यह ब्लॉग खोजें

सामयिक टिप्पणी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सामयिक टिप्पणी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 6 जून 2022

लक्ष्मण रेखाओं के पार

 

-देवेंद्र गौतम

सीता ने लक्ष्मण रेखा को पार किया तो रावण ने उनका हरण कर लिया। अभिव्यक्ति की आजादी की भी कुछ सीमाएं कुछ लक्ष्मण रेखाएं होती हैं। चाहे वह दृश्य हों अथवा अदृश्य। उन्हें पार करने पर नुकसान उठाना पड़ता है। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता नुपूर शर्मा और नवीन जिंदल ने स रेखा को पार कर लिया था। इस कारण उन्हें पार्टी से छह वर्षों के लिए निलंबित कर दिया गया। लेकिन यह फैसला लेने में ज्यादा समय लग गया। उनके अमर्यादित बयानों के कारण एक शहर में दंगा हो गया कई शहरों में इसका माहौल बनने लगा। खाड़ी के कुछ देशों में भारतीय उत्पादों का बहिष्कार होने लगा। वहां काम कर रहे भारतीयों को नौकरी से निकाला जाने लगा। राजदूत तलब के जाने लगे। इतना कुछ हो जाने के बाद भाजपा सरकार ने कार्रवाई कर सर्वधर्म समभाव के प्रति अपनी निष्ठा का ऐलान किया। इस बीच विवाद के तूल पकड़ने का इंतजार किया जाता रहा।

 

इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा कट्टर हिंदुत्ववाद की राजनीति करती है और एलानिया करती है। बाजपेयी के कार्यकाल में ऐसा संभव नहीं था क्योंकि सरकार कई दलों के समर्थन पर टिकी थी। अब प्रचंड बहुमत है। अब खुलकर ध्रुवीकरण क राजनीति कर सकती है और कर रही है। इससे उसके वोटों में इजाफा होता है। गद्दी को मजबूती मिलती है। यह कोई लुकी छिपी बात नहीं है। सत्ता संरक्षित संगठनों के जरिए एक समुदाय को टारगेट करने का सिलसिला तो पिछले आठ वर्षों से जारी है। जहरीले बयान तो लंबे समय से दिए जा रहे हैं। सर्वधर्म समभाव की याद अब आ रही है जब नफरती बयानों का निशाना सारी सीमाओं को लांघकर पैगंबर मोहम्मद तक जा पहुंचा है। इन बयानों को लेकर मुस्लिम देशों में खासी नाराजगी उत्पन्न हुई। पांच मुस्लिम देशों ने इन बयानों को लेकर भारत के सामने आधिकारिक विरोध दर्ज करवाया। कतर, ईरान और कुवैत ने विवादित टिप्पणियों को लेकर भारतीय राजदूतों को तलब किया। खाड़ी के महत्वपूर्ण देशों ने इन टिप्पणियों की निंदा करते हुए अपनी कड़ी आपत्ति दर्ज कराई। वहीं, सऊदी अरब और अफगानिस्तान ने भी आपत्ति जाहिर की है।

 

राष्ट्रीय प्रवक्ता किसी भी पार्टी की नीतियों के उद्घोषक होते हैं। उन्हें अपनी सीमाओं का ध्यान रखना होता है। कम से कम ऐसी बात नहीं बोलनी चाहे जिससे पार्टी के साथ-साथ देश की रुसवाई हो। सवाल है कि एक राष्ट्रीय चैनल पर प्रवक्ता ने जो बात कही क्या वह पार्टी के स्टैंड का हिस्सा थी। अगर नहीं तो पार्टी ने तत्काल उन्हें इसके लिए फटकार क्यों नहीं लगाई? अगर उनका बयान पार्टी नीतियों के अनुरूप थी तो फिर कार्रवाई क्यों की? उसपर अड़े रहना था। सवाल है कि क्या भाजपा ने अपने बयानवीरों के लिए कभी कोई लक्ष्मण रेखा खींची थी। अभी तक तो कट्टर हिंदूवादी संगठनों की हर हरकत पर मौन साधा जाता रहा। खुलेआम लिंचिंग की जाती रही। बुलडोजर चलाए जाते रहे। जगह-जगह शिवलिंग ढूंढने और विवादित स्थलों पर पूजा-पाठ करने की अनुमति मांगने का सिलसिला चलता रहा। खुलेआम दूसरे संप्रदाय के लोगों को मारने-काटने का आह्वान किया जाता रहा। प्रशासन ने अति होने पर कार्रवाई की अन्यथा उनका सात खून माफ रहा। यह विवाद भी अगर तूल नहीं पकड़ता तो संभवतः कार्रवाई नहीं होती।

 

मामला सिर्फ भाजपा का नहीं है। जो भी पार्टी सत्ता में प्रचंड बहुमत के साथ होती है उसके समर्थक बेलगाम हो जाते हैं। पार्टी उनका भरसक बचाव करती है। कांग्रेस जब सत्ता में थी तो राबर्ट वाड्रा के ज़मीन घोटाले में आरोप के बचाव के लिए एक ईमानदार आईएएस अधिकारी का तबादला कर दिया था। उत्तर भारत में जातीय हिंसा की जड़ में सत्ता की राजनीति ही रही है।

 

अब कम से कम विषैले वक्तव्यों से अपना नंबर बढ़ाने के चक्कर में लगे लोगों को स्वयं अपनी लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी अन्यथा जब उनके कारण सत्ता को संकट का सामना करना पड़ेगा तो पार्टी उनका बचाव नहीं करेगी। वे नुपूर शर्मा और नवीन जिंदल की तरह दूध की मक्खी जैसा निकाल फेंके जाएंगे।

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

वसूली गिरोहों का शिकंजा

 


-देवेंद्र गौतम

हाल के घटनाक्रम से यह साफ हो चुका है कि देश में वसूली गिरोहों का जाल चारों तरफ बिछता जा रहा है। उन्हें ताकतवर लोगों का संरक्षण मिला हुआ है। मुंबई का तो ऐसे गिरोहों के जाल से मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी होता जा रहा है। दो-तीन दशक पहले मुंबई में अंडरवर्ल्ड के माफिया सरगनाओं के नाम पर वसूली होती थी। समय के साथ कुछ सरगना एनकाउंटर स्पेशलिस्टों का निशाना बन गए। कुछ बिना एनकाउंटर के अल्लाह को प्यारे हो गए। कुछ पड़ोसी देशों के हर-दिल अज़ीज बन बैठे। कुल मिलाकर मुंबई पर अंडरवर्ल्ड का शिकंजा ढीला पड़ गया। लेकिन बालीवुड के सितारों और पूंजीपतियों को राहत नहीं मिली। जिन्होंने माफियाराज खत्म किया था अब उन्हीं एनकाउंटर स्पेशलिस्टों के अंदर से कभी सचिन वाझे निकल आते हैं कभी कोई और नाम उछलता है। कभी समीर वानखेड़े जैसे लोग सुर्खियों में आते हैं। वे कितने दोषी हैं और कितने मासूम यह अदालत तय करेगी लेकिन जब-जब इस गिरोह के किरदार सामने आते हैं, हर बार उनके ऊपर किसी बडे राजनेता की अस्पष्ट अथवा स्पष्ट तसवीर भी नज़र आती है। कुछ दिनों तक सारा कुछ मीडिया की सुर्खियों में रहता है फिर सबकुछ चर्चा के बाहर हो जाता है। अदालत में सुनवाई के दौरान ही उन्हें याद दिलाया जाता है।

वानखेड़े प्रकरण के बाद तो यह मामला दो सरकारों के बीच जोर-आजमाइश का बनता जा रहा है। जाहिर है कि जो नए वसूली गिरोह मैदान में उतरे हैं वे किसी न किसी सत्ताधारी आक़ा का संरक्षण प्राप्त होते हैं। पांच राज्यों के चुनाव होने हैं। फंड तो चाहिए। चुनाव लड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं है। एक-एक सीट पर करोड़ों-अरबों पैसे खर्चने होते हैं। वह भी ज्यादातर कालाधन। वोटर को लुभाना होता है। बूथ मैनेज करना होता है। वोट खरीदने भी पड़ते हैं। ऐसे खर्च हैं जिनका चुनाव आयोग को रिटर्न दाखिल करते समय जिक्र नहीं किया जा सकता। चुनाव में काले धन की बड़ी भूमिका होती है। काला धन तो काला बाजार से ही निकलेगा। मुंबई में सिर्फ प्रकृति का महासागर नहीं मानव का बनाया हुआ दौलत का महासागर भी हिलोरें मारता रहता है। उसका अधिकांश हिस्सा काला होता है। जाहिर है उसपर महाराष्ट्र के नेताओं की भी नज़र गड़ी है और दिल्ली वालों की भी। सचिन वाझे और समीर वानखेड़े जैसे अधिकारियों की भी कमी नहीं है। एक से एक कलाकार मौजूद हैं।

चुनाव इतने महंगे कर दिए गए हैं कोई सच्चा और ईमानदार जनसेवक मैदान में उतरने की हिम्मत नहीं कर सकता। कोई काली दुनिया की दबंग सख्शियत ही खुद लड़ सकता है या अपने प्यादे को लड़ा सकता है। काले धन की प्रेतछाया हमारी पूरी संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली पर छाई हुई है। इसे हटाने का दावा कइयों ने किया लेकिन वह महज उनका दिखावा निकला। काले धन की समाप्ति उस दिन होगी जब एक साधारण समाजसेवी चुनाव मैदान में उतरेगा और जीत हासिल कर लेगा। जब जनता नेताओं का ढोंग पहचानने लगेगी और अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए मतदान करने लगेगी। जबतक ऐसा नहीं होगा, मुंबई ही नहीं देश में सभी शहरों में वसूली गैंग के खिलाड़ी अपना जाल बिछाते रहेंगे और सत्ता में बैठे उनके आक़ा उन्हें कठपुतली की तरह नचाते रहेंगे।

बात संसदीय राजनीति तक ही सीमित नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि अधिकांश नक्सली संगठन लेवी के नाम पर करोड़ो-करोड़ वसूलते हैं। झारखंड जैसे राज्य में जहां उनका वर्गशत्रु और वर्गमित्र ही चिन्हित नहीं है वहां उनके हथियार आखिर किस सशस्त्र क्रांति का संचालन कर रहे हैं? किसके लिए किससे लड़ रहे हैं यह भी पता नहीं है। बस आतंक पैदा करना और वसूली करना। यह हर स्तर पर हो रहा है। सरकारी भी गैर सरकारी भी। संरक्षणदाताओं में विपक्षी भी हैं सत्ताधारी भी। जब तक लोकतंत्र का संक्रमण काल समाप्त नहीं होगा, यह सब चलता रहेगा।             



स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...