यह ब्लॉग खोजें

बुधवार, 4 जुलाई 2018

झाऱखंड के वन्य जीवन पर नक्सलवाद का ग्रहण



पलामू टाइगर रिजर्व में पिछले फरवरी माह के बाद किसी बाघ की मौजूदगी के संकेत नहीं मिले हैं। फरवरी में मात्र एक बाघ वन विभाग के कैमरे की जद में आया था। इसके बाद उसका भी अता-पता नहीं है। व्याघ्र अभयारण्य में नक्सलियों की राइफलें गरजती हैं या सुरक्षा बलों के बूटों की आवाज़। ऐसे में वन्य जीवन के लिए कोई जगह बचती नहीं है। जंगल के जानवर शांतिप्रिय होते हैं। बारूदी धमाकों से उनकी शांति भंग होती है और वे दूसरे इलाकों में चले जाते हैं। हाल में नक्सलियों ने इस इलाकें में स्थित बूढ़ा बांध पहाड़ पर लैंडमाइन विस्फोट किया था जिसमें सुरक्षाबल के छह जवान शहीद हो गए थे। कई जवान घायल हुए थे। कुछ ही दिन पहले वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट आफ इंडिया की एक सर्वे टीम आी थी। उसे वन्यजीवों के व्यवहार का अध्ययन करना था और िसके लिए ट्रैप कैमरे लगाने थे। नक्सलियों की धमकी के बाद इस टीम को अपना काम पूरा किए बिना वापस लौट जाना पड़ा था। सरकारी तंत्र और वन विभाग उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सके थे।
यह देश के 9 व्याघ्र अभयारण्यों में एक है। यह 1026 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसका कोर एरिया 226 वर्ग किलोमीटर में है। इसके किनारे 200 से अधिक गांव बसे हुए हैं। किसी जमाने में यहां बाघों की बहुतायत थी। ब्रिटिश शासन काल में इनका जमकर शिकार किया गया। उस समय बाघ का शिकार बहादुरी की अलामत मानी जाता थी। बाघ मारने पर सरकार की ओर से ईनाम दिया जाता था और शिकारियों का नागरिक सम्मान होता था। आजादी के बाद भी की वर्षों तक बाघों के शिकार का सिलसिला जारी रहा। बाद में शिकार पर रोक लगी और बाघों को संरक्षण की शुरुआत हुई। पलामू के बेतला टाइगर रिजर्व की स्थापना 1974 में की गई। यह देश का पहला टाइगर प्रोजेक्ट था। 1932 में बाघों की गिनती की शुरुआत यहीं से हुई थी। वर्ष 1992 में यहां 55 बाघ पाए गए थे। 2003 में उनमें से मात्र 36 बाघ बचे थे। 30 बाघ अवैध शिकार की भेंट चढ़ चुके थे। वर्ष 2010 में यूएनओ ने  29 जुलाई को विश्व व्याघ्र दिवस के रूप में मनाने की घोषणा  की।
सरकार ने वर्ष 2022 तक बाघों की संख्या दुगनी करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसके लिए आधारभूत संरचना को बेहतर करने का काम किया जा रहा है। बेतला टाइगर रिजर्व को इसके लिए 7 करोड़ की राशि आवंटित की गई थी लेकिन नक्सलियों के कारण इसमें बाधा आ रही है। 2012 में जब बाघों की गणना हुई तो पता चला कि मादा बाघ गिनती में सिर्फ पांच रह गई हैं। ऐसे में उनका प्रजनन सीमित संख्या में ही हो सकता था। दूसरे अभयारण्यों से मादा बाधों के लाने की योजना बनी लेकिन नक्सलियों के रहते वन्य जीवन की कोई योजना शायद ही फलीभूत हो सके। यहां बाघों के  अलावा हाथी, तेंदुआ, सांभर, चीतल सहित हजारों नस्लों के छोटे बड़े जानवर, 174 प्रकार के पक्षी निवास करते थे।  इसके जंगलों में 970 प्रकार के पेड़ पौधे और 139 तरह की दुर्लभ जड़ियां मिलती थीं। वन्य जीवन में रुचि रखने वाले हजारों देशी-विदेशी पर्यटक आते थे। अब उनकी संख्या नगण्य रह गई है। इससे स्थानीय ग्रामीणों के रोजगार के अवसर भी घटे हैं।  जबसे यह इलाका नक्सल आंदोलन की जद में आया है, वन्य जीवन सिमटता जा रहा है। हाल में हाथियों के एक झुंड ने अभयारण्य में लगे दो ट्रैप कैमरों को तोड़ डाला था। वन्य जीवन की निगरानी के लिए लगे इन कैमरों पर नक्सलियों की भी कुदृष्टि रहती है। क्योंकि जंगली जानवरों के साथ उनकी गतिविधियां भी रिकार्ड होती हैं। बेतला टाइगर रिजर्व ही नहीं झारखंड के जंगलों में वन्य जीवन के भविष्य  पर फिलहाल  नक्सलवाद का ग्रहण लगा हुआ है।

-देवेंद्र गौतम

मंगलवार, 3 जुलाई 2018

सत्ता और विपक्ष के बीच रस्साकशी का दिन

कल 5 जुलाई है। झारखंड में भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच रस्साकशी को दिन। झामुमो और कांग्रेस समेत सारे विपक्षी दलों का झारखंड बंद का आह्वान और उसे विफल करने की सरकारी तैयारी। यह शक्ति प्रदर्शन का मामला है।  इसकी घोषणा एक पखवारे पहले ही हो चुकी थी। इस बीच प्रचार युद्ध चल रहा था। इस क्रम में एक दूसरे की पोल भी खोली गई। इस मामले में सबसे संतुलित सुझाव आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो ने दिया है। उनका कहना है कि मानसून सत्र में इस मुद्दे पर दो दिनों तक सदन में बहस हो। अभी आम जनता पूरी तरह अनभिज्ञ है कि बिल में क्या संशोधन किया जा रहा है और उसके किन बिंदुओं पर विरोध है। आम जनता के लिए यह कैसे लाभदायक अथवा हानिकारक है। सदन में अथवा खुले मंच पर बहस होने पर ही आम जनता पूरी बात समझ पाएगी। दोनों पक्षों के आरोप-प्रत्यारोप के दौर के कारण लोग दिग्भ्रमित हैं। बिल का पूरा मसौदा पक्ष विपक्ष के नेताओं के पास है। इसे सार्वजनिक नहीं किया गया है।
ऐसे में बंद का मतलब सिर्फ शक्ति प्रदर्शन ही हो सकता है। लोग बंद में इसलिए साथ देंगे क्योंकि वे हेमंत सोरेन, सुबोधकांत सहाय अथवा अन्य नेताओं के समर्थक हैं। यह बंद नेताओं के प्रति समर्थन की अभिव्यक्ति होगा मुद्दा विशेष पर आम जनता की राय नहीं। बेहतर होता कि इस लड़ाई को पहले सदन में लड़ा जाता। इसके बाद उसे सड़क पर लाया जाता। सुदेश महतो ने बहुत ही व्यावहारिक और सुलझा हुआ सुझाव दिया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में  बंद और आंदोलन किसी मुद्दे पर जनता की राय का आखिरी हथियार होता है। विधायी मामलों को पहले विधायी संस्थाओं में निपटाने की कोशिश करनी चाहिए। इसके बाद ही जनता की अदालत में जाना चाहिए। राजनीति सिर्फ राजनीति के लिए नहीं होनी चाहिए। एक दिन के बंद का दिहाड़ी मजदूरों और रोज कमाने खाने वालों पर क्या प्रभाव होता है, एक बार िसपर भी विचार कर लेना चाहिए। धनी वर्ग के लोगों को  इससे कोई नुकसान नहीं होता। एक दिन की कमाई की भरपाई वे ्अगले दिन ही  कर लेते हैं। लेकिन गरीबों को भरपाई में कई दिन लग जाते हैं। हमारे यहां बात-बात में बंद का आह्वान करने का प्रचलन हो गया है और ुसे जबरन सफल अथवा असफल बनाया जाता है। बंद का आह्वान करके यदि उसे जमता की मर्जी पर छोड़ दिया जाए। लाठी-डंडा लेकर सड़कों पर न उतरा जाए तो शायद ही कोई बंद सफल हो पाए। लोग नुकसान के डर से सड़कों पर निकलने अथवा दुकानें बंद करते हैं। अपनी मर्जी से बहुत कम ही बंद में शामिल होते हैं। संघर्ष का यह हथियार लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं बल्कि अराजकता को बढ़ावा देने वाला होता है। हर लड़ाई को सड़कों पर नहीं लाना चाहिए। विधायी और न्यायपालिका के संस्थानों का आखिर गठन किसलिए हुआ है...य़

सोनामून की सैंडल-रजनीगन्धा अगरबत्ती लान्च


रांची, आकर्षक और सुगंधित अगरबत्ती निर्माण करनेवाले सोनामून इंडस्ट्रीज वर्क्स ने अगरबत्ती का नया ब्रांड सैंडल-रजनीगंधा बाजार मे उतारा है। मंगलवार को कंपनी के संस्थापक प्रवीण जयसवाल और ब्रांड एंबेसेडर प्रिया जयसवाल ने राजधानी में सैंडल रजनीगंधा अगरबत्ती लान्च किया। इस मौके पर उन्होंने बताया कि पहले से कंपनी की और से दिव्य ज्योति, गुडलक और श्रद्धा ब्रांड अगरबत्तियां बाजार में उपलब्ध कराई जा रही है। सोनामून की अगरबत्तियां गुणवत्तापूर्ण और मनमोहक हैं। कंपनी के प्रति ग्राहकों की बढ़ती विश्वसनीयता से उत्साहित होकर अगरबत्ती का नया ब्रांड पेश किया गया है। प्रवीण ने कहा कि सोनामून की ब्रांडेड अगरबत्तियां झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल के कई शहरों में भी उपलब्ध है।

वरिष्ठ पत्रकार शिशिर टुडु के निधन पर सुबोधकांत सहाय ने जताया शोक


रांची : कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने शहर के वरिष्ठ पत्रकार शिशिर टुडु के असामयिक निधन पर शोक व्यक्त किया है। शोक संवेदना व्यक्त करते हुए श्री सहाय ने कहा कि स्व.टुडु जनसरोकार से जुड़ी पत्रकारिता करते थे। विशेष रूप से आदिवासी मुद्दों को लेकर उनकी बेबाक लेखनी समाज के सभी वर्गों के लोगों के लिए पठनीय होती थी। उनके अकस्मात निधन से पत्रकारिता जगत में जो रिक्तता आ गई है, उसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नही है।
उन्होंने स्व.टुडु के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए ईश्वर से उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की। साथ ही कामना किया कि दुख की इस घड़ी में ईश्वर उनके परिवार को संबल प्रदान करें।

सोमवार, 2 जुलाई 2018

ऐतिहासिक होगा 5 जुलाई का बंद : सुबोधकांत सहाय

दावाः कार्पोरेट की कठपुतली सरकार के खिलाफ उमड़ेगा जन सैलाब

रांची।  पूर्व केंद्रीय मंत्री और झारखंड प्रदेश कांग्रेस के कद्दावर नेता सुबोधकांत सहाय का दावा है कि भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ विपक्ष की ओर से 5 जुलाई को प्रस्तावित झारखंड बंद ऐतिहासिक होगा। रघुवर सरकार की जनविरोधी नीतियों के कारण झारखंड की जनता त्रस्त है। पांच जुलाई को सड़कों पर जनसैलाब उमड़ेगा। उन्होंने कहा कि केन्द्र व राज्यों की भाजपा सरकार कारपोरेट घरानों की कठपुतली बनकर रह गई है। सिर्फ बड़े पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए भाजपा ने भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन कराया है। इससे किसानों की कृषि योग्य भूमि भी छिन जाएगी। रघुवर सरकार  ने पेसा एक्ट, पंचायती राज व्यवस्था के विरूद्ध काम किया है। आदिवासियों और मूलवासियों के हक छीने जा रहे हैं। मेहनतकश मजदूर, गरीब किसानों की जमीन औने-पौने दाम पर जबरन अधिग्रहित कर कारपोरेट घरानों को सस्ते दर पर देने के लिए मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल पास कराया है। श्री सहाय ने कहा कि मुख्यमंत्री रघुवर दास जब सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन कराने मे सफल नहीं हो सके तो एक सोची समझी साजिश के तहत कारपोरेट घरानों को कौड़ी के भाव जमीन देने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून मे संशोधन कराने की साजिश रची। सरकार ग्राम सभा को भी नजरअंदाज कर गरीबों की जमीन हथियाने पर आमादा है। उन्होंने कहा कि सरकार के इस कुकृत्य का कांग्रेस पार्टी पुरजोर विरोध करती है। बिल के विरोध में तमाम विपक्षी पार्टियों की एकजुटता सराहनीय है। उन्होंने झारखंड की जनता से बंद को पूर्ण सफल बनाने में सहयोग करने की अपील की।

अमेरिका-ईरान तनाव के बीच भारत की कूटनीतिक कुशलता की परीक्षा

अभिमन्यु कोहाड़ विदेशी मामलों के जानकार और रक्षा विशेषज्ञ हैं। राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन से जुड़कर जम्मू-कस्मीर में राष्ट्रवाद के प्रसार के अलावा अखिल भारतीय किसान महासंघ से जुड़कर किसान आंदोलन को भी गति दे रहे हैं। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ईरान नीति और भारत सहित अन्य देशों पर ईरान से संबंध तोड़ने के लिए दबाव डालने को लेकर उनका आलेख....


अभिमन्यु कोहाड़

ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते "जेसीपीओए संधि" को अमेरिका द्वारा एकतरफा रद्द किए जाने के बाद से अमेरिका द्वारा भारत समेत अन्य देशों पर ईरान के साथ सम्बन्ध तोड़ने का दबाव बनाया जा रहा है। भारत के दौरे पर आई हुई संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की स्थायी प्रतिनिधि निक्की हेले में कहा कि 4 नवम्बर 2018 से पहले ईरान से तेल खरीदना भारत बन्द करे एवम ईरान के साथ सम्बन्ध समाप्त करने पर गम्भीरतापूर्ण विचार करे। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प इस बात को कई बार दोहरा चुके हैं कि ईरान के साथ व्यापार करने वाली सभी कंपनियों पर अमेरिका कड़े प्रतिबन्ध लगाएगा।
इस से पहले भी 2011 में अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने ईरान पर कड़े प्रतिबन्ध लगाए थे। उस समय ओबामा प्रशासन द्वारा भारत को इस शर्त पर कुछ रियायतें दी गयी थी कि भारत द्वारा ईरान से खरीदे जाने वाले तेल की मात्रा में कटौती की जाएगी, इसके अलावा भारत की सफल कूटनीति की वजह से ईरान से तेल का आयात जारी रहा। भारत द्वारा सऊदी अरब व इराक के बाद तीसरे नम्बर पर सबसे अधिक तेल ईरान से ही आयात किया जाता है। भारत अपनी जरूरत का 10 प्रतिशत तेल ईरान से आयात करता है।
भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कुछ दिन पहले पत्रकारों से बातचीत के दैरान कहा था कि भारत सिर्फ संयुक्त राष्ट्र संगठन के प्रतिबंधों को मानता है, किसी देश के प्रतिबंधों को नहीं, इसलिए भारत ईरान के साथ सम्बन्ध जारी रखेगा।
2011 में ईरान पर प्रतिबंध लगने के बाद व्यापार हेतु डॉलर पर पाबंदी लगा होने की वजह से भारत और ईरान ने रुपए में व्यापार करना शुरू कर दिया। ईरान की सरकार ने यूको बैंक में एक खाता खोला जिसमें भारत की तेल रिफाइनरियां ईरान से आयात किये गए तेल के बदले रुपए जमा कर देती थी। इसके अलावा भारत द्वारा ईरान को चावल, सोयाबीन, चीनी, दवाइयों का भी निर्यात किया जाता था।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प इस बार किसी भी देश को किसी भी तरह की रियायत देने के मूड में नहीं हैं। राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के अनुसार अमेरिका के इस तानाशाही रवैये के सामने भारत को झुकना नहीं चाहिए और ईरान के साथ सम्बन्ध जारी रखने चाहिए।
मित्रता बनाये रखने से भारत व ईरान दोनों को आर्थिक व सामरिक फायदे हैं। भारत को ईरान का तेल सऊदी अरब के मुकाबले काफी सस्ते दामों पर मिलता है और तेल का भुगतान करने के लिए ईरान 90 दिन की समयसीमा देता है, वहीं अन्य देश सिर्फ 30 दिन की समयसीमा देते हैं। ईरान भारत के साथ रुपए में व्यापार करने पर सहमत है, ऐसी स्थिति में भारत अपने विदेशी मुद्रा भंडार को भी सुरक्षित रख सकता है। रुपए में व्यापार करने से डॉलर की कीमतों का भी कोई प्रभाव भारत की करेंसी पर नहीं पड़ेगा।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अमेरिका के अलावा यूरोप के अन्य देश जेसीपीओए संधि का अभी भी सम्मान कर रहे हैं, इस सूरत में व्यापार हेतु भारत रुपए के अलावा यूरो करेंसी का भी इस्तेमाल कर सकता है। पिछली बार 2011 में ईरान पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद तेल के आयात हेतु भारत एवम ईरान उन समुन्द्री टैंकरों का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे थे जिनका बीमा पश्चिमी कम्पनियों में किया था। इस बार यह समस्या उतनी गम्भीर नहीं है क्योंकि अब की बार उन समुन्द्री टैंकरों के जरिये तेल का आयात हो सकता है जिन का बीमा यूरोपियन कम्पनियों द्वारा किया गया है।

भारत को ईरान के साथ व्यापार जारी रखने के कई सामरिक फायदे भी हैं। भारत ने ईरान में चाबहार पोर्ट को विकसित किया है जिस से भारत अफ़ग़ानिस्तान व अन्य देशों के साथ सीधे तौर पर जुड़ गया है। चीन द्वारा पाकिस्तान में विकसित किये जा रहे ग्वादर पोर्ट का मुकाबला करने हेतु ईरान का चाबहार पोर्ट भारत के लिए सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण है। सऊदी अरब व पाकिस्तान की मित्रता का जवाब देने के लिए भी भारत और ईरान को एक-दूसरे की जरूरत है।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अमेरिका एक भरोसेमंद मित्र नहीं है, खासकर ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद। भारत व अमेरिका के विदेश एवम रक्षा मंत्रियों के बीच होने वाले "2+2" बैठक को अमेरिका 3 बार स्थगित कर चुका है।
इन सभी वजहों से भारत को अमेरिका के सामने नहीं झुकना चाहिए एवम ईरान के साथ व्यापार जारी रखना चाहिए।
भारत द्वारा ईरान से तेल का आयात जारी रखना पूरी दुनिया को इस बात का भी संकेत होगा कि भारत अब एक ज़िम्मेदार वैश्विक शक्ति के तौर पर विश्व पटल पर दस्तक दे चुका है।

----------------------------------------
लेखक - अभिमन्यु कोहाड़

रविवार, 1 जुलाई 2018

जनांदोलन के ताबूत में अराजकता की कील



विफल हुई परंपरा की आड़ में इलाकावार कब्जे की रणनीति


पत्थलगड़ी का नेता यूसुफ पूर्ति
देवेंद्र गौतम

रांची। पत्थलगड़ी आंदोलन के नेता के नक्सली कनेक्शन का अभी खुलासा नहीं हो सका है। लेकिन परंपरा की आड़ में इलाकावार कब्जे की रणनीति नक्सली आंदोलन में एक नया प्रयोग था। अभी तक किसी नक्सली गुट या नेता के जेहन में यह खयाल नहीं आया था। इस आंदोलन का उद्देश्य कुछ और था लेकिन इसे पूरी तरह गैरकानूनी भी नहीं कहा जा सकता था। यूसुफ पूर्ति ने जिस ढंग से इसकी व्यूह रचना की थी उनसे वह सफल हो जाता अगर वह सत्ता को चुनौती देने की जल्दबाजी नहीं करता और अपने कार्यकर्ताओं की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने और उन्हें अनुशासित रखने पर ध्यान देता। जन समर्थन के विस्तार पर ध्यान देता। अनुशासन के दायरे से बाहर होने के कारण ही उसके समर्थक गैंगरेप जैसा जघन्य अपराध कर बैठे। जाहिर है कि न तो पत्थलगड़ी के रणनीतिकारों ने और न ही उस इलाके में सक्रिय नक्सली नेताओं ने इसपर सहमति दी होगी। निचली कतारों ने अपनी अराजक प्रवृत्ति के कारण सबक सिखाने का ऐसा तरीका अपनाया जो पूरे आंदोलन को मटियामेट कर देने का कारण बना। भारत की जनता चाहे जिस जाति जिस समुदाय की हो महिलाओं के साथ दुराचार को बर्दास्त नहीं करती। यह कोई सीरिया नहीं कि आइएस के आतंकी महिलाओं को बंधक बनाकर दुराचार करें और पूरा इस्लामी जगत चुपचाप देखता रहे। इस घटना के बाद आंदोलन के प्रति जनता की सहानुभूति खत्म हो गई। उस इलाके के ग्रामीण भी गैंगरेप के आरोपियों की तलाश करने लगे और नक्सली भी उन्हें पकड़कर सज़ा देने को बेताब हो उठे। बस यहीं सरकार को पत्थलगड़ी समर्थकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का मौका मिल गया। यदि आंदोलनकारी अपने आचरण को सही रखते तो यह संभव नहीं होता। यह सच है कि इस आंदोलन का जनजातीय कनेक्शन कम और नक्सली कनेक्शन ज्यादा है। सरना धर्मावलंबी आदिवासी जो इस परंपरा के मुख्य वाहक हैं, वे इस प्रयोग का विरोध कर रहे थे। फिर भी सरकारी तंत्र सख्त कदम उठाने से परहेज़ कर रहा था कि कहीं उसपर आदिवासी विरोधी होने का धब्बा न लग जाए। रावण की एक गलती से सोने की लंका जल गई और उसके अंत का कारण बनी। पत्थलगड़ी के नाम पर उसी तरह की गल्ती दुहराई गई। अब यूसुफ पूर्ति की एक-एक कर पोल खुलती जा रही है कि संविधान और कानून को मानने से इनकार करने वाला, पुलिस को इंडियन पुलिस कहने वाला शख्स स्वयं व्यवस्था का लाभ उठाने को कितना तत्पर रहा है। उसने बैंक खाता भी खुलवाया है। गैस कनेक्शन भी लिया है। शिक्षक बनने के लिए आवेदन भी दे चुका है। फिर भारत सरकार को किस मुंह से वह अवैध कह रहा था। अगर से इंडिया से नफरत है तो वह कौन सा देश बनाना चाहता था। उसने पूरे देश में पत्थलगड़ी करने की घोषणा की थी। अपना बैंक खोलने का एलान किया था। क्या पूरे देश में सिर्फ खूंटी के नक्सल समर्थक ईसाई आदिवासी रहते हैं। अन्य इलाकों के सरना और हिन्दू आदिवासियों की नागरिकता उसकी नज़र में गलत है जाहिर है अपनी इस रणनीति से वह इतना ज्यादा जोश में चुका था कि होश खो बैठा था। झारखंड में आदिवासी विद्रोहों की एक लंबी परंपरा रही है लेकिन स्वभाव से आदिवासी सरल प्रवृत्ति के सीधे-साधे इनसान होते हैं। वे मर सकते हैं, मार सकते हैं लेकिन चालबाजी उनके रक्त में नहीं है। वे षडयंत्र के शिकार हो सकते हैं, षडयंत्र रच नहीं सकते। यूसुफ पूर्ति इस बात को समझ नहीं सका और स्वशासन के नाम पर उन्हें बहकाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश की।
गैंगरेप की घटना के बाद यूसुफ पेर्ति को डैमेज कंट्रोल के प्रयास में लग जाना चाहिए था। इसके लिएरक्षात्मक मुद्रा अपनाने की जरूरत थी लेकिन इसके तुरंत बाद वह पत्थलगड़ी कर आक्रामकता का प्रदर्शन करने लगा। सके समर्थक सांसद करिया मुंडा के अंगरक्षकों को अगवा कर दूसरी गलती कर बैठे। पुलिस प्रशासन जो अबतक रक्षात्मक भूमिका में था उसे आक्रामक रुख अपनाने को विवश कर दिया। इस क्रम में सके जन समर्थन की भी पोल खुल गई। सभा में जमा हुए लोगों ने स्वीकार किया कि यदि वे नहीं शामिल होते तो उन्हें 5 सौ रुपया दंड देना पड़ता। यानी आर्थिक दंड का भय दिखाकर भीड़ जमा की जाती रही है। जन आंदोलन के नाम पर एक गिरोह का आतंक कायम किया जा रहा था। पत्थलगड़ी के नाम पर या नक्सलियों की सहायता से यूसुफ पूर्ति ने चाहे जितना भी हथियार इकट्ठा कर लिया हो लेकिन सरकार से ज्यादा हथियार तो उसके पास नहीं ही हो सकता। राजसत्ता से मुकाबला करने लायक न तो उसके पास ताकत थी न जन समर्थन। अब और फजीहत कराने से बेहतर है कि पत्थलगड़ी के नेता स्वयं गैंगरेप के आरोपियों को पकड़कर दंडित करें और जनता के बीच यह संदेश दें कि वे गलत कार्यों को बढ़ावा नहीं देते चाहे उसमें उसके कार्यकर्ता ही क्यों न शामिल हों। हालांकि अब समें विलंब हो चुका है। अब क्षतिपूर्ति का कोई रास्ता यूसुफ पूर्ति के पास नहीं बचा है।

स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...