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शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

आखिरी ख्वाहिश


  • सुनो, 
    कभी ऐसा भी तो हो
    कि इक सुबह चल पड़े हम 
    नंगे पांव घास पर, 
    बटोरे ढेर सारी ओस की बूंदे 
    कभी भींग जाये बरिशो में 
    गुनगुनाए एक गीत 
    चल पड़े 
    किसी ओर , कही भी 
    बस, हम और तुम 
    बैठे रहे इक नाव पर
    बाते करते रहे खामोशियो मे
    छत के उस कोने से
    देखते रहे, ढलता सूरज
    साथ-साथ
    कभी मै बोलु और तुम सुनो
    सुनते रहो मुझे
    थामे हुए मेरा हाथ
    इक आखिरी ख्वाहिश भी है
    वह तो सुनो
    कभी ऐसा हो
    कि तुम्हारी गोद में सिर रखकर
    पढ्ती रहू 'अमृता' को
    तुम गुनगुनाते रहो एक ग़ज़ल
    और ...और
    उस पल मे ही
    थम जाये सबकुछ
    बंद हो जाये मेरी पलके
    हमेशा-हमेशा के लिये 


    http://swayambara.blogspot.in/

1 टिप्पणी:

  1. नवरात्रि की शुभकामनायें आदरणीया-
    सुन्दर प्रस्तुति पर बधाई

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