी यही  तक ही सीमित नहीं...संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2003 में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 1987 से लेकर 2003 तक, 2 हजार 556 महिलाओं को डायन कह कर मार दिया गया ..... एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में 2008-2010 के बीच डायन कहकर 528 औरतों की हत्या की गयी .....क्या ये आंकडे चौकाने के लिए काफी नहीं कि मात्र एक अन्धविश्वास के कारण इतनी हत्याएं कर दी  गयी??? ....राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक भारत में विभिन्न प्रदेशों के पचास से अधिक जिलों में डायन प्रथा सबसे ज्यादा फैली हुई है ...मीडिया के कारण (भले ये उनके लिए महज टी. आर. पी. या सर्कुलेशन बढ़ने का तमाशा मात्र हो) कुछ घटनाये तो सामने आ जाती है पर कई ऐसी कहानिया दबकर रह जाती होंगी ...बेशक ये बाते आपके-हमारे बिलकुल करीब की नहीं .....गाव-कस्बो की है...किसी खास समुदाय या वर्ग की है पर सिर्फ इससे, आपकी-हमारी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती ...

ध्यान दे, ये महज़ खबरे नहीं, जिन्हें एक नज़र देखकर आप निकल जाते है....इनमे एक स्त्री की 'चीख' है...उसका 'रुदन' है.... उसकी 'अस्मिता' के तार-तार किये जाने की कहानी है ...अन्धविश्वास का भवर जिसका सबकुछ डुबो देता है .....और हमारा समाज इसे 'डायन' कहकर खुश हो लेता है ....

'डायन'....क्या इसे महज अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीति मान लिया जाये या औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका...आखिर डायन किसी स्त्री को ही क्यूँ कहा जाता है?? क्यूँ कुएं के पानी के सूख जाने, तबीयत ख़राब होने या मृत्यु का सीधा आरोप उसपर ही मढ़ दिया जाता है?? असल मैं औरते अत्यंत सहज, सुलभ शिकार होती है क्यूंकि या तो वो विधवा, एकल, परित्यक्ता, गरीब,बीमार, उम्रदराज होती है या पिछड़े वर्ग, आदिवासी या दलित समुदाय से आती है.... जिनकी जमीन, जायदाद आसानी से हडपी जा सकती है... ये औरते मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से इतनी कमजोर होती है कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार की शिकायत भी नहीं कर पाती.... पुलिस भी अधिकतर मामलों में मामूली धारा लगाकर खानापूर्ति कर लेती है...हैरानी होती है कि लगभग हर गाँव या कस्बे में किसी न किसी औरत को 'डायन' घोषित कर दिया जाता है... मैंने कही नहीं देखा कि कभी किसी पुरूष को डायन कहा गया हो...या इस आधार पर उसकी ह्त्या कर दी गयी हो..... क्यूंकि ऐसे में अहम् की संतुष्टि कहा हो पाएगी... और यह बात कहने-सुनने तक ही कहा सीमित होती है....जब भीड़ की 'पशुता' अपनी चरम पर पहुचती है तब डायन कही जानेवाली औरत के कपडे फाड़ दिए जाते है...तप्त सलाखों से उन्हें दागा जाता है...मैला पिलाया जाता है...लात-घूसों, लाठी-डंडों की बौछारें की जाती है ...नोचा-खसोटा जाता है और इतने पर मन न माने तो उसकी हत्या कर दी जाती है....उनमे से कोई अगर बच भी जाये तो मन और आत्मा पर पर लगे घाव उसे चैन से कहा जीने देते है...'आत्महत्या' ही उनका एकमात्र सहारा बन जाता है ....

औरतों पर अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ घिनौने अपराधों को लेकर अक्सर आवाज़ उठाई जाती है..... लेकिन ऐसी घटनाये हमें हमारा असली चेहरा दिखाती है..हम स्वयं को सभ्य कहते और मानते है पर इनमे हमारा खौफनाक 'आदिम' रूप ही दीखता हैं ....हमने इसकी आदत बना ली है और ये शर्मनाक हैं....पर हम भी, पूरे बेशर्म है !

-----स्वयम्बरा

रविवार, 24 जून 2012

देश को रसातल में ले जाने की तैयारी


आज के एक अखबार की लीड खबर का शीर्षक है 'कड़े तेवर दिखायेंगे पीएम'. उप शीर्षक है 'पेट्रोल सस्ता कर डीजल महंगा करने की तैयारी' 
संप्रंग सर्कार कठोर फैसले लेने का यह बेहतर मौका मान रही है. अर्थात वह हमेशा ऐसे लेने के लिए मौके की ताक में रहती है जिससे आम आदमी का जीवन और कष्टमय हो जाए. उस आम आदमी का जिसके लिए प्रतिदिन 28  रुपये के खर्च करने की क्षमता को काफी मान रही है यह सरकार. क्योंकि इसी में आबादी के उस हिस्से की भलाई है जिसके बाथरूम की मरम्मत के लिए 35  लाख रुपये भी कम पड़ते हैं. देश का एक बच्चा भी जानता है की तमाम जिंसों की ढुलाई डीजल चालित वाहनों से होता है. डीजल को महंगा करने से उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें कैसे कम होंगी कम से कम हमारे जैसे मंद बुद्धि के लोगों की समझ से बाहर है. पीएम अर्थशास्त्री हैं. हो सकता है उनके अर्थशास्त्र में ऐसा कोई गणित हो. या फिर यह भी हो सकता है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का यह सिद्धांत कि अपने चरम पर पहुंचकर हर चीज विलीन हो जाती है काम कर रहा हो. सरकार को यकीन हो कि महंगाई को उसके चरम तक पहुंचा दो वह खुद ही ख़त्म हो जायेगी.
पेट्रोल की कीमत घटने से एलिट क्लास के उन लोगों को राहत मिलेगी.जिनके पास धन है. जिनकी क्रयशक्ति बेहतर है. लेकिन डीजल की कीमत बढ़ने पर निम्न मध्यवर्ग और मजदूर-किसान यानी हर वर्ग के लोग प्रभावित होंगे. इसी तरह रसोई गैस की राशनिंग जैसे कड़े कदम उठाने की तैयारी हो रही है. बाकी कड़े फैसले भी जनता पर कहर ढानेवाले ही हैं. अब भारत की जनता पांच वर्ष के लिए सत्ता की बागडोर थमाने की भूल कर ही बैठी है तो भुगतना तो उसी को पड़ेगा. इसलिए जनाब! आप चिंता मत कीजिये. जो मर्जी हो कर लीजिये. पूरी आबादी का गला घोंट दीजिये. लेकिन भगवान के लिए कुछ तो शर्म कीजिये आखिर आप 2014  में जनता को क्या मुंह दिखायेंगे.  

----देवेंद्र गौतम  

सोमवार, 4 जून 2012

एक खुला पत्र....... मौन मोहन बाबू के नाम !


माननीय मौन मोहन बाबू!
मैं  अपने आप को आपसे खरी-खोटी बात करने से रोक नहीं पा रहा हूं. जानता हूं कि आपसे सीधा संवाद संभव नहीं है. लेकिन यह भी पता है कि आपके सूचनादाता मेरे संवाद की सूचना आप तक जरूर पहुंचा देंगे.
आपके लिए मेरे मन में काफी श्रद्धा रही है. इटली लॉबी का विजिटिंग कार्ड बनने के लिए नहीं बल्कि एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री होने के अफवाह के कारण. हां! इसे अफवाह नहीं तो और क्या कहेंगे. जब अपने ज्ञान का लाभ देश को पहुंचाने का अवसर मिला तो आपने उसे रसातल में पहुंचा दिया. कीमतें बढ़ाते गए और सांत्वना  देते रहे कि यह देश की भलाई के लिए है. लोगों को भूखे मार कर देश का कौन सा भला करना चाहते हैं आप? कीमत बढ़ाने के एक-दो रोज पहले कहते हैं कि कुछ कड़े फैसले लेने होंगे. यह भी कहते हैं कि आप कुछ कर नहीं सकते सबकुछ बाजार तय करता है. फिर हुजूर आप बाज़ार के स्पोक्समेन क्यों बन जाते हैं और जब आपका इन्द्रासन हिलने लगता है तो बाज़ार वाले आपकी बात मान कर थोड़ी कीमत घटा कैसे देते हैं? किसे बेवकूफ बना रहे हैं आप? मेरी नाराजगी का कारण हालांकि यह भी नहीं है. इसलिए कि आप ऐसे लोगों की कठपुतली बन गए हैं जिन्हें इस देश के लोगों से कुछ लेना-देना ही नहीं है. जिनका एकमात्र मकसद देश को लूटकर विदेश में धन जमा करना भर है. दुःख इस बात का है इतने बड़े विद्वान होने के बाद भी आपके अंदर रत्ती भर भी आत्मसम्मान नहीं है. आपके सामने आप ही के लोग एक गधे को आपकी कुर्सी पर बिठाने की मांग करते हैं और आप मौनी बाबा बने रहते हैं. डूब मरिये चुल्लू भर पानी में. अब जनता ने आपको और आपको रिमोट से नचाने वालों को कुर्सी सौंपने की गलती कर बैठी है तो गलती की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी. आपलोग भी जबतक कुर्सी है अपने जलवे जितना दिखा सकते हैं दिखा ही लीजिये क्योंकि आप काफी कड़े फैसले ले चुके अब जनता आपके संबंध में कुछ कड़े फैसले लेने के लिए उचित समय का इंतज़ार कर रही है. फिर आपमें से कुछ सड़क पर नज़र आयेंगे और कुछ रातों-रात फरार होकर  अपने विदेशी खातों से लूट का धन निकालते हुए.ताकि जीवन को नए सिरे से शुरू किया जा सके.
फिलहाल इतना ही ईश्वर आपको सुबुद्धि दे और आत्मसम्मान की भावना प्रदान करे. आप मौन मोहन से वाचाल मोहन बनें.
इसी प्रार्थना के साथ.......

-----देवेंद्र गौतम



स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...