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रविवार, 1 जुलाई 2018

जनांदोलन के ताबूत में अराजकता की कील



विफल हुई परंपरा की आड़ में इलाकावार कब्जे की रणनीति


पत्थलगड़ी का नेता यूसुफ पूर्ति
देवेंद्र गौतम

रांची। पत्थलगड़ी आंदोलन के नेता के नक्सली कनेक्शन का अभी खुलासा नहीं हो सका है। लेकिन परंपरा की आड़ में इलाकावार कब्जे की रणनीति नक्सली आंदोलन में एक नया प्रयोग था। अभी तक किसी नक्सली गुट या नेता के जेहन में यह खयाल नहीं आया था। इस आंदोलन का उद्देश्य कुछ और था लेकिन इसे पूरी तरह गैरकानूनी भी नहीं कहा जा सकता था। यूसुफ पूर्ति ने जिस ढंग से इसकी व्यूह रचना की थी उनसे वह सफल हो जाता अगर वह सत्ता को चुनौती देने की जल्दबाजी नहीं करता और अपने कार्यकर्ताओं की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने और उन्हें अनुशासित रखने पर ध्यान देता। जन समर्थन के विस्तार पर ध्यान देता। अनुशासन के दायरे से बाहर होने के कारण ही उसके समर्थक गैंगरेप जैसा जघन्य अपराध कर बैठे। जाहिर है कि न तो पत्थलगड़ी के रणनीतिकारों ने और न ही उस इलाके में सक्रिय नक्सली नेताओं ने इसपर सहमति दी होगी। निचली कतारों ने अपनी अराजक प्रवृत्ति के कारण सबक सिखाने का ऐसा तरीका अपनाया जो पूरे आंदोलन को मटियामेट कर देने का कारण बना। भारत की जनता चाहे जिस जाति जिस समुदाय की हो महिलाओं के साथ दुराचार को बर्दास्त नहीं करती। यह कोई सीरिया नहीं कि आइएस के आतंकी महिलाओं को बंधक बनाकर दुराचार करें और पूरा इस्लामी जगत चुपचाप देखता रहे। इस घटना के बाद आंदोलन के प्रति जनता की सहानुभूति खत्म हो गई। उस इलाके के ग्रामीण भी गैंगरेप के आरोपियों की तलाश करने लगे और नक्सली भी उन्हें पकड़कर सज़ा देने को बेताब हो उठे। बस यहीं सरकार को पत्थलगड़ी समर्थकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का मौका मिल गया। यदि आंदोलनकारी अपने आचरण को सही रखते तो यह संभव नहीं होता। यह सच है कि इस आंदोलन का जनजातीय कनेक्शन कम और नक्सली कनेक्शन ज्यादा है। सरना धर्मावलंबी आदिवासी जो इस परंपरा के मुख्य वाहक हैं, वे इस प्रयोग का विरोध कर रहे थे। फिर भी सरकारी तंत्र सख्त कदम उठाने से परहेज़ कर रहा था कि कहीं उसपर आदिवासी विरोधी होने का धब्बा न लग जाए। रावण की एक गलती से सोने की लंका जल गई और उसके अंत का कारण बनी। पत्थलगड़ी के नाम पर उसी तरह की गल्ती दुहराई गई। अब यूसुफ पूर्ति की एक-एक कर पोल खुलती जा रही है कि संविधान और कानून को मानने से इनकार करने वाला, पुलिस को इंडियन पुलिस कहने वाला शख्स स्वयं व्यवस्था का लाभ उठाने को कितना तत्पर रहा है। उसने बैंक खाता भी खुलवाया है। गैस कनेक्शन भी लिया है। शिक्षक बनने के लिए आवेदन भी दे चुका है। फिर भारत सरकार को किस मुंह से वह अवैध कह रहा था। अगर से इंडिया से नफरत है तो वह कौन सा देश बनाना चाहता था। उसने पूरे देश में पत्थलगड़ी करने की घोषणा की थी। अपना बैंक खोलने का एलान किया था। क्या पूरे देश में सिर्फ खूंटी के नक्सल समर्थक ईसाई आदिवासी रहते हैं। अन्य इलाकों के सरना और हिन्दू आदिवासियों की नागरिकता उसकी नज़र में गलत है जाहिर है अपनी इस रणनीति से वह इतना ज्यादा जोश में चुका था कि होश खो बैठा था। झारखंड में आदिवासी विद्रोहों की एक लंबी परंपरा रही है लेकिन स्वभाव से आदिवासी सरल प्रवृत्ति के सीधे-साधे इनसान होते हैं। वे मर सकते हैं, मार सकते हैं लेकिन चालबाजी उनके रक्त में नहीं है। वे षडयंत्र के शिकार हो सकते हैं, षडयंत्र रच नहीं सकते। यूसुफ पूर्ति इस बात को समझ नहीं सका और स्वशासन के नाम पर उन्हें बहकाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश की।
गैंगरेप की घटना के बाद यूसुफ पेर्ति को डैमेज कंट्रोल के प्रयास में लग जाना चाहिए था। इसके लिएरक्षात्मक मुद्रा अपनाने की जरूरत थी लेकिन इसके तुरंत बाद वह पत्थलगड़ी कर आक्रामकता का प्रदर्शन करने लगा। सके समर्थक सांसद करिया मुंडा के अंगरक्षकों को अगवा कर दूसरी गलती कर बैठे। पुलिस प्रशासन जो अबतक रक्षात्मक भूमिका में था उसे आक्रामक रुख अपनाने को विवश कर दिया। इस क्रम में सके जन समर्थन की भी पोल खुल गई। सभा में जमा हुए लोगों ने स्वीकार किया कि यदि वे नहीं शामिल होते तो उन्हें 5 सौ रुपया दंड देना पड़ता। यानी आर्थिक दंड का भय दिखाकर भीड़ जमा की जाती रही है। जन आंदोलन के नाम पर एक गिरोह का आतंक कायम किया जा रहा था। पत्थलगड़ी के नाम पर या नक्सलियों की सहायता से यूसुफ पूर्ति ने चाहे जितना भी हथियार इकट्ठा कर लिया हो लेकिन सरकार से ज्यादा हथियार तो उसके पास नहीं ही हो सकता। राजसत्ता से मुकाबला करने लायक न तो उसके पास ताकत थी न जन समर्थन। अब और फजीहत कराने से बेहतर है कि पत्थलगड़ी के नेता स्वयं गैंगरेप के आरोपियों को पकड़कर दंडित करें और जनता के बीच यह संदेश दें कि वे गलत कार्यों को बढ़ावा नहीं देते चाहे उसमें उसके कार्यकर्ता ही क्यों न शामिल हों। हालांकि अब समें विलंब हो चुका है। अब क्षतिपूर्ति का कोई रास्ता यूसुफ पूर्ति के पास नहीं बचा है।

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