उनके इलाके में टीबी, मलेरिया, डायरिया, हैजा, कुष्ठ आदि रोगों का भीषण प्रकोप है. यह कोई नयी परिघटना नहीं है. झारखंड के मानवशास्त्री कई दशकों से उनके अस्तित्व पर मंडराते खतरे के प्रति आगाह करते आ रहे हैं. उनके संरक्षण के लिए हर बजट में अरबों की राशि का प्रावधान किया जाता है. कई कल्याणकारी योजनायें चलाई जाती हैं लेकिन उनतक पहुंचते-पहुंचते सुविधाएं इतनी संकुचित हो जाती हैं कि उन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाता. झारखंड राज्य के गठन के बाद भी इन्हें कोई लाभ नहीं हुआ. आदिवासी मुख्यमंत्री का मिथक तो इनके नाम पर रचा गया लेकिन लाभ आदिवासियों की सामाजिक आर्थिक रूप से विकसित जातियों के मलाईदार तबके ने उठाया.
2001 की जनगणना के मुताबिक हिल पहाड़िया जनजाति की कुल आबादी मात्र 1625 रह गयी है. सावर पहाड़िया 9946 की संख्या में है. असुर, विरिजिया और विरहोर जाति की भी यही हालत है. उनकी आबादी चार अंकों में ही सिमटी है. कोरवा, माल पहाड़िया, पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया आदि की आबादी जरूर पांच अंकों में है लेकिन उसमें तेजी से गिरावट आ रही है.इन नौ जनजातियों की कुल आबादी एक लाख 94 हजार आंकी जाती है. विडंबना यह है कि इन जातियों के लोग 50 वर्ष की आयु भी पार नहीं कर पाते. संतुलित आहार के अभाव में कुपोषण का शिकार हो जाते हैं. इनकी उत्पादन क्षमता में भी काफी कमी आ गयी है. सुरक्षित प्रसूति की सुविधा नहीं होने के कारण गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की मौत भी आम बात है.
असुर जनजाति के लोग गुमला और दुमका जिले में निवास करते हैं. लौह अयस्क से लोहा बनाना उनकी आजीविका का पारंपरिक साधन रहा है. लोहे के औजार बनाने में इस जनजाति को महारत हासिल है. लेकिन उनके उत्पाद के खरीदार कम रह गए हैं. छोटे किसान भी बड़े कारखानों में निर्मित औजार खरीदना पसंद करते हैं. नतीजतन पुश्तैनी धंधे से उनका पेट नहीं भर पता. खेती लायक ज़मीन भी इनके पास नाममात्र की है.दैनिक मजदूरी का मिल गयी तोदो जून की रोटी का जुगाड़ हुआ वर्ना फाकाकशी के अलावा रास्ता नहीं. सरकार चाहती तो उन्हें पारंपरिक कौशल के उत्पाद तैयार करने के लिए आवश्यक सुविधाए प्रदान कर उनके लिए बाजार उपलब्ध कराती लेकिन वे कोई वोट बैंक तो नहीं कि उनकी चिंता की जाये. बिरिजिया जनजाति के लोग लोहरदगा, गुमला और लातेहार के इलाकों में पाए जाते हैं. बिरहोर जनजाति के लोग सूबे के विभिन्न जिलों के पहाड़ों जंगलों के आसपास छोटे-छोटे समूहों में रहते हैं. यह शिकारी श्रेणी की जनजाति है. जंगली जानवरों का शिकार करना इनका पुश्तैनी व्यवसाय रहा है. रस्सी बुनने कि कला भी इन्हें विरासत में मिली है. इनके उत्थान के लिए कई योजनायें बनीं लेकिन इनकी जगह नौकरशाहों और दलालों का उत्थान हुआ. पहाड़िया जनजाति संथाल परगना के इलाकों में रहती है. यह आज भी टोने-टोटके के आदिम विश्वास के बीच जीती है. इनमें शिक्षा का घोर अभाव है.
विलुप्ति के कगार पर खड़ी इन जनजातियों के पुनर्वास के लिए राज्य गठन के बाद बिरसा मुंडा आवास योजना के तहत १२,५३६ आवास बनाने का निर्णय हुआ था लेकिन यह योजना अभी तक अधूरी है. लकड़ी तस्कर और जंगल माफिया उनका भरपूर शोषण करते हैं लेकिन सरकारी तंत्र शोषकों के ही साथ खड़ा रहता है. विश्व के सभी देशों में मानव आबादी बढ़ रही है लेकिन झारखंड में कुछ जजतियां विलुप्ति का संकट झेल रही हैं. यही विडंबना है.
झारखंड में अबतक की बनी सरकारें कुर्सी की बाधा दौड़ में ही उलझी रही हैं. कोई बहुमत की सरकार बने तो शायद इनके दिन भी फिरें वरना पाठ्य पुस्तकों के एक अध्याय के सिमट जाना ही इनकी नियति है.
-----------देवेंद्र गौतम
शोचनीय स्थिति है। भाषाएं, संस्कृतियां, सभ्यताएं विलुप्त होती जा रही हैं। यदि ऐसे ही चलता रहा तो भारतवर्ष जो अपनी सांस्कृतिक विविधता के लिए जाना जाता है, अपना यह आकर्षण खो देगा। इस सांस्कृतिक पूँजी के संरक्षण और संवर्धन की महती आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंसही मुद्दे को लेकर आपने बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! मैं झारखण्ड की हूँ और अपने राज्य की ये हालत देखकर बहुत दुःख होता है!
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
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