-देवेंद्र गौतम
हाल के घटनाक्रम से यह साफ हो चुका
है कि देश में वसूली गिरोहों का जाल चारों तरफ बिछता जा रहा है। उन्हें ताकतवर
लोगों का संरक्षण मिला हुआ है। मुंबई का तो ऐसे गिरोहों के जाल से मिलना मुश्किल
ही नहीं नामुमकिन भी होता जा रहा है। दो-तीन दशक पहले मुंबई में अंडरवर्ल्ड के
माफिया सरगनाओं के नाम पर वसूली होती थी। समय के साथ कुछ सरगना एनकाउंटर
स्पेशलिस्टों का निशाना बन गए। कुछ बिना एनकाउंटर के अल्लाह को प्यारे हो गए। कुछ
पड़ोसी देशों के हर-दिल अज़ीज बन बैठे। कुल मिलाकर मुंबई पर अंडरवर्ल्ड का शिकंजा ढीला
पड़ गया। लेकिन बालीवुड के सितारों और पूंजीपतियों को राहत नहीं मिली। जिन्होंने
माफियाराज खत्म किया था अब उन्हीं एनकाउंटर स्पेशलिस्टों के अंदर से कभी सचिन वाझे
निकल आते हैं कभी कोई और नाम उछलता है। कभी समीर वानखेड़े जैसे लोग सुर्खियों में
आते हैं। वे कितने दोषी हैं और कितने मासूम यह अदालत तय करेगी लेकिन जब-जब इस
गिरोह के किरदार सामने आते हैं, हर बार उनके ऊपर किसी बडे राजनेता की अस्पष्ट अथवा
स्पष्ट तसवीर भी नज़र आती है। कुछ दिनों तक सारा कुछ मीडिया की सुर्खियों में रहता
है फिर सबकुछ चर्चा के बाहर हो जाता है। अदालत में सुनवाई के दौरान ही उन्हें याद
दिलाया जाता है।
वानखेड़े प्रकरण के बाद तो यह मामला
दो सरकारों के बीच जोर-आजमाइश का बनता जा रहा है। जाहिर है कि जो नए वसूली गिरोह
मैदान में उतरे हैं वे किसी न किसी सत्ताधारी आक़ा का संरक्षण प्राप्त होते हैं।
पांच राज्यों के चुनाव होने हैं। फंड तो चाहिए। चुनाव लड़ना कोई बच्चों का खेल
नहीं है। एक-एक सीट पर करोड़ों-अरबों पैसे खर्चने होते हैं। वह भी ज्यादातर कालाधन।
वोटर को लुभाना होता है। बूथ मैनेज करना होता है। वोट खरीदने भी पड़ते हैं। ऐसे
खर्च हैं जिनका चुनाव आयोग को रिटर्न दाखिल करते समय जिक्र नहीं किया जा सकता।
चुनाव में काले धन की बड़ी भूमिका होती है। काला धन तो काला बाजार से ही निकलेगा। मुंबई
में सिर्फ प्रकृति का महासागर नहीं मानव का बनाया हुआ दौलत का महासागर भी हिलोरें
मारता रहता है। उसका अधिकांश हिस्सा काला होता है। जाहिर है उसपर महाराष्ट्र के
नेताओं की भी नज़र गड़ी है और दिल्ली वालों की भी। सचिन वाझे और समीर वानखेड़े
जैसे अधिकारियों की भी कमी नहीं है। एक से एक कलाकार मौजूद हैं।
चुनाव इतने महंगे कर दिए गए हैं कोई सच्चा
और ईमानदार जनसेवक मैदान में उतरने की हिम्मत नहीं कर सकता। कोई काली दुनिया की
दबंग सख्शियत ही खुद लड़ सकता है या अपने प्यादे को लड़ा सकता है। काले धन की प्रेतछाया
हमारी पूरी संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली पर छाई हुई है। इसे हटाने का दावा कइयों ने
किया लेकिन वह महज उनका दिखावा निकला। काले धन की समाप्ति उस दिन होगी जब एक साधारण
समाजसेवी चुनाव मैदान में उतरेगा और जीत हासिल कर लेगा। जब जनता नेताओं का ढोंग पहचानने
लगेगी और अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए मतदान करने लगेगी। जबतक ऐसा नहीं होगा,
मुंबई ही नहीं देश में सभी शहरों में वसूली गैंग के खिलाड़ी अपना जाल बिछाते
रहेंगे और सत्ता में बैठे उनके आक़ा उन्हें कठपुतली की तरह नचाते रहेंगे।
बात संसदीय राजनीति तक ही सीमित नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि अधिकांश नक्सली संगठन लेवी के नाम पर करोड़ो-करोड़ वसूलते हैं। झारखंड जैसे राज्य में जहां उनका वर्गशत्रु और वर्गमित्र ही चिन्हित नहीं है वहां उनके हथियार आखिर किस सशस्त्र क्रांति का संचालन कर रहे हैं? किसके लिए किससे लड़ रहे हैं यह भी पता नहीं है। बस आतंक पैदा करना और वसूली करना। यह हर स्तर पर हो रहा है। सरकारी भी गैर सरकारी भी। संरक्षणदाताओं में विपक्षी भी हैं सत्ताधारी भी। जब तक लोकतंत्र का संक्रमण काल समाप्त नहीं होगा, यह सब चलता रहेगा।
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