धनबाद के पाटलीपुत्र मेडिकल हॉस्पीटल के अधीक्षक डॉक्टर अरुण कुमार के साथ शनिवार 30 अप्रैल को कुछ विधायकों ने धक्का-मुक्की कर दी. वे गोलीकांड में घायलों को देखने आये थे. अधीक्षक की गलती थी कि उन्हें पहचान नहीं पाए. धक्का-मुक्की के बाद पहचाना. यह कोई पहली घटना नहीं है. झारखंड के विधायक सरकारी अधिकारियों को पीटने का एक रिकार्ड बनाते जा रहे हैं. इस वर्ष आधे दर्जन से अधिक अधिकारियों को विधायकों के कोप का भाजन बनाया जा चुका है. कुछ ही रोज पहले गोड्डा विधायक संजय यादव और उनकी जिला परिषद् अध्यक्ष पत्नी कल्पना देवी ने वहां के उप विकास आयुक्त दिलीप कुमार झा की सरेआम पिटायी कर दी थी. सिमरिया विधायक जयप्रकाश भोक्ता ने राशन कार्ड के लिए गिद्धौर के बीडीओ हीरा कुमार की पिटाई की. बडकागांव के विधायक योगेन्द्र साव ने केरेडारी के बीडीओ कृष्णबल्लभ सिंह को पीट डाला. 27 फ़रवरी को बरकत्ता के विधायक अमित कुमार ने विद्युत् विभाग के अभियंता चंद्रदेव महतो की धुनाई कर दी. राजमहल के विधायक अरुण मंडल ने विद्युत् विभाग के कनीय अभियंता रघुवंश प्रसाद को पीट डाला.
विधायकों की दबंगई यहीं तक सीमित नहीं. आमजन भी उनके कोप का शिकार होते हैं. वे अपने इलाके में न्यायपालिका और कार्यपालिका का काम भी करने लगते हैं. डुमरी विधायक जगन्नाथ महतो ने 9 जनवरी को चन्द्रपुरा के आमाटोली में जन अदालत लगाकर महेंद्र महतो और मिथुन अंसारी नामक दो मनचले युवकों को सरेआम लाठी से पीता था. खिजरी के विधायक सावना लकड़ा ने तो विद्युत् ग्रिड के निर्माण में लगे मजदूरों को ही बंधक बना लिया था.
ऐसा नहीं कि झारखंड में शालीन और सुसंस्कृत विधायक नहीं हैं. वे हैं लेकिन दबंगों और उदंडों की अच्छी खासी संख्या है. इनमें ज्यादातर या तो पहली बार चुनकर आये हैं या फिर पहले से ही आपराधिक पृष्ठभूमि के रहे हैं. विधायक बनने के बाद वे अपने को जनता का सेवक नहीं बल्कि अपने इलाके का राजा समझने लगते हैं. खुद को कानून-व्यवस्था से ऊपर की चीज मान लेते हैं. हमेशा अहंकार में डूबे रहते हैं. उनके हाव-भाव सहज नहीं रह पाते. यही कारण है कि जरा-जरा सी बात पर मरखंडे बैल सा व्यवहार करने लगते हैं. अधिकारी वर्ग के लोग भी अपनी प्रताड़ना के लिए काफी हद तक स्वयं जिम्मेवार होते हैं. वे सत्ताधारी दल के विधायकों को उचित सम्मान देते हैं लेकिन विपक्ष के विधायकों की ज्यादा परवाह नहीं करते. सत्तापक्ष के कुछ लोगों से संपर्क रहने पर तो वे विपक्षी विधायकों की और भी उपेक्षा करते हैं. इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है. हालांकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों के शालीन और सभ्य होने की उम्मीद की जाती है. यदि किसी ग्रंथि से ग्रसित न हों तो विधायकों को इतने संवैधानिक अधिकार होते हैं कि किसी अधिकारी को सबक सिखा सकें लेकिन वे कानून को तुरंत हाथ में ले बैठते हैं जिसके कारण अधिकारी की गलती गौण हो जाती है और उन्हें अपराधी मान लिया जाता है.
यह पूरी तरह मनोवैज्ञानिक मामला है. अपरिपक्वता के कारण ही व्यवहार सामान्य नहीं रह पाता. परिपक्व नेता अच्छे-अच्छों को सबक सिखा देते हैं और किसी को हवा भी नहीं लगने देते. बहरहाल इस तरह की घटनाओं से राज्य में विकास और रचनात्मकता का माहौल नहीं बन पाता. बिहार में लालू-राबड़ी के ज़माने में विधायिका में उदंडता का माहौल अपने चरम पर था. उस वक़्त विकास का पहिया भी पूरी तरह थमा हुआ था. अब इसपर अंकुश लगा है तो तरक्की के नए आयाम खुले हैं. झारखंड में तो राजनैतिक अस्थिरता के कारण शुरू से अराजकता का माहौल बना रहा है. इसलिए राज्य गठन के एक दशक के बाद भी हालत ज्यों की त्यों है. जबतक धीर-गंभीर और समझदार नेताओं के हाथ में राज्य की सत्ता की बागडोर नहीं आएगी यही हालत बनी रहेगी.
------देवेंद्र गौतम
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