हंगामा क्यों है
वरपा.....
झारखंड में भूमि
अधिग्रहण संशोधन बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद राजनीतिक फिज़ा गर्म होती
जा रही है। तमाम विपक्षी दलों ने इसके खिलाफ आंदोलन की चेतावनी दी है। यह विपक्षी
गठबंधन को मजबूत करने का अवसर प्रदान करने वाला मुद्दा बन गया है। 18 जून को इस
मुद्दे को लेकर विपक्ष के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के आवास पर
विपक्षी दलों की बैठक बुलाई गई है। वे चाहते हैं कि सीएनटी-सीपीएनटी एक्ट के संशोधन
प्रस्ताव की तरह सरकार इसे भी वापस ले-ले। यह स्थिति इसलिए त्पन्न हुई कि सरकार
संशोधन के औचित्य पर सर्व सहमति नहीं बना पाई और अब इसे लेकर जिद पर अड़ी हुई है। दूसरी तरफ विपक्ष को पता है कि जब वे इसके विरोध
में सड़कों पर हंगामा करेंगे और जन-जीवन अस्त-व्यस्त होने लगेगा तो सरकार बैकफुट
पर आने को विवश हो जाएगी। लेकिन विपक्ष को थोड़ी देर के लिए यह समझना चाहिए कि
राष्ट्रपति किसी ऐसे प्रस्ताव को कैसे मंजूरी दे सकते हैं जो जनता के हित में न हो।
उनके विवेक पर थोड़ा विश्वास करना चाहिए। सच यही है कि फिलहाल सरकार और विपक्ष के
संयुक्त प्रयास से झारखंड का जन-जीवन अशांत करने की तैयारी की जा रही है।
राज्य के भू-राजस्व मंत्री अमर बाउरी ने इसे
जनोपयोगी कार्यों के लिए आवश्यक और राज्य के हित में बताया है। उनके अनुसार जमीन
केवल सरकारी कार्यों और विकास योजनाओं के लिए अधिगृहित की जाएगी। विपक्ष की आशंका
है कि इस संशोधन का इस्तेमाल कार्पोरेट घरानों को ज़मीन देने के लिए किया जाएगा। मंत्री
अमर बाउरी भी झारखंड की मिट्टी से ही उपजे नेता हैं। लिहाजा उनपर या भाजपा के
दूसरे नेताओं पर क्षेत्रीय वैमनस्य या पूर्वाग्र का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
लेकिन यह भी सच है कि इतना बड़ा निर्णय लेने और इसपर अमल की प्रक्रिया शुरू करने
के पहले सरकार यदि एक सर्वदलीय बैठक बुला चुकी होती तो आज यह आशंकाएं नहीं उठतीं। या
तो प्रस्वाव लिया ही नहीं जाता या फिर इसमें कोई अवरोध नहीं आता। सवाल है कि
प्रस्ताव सदन की स्वीकृति के बिना राष्ट्रपति तक नहीं पहुंच सकता था तो फिर सदन
में विपक्ष ने वह आशंकाएं क्यों नहीं व्यक्त कीं जो अब कर रही हैं। विपक्ष का राजनीतिक
धर्म होता है सत्तापक्ष के हर निर्णय का विरोध करना। लेकिन अगर सचमुच कोई
लोकहितकारी काम हो रहा हो तो उसे हो जाने देना चाहिए। उसमें अडंगा नहीं डालना
चाहिए। प्रस्ताव का वास्तविक चित्र इस विधेयक के प्रावधानों के बिंदुवार विश्लेषण
के बाद ही साफ हो सकेगा। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि बिंदुओं पर कोई बात नहीं हो
रही है। संशोधन के पीछे की भावना अथवा दुर्भावना को समझने का कोई प्रयास नहीं किया
जा रहा है। रघुवर दास की सरकार कोई आकाश से नहीं टपकी है। झारखंड की जनता ने इसे
जनादेश दिया है। सरकार सिर्फ पांच साल के लिए है। इसमें डेढ़ साल बचे हैं। इसके
बाद से जनता की अदालत में फिर हाजिरी लगानी होगी। ऐसे में वह कोई ऐसा काम करने का
जोखिम नहीं उठा सकती जिसके कारण जनता से मुंह छुपाना पड़े। सिर्फ विरोध के लिए
विरोध करने का कोई मतलब नहीं होता।
निश्चित रूप से रघुवर सरकार कहीं न कहीं
ब्रिटिश काल में आदिवासियों के हित में बनाए गए कानूनों में बदलाव चाहती है।
सीएनटी-एसपीएनटी एक्ट में संशोधन के असफल प्रयास से यह स्पष्ट है। लेकिन वह ऐसा
क्यों चाहती है। उसके क्या तर्क हैं। इसे समझने की जरूरत है। इस सरकार को
मूलवासियों का दुश्मन तो करार नहीं दिया जा सकता। अगर वह उद्योग-धंधों का विस्तार
चाहती है। बाहरी निवेश लाना चाहती है तो इसमें गलत क्या है। निवेश आएगा तो राज्य
का विकास होगा। रोजगार के अवसर सृजित होंगे। हम जांगल युग में तो वापस नहीं लोट
सकते। समय के साथ चलना ही होगा। लड़ाई इस बात की होनी चाहिए कि विकास का ज्यादा से
ज्यादा लाभ स्थानीय लोगों को मिले। औद्योगीकरण और विकास के लिए ज़मीन की जरूरत तो
पड़ेगी ही। अगर ज़मीन का अधिग्रहण नहीं होगा तो विकास का पहिया आगे कैसे बढ़ेगा। दूसरी
सोचने की बात यह है कि क्या अभी भी अंग्रेजों के बनाए उन कानूनों को उसी रूप में
बने रहने देना चाहिए जिस रूप में ये बने थे। क्या आज 21 सदी में भी स्थितियां वही
हैं जो 18 वीं, 19 वीं शताब्दी में थीं। ब्रिटिश शासन आदिवासियों के हित में था और
आजाद भारत की सरकारें उनके विरोध में रही हैं यह सोच गलत है। अगर अंग्रेज झारखंड
वासियों के इतने ही हितैषी थे तो उनके खिलाफ थोड़े-थोड़े अंतराल पर विद्रोह क्यों
होते रहे...। उन्हें सर पर बिठाकर क्यों नहं रखा गया। गुजरात और तेलंगाना जैसे
राज्यों ने आखिर उनके बनाए कानूनों में संशोधन क्यों स्वीकार किया...। क्या उन्हें
वह खतरे नहीं दिखाई दे रहे जो झारखंड के विपक्षी दलों को दिख रहे हैं। विकास और
औद्योगीकरण की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता। इनका लाभ अथवा नुकसान किसी एक
सरकार के कार्यकाल तक सीमित नहीं रहता। आज जो विपक्ष में है, कल सत्ता में होगा।
जो सरकार में है वह विपक्ष में बैठेगा लेकिन जो कार्य होंगे वह लंबे समय तक दिखाई
देंगे। इस बात को समझने की जरूरत है और सत्ता तथा विपक्ष की आपसी खींचातानी का आम
जनजीवन पर असर नहीं आने देना चाहिए। राजनीति हो लेकिन सदन में हो सड़कों पर नहीं।
-देवेंद्र गौतम
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