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गुरुवार, 6 मई 2021

कोरोनाः इतिहास के आईने में महामारी

 

-देवेंद्र गौतम

 हर शताब्दी का 20वां वर्ष महामारी के नाम होता है। यह एक मिथक है। 20वीं शताब्दी में भी 1920 से 1922 तक स्पैनिश फ्लू का कहर टूटा था। वहीं 2020 में कोरोना का कहर टूटा जो अभी तक कई लाख लोगों की आहुति ले चुका है और अभी इसकी दूसरी लहर ने तबाही मचा रखी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पूरी दुनिया में कहर ढाने वाला कोरोना वायरस का वज़न एक ग्राम से भी कम होगा। याने एक ग्राम वायरस ने चिकित्सा विज्ञान की क्षमताओं पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। आखिर महामारियां कैसे उत्पन्न होती हैं और किस तरह फैलती हैं? जिस कोरोना ने हड़कंप मचा रखा है वह न तो पहला वायरस और न ही आखरी। इससे बचाव के लिए कई वैक्सीन बन चुके हैं। टीकाकरण अभियान भी चल रहा है। लेकिन प्रकोप कम होने की जगह बढ़ता ही जा रहा है।  

 

ईसा के जन्म से भी पहले से संक्रामक रोगों का आक्रमण होता रहा है। लेकिन उस समय यातायात के साधन सीमित थे। इसलिए उनके फैलाव का दायरा सीमित था जबकि मारक क्षमता ज्यादा थी। कोरोना के प्रसार का दायरा बड़ा है लेकिन इसकी मारक क्षमता पूर्व की महामारियों से कम है। यह वैश्वीकरण के युग का वायरस है। विमान पर बैठकर कुछ घंटों में एक-देश से दूरे देश पहुंच जाता है। पुराने वायरस समुद्री जहाजों पर यात्रा करते थे। उन्हें एक देश से दूसरे देश पहुंचने में महीनों का समय लग जाता था।

 

इसके पहले प्लेग ने एशिया, यूरोप और अफ्रीका को अपनी चपेट में लिया था। दरअसल मानव सभ्यता के विभिन्न चरणों में महामारियों का तांडव होता रहा है। चूहे, गंदा पानी, चमगादड़ या मच्छर कुछ ख़ास वायरसों और बैक्टीरिया के संवाहक होते हैं। मानवीय गतिविधियों के कारण ये वायरस और बैक्टीरिया मानव शरीर तक पहुंचते रहे हैं। मानव जितना जंगलों और वन्य जीवन में हस्तक्षेप करता है, उतना ही वायरस का प्रकोप भी बढ़ता जाता है।

 

प्राचीन काल में वैक्टिरिया और वायरस की पहचान कम थी। इसलिए हर महामारी फैलती को प्लेग कहा जाता था। प्लेग को महामारी या  दैवी प्रकोप माना जाता था। इतिहासकारों के मुताबिक ईसा पूर्व 41 महामारियों के दस्तावेज मिले हैं। ईसा पश्चात भी महामारियां फैलती रही हैं। उनकी न कोई दवा थी न वैक्सीन। इसलिए हर महामारी में लाखों मौतें हो जाती थी। एक समय कहावत थी कि प्लेग सिन्धु नदी पार नहीं कर सकता यानी भारत को अपनी चपेट में नहीं ले सकता। लेकिन 19वीं शताब्दी के औपनिवेशिक काल में यह मिथक टूट गया। भारत में प्लेग और हैजा जैसी महामारियों का प्रकोप हुआ। आज़ादी के बाद भी स्वास्थ्य सुविधाओं पर खास ध्यान नहीं दिया गया।

 

महामारियां वायरस जनित भी होती हैं और बैक्टीरिया जनित भी। वायरस एक सूक्ष्म अकोशिकीय जीव होता है, जो कई हज़ार सालों तक सुसुप्तावस्था में रह सकता है। यह किसी जीवित कोशिका के संपर्क में आने के बाद सक्रिय हो जाता है। एक वायरस मानव की लार, खून या आंसू के संपर्क में आकर यह सक्रिय हो जाता है और अपना वंश बढाने लगता है। यह जिस कोशिका से जुड़ता है, उसे संक्रमित कर देता है। वायरस लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है लसलसा या जहरीला।

 

जबकि बैक्टीरिया का मतलब है जीवाणु यानी जीवित अणु या एक कोशिकीय जीव। ये शरीर के भीतर भी रहते हैं और बाहर भी। सारे वैक्टीरिया नुकसानदेह नहीं होते। हमारे पाचन तंत्र में करोड़ों बैक्टीरिया पाचन क्रिया में मददगार होते हैं। कुछ बैक्टीरिया ही मानव के लिए घातक होते है। जैसे प्लेग की बीमारी बैक्टीरिया से फैलती है।

 

प्लेग (वर्ष 165) 

ईसा पश्चात 165 से 180 के बीच दक्षिण-पूर्वी एशिया और वर्तमान टर्की, मिस्र, ग्रीस और इटली में एक किस्म के बैक्टीरिया का संक्रमण फैला था, जिसे एंटोनियन प्लेग या गेलें प्लेग कहा गया। इसे चेचक या खसरा माना गया।

तथ्य बताते हैं कि जब रोम की सेनायें मेसोपोटामिया से वापस लौटीं, तब यह संक्रमण रोम पहुंचा। तब किसी को पता नहीं चला और यह फ़ैलता गया। इस नहामारी ने तब 50 लाख लोगों की जान ले ली थी। हालत यह हुई कि पूरी रोमन सेना इसकी चपेट में आकर नष्ट हो गई। इस संक्रमण की व्याख्या रोमन चिकित्सक गेलें ने किया था। इसलिए इसे गेलें प्लेगकहा जाने लगा। वर्ष 169 में रोमन सम्राट लूसियस वेरस की इसी महामारी की चपेट में आकर मृत्यु हो गयी थी। वे मार्कस औरेलियस एंटोनिनस के सह-राजप्रतिनिधि थे। इसीलिए उस वक्त फैली महामारी को एंटोनाइन प्लेग नाम दे दिया गया।

 

रोमन इतिहासकार डियो कैसियस के मुताबिक़ नौ साल बाद यह महामारी फिर से फैली। इससे हर रोज़ लगभग 2000 लोगों की मृत्यु हुई। बीमारी से संक्रमित एक चौथाई लोगों की मृत्यु हुई। कुछ क्षेत्रों में तो एक तिहाई जनसंख्या ही समाप्त हो गई थी।

 

प्लेग (वर्ष 541-42)

वर्ष 541-42 में जस्टिनियन प्लेग ने यूरोप की एक बड़ी आबादी को ख़त्म कर दिया था। एक अनुमान के मुताबिक इससे 2.5 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी। इस ब्युबोनिक प्लेग के संक्रमण ने बयजैंटाईन साम्राज्य और मेडीटेरेनेनियन के तटीय शहरों को ज्यादा प्रभावित किया था। आधुनिक और प्राचीन यर्सिनिया पेस्टिस डीएनए के आनुवंशिक अध्ययनों से पता चलता है कि जस्टिनियन प्लेग की उत्पत्ति मध्य एशिया में हुई थी। इस पिस्सू के डीएनए के अध्ययन से पता चला कि इसकी जड़ें चीन के किंगहाई में थीं, फिर इसकी जड़ें तिआन शान पर्वत श्रृंखला में भी पायी गईं। मानवीय गतिशीलता के कारण बैक्टीरिया और इसके संवाहक भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर गए। खासतौर पर व्यापारियों के जहाज़ों में अनाज की बोरियों के साथ चूहे भी चले आते थे। वे प्लेग के किटाणुओं का वाहक होते थे। चूहों की मृत्यु होने पर यह किटाणु मानव शरीर में प्रवेश कर जाते थे। इसके कारण प्लेग फैलता था। 

 

ब्लेक डेथ (वर्ष 1346-1353)

वर्ष 1346 से 1353 के बीच में ब्युबोनिक प्लेग फैला था जिसने यूरोप, अफ्रीका और एशिया को लगभग तबाह कर दिया था। माना जाता है कि इसके कारण 7.50 करोड़ से 20 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी। यह अक्टूबर 1347 में यूरोप पहुंचा, जब ब्लेक सीके तट पर मेस्सिना के सिसिलियन बंदरगाह पर 12 जहाज़ आकर रुके। जो लोग बंदरगाह पर मौजूद थे, वे जहाज़ का दृश्य देख कर भोंचक रह गए। जहाज पर यात्रा कर रहे ज्यादातर सैलानी मरे हुए थे और जो जीवित थे उनके शरीर काले फफोलों से भरे हुए थे, जिनमें से खून और मवाद रिस रहा था। सिसली के अधिकारियों ने तत्काल इन जहाज़ों को बंदरगाह छोड़ने का आदेश दिया, किन्तु तब तक देर हो चुकी थी। प्लेग का बैक्टीरिया अपना स्थान बना चुका था और अगले पांच सालों में इसने यूरोप की एक तिहाई जनसँख्या यानी लगभग 2 करोड़ लोगों की जान ले ली।

 

चूहों के साथ सफ़र करते हुए संक्रमित पिस्सुओं ने अपना प्रभाव दिखाया था। चूहों के मरने के बाद वे इंसानों पर आक्रमण करने लगे थे। बहरहाल इन जहाज़ों के आने से पहले ही यूरोपीय समुदाय इस संक्रमित महामारी के बारे में सुन रखा था, जो व्यापार मार्ग के जरिये दुनिया के दूसरे हिस्सों में अपनी पहुंच बढ़ा रहा था। इस प्लेग का वायरस 2000 साल पहले एशिया में पाया गया और व्यापारिक परिवहन के जरिये फैलता गया था। हांलाकि अध्ययन यह भी बता रहे हैं कि प्लेग का रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया यूरोप में 3000 साल पहले से विद्दमान रहे हैं।

 

वर्ष 1664-65 में लन्दन में महामारी फैली थी। उस वक्त लन्दन की 4 लाख की आबादी थी। उसमें से दो-तिहाई आबादी ने लन्दन छोड़ दिया था। बचे हुए लोगों में से 69 हज़ार लोगों की मृत्यु हो गयी थी। इस महामारी ने 1894 में हांगकांग में और 1896 में रूस में कहर वरपाया।

 

प्लेग की तीसरी महामारी वर्ष 1855 में फैली. इसकी शुरुआत चीन के युन्नान प्रांत से हुई और पूरे महाद्वीप में फ़ैल गयी। तब भारत और चीन में 1.2 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह बैक्टीरिया वर्ष 1960 तक सक्रिय था।

 

हैजा (1852-60)

हैजे की उत्पत्ति भारत में हुई थी। इसकी सात महामारियां फैलीं, जिनमें से तीसरी सबसे भयावह मानी जाती है। इसने 10 लाख लोगों का जीवन लील लिया था। पहली और दूसरी हैजा महामारी की तरह ही तीसरी भी भारत में ही पैदा हुई थी। गंगा नदी के डेल्टा से उभर कर यह एशिया के अन्य भागों, यूरोप, उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका तक पहुंची। ब्रिटिश चिकित्सक जान स्नो ने लन्दन की गरीब बस्तियों में अध्ययन करते हुए यह पाया कि हैजा दूषित पानी के कारण फैलता है। 1854 में यह महामारी ब्रिटेन में फैली और 23 हज़ार लोगों की मृत्यु हो गयी।

 

हैजे की छठी महामारी ने वर्ष 1910-11 में भारत में 8 लाख से ज्यादा लोगों की जान ली थी। इसके बाद यह मध्य-पूर्व, उत्तर अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और रूस तक फैला।

 

स्पेनिश फ्लू/एशियाटिक फ्लू/इन्फ़्ल्युएन्जा (श्‍लैष्मिक ज्‍वर)

इन्फ़्ल्युएन्जा एक वायरस (एच1 एन1, 2, 3) के कारण पैदा होने वाली महामारी है। 1889-90 में भी फैली थी। तब इसे एशियाटिक या रशियन फ्लू भी कहा गया था। इसके मामले दुनिया में एक साथ तीन जगहों पर मिले थे बुखारा (तुर्केस्तान), अथाबास्का (उत्तर-पश्चिम कनाडा) और ग्रीन लैंड। जनसंख्या की सघनता ने इसे फैलने में मदद की। इसके कारण 10 लाख लोगों की मृत्यु हुई।

 

वर्ष 1918-20 की महामारी को स्पेनिश फ्लू की महामारी के नाम से भी जाना जाता है। तीन सालों में इसने 50 करोड़ लोगों को संक्रमित किया था। इसके कारण 2 करोड़ से 10 करोड़ तक लोगों की मौत हुई थी। चूंकि वह पहले विश्व युद्ध का दौर था इसलिए महामारी की ख़बरें सार्वजनिक करने पर रोक थी। केवल स्पेन ने महामारी के बारे में जानकारियां देने की पहल की। इसीलिए इसे स्पैनिश फ्लू का नाम दिया गया। आम तौर पर इन्फ्लूएंजा के कारण बच्चों और बुजुर्गों की मृत्यु ज्यादा होती रही है, किन्तु स्पेनिश फ्लू ने युवाओं की मृत्यु दर को बढ़ा दिया था। वर्ष 2007 में हुए अध्ययनों के आधार पर बताया गया कि इन्फ्लूएंजा का संक्रमण इतना घातक नहीं था किन्तु स्वास्थ्य सेवाओं की कमी,  कुपोषण, बस्तियों के सघन होने के कारण यह महामारी घातक हो गयी थी। इसके संक्रमण ने लम्बे समय तक व्यक्तियों को बीमार बनाए रखा और मृत्यु का बड़ा कारण साबित हुआ। इसने भारत में भी 1.2 करोड़ लोगों की जीवन ले लिया।

 

इन्फ़्ल्युएन्जा (श्‍लैष्मिक ज्‍वर) एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमित हो सकता है. इस बीमारी में मुख्य रूप से बुखार, सर्दी/नाक बहना, गले में खराश, बदन दर्द सरीखे ही लक्षण होते हैं। आशंका है कि फ्लू की ऐसी ही महामारी मानव समाज में फिर से कभी भी फैल सकती है. वर्ष 1918-20 की अवधि में जब यह महामारी फैली थी तब शुरू के 25 हफ़्तों में ही 2.50 करोड़ लोगों की मृत्यु हो गयी थी। इस महामारी के पहले इन्फ़्ल्युएन्ज़ा से बच्चों और बुजुर्गों की मृत्यु ज्यादा होती थी, किन्तु इस महामारी के दौरान युवा उम्र के स्वस्थ लोगों की भी बहुत मौतें हुईं, जबकि जिनकी प्रतिरोधक क्षमता बेहतर थी, वे जीवित बचे रहे। वंचित तबकों में मज़बूत प्रतिरोधक क्षमता वाले बच्चों की मृत्यु दर कम रही।

 

 

 

 

पार्ट टू: वास्तव में मानव इतिहास के साथ ही वायरस और बैक्टीरिया संक्रमण का भी इतिहास बनता रहा रहा है. प्राचीन काल के इतिहास में भी संक्रमण के सूत्र पाए गए हैं.  हर मानव में जन्म से ही एक वायरोम” (वायरसों का समूह) पाया जाता है. उदाहरण के लिए हर्पिस सिम्पलेक्स वायरस-1 के कारण होने वाले कोल्ड सोर्स (मुंह या नाक के आसपास  फफोले के जाना) या इपेस टिन बर्र वायरस के कारण ग्रंथियों का बुखार होता है. ये वायरस हमारे साथ हमेशा रहते हैं. जींस के अध्ययन से यह पता चलता है कि कौन सा वायरस मानव के साथ कबसे रह रहा है. यह माना जाता है कि ल्यूकीमिया बीमारी से ग्रसित करने वाला ह्यूमन टी सेल लियुकीमिया वायरस टाइप-1 का कारण बनता है, मानव के साथ हज़ारों साल से रहता आया है. आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों में इसके प्रमाण 9000 साल पहले दिखाई मौजूदा होने के प्रमाण हैं. मिस्र की ममी में ईसा से 1500 से 4000 साल पहले चेचक और पोलियो होने के प्रमाण मिले हैं.

पोलियो (पोलियोमायलिटिस)

यह सबसे ज्यादा डराने वाली और छोटे बच्चों को प्रभावित करने वाली बीमारी रही है. इससे होने वाली विकलांगता का कोई उपचार नहीं रहा. विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है कि अब पोलियो 99 प्रतिशत समाप्त हो चुका है और कुछ वंचित देशों में बचा हुआ है.

 

पोलियो (जो पोलियोमायलिटिस वायरस के कारण होता है) हज़ारों साल तक मानव समाज के बीच बना रहा. 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक पोलियो के बड़ी महामारियां लगभग अज्ञात ही थी. 19वीं शताब्दी में यूरोप में पोलियो ने अपना विस्तार किया और लगभग महामारी का रूप ले लिए. इसके बाद यह अमेरिका में भी फ़ैल गया. यह विकसित देशों में ज्यादातर गर्मियों के समय अपना ज्यादा असर दिखाता था. आंकलन है की 1940 और 1950 के दशक में यह चरम पर था, जब इसने हर साल 5 लाख से ज्यादा लोगों के अपंग किया या कईयों की मृत्यु का कारण बना.

 

मिस्र की प्राचीन चित्रकला (ई.पू. 1400) में स्वस्थ व्यक्तियों के साथ ऐसे व्यक्तियों को भी दिखाया गया है, जिनके पैर शरीर की तुलना में मुरझाये हुए थे और फिर ऐसे बच्चे दिखाए गए, जो लाठी के सहारे चलते थे. यह माना जाता है कि रोमन सम्राट क्लाडियस बचपन में इसके शिकार हो गए थे, और उन्हें जीवन भर लंगड़ा कर चलना पडा था. शायद इस बीमारी का पहला दर्ज मामला सर वाल्टर स्काट का माना जाता है. उन्हें खूब तेज़ कंपकंपी के साथ बुखार आया और इसके बाद वे अपने पैरों से चलने में अक्षम हो गए.

पोलियोमायलिटिस को 19वीं सदी में कई नामों से पुकारा गया. इसे दंत पक्षाघात, शिशु उम्र में रीढ़ की हड्डी का पक्षाघात (पैरालिसिस), बच्चों में होने वाला पक्षाघात, सुबह का पक्षाघात आदि कहा गया.

पोलियोमायलिटिस का पहली बार क्लीनिकल विवरण ब्रिटेन के चिकित्सक माइकल अंडरवुड ने दिया. उन्होंने इसे हाथ पैरों की अपंगताकहा. फिर पहली मेडिकल रिपोर्ट जेकब हेइन ने वर्ष 1840 में प्रस्तुत की. उन्होंने इसे हाथ परों का पक्षाघातकहा. इसके बाद इस महामारी का काल अध्ययन वर्ष 1890 में कार्ल आस्कर मेदिन ने किया.

 

20वीं शताब्दी के पहले तक पोलियो महामारी लगभग अज्ञात थी. स्थानीय स्तर पर इसकी मौजूदगी वर्ष 1900 के आसपास यूरोप और अमेरिका में दर्ज हुई. एक साथ कुछ मामले वर्ष 1841 होना पाए गए थे. इसके बाद वर्ष 1893 में बोस्टन में और फिर वेरमोंट में दिखाई दिए. इसके बाद हर साल पोलियो के कुछ मामले उभरते रहे. वर्ष 1907 में न्यूयार्क में में पोलियो के 2500 मामले दर्ज हुए.

 

17 जुलाई 1916 को को पोलियो को एक महामारी घोषित किया गया. इस साल वहां 27 हज़ार पोलियो केस उभरे. पोलियो के प्रभावित लोगों के घर चिन्हित करके उन पर विशेष पट्टिकाएं लगाईं गयीं और उन्हें क्वारंटाइन किया गया. इसका भय इतना फैला कि हज़ारों लोगों ने शहर छोड़ दिया, बाज़ार बंद हो गए. 1940 और 50 के दशक में इसका गंभीर प्रभाव दिखा. वर्ष 1949 में न्यूयार्क में 42173 मामले दर्ज हुए और 2720 लोगों की मृत्यु हुई.

 

20वीं शताब्दी के पहले पोलियो के मामले 6 माह से 4 वर्ष के बच्चों में ज्यादा दिखाई देते थे. छोटे बच्चों के इसके साधारण लक्षण दिखाई देते थे, किन्तु फिर वे इससे प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते थे. कुछ अध्ययन सामने आने के बाद विकसित देशों में पीने के साफ़ पानी, स्वच्छता और मल निकास की व्यवस्था को सुचारू बनाया गया ताकि बच्चों में इसके प्रति प्रतिरोधक क्षमता को विकसित किया जा सके. वर्ष 1952 में पोलियो की सबसे गंभीर महामारी फैली, जब 57628 लोग इससे पीड़ित हुए, 3145 की मृत्यु हुई और 21269 लोग अपंग हो गए.

 

पोलियो के टीके के ईजाद की कोशिश कई सालों तक चलती रही. वर्ष 1935 में न्यूयार्क विश्वविद्यालय के शोध सहायक ने पोलियो वायरस से पोलियो टीका बनाने की कोशिश की. किन्तु सफल नहीं रहा. फिर 15 साल बाद जान एंडर्स के शोध समूह ने बोस्टन के बाल चिकित्सालय में पोलियो वायरस को मानव ऊतक में डालने का सफल प्रयोग किया.

 

विश्व में पोलियो के दो टीके इस्तेमाल किये जाते हैं. जोनस साक ने वर्ष 1952 में पहले टीके का प्रयोग किया था. इसे निष्क्रीय पोलियो वायरस टीका-आईपीवीकहा गया क्योंकि इसमें मृत वायरस का उपयोग किया गया था. साक के प्रयोग को सबसे बड़ा मानव प्रयोग कहा जाता है. टीके के सफल प्रयोग के बाद वर्ष 1957 में अमेरिका में टीकाकरण का बड़ा अभियान चलाया है. इससे पोलियो के प्रकरण 58 हज़ार से कम होकर 5600 तक आ गए. इसके 8 साल बाद अलबर्ट सेबिन ने मौखिक (मुंह से उपयोग के लिए) वैक्सीन ईजाद की. इसका उपयोग भी अभियान चला कर किया गया.

 

12 अप्रैल 1955 को साक द्वारा ईजाद टीके को सुरक्षित, प्रभावी और सक्षमघोषित कर दिया गया. तब टीके पर किसका पेटेंट?” सवाल के जवाब में साक ने कहा मैं कहूँगा कि लोगों का, इस पर किसी का पेटेंट नहीं है. क्या आप सूरज का पेटेंट कर सकते हैं?” लेकिन यह भावना अब मर चुकी है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि पोलियो विश्व को सबसे ज्यादा डराने वाली बीमारी थी और इसका इलाज़ खोजने की पहल को खोजना दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक-निजी उपक्रम; क्योंकि इसके इलाज़ की खोज के लिए बहुत सारे लोगों ने दान दिया था.

 

एशियन फ्लू (वर्ष 1956-58)

यह एक किस्म का इन्फ्ल्युएंजा की महामारी थी. इसे इन्फ्ल्युएंजा ए (एच2एन2) के रूप में पहचाना गया. यह वर्ष 1956 में चीन से शुरू हुई और चीन के गुईजोऊ प्रांत से सिंगापुर, हांगकांग होते हुए अमेरिका तक पहुंची. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ इसके कारण कुल 20 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी.

मारबर्ग वायरस (वर्ष 1967)

 

वैज्ञानिकों ने वर्ष 1967 में मारबर्ग वायरस की मौजूदगी का पता लगाया. यह वायरस उस प्रयोगशाला के टेक्नीशियनों में पाया गया था जो युगांडा से मंगाए गए संक्रमित बंदरों के साथ काम कर रहे थे. यह लगभग इबोला की तरह होता है. इससे शरीर के भीतर खून का रिसाव होता है और साथ में बहुत तेज़ बुखार. इससे शरीर को आघात लगता है, अंग काम करना बंद कर देते हैं और मृत्यु भी हो जाती है. जब यह वायरस पहली बार फैला था, तब इससे 25 प्रतिशत संक्रमित लोगों की मृत्यु हुई थी, लेकिन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कांगों में हुए 1998-2000 के प्रकोप में और अंगोला में वर्ष 2005 में हुए प्रकोप में 80 प्रतिशत संक्रमितों की मृत्यु हो गयी थी.

इबोला (वर्ष 1976 से)

इबोला वायरस का पहला प्रकोप वर्ष 1976 में सूडान गणराज्य और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कांगों में माना जाता है. इबोला का प्रसार संक्रमित मानव या पशु के शरीर में पाए जाने वाले तरल पदार्थ, खून या टिश्यु के संपर्क में आने से होता है. इबोला वायरस का एक तना (क्योंकि इसका आकार तने की तरह ही होता है) मनुष्य को बीमार नहीं करता है किन्तु बनडीबुगायो में इबोला के तने ने 50 प्रतिशत और और सूडान तने ने 50 प्रतिशत संक्रमितों की जान ले ली थी.

 

रेबीज़

हम सब जानते हैं कि रेबीज़ भी पशुओं से ही फैलता है. हांलाकि वर्ष 1920 से इसका टीका उपलब्ध है और इससे रेबीज़ का खतरा बहुत कम हो गया है. विकसित देशों में रेबीज़ पर बहुत नियंत्रण है, किन्तु भारत और अफ्रीका में इसका बहुत प्रसार है. यह दिमाग पर बहुत घातक असर डालता है, यदि इसका उपचार नहीं किया जाता है, तो रेबीज़ से प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु होना 100 प्रतिशत निश्चित है.

 

एचआईवी

ह्युमन इम्युनोंडेफिशियेंसी वायरस यानी मानव शरीत के प्रतिरोधक तंत्र को विकृत कर देने वाला वायरस. एचआईवी की पहचान 1980 के आसपास हुई थी. अब तक इससे 3.5 करोड़ लोग मारे जा चुके हैं. वर्तमान में यह एक जानलेवा घातक वायरस है. आज की स्थिति में कुल एचआईवी संक्रमित लोगों में से 95 प्रतिशत कम-मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं. अफ्रीका अंचल में हर 25 लोगों में से 1 व्यक्ति इससे संक्रमित है.

स्माल पाक्स/चेचक

 

चेचक की बीमारी होने के संकेत ई.पू. 10000 में भी पाए गए. प्रमाणिक रूप से ई.पू. 3000 की मिस्र की ममी (संरक्षित शवों) में इसके प्रमाण दिखाई दिए हैं. यह बीमारी भी व्यापारिक मार्गों से फैली. 18वीं सदी में यूरोप में हर साल 4 लाख लोगों की मृत्यु हुई.

 

1980 में दुनिया को चेचक से मुक्त घोषित कर दिया गया था, लेकिन इसके पहले हज़ारों सालों तक इस संक्रमण ने बहुत घातक स्थितियां पैदा की थीं. यह बीमारी मानव शरीर पर गहरे धब्बे, स्थाई निशान और अक्सर अंधापन छोड़ जाती थी. यूरोप के बाहर इस बीमारी के कारण मौतें भी बहुत होती थीं. इतिहासकारों का मानना है कि 90 प्रतिशत अमेरिकी मूल निवासियों की आबादी यूरोपीय यात्रियों द्वारा लाये गए चेचक के संक्रमण के कारण ख़तम हो गयी. अकेले 20वीं शताब्दी में 30 करोड़ लोगों की मृत्यु चेचक के कारण हुई.

हंता वायरस

 

हंता वायरस फुफ्फुस (फेंफडे) को प्रभावित करता है. इसके संकेत सबसे पहली बार अमेरिका के एक दंपत्ति में मिले. कुछ दिनों बाद वैज्ञानिकों ने यह वायरस ख़ास किस्म के चूहे (डीयर माउस) में पाया. ऐसा माना जाता है कि यह वायरस कुतरने वाले जानवरों में पाया जाता है.

 

अमेरिका में इस वायरस के कारण फेंफडे की जटिल समस्याएं पैदा हुईं, जबकि यूरोप में गुर्दे के सिंड्रोम के साथ रक्तस्रावी बुखार (जटिल स्थितियां) की समस्या हो रही है. अमेरिका में जिन 600 लोगों के इससे संक्रमित पाया गया, उनमें से 36 प्रतिशत की मृत्यु हो गयी. अध्ययन बताते हैं कि यह संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं पहुँचता है, बल्कि संक्रमित चूहे के मल, पेशाब या लार के संपर्क में आने से होता है. वर्ष 1950 के दशक में कोरियन युद्ध के समय एक अलग किस्म का हंता वायरस फैला था, जिसने 3000 सैनिकों को संक्रमित किया था.

संदर्भःविकीपीडिया

 

गुरुवार, 7 मई 2020

भारत को विश्वगुरु बनाएंगे पीएम मोदी के ग्रह नक्षत्र : पंडित नितिन शंकराचार्य धुर्वे


रांची । जाने माने ज्योतिषाचार्य पंडित नितिन शंकराचार्य धुर्वे ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर बहुत बड़ी भविष्यवाणी की है। पंडित नितिन शंकराचार्य धुर्वे के अनुसार पीएम मोदी के लिए आने वाले दो साल बेहद महत्वपूर्ण होने वाले हैं। इस दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्वभर में देश का मान बढ़ाने तथा दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होंगे।
हाल ही पीएम मोदी की कुंडली की गणना करते हुए पंडित नितिन शंकराचार्य ध्रुवे ने पाया कि पीएम मोदी की कुंडली में चन्द्रमा की महादशा

2012 से 2022 तक स्थित है जो उन्हें दुनियाभर में भारत का मान सम्मान, देश की शक्ति व यश बढ़ाने में मदद करेगा। पीएम मोदी के ग्रहों के अनुसार उन्होंने यह भी बताया कि 29 सितम्बर 2020 के बाद दुनिया के दिग्गज उद्योगपति भारत में इन्वेस्टमेंट करने के लिए आकर्षित होंगे।
इसके अलावा उन्होंने चीन की साख को गहरी चोट पहुंचने की बात भी कही है।  पंडित नितिन शंकराचार्य ध्रुवे जो मूल 
रूप से कर्नाटक के निवासी हैं और इन दिनों मुंबई में रह रहे हैं, उनके मुताबिक पूरी दुनिया में चीन के शत्रुओं में इजाफा होने के 
साथ सत्ता परिवर्तन के आसार भी बनेंगे। वहीँ विश्वभर में युद्ध का माहौल देखने को मिलेगा, हांलांकि युद्ध नहीं होगा। इसके
 अतिरिक्त विश्व के कुछ प्रभावशाली देशों के वर्चस्व में कमी आएगी। साथ ही 29 सितम्बर 2020 से मार्च 2022 अर्थव्यवस्
था में मंदी छाई रहेगी। हालांकि भारत पर इसका अत्यधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन सितम्बर 2020 से फ़रवरी 2021 
के बीच का समय भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए थोड़ा मध्यम व खराब जरूर रहेगा।
श्री धुर्वे ने बताया कि पीएम मोदी की चंद्र महादशा के अनुसार आने वाले समय में उनके सर्वोच्च पद व मान सम्मान में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आएगा तथा वह दुनिया के सबसे बड़े नेताओं में एक बनकर उभरेंगे। 
कोविड 19 को लेकर शुभ संकेत देते हुए उन्होंने कहा कि 29 सितम्बर तक कोरोना वायरस महामारी भारत समेत दुनियाभ
र से पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी।
श्री धुर्वे ने सभी से अनुरोध किया है कि वे इस लॉक डाउन अवधि के दौरान भारत सरकार और सं
बंधित राज्य अधिकारियों द्वारा रखी गई सुरक्षा सावधानियों का पालन करें। 
श्री धुर्वे ने देश की जनता से इस भविष्यवाणी के बारे में ईमेल आईडी
  panditnitindhurve@gmail.com पर संदेश प्रेषित करने की अपील की है।

शनिवार, 2 मई 2020

कोरोना फाइटर्स की भूमिका निभा रहे हैं अमरजीत


 * सहयोगियों संग प्रतिदिन कर रहे गरीबों की सेवा 

 रांची। वैश्विक महामारी कोरोना के खिलाफ हर स्तर पर लड़ाई जारी है। कोरोना से बचाव के मद्देनजर किए गए देशव्यापी लॉकडाउन ने कुछ हद तक मनुष्य की मुश्किलें भी बढ़ा दी है। संकट की इस घड़ी में विशेषकर गरीब तबके के लोगों की परेशानियां बढ़ गई हैं। इसके मद्देनजर विभिन्न सामाजिक संगठन, स्वयंसेवी संस्थाएं और सामाजिक कार्यकर्ता अपने-अपने स्तर से इस मुश्किल वक्त में गरीबों को राहत पहुंचाने में जुटे हैं। ऐसे ही कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ताओं में एक नाम शुमार है अमरजीत कुमार का। वह एनएसयूआई के झारखंड प्रदेश के सचिव हैं और शहर की विभिन्न सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़े हैं। अमरजीत लॉकडाउन के दौरान शहर के विभिन्न स्थानों पर बेघर, बेसहारा और अत्यंत गरीब लोगों को चिन्हित कर उन्हें भोजन कराने व राशन मुहैया कराने में जुटे हैं। समाजसेवा के प्रति उनका जज्बा और जुनून देखते हुए विभिन्न संगठन की ओर से भी उन्हें निरंतर सहयोग प्राप्त हो रहा है। झारखंड प्रदेश प्रोफेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष व शहर के जाने-माने समाजसेवी आदित्य विक्रम जायसवाल सहित अन्य सहयोगियों को साथ लेकर अमरजीत प्रतिदिन विभिन्न चौक-चौराहों पर भोजन से वंचित गरीबों को दोपहर का भोजन कराने में जुटे रहते हैं। वहीं, विभिन्न जगहों पर बेघर और बेहद गरीब लोगों को भी चिन्हित कर उनके बीच दैनिक उपयोग की राशन व अन्य राहत सामग्री का वितरण किया जाता है। अमरजीत लोगों के बीच कोरोना वायरस की भयावहता के बारे में जानकारी देते हुए इससे बचाव के लिए सोशल मीडिया के माध्यम से जागरूकता अभियान भी चला रहे हैं। शहर में कोरोना फाइटर्स के टीम के एक सक्रिय सदस्य के रूप में उनकी पहचान बन गई है।  समाजसेवा के प्रति समर्पित अपने सक्रिय सहयोगियों संग वह प्रतिदिन गरीबों की सेवा में जुटे रहते हैं। उनका कहना है कि पीड़ित मानवता की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है। संकट की इस घड़ी में और मुश्किल के इस दौर में अपनी शक्ति संजोकर लोगों का हौसला बढ़ाने की आवश्यकता है। अमरजीत कहते हैं कि ऐसे समय संयम, संकल्प और खुशमिजाजी के साथ घर में सकारात्मक माहौल बनाए रहते हुए रचनात्मक कार्यों में जुटे रहने की भी आवश्यकता है। तभी हम इस मुश्किल दौर को हंसकर गुजारने में सफल हो सकते हैं। वह कहते हैं कि हमारी एकजुटता, जागरूकता और "स्टे एट होम" के प्रति प्रतिबद्धता से कोरोना हारेगा और इंडिया जीतेगा।

प्रवासी मजदूरों की वापसी में झारखंड सरकार की भूमिका सराहनीय: सुबोधकांत सहाय



रांची. पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने कहा है कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौरान झारखण्ड सरकार ने अपने विवेक से बहुत ही सराहनीय कदम उठाया है जिसके कारण  तेलंगाना के लिंगापल्ली से झारखण्ड के हटिया तक विशेष ट्रेन कल रात पहुंची साथ ही आज़ कोटा से छात्रों को लेकर पहुंचेगी l  
उन्होंने कहा कि लगभग 1300 श्रमिकों के साथ कल  शुरू हुए अभियान के लिये विशेष रूप से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बधाई के पात्र हैं. बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में हेमंत सरकार ने यह साहसी कदम बढ़ाया है. 
लॉकडाउन के दौरान झारखण्ड के लोगों को प्रतिकूल प्रभाव से बचाने में किये जा रहे झारखण्ड सरकार के प्रयासों को मानवतावादी बताते हुए श्री सहाय ने कहा कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की नेतृत्व क्षमता में सरकार बेसहारा लोगों की मदद के लिये अनेक दूरगामी कदम उठा रही है जिसका फायदा निकट भविष्य में मिलने की पूरी संभावना है.
श्री सहाय ने कहा कि  हेमंत सोरेन द्वारा की गयी पहल के बाद केन्द्र सरकार द्वारा विशेष श्रमिक ट्रेन चलाने का फैसला स्वागत योग्य है. इसका लाभ पूरे देश के विविध प्रदेश में बसे प्रवासी श्रमिकों को मिलेगा. उन्होंने कहा कि ख़ुशी की बात यह है कि झारखण्ड के लिये पहली ट्रेन चली और आनेवाले दिनों में हज़ारों श्रमिक अपने घर लौटेंगे.

शुक्रवार, 1 मई 2020

गरीबों और जरूरतमंदों के लिए डा. शाहबाज आलम ने बढ़ाए हाथ


 * गरीबों को मुहैया कराया एक माह का राशन 

 

रांची। लॉकडाउन के दौरान बेहद गरीब परिवारों को हो रही परेकशानियों के मद्देनजर राजधानी के कर्बला चौक स्थित होपवेल हॉस्पिटल के संचालक व प्रख्यात शल्य चिकित्सक डॉ.शाहबाज आलम की ओर से गरीबों के बीच राशन सामग्री बांटे जा रहे हैं। चिकित्सा क्षेत्र में  उत्कृष्ट सेवा के लिए ख्यातिप्राप्त डॉ.आलम संकट के समय पीड़ित मानवता की सेवा में भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। गरीबों व जरूरतमंदों को हरसंभव सहयोग करने में उनकी पत्नी डॉ.नेहा अली(स्त्री रोग विशेषज्ञ)भी सहयोग कर रहीं हैं। गौरतलब है कि वैश्विक महामारी कोरोना के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए किए गए देशव्यापी लाॅकडाउन में बेघर, बेसहारा और बेहद गरीबों को भोजन के लिए परेशानियां हो रही हैं। इसे ध्यान में रखते हुए डॉक्टर आलम ने कर्बला चौक व आसपास के बेहद गरीब परिवारों को चिन्हित कर उन्हें राशन मुहैया कराने का निर्णय लिया है। इसके तहत गुरुवार को 40 गरीब लोगों के बीच राशन उपलब्ध कराया गया। प्रत्येक गरीब व्यक्ति को विभिन्न सामग्री युक्त कुल 37 किलोग्राम के राशन का एक पैकेट दिया गया। उन्होंने इसके लिए कर्बला चौक स्थित रांची किराना स्टोर के संचालक को निर्देशित कर रखा है कि उनके द्वारा अनुशंसित व्यक्ति को उनके हस्ताक्षरयुक्त कूपन प्राप्त कर राशन का पैकेट सौंप दें। डॉ. आलम ने बताया कि उनका लक्ष्य डेढ़ सौ अत्यंत गरीब और जरूरतमंद लोगों को लगभग पूरे एक महीने का राशन सामग्री मुहैया कराना है। राशन किट में 12 किलोग्राम चावल, पांच किलो आटा, दो किलो चना, दो किलो मसूर दाल, दो किलो चना दाल, एक लीटर सरसों तेल, एक लीटर रिफाइंड वायल, तीन किलो चीनी, एक किलो चूड़ा, एक किलो सोयाबीन, एक किलो नमक, तीन पीस नहाने का साबुन, जीरा-गोलकी का पैकेट, दो किलो आलू, दो किलो प्याज, एक किलो लहसुन व एक कोलगेट टूथपेस्ट आदि सामग्री है। गरीब परिवार के लोग डॉ.आलम के सौजन्य से पर्याप्त मात्रा में लगभग एक महीने की राशन सामग्री पाकर काफी खुशी का इजहार कर रहे हैं। राशन पाने वाले कई परिवारों ने डॉ.आलम के इस सेवा कार्य की सराहना करते हुए कहा कि लगभग पूरे एक महीने के लिए दैनिक उपयोग की राशन सामग्री अब तक किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा नहीं दी गई थी। पीड़ित मानवता की सेवा में डॉ.आलम दंपत्ति ने एक बेहतरीन मिसाल पेश की है।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

लाइटहाउस कैफे एंडरेस्टोरेंट ने गरीबों को कराया भोजन


रांची। तुपुदाना (आरके मिशन रोड) स्थित लाइट हाउस कैफे एंड किचन रेस्टोरेंट के सौजन्य से आज गुरुवार को आसपास के लगभग डेढ़ सौ गरीबों को दोपहर का भोजन कराया गया। रेस्टोरेंट संचालक दिलबाग सिंह ने बताया कि आज लॉकडाउन के 37वें दिन भी अन्य दिनों की भांति दोपहर में गरीबों को खाना खिलाया गया। उन्होंने बताया कि आसपास के बेघर, बेसहारा गरीबों को चिन्हित कर उनके बीच राशन सामग्री भी बांटी जा रही है। यह सिलसिला लाॅकडाउन की अवधि तक जारी रहेगा। इस पुनीत कार्य में उन्हें ऑल इंडिया वीमेन्स कॉन्फ्रेंस की हटिया-तुपुदाना शाखा की अध्यक्ष शांति सिंह, प्रयास डेवलपर्स, रंधवा कंस्ट्रक्शन, हेमू फाउंडेशन, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय, सुनील सहाय, सामाजिक कार्यकर्ता लाल काली नाथ शाहदेव, विजय नागवेकर सहित अन्य साथियों का सहयोग प्राप्त हो रहा है।

समाजसेविका शांति सिंह के सौजन्य से गरीबों को मिल रहा भोजन और राशन



 रांची। महिला हितों के संरक्षण के लिए काम करने वाली अखिल भारतीय स्तर की संस्था ऑल इंडिया वीमेन्स कॉन्फ्रेंस की हटिया- तुपुदाना शाखा की अध्यक्ष और लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता शांति सिंह के सौजन्य से लॉकडाउन के दौरान गरीबों को प्रतिदिन भोजन कराया जा रहा है। आज गुरुवार को लॉकडाउन के 36 वें दिन भी तुपुदाना स्थित आरके मिशन रोड पर अवस्थित हैप्पी चिल्ड्रन स्कूल परिसर में लगभग एक सौ गरीबों को भोजन कराया गया। इसके अलावा श्रीमती सिंह जरूरतमंदों के बीच राशन का भी वितरण कर रही हैं। पीड़ित मानवता की सेवा के इस कार्य में उन्हें विभिन्न संस्थाओं का भी सहयोग मिल रहा है। वहीं, लाइट हाउस कैफे एंड किचन रेस्टोरेंट के संचालक दिलबाग दिलबाग सिंह और सामाजिक कार्यकर्ता विजय नागवेकर भी मानवता की सेवा के इस कार्य में बहुमूल्य सहयोग कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि लाॅकडाउन की अवधि तक गरीबों को दोपहर में एक समय का भोजन प्रतिदिन कराए जाने का सिलसिला जारी रहेगा। गरीबों को भोजन कराने व जरूरतमंदों के बीच खाद्यान्न सामग्री और अन्य उपयोगी सामान बांटने में उन्हें कई सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी सहयोग प्राप्त हो रहा है। इसमें प्रयास डेवलपर्स, रंधावा कंस्ट्रक्शन, हेमू फाउंडेशन सहित विभिन्न संस्थाएं और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। उन्होंने बताया कि लाॅकडाउन के दौरान गरीबों को भोजन के लिए हो रही परेशानियों को देखते हुए उनके द्वारा किए जा रहे समाज सेवा के कार्यों में पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय की ओर से भी सहयोग प्राप्त हो रहा है। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता लाल काली नाथ शाहदेव की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...