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मंगलवार, 17 जुलाई 2018

पानी के सौदागरों की पीठ पर सरकार का हाथ




देवेंद्र गौतम
भारत में पानी का संकट मुनाफे के धंधे में परिणत होता जा रहा है और इसे विकास का पर्याय माना जा रहा है। वर्ष 2002 में जब नेशनल वाटर पॉलिसी बनी थी तभी सरकार ने पानी के धंधे को निजी क्षेत्र के लिये खोल दिया गया। जल संसाधन से जुड़ी परियोजनाओं को बनाने, उनके विकास और प्रबंधन में निजी क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता खुलते ही पानी का बाजार बढ़ने लगा और बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुनाफा कमाने की होड़ में टूट पड़ीं। सरकार पीने का पानी उपलब्ध कराने के अपने कर्तव्य से ही पीछे हटती चली गई। नतीजा यह कि आज 15 करोड़ से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां करोड़ों के विज्ञापन के जरिए लोगों को बोतलबंद पानी का इस्तेमाल  सेहतमंद रहने का एकमात्र उपाय बता रही हैं। लेकिन सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की रिसर्च के मुताबिक बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियां कीटनाशको की मिलावट वाला पानी पिला रही हैं ।
बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियों को सिर्फ मुनाफे से मतलब है। सुद्ध पानी के लिए तय मानकों से उनका कोई लेना देना नहीं है। लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर से उन्हें कोई मतलब नहीं है। 2015 में मुंबई में कीटनाशक युक्त पानी बेचने वाली 19 कंपनियों पर रोक लगाई थी। जानकारी के मुताबिक एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने में पांच लीटर पानी खर्च होता है। सरकार के पास इस संबंध में न कोई नीति है न समझ। इसलिये सभी सरकारी बैठकों में मंचासीन लोगों के सामने बोलतबंद पानी रखा जाना प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है। सरकारी प्रोत्साहन के कारण हीआज बोतलबंद पानी का धंधा खरबों में पहुंच चुका है।
विडंबना यह है कि भारत में जहां प्राकृतिक जल स्रोतों की बहुतायत रही है वहां पानी का संकट लगातार गहराता जा रहा है। भारत में स्वच्छ जल की मात्रा 19 अरब घनमीटर है, जिसका 86 फीसदी नदियों, झीलों व तालाबों में उपलब्ध है। 1947 में आजादी के समय प्रत्येक व्यक्ति को हर वर्ष 5000 घनमीटर जल उपलब्ध था, किन्तु जनसंख्या बढ़ने के कारण वर्तमान में यह घटकर सिर्फ 2,000 घनमीटर ही रह गया है। एक अनुमान के मुताबिक सन् 2025 तक यह उपलब्धता घटकर 1500 घनमीटर रह जाएगी। भारत में 20 नदियों में से 6 की हालत दयनीय है, इसमें आज 1,000 घनमीटर से भी कम जल उपलब्ध है। आने वाले कुछ वर्षो में कई अन्य नदियों में जल एक दुर्लभ संसाधन बन जाएगा। अनुमान है कि सन् 2025 तक सिर्फ ब्रह्मपुत्र-बराक और ताप्ती से कन्याकुमारी तक पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों में ही भरपूर पानी रह जाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत को पानी की गुणवत्ता और उपलब्धता के मानकों के आधार पर 120 वां स्थान दिया है। हमारे देश के 30 फीसदी शहरों और 82 फीसदी गांवों में पानी को शुद्ध करने की व्यवस्था नहीं है। हालांकि यह संकट विश्वव्यापी है। जिस रफ्तार से दुनिया की आबादी बढ़ रही है, उसी रफ्तार से पानी की खपत भी बढ़ रही है। भूतल का जल प्रदूषित हो चुका है और भूमिगत जल का दोहन तेजी से हो रहा है। उसका स्तर नीचे खिसकता जा रहा है। भारत में जहां प्यासे को पानी पिलाना सबसे बड़ा पुण्य माना जाता रहा है वहां पानी का व्यापार दुर्भाग्यपूर्ण है। दुनिया के तमाम देश जल संरक्षण के मामने में जागरुक हैं भारत एक ऐसा देश है जहां अभी तक कोई मुकम्मल जल प्रबंधन नहीं बन पाया है। बना भी है तो कागजों पर। धरातल पर नहीं।
भारत में 90 फीसदी पानी को उपयोग के बाद रिसाइक्लिंग करने की जगह नदियों में बहा दिया जाता है जो जल प्रदूषण फैलाने का काम करता है। 65 फीसदी बरसात का पानी समुद्र में चला जाता है। जबकि पानी की जरूरत बढ़ती ही जा रही है। मनुष्य और पशुधन को पानी की दरकार है। खेती और बिजली उत्पादन के लिये पानी की जरूरत है। थर्मल प्लांट्स के लिए पानी चाहिये और सिंचाई के लिये बिजली चाहिये। इस पूरी प्रक्रिया में पानी तेजी से खत्म हो रहा है। जनसंख्या पर रोक नहीं है। सूखे से निपटने का उपाय नहीं हैं। प्रदूषण फैलाते रासायनिक खाद के उपयोग पर प्रतिबंध नहीं हैं। जलाशयों में गाद भरता जा रहा है। उनकी जल ग्रहण क्षमता घटती जा रही है। लेकिन इस नुकसान पर कोई ध्यान नहीं है। उपजाऊ जमीन पर धड़ल्ले से क्रंकीट खड़ा किया जा रहा है। जलजनित रोगों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। सरकार इलाज पर ध्यान देती है लेकिन रोगों के फैलने से रोकने के मामले में ढिलाई बरतती है। पानी के सौदागरों के खिलाफ अब जनता को ही सामने आकर मोर्चा लेना होगा।
एक तरफ पानी का संकट तो दूसरी तरफ संकट को ही धंधे में बदलने की कवायद। बोतलबंद पानी का धंधा अरबों में पहुंच चुका है। भारतीय संविधान में जीने का अधिकार मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल है। उसी संविधान की शपथ लेने वाली सरकारें हर नागरिक को मुफ्त में शुद्ध पीने का पानी भी दे पाने में भी सक्षम नहीं हो पा रही हैं। जो पानी दिया जा रहा है उसमे भी 60 फीसदी पानी साफ नहीं है। इसी कारण देश में 72 फीसदी बीमारियां दूषित दल के कारण हो रही है। सरकार पानी का इंतजाम करने की जगह पानी के सौदागरों की पीठ थपथपा रही है। इन्हीं बीमारियों के इलाज के लिये देश में स्वास्थ्य सेवा भी मुनाफा वाला धंधा इस तरह बन चुका है कि आज की तारिख में निजी हेल्थ सेक्टर 10 लाख करोड़ रुपये पार कर चुका है। पानी के इस मुनाफे वाले धंधे से अगला जुड़ाव खेती की जमीन पर कंक्रीट खड़ा करने का है। कोई भी रियल इस्टेट खेती की जमीन इसलिये पंसद करता है क्योंकि वहा जमीन के नीचे पानी ज्यादा सुलभ होता है और खेती की जमीन को कैसे कंक्रीट के जंगल में बदला जाये इसका खेल अगर क्रोनी कैपटलिज्म का एक बडा सच है तो दूसरा सच यह भी है कि कि बीते 10 बरस में 47 फीसदी कंक्रीट के जंगल खेती के जमीन पर खडे हो गये और कंक्रीट के इस जंगल का मुनाफा बीते दस बरस में 20 लाख करोड से ज्यादा का है।

सोमवार, 16 जुलाई 2018

बोतलबंद पानी के व्यापार का बढ़ता दायरा



                                                                देवेंद्र गौतम

प्यास के व्यापारियों ने सिर्फ लाभ कमाने के लिए भूतल पर मौजूद प्राकृतिक जल स्रोतों को प्रदूषित कर  डाला है और बोतलबंद पानी को स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य घोषित कर रखा है। उन लेकिन भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा न तो जल शोधन यंत्र लगाने की स्थिति में है और न बोतलबंद पानी खरीदकर नियमित रूप से पी सकता है। उसे प्रदूषित पानी पर ही निर्भर रहना पड़ता है जिसमें डायरिया, हैजा, टायफायड जैसे जानलेवा रोगों के विषाणु मौजूद हैं। ग्लोबल एनवायरमेंट आउटलुक ने भारत की आबादी के बड़े हिस्से का जीवन जल संकट के कारण खतरे में आ जाने की आसंका जताई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2030 तक दुनिया की आधी से अधिक आबादी भीषण जल संकट की चपेट में आ जाएगी। अभी प्रति 8 सेकेंट विश्व के एक बच्चे की मौत जल जनित रोग के कारण हो जाती है।
भूजल के प्राकृतिक स्रोतों की हालत तो गंभीर है ही। भारत में पानी का व्यापार करने वाली लगभग 100 बड़ी कंपनियों के 1200 से अधिक बाटलिंग प्लांटों के कारण भूमिगत जल का स्तर भी लगातार गिरता जा रहा है। जलसंकट बढ़ता जा रहा है। सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है आम जनता को शुद्ध पेयजल मुहैय्या कराना। लेकिन सरकार सिर्फ जलकर की वसूली समय पर होने के प्रति चिंतित रहती है। वह तो खुद ही पानी के व्यापारियों के साथ खड़ी हो गई है। उसके वाटर ट्रिटमेंट प्लांटों पर भी पानी के व्यापारियों की प्रेतछाया मंडराती रहती है। सरकारी जलापूर्ति व्यवस्था एक तो नियमित नहीं रह पाती दूसरे उनके शुद्धीकरण पर किसी न किसी कारण लोगों का भरोसा कायम नहीं हो पाता।
अभी भारत में  पीने के पानी का व्यापार 15 अरब डालर का आंकड़ा पार कर रहा है। यह पूरी दुनिया के पेयजल व्यवसाय का 15 फीसद है। भारत में दुनिया की लगभग सभी बड़ी कंपनियां पानी के व्यवसाय में लगी हैं। भारत में पहली बार 1965 में इटली के सिग्नोर फेनिस की बिसलरी कंपनी ने मुंबई में बोतलबंद पानी का पहला प्लांट लगाया था। अभी इस कंपनी के 8 प्लांट और 11 फ्रेंचाइजी कंपनियां इस धंधे में लगी हैं। भारत के बोतलबंद पानी के धंधे में 60 प्रतिशत हिस्सेदारी बिसलरी कंपनी की है। पारले ग्रूप के वेली ब्रांड के 40 बोटलिंग प्लांट भारत में हैं। उनका उत्पाद 5 लाख खुदरा काउंटरों से बेचा जा रहा है। इस तरह के सौ से अधिक खिलाड़ी मैदान में हैं। पाउच में पानी और छोटे स्तर के व्यावसायिक ट्रिटमेंट प्लांटों की गिनती तो संभव ही नहीं है। 20 शताब्दी तक भारत में बोतलबंद पानी का प्रचलन सिर्फ अमीरों के घरों तक था लेकिन 21 शताब्दी आते-आते मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग भी इसके उपभोक्ताओं में शामिल हो चुका है।
दुनिया में बोतलबंद पानी के व्यापार की शुरुआत यूरोप में पहली बार 1845 में पोलैंड के मैली शहर में हुई जब पोलैंड स्प्रिंग बाटल्ट वाटर कंपनी ने अपना पहला प्लांट लगाया। अमेरिका में 2008 तक बोतलबंद पानी की बिक्री 8.6 बिलियन डालर पहुंच चुकी थी। यूरोप और अमेरिका में भोजन बनाने में भी बोतलबंद पानी का ही उपयोग किया जाता है। वहां की धार्मिक संस्थाओं ने बोतलबंद पानी के इस्तेमाल का विरोध किया लेकिन वह किसी बड़े आंदोलन का रूप नहीं ले सका।

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