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शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

एक थी मुस्कान

Blogger: मैं और मेरी दुनिया - Edit post:


एक थी मुस्कान (बदला हुआ नाम )....इंटर की छात्रा ....गडहनी ( भोजपुर, बिहार का ग्रामीण क्षेत्र) की निवासी....उसने भी अपनी अस्मिता को बचाने के लिए संघर्ष किया था ....यही नहीं उसने उन युवकों के विरुद्ध प्राथमिकी भी दर्ज कराई क्यूंकि उसे देश के कानून पर आस्था थी .....

बस, इसी एक कदम ने उसके जीवन को इतना यातनामय बना दिया की अंततः मुस्कान ने मौत को गले लगा लिया ...जैसे की एक 'अपराध' को सहन ना करके उसके खिलाफ आवाज़ उठाना एक 'पाप' हो ....उसे घर में बंद करने का फरमान जारी हुआ...बदचलन होने का प्रमाण-पत्र जारी कर दिया गया...माता-पिता सभी अपनी इज्ज़त की दुहाई देने लगे और उसे मुंह बंद रखने का आदेश सुना दिया ...मुस्कान इनसे जूझ नहीं सकी और ज़हर खा लिया .....हद तो यह की मर जाने के बाद भी उसे चैन से रहने नहीं दिया गया...लोगों ने मुस्कान को पागल घोषित कर दिया और सारा मामला रफा-दफा हो गया .....

ये उसी वक़्त की घटना है जब सब सड़ी हुई मानसिकता और व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलनरत थे...वी वांट जस्टिस, वी वांट जस्टिस चिल्लाये जा रहे थे ...जबकि मुस्कान अकेले 'न्याय' पाने की लडाई लड़ रही थी.... उसके समर्थन में नारे नहीं लगे ...उसकी याद में मोमबत्तियां भी नहीं जलाई गयी .... जब वह मर चुकी तो उसे इंसाफ दिलाने के लिए पूरे देश उठकर खड़ा नहीं हुआ ....न..ये कोई शिकायत नहीं बल्कि एक हकीक़त की ओर इशारा भर है की तमाम हो -हंगामे के बावजूद ऐसी घटनाएँ लगातार घट रही है ....सड़ी मानसिकता का विरोध करने के बजाय स्त्री के वस्त्रो और उसके व्यवहार पर बहस हो रही है.....स्त्री अब भी अकेली है ...और अब तो फिर से 'चुप्पी' पसर रही है... भयावह चुप्पी .....



'via Blog this'

सोमवार, 21 जनवरी 2013

अभी भी होती है पढाई 'बोरा' पर बैठकर


जब छोटी थी तब 'माँ ' अक्सर अपने बचपन की कहानी सुनाया करती ...वो बताती कि प्राईमरी स्कूल में उन्हें 'बोरा' (थैलियाँ जिनमे अनाज रखे जाते है ) लेकर जाना पड़ता था ...असल में उनमें बेंच नहीं थे ...ऐसे में 'बोरा' बैठने के काम आया करता....इन किस्सों को सुनकर मैं हैरान हो जाती ..क्योंकि मेरे लिए ये अनोखी बात थी...स्कूल, वो भी बिना बेंच के !! ...और पढाई बोरा पर बैठकर ??....अपनी माँ पर तरस आता, बुरा भी लगता और स्कूल की व्यवस्था पर हंसी भी आती ..कभी -कभी माँ मुझे डांटते हुए बोलती कि पढ़ोगी नहीं तो बोरा वाले स्कूल में नामांकन करा देंगे ...तब बहुत डर लगता ..हालाँकि उम्मीद नहीं थी कि ऐसा स्कूल अब भी होता होगा....

खैर... 'बाल महोत्सव' का आयोज़न के दौरान गांवों के स्कूलों के बारे में जाने-समझने का मौका मिला...शिक्षको और अभिभावकों से सुनने को मिला कि शिक्षा प्रणाली में घुन लग चूका है....कि शिक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च किया जा रहा है, पर 'वहीँ ' सबसे ज्यादा लूट है..कि शिक्षक नियुक्ति में सबसे ज्यादा धांधली हुई है ... कि विद्या के घर में विद्या छोड़कर बाकि सबका बसेरा है..वगैरह-वगैरह...

ग्रामीण बच्चों की मांग पर इस बार बाल महोत्सव ब्लाक स्तर पर भी आयोजित किया गया ...पहला पड़ाव कुल्हरिया में था ... दूसरा पड़ाव बडहरा के गाँव पडरिया में स्थित मध्य विद्यालय में था ...यात्रा सुखद रही...बांध पर बनी सड़क...बगल में बहती गांगी नदी...वृक्षों की कतार .. दूर तक फैले हरे-भरे खेत ....और छोटे-छोटे बच्चों का साथ (जो हमारे साथ आरा से गए थे ) ने यात्रा का अहसास तक नहीं होने दिया ....बहुत खुश होकर हम विद्यालय में दाखिल हुए ...भवन देखा तो अजीब सा लगा...बहुत पुराना तो नहीं था पर जगह-जगह दरारें आ चुकी थी...हालाँकि प्रांगन में ढेर सारे पेड़ों को देखकर हम खुश हो गए...अब बच्चों के बैठने की बारी थी..इसलिए हमने क्लासरूम का जाएजा लेना चाहा ..एक कमरे में कदम रखा देखा एक तरफ बेंच रखे है और दूसरी तरफ जमीन पर बोरे बिछे हैं...दूसरे कमरे में गयी वहां भी यही हाल...तीसरे, चौथे, पांचवे कमरे में तो एक भी 'बेंच' नहीं था...बोरा भी नहीं था (हाँ भाई, आखिर कितना बोरा भला स्कूल खरीदेगा ??) इसलिए बच्चे उसे घर से लाते थे ...झटका लगा ...अबतक गाँव के स्कूलों के दुर्भाग्य की गाथा सुना करती थी, आज देख रही थी...अपने बचपन में इस स्थिति की कल्पना मात्र से कितना डरती थी पर यहाँ के बच्चे, रोज उसका सामना करते है ...और बाकी साल उसपर बैठ भी जाये पर जब ठण्ड अपने चरम पर होती होगी तब ?? मन भर गया ...महोत्सव का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया ...सोच में पड़ गयी कि 'माँ' के प्राईमरी स्कूल जाने के वर्ष के बाद से कितने साल गुज़र गए हैं , पर हालात अब भी ज्यों की त्यों हैं ....क्या यही है इक्कीसवी सदी ?? सुनती हूँ कि सरकार शिक्षा पर बहुत ज्यादा खर्च करती है...फिर इन स्कूलों की ऐसी बदहाली क्यूँ?
--------स्वयम्बरा
जब छोटी थी तब  'माँ ' अक्सर  अपने बचपन की कहानी सुनाया करती ...वो बताती कि प्राईमरी स्कूल में उन्हें  'बोरा' लेकर जाना पड़ता था ...असल में उनमें बेंच नहीं थे  ...ऐसे में  'बोरा' बैठने के काम आया करता....इन किस्सों को सुनकर मैं हैरान हो  जाती ..क्योंकि मेरे लिए ये अनोखी बात थी...स्कूल, वो भी बिना बेंच के !!   ...और पढाई बोरा पर बैठकर ??....अपनी माँ पर तरस आता, बुरा भी लगता और स्कूल  की व्यवस्था पर हंसी भी आती ..कभी -कभी माँ मुझे डांटते हुए  बोलती कि पढ़ोगी नहीं तो बोरा वाले स्कूल में नामांकन करा देंगे ...तब बहुत डर लगता ..हालाँकि उम्मीद नहीं थी कि ऐसा स्कूल अब भी होता होगा....

खैर... 'बाल महोत्सव' का आयोज़न  के दौरान गांवों के स्कूलों के बारे में जाने-समझने का मौका मिला...शिक्षको और अभिभावकों से सुनने को मिला कि शिक्षा प्रणाली में घुन लग चूका है....कि शिक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च किया जा रहा है, पर 'वहीँ ' सबसे ज्यादा लूट  है..कि शिक्षक नियुक्ति में सबसे ज्यादा धांधली हुई है ... कि विद्या के घर में विद्या छोड़कर बाकि सबका बसेरा है..वगैरह-वगैरह...

ग्रामीण बच्चों की मांग पर इस बार बाल महोत्सव ब्लाक स्तर पर भी आयोजित किया गया ...पहला पड़ाव कुल्हरिया में था ... दूसरा पड़ाव बडहरा के गाँव पडरिया में स्थित मध्य विद्यालय में  था ...यात्रा सुखद रही...बांध पर बनी सड़क...बगल में बहती गांगी नदी...वृक्षों की कतार .. दूर तक फैले हरे-भरे खेत ....और छोटे-छोटे बच्चों  का साथ (जो हमारे साथ आरा से गए थे )  ने यात्रा का अहसास तक नहीं  होने दिया ....बहुत खुश होकर हम विद्यालय में दाखिल हुए ...भवन देखा तो अजीब सा लगा...बहुत पुराना तो नहीं था पर जगह-जगह दरारें आ चुकी थी...हालाँकि प्रांगन में ढेर सारे पेड़ों को देखकर हम खुश हो गए...अब बच्चों के बैठने की बारी थी..इसलिए हमने क्लासरूम का जाएजा लेना चाहा ..एक कमरे  में कदम रखा देखा एक तरफ बेंच रखे है और दूसरी तरफ जमीन पर बोरे बिछे हैं...दूसरे कमरे में गयी वहां  भी यही हाल...तीसरे, चौथे, पांचवे कमरे में तो एक भी 'बेंच' नहीं था...बोरा भी नहीं था (हाँ भाई,  आखिर कितना बोरा भला स्कूल खरीदेगा ??)  इसलिए बच्चे उसे घर से लाते थे ...झटका लगा ...अबतक गाँव के स्कूलों के  दुर्भाग्य की  गाथा सुना करती थी, आज देख रही थी...अपने बचपन में इस स्थिति की कल्पना मात्र से कितना डरती थी पर यहाँ के बच्चे, रोज उसका सामना करते है ...और बाकी साल उसपर बैठ भी जाये पर जब ठण्ड अपने चरम पर होती होगी तब ??  मन भर गया ...महोत्सव का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया ...सोच में पड़ गयी कि 'माँ'  के प्राईमरी स्कूल जाने के वर्ष के बाद से कितने साल गुज़र गए हैं , पर हालात अब भी ज्यों की त्यों हैं  ....क्या यही है इक्कीसवी सदी ?? सुनती हूँ कि सरकार शिक्षा पर बहुत ज्यादा खर्च करती है...फिर इन स्कूलों की ऐसी बदहाली क्यूँ?
                  बडहरा के गाँव पडरिया में स्थित मध्य विद्यालय

http://www.swayambara.blogspot.com/

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

लहराता परचम बाल महोत्सव का

यवनिका टीम

पिछ्ले वर्ष दिसंबर माह के आखिरी सप्ताह  में यवनिका संस्था के तत्वावधान  में वीर कुंवर सिंह स्टेडियम, आरा, बिहार में बाल महोत्सव का आयोज़न हुआ , जिसमे चित्रकला, कहानी/कविता लेखन, भाषण, सामान्य ज्ञान, सामान्य विज्ञान, नृत्य, गायन, एकल अभिनय, नाटक, फैंसी ड्रेस , कविता - पाठ जैसी प्रतियोगिताओं में लगभग 2 हज़ार बच्चों ने भाग लिया . देश में अपनी तरह का यह अनोखा और इकलौता  कार्यक्रम है जिसमे साहित्य और कला के प्रति बच्चों में रुझान पैदा करने की कोशिश की जाती है .

 वर्ष 2012  इस उत्सव का नौवा साल था . मतलब कि इस आयोज़न ने एक ठोस परम्परा का रूप ले लिया है,  बच्चे जिसका इंतज़ार बड़ी बेसब्री से करते हैं . वास्तव में यह एक ऐसा मंच बन चूका है जहाँ नन्हे-मुन्ने अपनी प्रतिभा का परचम लहराते है और  निखार पाकर पूरी दुनिया को अपनी हुनर का कायल बना देते है .

सृजन नाटक का एक दृश्य 
एम डी जे पब्लिक स्कूल , सोनवर्षा के बच्चे : नाटक के लिए तैयार 
बेपरवाह मस्ती और सबकुछ जान लेने की सृज़नात्मक जिज्ञासा का छोटा सा अक्स है  बचपन . उम्र का यह दौर निश्चिंतता, उन्मुक्तता , मासूमियत, शरारत और अथाह  संभावनाओं से  भरा होता है . कल्पनाओं की  ऊँची उडान भरते हुए , दादी- नानी की  कहानियाँ सुनते हुए बच्चे अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं . उन्हें न  किसी बात की फिक्र होती है ना ही जीवन-यथार्थ से जूझने की चिंता . लेकिन इस  'बचपन ' को ऐसे  सांचे की  जरुरत होती है जिससे इनका व्यक्तित्व निखरे और इनके जीवन में सुगढ़ता, सुन्दरता और चारित्रिक उन्नयन का समावेश हो. ऐसे ही सांचे का नाम है 'बाल महोत्सव',  जहाँ 'बाल विकास' के लगभग सभी आयाम मौजूद हैं .

राहुल कुमार सिन्हा, कक्षा  8 , की बनाई तस्वीर 
बाल महोत्सव की शुरुआत 2004 में हुई थी.  शुरु में यह जिला स्तरीय  था. अभिभावको और शिक्षकों की मांग पर इसे राज्य स्तर का किया गया. पिछ्ले साल छह जिलो के बच्चो ने महोत्सव मे भाग लिया था. आयोज़न के पहले वर्ष से ही इसमें ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों की  भागीदारी बढ़ाने की कोशिश की  गयी. संस्था के सचिव और महोत्सव के संयोज़क संजय शाश्वत ने बताया कि  शुरू में शहरी विद्यालयों के प्रबंधकों ने  ग्रामीण बच्चों की  क्षमता पर संदेह व्यक्त किया था कि वे शहर के बच्चों से मुकाबला नहीं कर सकते . परन्तु गाँव के बच्चों ने इन नौ वर्षों में पचास  से पचपन प्रतिशत पुरस्कार ,अपनी झोली में डाल कर सारी आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया.


यानि कि श्रेय, अनिमेष, साक्षी, विक्रांत सम्राट, सागर , अंजलि, नेहा, तनुश्री, मीमांसा , प्रकाश जैसे शहर के होनहार बच्चे हों या मनोहर (कायमनगर), अनु (तरारी) , हिमांशु हीर (सहार ) , राकेश पटेल (सोनवर्षा), प्रवीन (महुओं) आदि गाँव से से आये प्रतिभावान बच्चे हों , सभी के सपनों  की ऊँची उडान में बाल महोत्सव सहभागी बना.

सागर, पुरस्कृत होते हुए 
विक्रांत सम्राट 
इसने उन बच्चों को भी सम्मान दिया जिसे समाज में हेय नज़रों से देखा जाता था. अनीता, गाँव एकवारी, थाना सहार. दलित जाति की इस बच्ची को समाज के तिरस्कार और अपमान की  आदत थी . पर 2006 के बाल महोत्सव की गायन प्रतियोगिता में पुरस्कार पाने के बाद स्थितियां बदल गयी. वह गाँव भर की  दुलारी बेटी बन गयी  . उसके गाने पर नाराज़ होनेवाले उसके मा-बाप अपनी बेटी की बडाई  पर फूले नहीं समाते . बसंत, गाँव धनछूहा . इस बच्चे ने कभी नहीं सोचा था कि वह कभी शहर के अच्छे स्कूल में पढ़ पायेगा . किसान पिता का यह बेटा गरीबी की मज़बूरी समझ रहा था . चमत्कार तब हुआ जब इसने बाल महोत्सव में भाग लिया . इसकी गायिकी पर मुग्ध होकर आरा शहर के प्रतिष्ठित स्कूल ने अपने यहाँ मुफ्त पढाई और संगीत शिक्षा का न्योता दिया. बसंत ने वही से पढाई की और मट्रिक उत्तीर्ण कर  गया.

सत्यम , बारह साल की उम्र में इसने आई. आई. टी. निकाल लिया 
कुछ बच्चे ऐसे भी हुए, जिनमे चमत्कृत कर देनेवाली प्रतिभा थी. किन्तु अभावों और सामाजिक परिस्थितियों  ने इनपर अंकुश लगा रखा था. रॉकर्स फ्रेंड्स क्लब का विक्रांत सम्राट डांस इंडिया डांस में चुन लिया गया तो सागर का चुनाव सोनी टी. वी. के इन्डियन आईडल जूनियर में हुआ है . बखोरापुर गाँव के  'सत्यम' का नाम तो आज  अन्तराष्ट्रीय फलक पर चमक रहा है,  जिसे देश और दुनिया का सबसे युवा आई. आईटियन होने का सम्मान प्राप्त  है. मात्र बारह साल की उम्र में सत्यम ने आई. आई. टी. निकाल लिया . सत्यम की कहानी अन्तराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र बनी है. विदेशी पत्रकारों ने भी इसकी कहानी को कवर किया है .  इसकी प्रतिभा को भी पहली बार मंच दिया बाल महोत्सव ने. वर्ष २००४ में सत्यम ने इस कार्यक्रम के भाषण प्रतियोगिता में भाग लिया था . तब यह मात्र पांच साल का था. स्कूल नहीं जाता था पर नौवी-दसवीं कक्षा के गणित और विज्ञान के सवाल चुटकियाँ बजाते हल कर देता था. महोत्सव के मंच से ही पहली बार सार्वजनिक  तौर पर इसकी प्रतिभा सबके सामने आयी. नामो की यह फेहरिस्त काफी लम्बी है क्यूंकि महोत्सव ने हजारों बच्चों की प्रतिभाओं को पुष्पित -पल्लवित करने में अपना योगदान दिया है .  आरा शहर के वरिष्ठ कवि और महोत्सव के निर्णायक मंडल के सदस्य पवन श्रीवास्तव ने महोत्सव के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि बाल-महोत्सव से प्रारंभ से जुड़ा हूँ. इस बार  इसके साथ थोडा ज्यादा समय बिताया तो लगा कि यह महोत्सव तो प्रतिभा कि नन्ही-नन्ही कलिओ को पुष्पित और फलित होने का अवसर देने का आयोजन है .एक ऐसा आयोजन ,जिसकी संभावनाओं से हम अभी भी पूरी तरह परिचित नहीं हो पाए हैं . .

अखबार में छपा एक आलेख 
एक ख़ास बात इस उत्सव की यह है कि इसमें वैसे क्षेत्रों से भागीदारी बढ़ाने की कोशिश की गयी जो कई सालों से उग्रवाद से पीड़ित थे . सहार के नाढ़ी, एकवारी , खादांव, नारायणपुर तथा पीरो के तरारी, सिकरहटा जैसे नरसंहारों से त्रस्त क्षेत्रों में बाल महोत्सव ने नए जागरण का सूत्रपात किया . यहाँ के बच्चे अब हथियार चलाने की शिक्षा नही लेते बल्कि कला व साहित्य की  साधना में लग जाते है, ताकि महोत्सव में अपना झंडा फहरा सकें . इसका सबसे बड़ा उदाहरण है २००७ के बाल महोत्सव की चार  प्रतियोगिताओं में अव्वल आनेवाला हिमांशु हीर , जिसने उस वर्ष की 'चैंपियनशिप ट्रोफी' भी जीत ली थी.  महोत्सव ने राज्य में एक नए सांस्कृतिक युग की शुरुआत की है , जिसमे बच्चों को श्रेष्ठ  नागरिक बनाने का प्रयास किया जाता है.
रानी और बलराज 

श्रेया समृद्धि : चैम्पियन 2010
वर्ष 2012 में महोत्सव ने भोजपुर में ब्लोक स्तर पर बरहरा, कोइलवर और सहार में  तीन सब सेंटर भी बनाये, उद्देश्य था गाँव के बच्चों को शहर आकर महोत्सव में भाग लेने की परेशानी से छुटकारा  देना. बरहरा ब्लोक के शिक्षक यशवंत जी ने कहा कि ब्लोक स्तर पर आयोज़न होने से वैसे बच्चे भी इसमें भाग ले सके जो दूरी के कारण मन मसोस कर रह जाते थे. यवनिका को ऐसे प्रयास के लिये साधुवाद .

बाल महोत्सव में भीड़ 
बाल महोत्सव वृहद् आयोज़न है. अतएव  इसे कई चरणों में आयोजित किया जाता है. प्रथम चरण में कलम और तूलिका से जुडी प्रतियोगिताएं होती है, द्वितीये  चरण में गायन , नृत्य का सेमी-फाईनल और वाचन से सम्बंधित प्रतियोगिताएं होती हैं, तृतीय या अंतिम चरण में नृत्य, गायन का फाईनल और नाटक, अभिनय, फैंसी-ड्रेस, कविता-पाठ की प्रतियोगिताएं होती हैं .

अंतिम चरण चार दिनों का होता है . इस दौरान स्टेडियम भी छोटा पड़ जाता है.  नन्हे बच्चों के नृत्य, गीत, अभिनय लोगों को दांतों तले उंगलियाँ दबाने पर मजबूर कर देती हैं. बच्चों की  प्रतिभाएं इस कदर सम्मोहक होती हैं कि हजारों की  भीड़ भी आत्मानुशासन में बंध जाती है . अतिरेक उत्साह भी इसे तोड़ नहीं पाता. इन चार दिनों दिनों में स्टेडियम में मेला सदृश दृश्य उपस्थित हो जाता है. एक तरफ खाने-पीने की दुकाने तो दूसरी तरफ खिलौने और गुब्बारे बेचनेवाले. भीड़ के बीच में चलते -फिरते कार्टून बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी खूब लुभाते हैं . महोत्सव में बच्चों को भेद-भाव से मुक्त, एक निश्छल , उन्मुक्त माहौल मिलता है. एक ही मंच पर रिक्शावाले और अधिकारी के बच्चे नाचते-गाते हैं . बाल महोत्सव में उन्हें दोस्ती का नया सबक मिलता है.

 अंततः यह कहना उचित होगा की बाल महोत्सव बच्चों को स्वस्थ, स्वच्छ, प्रतियोगी माहौल तो देता ही है उन्हें एक सुनहरे सपने को जीने का मौका भी देता है .


यवनिका परिवार
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प्रमुख संरक्षक - बक्सी नीलम सिन्हा
अध्यक्ष - श्री देवेन्द्र गौतम (वरिष्ठ पत्रकार )
सचिव - संजय शाश्वत (पत्रकार , रंगकर्मी )
कोषाध्यक्ष - स्वयम्बरा

सदस्य - प्रियम्बरा (लोकसभा टी वी ) , नितिन कुमार (अधिवक्ता) , अभिनन्दन कुमार, डॉ. अबरार, रजत बक्सी (प्रबंधक, एच दी ऍफ़ सी एर्गो ), राणा रोहित, रणवीर रंजन मिश्र, दीपानिता राज, निरंजन ( सब एडिटर,ई. पेपर  भास्कर ), विनय यादव (शिक्षक, डी ए वी ), कुंदन सिंह (शिक्षक, डी ए वी ),  अर्चना ( लेक्चरर) , सुनील, सुरभि जैन, सुप्रिया, अनुराग,  चन्दन , यशवंत (शिक्षक ) , कपिल (शिक्षक), अभिषेक

चिल्लर पार्टी - ऋषिका, सृष्टि सिन्हा, स्मृति सिन्हा, अनुराग , रुझान, मीठी, आकाश, टुल्ली








शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

बच्चे नहीं जानते....


हमारी महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले 'बचपन' वाकई कही खोता जा रहा है...हमें डॉक्टर , इंजीनियर  या आई. ए. एस. चाहिए, एक अच्छा नागरिक नही... परिणामतः बच्चे सभी चीजों से दूर होते जा रहे है, फिर चाहे वो प्रकृति हो , संस्कृति हो , खेल हो या  संवेदनाएं हों ....याद कीजिये हमने अपना बचपन कैसे जिया था...क्या नहीं लगता की बच्चों के साथ हम अन्याय कर रहे है ???  


बच्चे नहीं जानते,
आम, अमरुद, इमली, जामुन आदि पेड़ों के फर्क, 
कनईल, हरसिंगार, गुडहल के फूलों के रंग,
नहीं लुभाती उन्हें 
गौरैया की चहचहाहट,
मैना की मीठी बोली , 
तितलिओं के पंख ,
'होरहा' की सोंधी महक , 
ताज़ा बनते 'गुड' की मिठास, 
कोयले पर सीके 'भुट्टों' का स्वाद ,
 नहीं सुनी कभी 'राजा- रानी' की कहानियां 
'बिरहा' और 'पूर्वी' के आलाप
 महसूसा ही नहीं 
'बगईचा' में झुला झूलने , 
'देंगा-पानी', 'दोल्हा-पाती' खेलने का सुख 
बच्चे  भूल चुके हैं सपने देखना 
'बचपन' नहीं जीते वे 
क्यूंकि जरुरी होता है 'बड़ा' बन जाना , 
तय की है हमने  उनकी 'नियति', 
उन्हें हमारे बनाए 'सांचे' में ही ढलना  है 
और 'इन्सान' नहीं,
एक 'मशीन' सदृश बनकर ही निकलना है 
......स्वयम्बरा

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

एक उपेक्षित धरोहर !

आरा हाऊस( वीर कुंवर सिंह संग्रहालय), आरा, बिहार 

 कुछ  इमारतें जन क्रांति की मौन गवाह होती हैं. इतिहास का एक पूरा अध्याय इनमे अंकित होता है . ऐसा ही एक भवन है हमारे शहर 'आरा' के 'महाराजा महाविद्यालय' के प्रांगण में स्थित 'आरा हाऊस', जिसका वर्तमान नाम 'वीर कुंवर सिंह संग्रहालय 'है . यह 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में देशवासियों के बलिदान का प्रतीक है .


आरा हाऊस के बारे में विस्तृत जानकारी भले ही बहुत बाद में मिली पर इस से  जान-पहचान थोड़ी पुरानी है.. असल में बचपन में अपने बाबा की उँगलियों को पकड़कर  शहर के कई स्थलों को देखा ... जाना. बाबा जहा भी ले जाते,  उसके बारे में अत्यंत विस्तार से बताते. शायद इसलिए बहुत सारी जानकारियाँ मुझे यु ही हो गयी जिसके लिए लोग किताबें  पढ़ते है .  'आरा हाऊस' भी उनमे से एक था. यह भवन इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है  क्यूंकि हमारे क्षेत्र में लगभग 'किवदंती' बन चुके 'कुंवर सिंह' का नाम इससे जुड़ा था . वैसे भी कॉलेज, घर के ठीक पीछे स्थित है तो जाना भी आसान था..बाबा वहा ले जाते और 'कुंवर सिंह' की कहानियां सुनाते.  हालाँकि उस वक़्त कहानियों से ज्यादा दिलचस्पी भवन के आधार पर बनी 'अर्धचन्द्राकार खिडकियों ' में होती...लोगो का कहना था कि वो 'सुरंगों' की है...ये सुरंगे आरा से जगदीशपुर जाती है...ये इतनी बड़ी हैं कि कुंवर सिंह घोड़े पर बैठकर सुरंग पार कर जाते थे  ...मैं बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखती और सोचती कि कैसे उनके अन्दर जाया जाये...पर कोई लाभ नहीं था क्यूंकि इमारत हमेशा बंद रहती...

इंटर में उसी कोलेज  में नामांकन हुआ ...लड़कियों का कॉमन रूम वही 'आरा हाऊस' था ...लेकिन उस भवन कि महत्ता के बारे में तब भी उतना ही जाना जो 'बाबा' ने बताया था....हाल के बाहर एक शिलापट्ट लगा था, पर उसपर कभी ध्यान नहीं दिया . उस समय भवन भी अत्यंत जर्ज़र हो चूका था...प्लास्टर उखड चुके थे... छत कभी भी गिर सकती थी...आस-पास झाड़-झंखाड़ उग चुके थे ....कॉमन रूम वहा से हटा दिया गया...पता चला कि वह भवन गिराया जायेगा ...कभी-कभी थोडा अजीब लगता ...फिर  अपनी जिन्दगी में मगन हो जाते...

लार्ड कर्ज़न का शिलापट्ट
बी. एस. सी. करने के दौरान एक बार घूमते हुए उस भवन में चली गयी ...वहा शिलापट्ट देखा ..समय काटने के लिए उसे पढने लगी ..पढ़ के हैरान रह गयी ...वह ब्रिटिश भारत के वायसराय लार्ड कर्ज़न का था...इसे 1903 में लगाया गया था...इसपर 1857  की घटना का जिक्र था... लिखा था कि  -
 "............this building was the scene of the memorable defence of Ara by a party consisting......................................This tablet is placed by Lord Curzon, viceroy and governor general of India in 1903." अब मुझे लग चूका था  कि यह भवन वाकई ऐतिहासिक महत्व  का है ...जिसकी दीवारों पर बलिदानियों की गाथा अंकित है... 

वर्ष 1857  में देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ आवाज़ बुलंद हुई थी. शाहाबाद ( वर्तमान भोजपुर, रोहतास, बक्सर, कैमूर ) क्षेत्र से एक अस्सी साल के युवा ने क्रांति का बिगुल फूंका...यह वीर थे जगदीशपुर के जमींदार 'कुंवर सिंह'. इनकी ललकार पर क्षेत्र की जनता भी आन्दोलन में कूद पड़ी . क्रांति की आग दानापुर छावनी तक पहुंची . वहां के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया. वे आरा आये . यहाँ के निवासियों के साथ मिलकर 'आरा हाऊस ' में अंग्रेजों को बंदी बना लिया . यह घेराबंदी कई दिनों तक चली . ब्रिटिश सरकार ने 'कर्नल आयर' को इन्हें छुड़ाने के लिए भेजा. 3 अगस्त, 1857 को आयर और आन्दोलनकारियों के बीच मुकाबला हुआ. विद्रोही बहुत बहादुरी से लड़े,  साधनों के अभाव में हार गए . इस घटना ने देशभर में खलबली मचा दी . आधुनिक अस्त्रों  के बलपर भले ही आन्दोलनकारियों को दबा दिया गया, पर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यह घटना अमर  हो गयी .
आरा हाऊस, बाहर से

इस भवन का निर्माण ब्रिटिशों के रेलवे इंजीनियर श्री वईकर्स  व्यायल ने करवाया था, जहा अँगरेज़ अपने मनोरंज़न के लिए जाया करते थे . भवन दो मंजिला है. एक बड़ा हाल  व् दो छोटे कमरे है. चारो और हवादार बरामदा भी है. नीचे शायद तहखाना है (जैसा मुझे लगा ) . पास ही एक कुए का अवशेष है...इतिहास की माने तो ये वह कुआ  है जिसे घेराबंदी के दौरान ब्रिटिशों ने खोदा था. पूरा भवन देखने में अत्यंत मामूली सा लगता है पर जैसे ही इसका जुडाव 1857 की क्रांति से होता है,  वीरों की हुंकार सुनाई पड़ने लगती है . विद्रोह का पूरा दृश्य एकबारगी आँखों के सामने से गुजरने लगता है. यह वो जगह है जिसने इतिहास में 'आरा' के नाम को सुनहरे अक्षरों में अंकित कर दिया. 

कॉलेज से निकलने के बाद भी इस भवन के प्रति लगाव बना रहा, इसलिए जानकारी लेती रही. पता चला भवन को गिराने की बाते बेबुनियाद थी . कुछ साल बाद उस भवन का नवीकरण किया गया..बरामदे में टाइल्स लगा दिया गया...रंग-रोगन किया गया....नया नाम 'वीर कुंवर सिंह संग्रहालय' हो गया है. युवा वहा बैठकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते है...सुनकर अच्छा लगता था...

कचरे का अम्बार
कुछ दिनों पहले वहा गयी...बहुत खुश थी...एक तो यादे दूसरा इमारत की ऐतिहासिकता बेचैन किये थी...बाहर से देखा तो ठीक-ठाक लगा ...सुकून मिला..जैसे ही अन्दर कदम रखा भीषण दुर्गन्ध ने रास्ता रोक लिया  ..बहुत हिम्मत कर अन्दर गयी...देखा की सीढियों पर कचरे का अम्बार लगा था..ऊपर की मंजिल पर बरामदे में कुछ युवा बैठे थे....वह ज़गह साफ़-सुथरी थी..पर हॉल के दृश्य ने रुआंसा कर दिया..चारो ओर कूड़ा पसरा था..ड्रग्स की सूई भी दिखी...लोगो ने हॉल और कमरों को शौचालय में तब्दील कर दिया था ,  जो मल-मूत्र से भरा था...दीवार टूटी हुई थी..बाहर पहले की ही तरह झाड़ उगे हुए थे... इमारत के दूसरे हिस्सों का भी यही हाल था....नए नाम 'वीर कुंवर सिंह संग्रहालय' के अनुरूप कुछ भी नहीं था ...संग्रहालय के नाम पर यह लोगो के साथ किया गया छल है...क्यूंकि एक भी ऐसी चीज़ यहाँ नहीं थी जो संग्रहालय को चरितार्थ करे... यह सब देखने के बाद मन बहुत भारी हो गया....

कचरे का अम्बार,  टूटी दीवार
आरा हाऊस 'कॉलेज प्रशासन' के अधीन है ...इस धरोहर की देख-रेख की  जिम्मेदारी इसी की है...ऐसा भी नहीं दोनों की दूरी ज्यादा है...या कॉलेज के पास इतना भी वित्त नहीं की इसकी नियमित सफाई हो सके ...फिर क्यूँ है इसकी नारकीय स्थिति? क्या कॉलेज  देशवासिओं के बलिदान का  प्रतीक इस भवन की जिम्मेदारी उठाने में अक्षम है ? पर जरा ठहरिये...दूसरों को दोषी ठहराने से हमारी जिम्मेदारी कम तो नहीं हो जाती...भोजपुर  के लोग 'कुंवर सिंह' के नाम की कसमे खाते है...गर्व करते हैं कि  हम उस माटी कि उपज है जहाँ के लोगो ने देश के लिए बलिदान दिया ..पर लगता यह सब झूठ है...दिखावा है...अन्यथा कही से तो आवाज़ उठाई जाती !...भले ही सफाई करने या करवाने के कर्त्तव्य प्रशासन  के सिर मढ़ कर हम खुश हो ले  पर  इससे गंदगी फ़ैलाने का लाईसेंस तो नहीं मिल जाता  ! ...इतनी जिम्मेदारी तो उठाई ही जा सकती है कि हम बलिदानियों  का सम्मान करे और इस भवन की उपेक्षा न करे , ...... क्यूँ !......

---स्वयम्बरा
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शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

रंगकर्म : मेरा प्रथम प्रेम



वो दिन भी खूब थे...तब जम कर नाटक किया करते थे ...कई सपने देखा करते..नाटको से ये कर देंगे..वो कर देंगे...क्रांति ला देंगे ...आन्दोलन खड़ा कर देंगे ....जब जीवन का संघर्ष सामने आया..तो सारे जोश की हवा निकल गयी...सच तो यही है  कि 'नाटक' कभी हमें दाल-रोटी नहीं दे सकता था....समाज इन्हें बहुत गंभीरता से भी तो नहीं लेता, खासतौर पर हमारे छोटे से शहर में ...फिर सब छूटता गया .... छूटता गया.....हालाँकि आज भी परोक्षतः रंगमंच से जुडी रहती हूँ पर  'अभिनय' किये कई साल हो गए..मेरे जीवन का प्रथम प्रेम जाने कहा विलुप्त हो गया.

'थियेटर' से मेरा लगाव बचपन से रहा है...यह वाकई मेरा पहला-पहला प्यार था और  इतनी शिद्दत से मैंने चाहा कि सारी कायनात इसे मुझसे मिलाने में लग गयी (हा हा हा )..असल में  रंगमंच का  आकर्षण मेरी जीन में ही था...पापा कालेज में और मम्मी स्कूल में नाटक किया करती थी...यानि कि जब मेरा जन्म हुआ तो 'अभिनय' का 'डबल डोज़'  नसों में दौड़ रहा था ...मैंने लगभग चार साल की उम्र में 'मंच' पर  कदम रख दिया था ...पर 'रंगमंच' अब भी बहुत दूर था...अपने मोहल्ले में एक जगह 'पूर्वाभ्यास' हुआ करता था...मै अक्सर वहां चली जाती और अभिनय करते लोगो को मंत्र मुग्ध होकर देखती ...स्थानीय नागरी प्रचारिणी सभागार में 'आला अफसर' नाटक हो रहा  था..हमारे पास भी आमंत्रण  आया ...पापा हम सभी को दिखाने ले गए ..वो पहला नाटक था जिसे मंचित होते देखा था ...ये एक सपना के सच हो जाने जैसा एहसास था...सच मानिये आज  भी उसके  कई दृश्य याद है..


 रंगमंच मेरे लिए बहुत बड़ा आकर्षण था, पर 'अभिनय' का मौका मिलना आसान कहाँ  था.. सपने देखती और खुश हो लेती ..उच्च विद्यालय  में नामांकन हुआ..एक दिन प्रिंसिपल कार्यालय से बुलावा आया...जाने पर पता चला कि अंतर  स्कूल प्रतियोगिता में नाटकों की भी जोर - आजमाइश है...हमारे स्कूल को भाग लेना है...'खोज एक नारी पात्र की' एकांकी था, जिसमे मुझे रानी लक्ष्मी बाई के लिए चुना गया...मुझे लगा जैसे हवा में उड़ने लगी हूँ...अब रंगमंच बिलकुल मेरे पास था..मै उसे छू सकती था...गले लगा सकती थी...मुझसे संवाद बुलवाए और लिखवाए गए...घर आई ..होमवर्क के बजाये 'संवाद' याद किया ....झाँसी की रानी की तस्वीरे देखी...तलवार की मूठ पर हाथ रखने की अदाए सीखी ...बहुत-बहुत खुश थी ...दूसरे दिन स्कूल गयी..लंच के बाद रिहर्सल होना था....देखा कि मेरी सीनियर वही संवाद बोल रही थी जो मुझे लिखवाए गए थे..रिहर्सल में उन्होंने ही लक्ष्मी बाई का रोल किया ...मै चुपचाप देखती रही (अंतर्मुखी हूँ न इसलिए )...मेरा दिल टूट गया था...सपने बिखर गए थे...जिन्दगी नीरस हो गयी थी (हा हा हा...अब उस समय कुछ ऐसा ही एहसास हो  रहा था )...घर आकर खूब रोई ..गुस्से में दूसरे दिन स्कूल भी नहीं गयी ..दोपहर में नीचे से आवाज़ सुनाई दी...सोम्बरा...ए सोम्बरा ...आवाज़ स्कूल के चपरासी कि थी जो मेरे नाम का उच्चारण 'स्वयम्बरा' के बजाये 'सोम्बरा' करता था . उसने सर की एक चिठ्ठी दी ..उसमे स्कूल आने का आदेश था...डरते -सहमते वहाँ  गयी..मुझे उस एकांकी में 'उद्घोषक' का रोल करने को कहा गया.. छोटा सा रोल था पर मै खुश थी...आखिर थियेटर  ने मुझे अपना ही लिया  ....हमारा नाटक हुआ...प्रथम पुरस्कार मिला...इसके बाद मैंने पीछे नहीं देखा...

 खूब नाटक किया...बार-बार का रिहर्सल..स्क्रिप्ट पर लम्बी बहस...एक एक दृश्य पर मंथन...प्रकाश और वस्त्र परिकल्पना पर घंटो माथापच्ची भी थका नहीं पाता. घर-घर घूमकर चंदा मांगते ...टिकट काटते ...कड़ी धूप...कडकडाती ठण्ड..बारिश भी रोक नहीं पाती. किसी भी तरह का अवरोध हमारी प्रतिबद्धता को कम नहीं कर पाता . नाटक करना एक जूनून था..इबादत था...छटपटाहट  की अभिव्यक्ति  का माध्यम था ..हम गर्व करते कि रंगकर्मी है.. अपने शहर का एकमात्र हाल 'नागरी प्रचारिणी सभागार' मंचन के लिए किसी भी तरह से उपर्युक्त नहीं, पर हमारे लिए वह ऐसा मंदिर था, जहा सपने साकार होते...

नाटक एक प्रयोगधर्मी कला है..नाट्य रचना  और प्रस्तुति दोनों  में प्रयोग होते रहते हैं ...इसीलिए यहाँ संख्या महत्वपूर्ण नहीं, नाटकों को 'करते रहने' की महत्ता है....जरुरी नहीं की पचास-सौ नाटक करे ...एक नाटक ही हर मंचन में पूर्व  से भिन्न हो जाता है ...हर बार एक नए अर्थ की सृष्टि होती है, जो नए प्रयोग के लिए बाध्य करता है...स्व. भिखारी ठाकुर रचित 'बिदेसिया' और स्व. सफ़दर हाश्मी लिखित 'औरत' का मंचन हमने कई बार किया...हर बार नए अर्थ उद्घाटित हुए...नयी चीजों का समावेश हुआ

थियेटर करने के दौरान कई समस्यायों से दो चार होना पड़ा, बहुत सारी नयी बाते सीखने-समझने को मिली...असल में नाटक कलाओं का मेल है...यह संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला, साहित्य और वास्तु का मिश्रण होता है....रंगकर्म का मतलब ही है सभी कलाओं में निपुणता....हम  रंगकर्मी लगभग सभी कार्य को करना सीख ही जाते है .साहित्य का चस्का मुझे नाटको से लगा . इसने  हमें नए जीवन मूल्य भी  दिए....अबतक की जिन्दगी 'मैं' पर केन्द्रित थी अब समूह का सुख-दुःख अपना लगने लगा ...नाटक एक सामूहिक कला है ..यहाँ परस्पर सहयोग की भावना अपने-आप विकसित हो जाती है...अनुशासन आदत बन जाता है...संवेदना पहचान बन जाती है 

ग्रैज़ुएशन तक ऐसे ही चला फिर अचानक सब बंद हो गया.. अब 'जीवन' के गंभीरतम सवालों से जूझना था..हम नाटको से दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर सकते थे ..पलायन मज़बूरी थी...क्यूंकि या तो इसे अपनाकर  भटकते रहते या सिनेमा और टी. वी. की  ओर रुख कर लेते  (जो अन्दर के रंगकर्मी को गवारा नहीं था)...दूसरी बात, हमारे शहर में नाटको को इतनी गंभीरता से लिया ही नहीं जाता कि इसे कैरियर के रूप में अपनाने कि सोच भी सके...लोगो की नज़र में ये 'बिना काम के काम' है ...जो बिलकुल गैर जरुरी है..इसका महत्व मनोरंजन तक ही सीमित है  ...कुल मिलाकर  समस्या 'व्यावसायिक  रंगकर्म' के नहीं होने से थी..
(हिंदी रंगकर्म न तो पूरी तरह जीवन यापन का साधन बन पाया और न ही वह हमारे जीवन का जरुरी हिस्सा बन पाया ....देवेन्द्र राज अंकुर )


...कहानी का अंत ये हुआ कि नाटकों की जगह 'सिविल सर्विसेस' की तैयारी शुरू हो गयी . अभिनय  की जगह 'आई. ए. एस.'  बनने का सपना पलने लगा...हालाँकि दो बार मेंस निकलने के बावजूद साक्षात्कार में असफल  रही...खैर , अभिनय ना करने कि पीड़ा अब भी सालती है...अन्दर का कलाकार छटपटाता है ....मन रोता है...वाकई 'पहला प्यार' जिन्दगी भर  याद रहता है ...

------स्वयम्बरा

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

पछताते रह जायेंगे .



... चलिए एक कहानी सुनाती हूँ ..एकदम सच्ची कहानी..एक बिटिया और उसके पापा की कहानी ..मेरी दादी कहा करती  थी कि हमारे खानदान की  परंपरा है 'पान खाना'. ख़ुशी का मौका हो या गम का, 'पान खाना' ही पड़ता .परीक्षा देने जाना हो, यात्रा करनी हो, शुभ काम होनेवाला हो या  हो चूका हो, लगभग  हर मौके पर 'पान' हाज़िर होता .बाबा और दादी तो बड़े शौक से पान खाते थे. ये उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था. दादी बाकायदा  पान मंगवाती.. साफ़ करती ... अपने साफ़-सफ़ेद बिस्तर (जिनपर हमारा चढ़ना मना था) पर सूखाती ..काटती  - छांटती ....कत्था पकाती..पान लगाती .. खाती और खिलाती..बचपन में हमें भी पान खूब पसंद आया करता. असल में इसे खाने के बाद जीभ एकदम लाल हो जाती. हमारे लिए ये जादू सरीखा था .  बहुत मज़ा आता. बात इन खुशिओं तक  सीमित  रहती तो अच्छा था पर  'अति सर्वत्र वर्ज्यते' यू ही नहीं कहा गया.  अत्यधिक जर्दा के घुसपैठ ने 'पान खाने' जैसी परंपरा को भयावह रूप दे दिया और हमने अपने पापा को खो दिया .. 
जैसा कहा मैंने 'पान खाना' हमारे खानदान कि अभिन्न परंपरा थी. पापा भी पान खाया करते . हाँ, उनके पान में जर्दा (तम्बाकू) की मात्रा बहुत ज्यादा होती थी.मम्मी मना करती पर वो नहीं मानते. मम्मी ने हम बच्चो से भी कहा कि पापा को जर्दा मत खाने दो. मम्मी की ये बात हमारे  लिए खेल भी बन गयी .  हम  जर्दा (तम्बाकू) का डिब्बा  छिपा दिया करते थे ..पापा  मांगते...हम इतराते, खूब मनुहार करवाते, अंततः  दे देते ..पापा को आदेश देते जर्दा (तम्बाकू) कम खाना है ..पापा भी  दिखाने  के लिए मान जाते, कहते आज खाने दो, कल से नहीं खायेंगे...हम भी खुश और पापा भी खुश . .देखते ही देखते समय निकलता गया.पापा का पान और जर्दा (तम्बाकू) खाना नहीं छूटा.

 हम बड़े हो गए...व्यस्तताएं बढ़ गयी...पापा को बार- बार टोकना बंद हो गया..पर कभी-कभार जरुर शोर मचाते ..मम्मी की तबीयत ख़राब रहने लगी.उनको लेकर  बहुत परेशां रहते..बार-बार खून चढ़ाना, जगह-जगह दिखाना...पापा पर ध्यान देना थोडा कम हो गया था...इसी बीच पापा के भी मूह में दर्द रहने लगा...आशंका हुई पर बेटी का मन, गलत बातो को क्यों कर मान जाता . अब  पापा ने पान खाना छोड़ दिया, पर तबतक बहुत देर हो चुकी थी. एक दिन उन्हें जबरदस्ती  डॉक्टर के पास ले जाया गया. उसने देखते ही कह  दिया -इन्हें ओरल कैंसर है. पटना में बायोप्सी  करा ले. बायोप्सी में कैंसर ही निकला. हालाँकि मन ये मानने को तैयार ही नहीं था. अब भी लग  रहा था कि रिपोर्ट झूठी है .  यकीं था , पापा ठीक हो जायेंगे.  असल में उन्हें कभी बड़ी बीमारी से जूझते नहीं देखा था... और हमारे लिए तो वो 'सुपरमैन' थे , उन्हें क्या हो सकता था .

खैर , महानगरो की दौड़ शुरू हुई . कई अस्पतालों के चक्कर काटे गए. पता चला कि फीड-कैनाल में भी  कैंसर है, फेफड़ा भी काम नहीं कर रहा. डॉक्टर ने बताया कि 'ओपरेशन' और 'कीमो' नहीं हो सकता.' रेडियेशन'  ही एकमात्र उपाय है . सेकाई शुरू हुई, पापा कमज़ोर होने लगे. खाना छूट गया.' लिक्विड  डायट' पर रहने लगे. रेडियेशन पूरा होने के बाद गले का कैंसर ठीक हो गया पर 'ओरल'  ने भयावह  रूप ले लिया. डॉक्टरों  ने भी हाथ खड़े कर लिए. बीमारी बढ़ने लगी.  पहले होठ गलना शुरू हुआ . गाल में गिल्टियाँ  निकलने  लगीं और वो भी गलने लगा. धीरे-धीरे पूरा बाया गाल और दोनों होठ गल गए. घाव नाक तक पंहुचा..साँस लेने में परेशानी होने लगी. खाना पूरी तरह छुट चूका था. शरीर एकदम कमज़ोर हो गया. दावा-दारू काम न आया. ईश्वर ने हमारी 'बिनती' पर  ध्यान नहीं दिया. मित्रो-रिश्तेदारों की शुभकामनाओं की एक न चली. एक दिन  पापा हमें छोड़ कर चले गए. हम अवाक् से थे. सही है कि सबके माता-पिता जाते है पर हम अभी इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. वैसे भी 'अडसठ साल' की  उम्र मौत के लिए बहुत ज्यादा नहीं होती, खासतौर पर तब, जब कभी- भी कोई बीमारी न रही हो. पर मौत आयी ..जल्द आयी..समय से पहले आयी, क्यूंकि जर्दा (तम्बाकू)  के सेवन ने उनकी उम्र को दस साल कम कर दिया था. हम रोते रहे, बिलखते रहे, छटपटाते रहे पर क्या हासिल ...पिता का साया उठ जाना बहुत बड़ी बात होती है..हम अनाथ हो गए ..बेसहारा से..

एक साल के अन्दर एक बिटिया के प्यारे से पापा उसे छोड़कर हमेशा के लिए चले गए. पापा के जाने के बाद हर पल याद आया कि कैसे पापा से जर्दा छोड़ देने का  आग्रह करते और पापा हमें फुसला देते ..काश कि पापा ने उसी वक़्त हमारी बाते मान ली होती ... काश कि अपनी बीमारी को बढ़ने न दिया होता.. काश कि... पर 'काश' कहने और सोचने मात्र से कुछ नहीं संभव था . जो होना था वह हो गया. ..छोडिये, अब  कुछ आंकड़े देखिये --- टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के अनुसार हर साल कैंसर के नए मरीजों की संख्या लगभग सात लाख होती है जिसमे तम्बाकू से होनेवाले कैंसर रोगियों की संख्या तीन लाख है और इससे हुए कैंसर से मरनेवाले मरीजो की संख्या प्रति वर्ष दो हज़ार है ...बी. बी. सी. के अनुसार भारत में हर दस कैंसर मरीजों में से चार ओरल कैंसर के है..

पापा ने जबतक  'जर्दा' छोड़ा,  समय हाथ से निकल चूका था . पर बाकि लोग ऐसा क्यूँ कर रहे है? क्यूँ अपनी मौत खरीदते और खाते है? कल खबर देखा कि यू. पी. सरकार ने भी गुटखा  (तम्बाकू) प्रतिबंधित कर दिया ...बिहार और देलही में ये पहले से lagu है. इसके अनुसार गुटखा  (तम्बाकू) बनाने, खरीदने  और बेचने पर प्रतिबन्ध है..किन्तु सच तो यह है  गुटखा (तम्बाकू) खुले आम धड़ल्ले से बेचा-ख़रीदा जाता है...कम से कम अपने राज्य बिहार में तो यही देख रही हूँ...लोग आराम से  खरीदते  है...कोई रोक-टोक नहीं..पाबन्दी नहीं..सरकारे सिर्फ नियम बनाकर कर्त्तव्य पूरा कर देती है.. इसे लागू करने कि उसकी कोई मंशा नहीं होती. तभी तो कही कोई सख्ती नहीं बरती जाती. पुलिस और प्रशाशन के लोग स्वयं इसका सेवन करते है. भाई  लोग,  तम्बाकू का हर रूप हानिकारक है. इसका सेवन करनेवाले अपनी 'मृत्यु' को आमंत्रित करते है.  क्या आप  अपने अपनों से प्यार नहीं करते? फिर  इसकी लत जान से ज्यादा प्यारी कैसे बन जाती है जो  छूटती ही नहीं!  या फिर इच्छाशक्ति का घोर अभाव है, मन से बेहद कमज़ोर, लिजलिजे से हैं . यदि नहीं तो छोड़ दीजिये इस 'आदत' को .  मित्रों  आप तो समझदार है . चेत जाइये.  अरे,   जिम्मेदार नागरिक बने . तम्बाकू का किसी भी रूप में सेवन छोड़े . अपने रिश्तेदारों और मित्रो को भी रोके. कही बिकता देखे तो शिकायत करे . अन्यथा पछताते रह जायेंगे ....

---------------स्वयम्बरा 
यहाँ भी पढ़े http://www.swayambara.blogspot.in/2012/10/blog-post.html



स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...