सरकारी सुविधाएं उठाने में निजी स्कूल हमेशा आगे रहते हैं लेकिन बच्चों और उनके अभिभावकों को किसी तरह की राहत नहीं देना चाहते. झारखंड सरकार ने सभी निजी स्कूलों को 20 फीसदी गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का निर्देश दिया था. लेकिन इसपर अभी कोई भी स्कूल अमल नहीं कर रहा है. करीब 8 वर्ष पूर्व राज्य सरकार ने निजी स्कूलों के बसों के अतिरिक्त कर में 40 फीसदी से अधिक की छूट दी थी. इस छूट के बाद बस भाड़े में बच्चों को कोई राहत नहीं दी गयी लेकिन पिछले 8 वर्षों में करोड़ों के राजस्व की बचत जरूर कर ली गयी.
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शनिवार, 30 जुलाई 2011
गुरुवार, 28 जुलाई 2011
हीरा भी है सोना भी लेकिन किस काम का
जहांगीर के शासन काल में झारखंड में एक राजा दुर्जन सिंह थे. वे हीरे के जबरदस्त पारखी हुआ करते थे. वे नदी की गहराई में पत्थर चुनने के लिए गोताखोरों को भेजते थे और उनमें से हीरा पहचान कर अलग कर लेते थे. एक बार मुग़ल सेना ने उनका राजपाट छीनकर उन्हें कैद कर लिया. जहांगीर हीरे का बहुत शौक़ीन था. एक दिन की बात है. उसके दरबार में एक जौहरी दो हीरे लेकर आया. उसने कहा कि इनमें एक असली है एक नकली. क्या उसके दरबार में कोई है जो असली नकली की पहचान कर ले. कई दरबारियों ने कोशिश की लेकिन विफल रहे. तभी एक दरबारी ने बताया कि कैदखाने में झारखंड का राजा दुर्जन सिंह हैं. उन्हें हीरे की पहचान है. वे बता देंगे. जहांगीर के आदेश पर तुरंत उन्हें दरबार में बुलाया गया. उनहोंने हीरे को देखते ही बता दिया कि कौन असली है कौन नकली. जहांगीर ने साबित करने को कहा. उनहोंने दो भेड़ मंगाए एक के सिंघ पर नकली हीरा बांधा और दूसरे के सिंघ पर असली दोनों को अलग-अलग रंग के कपडे से बांध दिया. फिर दोनों को लड़ाया गया. नकली हीरा टूट गया. असली यथावत रहा. दरबार की इज्ज़त बच गयी. जहांगीर इतना खुश हुआ कि दुर्जन सिंह तो तुरंत रिहा कर उसका राजपाट वापस लौटा दिया.
सोमवार, 25 जुलाई 2011
काले धन को मौलिक अधिकार का दर्जा दे सरकार
यदि आप विदेशी बैंकों से काले धन की वापसी की मांग करते हैं तो आप सरकार की नज़र में एक जघन्य अपराध करते हैं. आपके खिलाफ सरकार के हर विभाग को लगा दिया जायेगा. आपकी जन्म कुंडली खंगाल दी जाएगी. जबतक कांग्रेस की सरकार है न आप महंगाई के खिलाफ शोर मचाएंगे न काले धन का विरोध करेंगे. समझे आप! वरना सोचिये बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण की डिग्री की सीबीआई जांच की जरूरत क्यों पड़ी. क्या वे सरकारी नौकरी करते थे..?...किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन दिया था...?...नहीं न! अपना जड़ी-बूटी बेचते रहते. योग सिखाते रहते. कोई समस्या नहीं थी. उन्हें काले धन के चक्कर में पड़ने की क्या जरूरत थी...? वैश्वीकरण के युग में किसी ने विदेश में धन रख दिया तो क्या हुआ. सरकार से दुश्मनी..? ...अब भुगतो...श्रीमती गांधी ने आपातकाल के दौरान सत्ता का सही इस्तेमाल सिखा दिया था. क्या हुआ अगर उतनी मजबूत महिला को भी सत्ता से हाथ धोना पड़ गया. जनता सब भूल गयी. फिर उन्हें सिंहासन पर बिठा दिया.
शुक्रवार, 22 जुलाई 2011
प्रिंट मीडिया : अंध प्रतिस्पर्द्धा की भेंट चढ़ते एथिक्स
अभी मीडिया जगत की दो ख़बरें जबरदस्त चर्चा का विषय बनी हैं. पहली खबर है अंतर्राष्ट्रीय मीडिया किंग रुपर्ट मर्डोक के साम्राज्य पर मंडराता संकट और दूसरी हिंदुस्तान टाइम्स इंदौर संस्करण में लिंग परिवर्तन से संबंधित एक अपुष्ट तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट को लेकर चिकित्सा जगत में उठा बवाल. इन सबके पीछे दैनिक अख़बारों के बीच बढती प्रतिस्पर्द्धा के कारण आचार संहिता की अनदेखी की प्रवृति है. इस क्रम में एक और गंभीर बात सामने आई की मीडिया हाउसों का नेतृत्व नैतिक दृष्टिकोण से लगातार कमजोर होता जा रहा है. विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने की जगह वह हार मान लेने या अपनी जिम्मेवारी अपने मातहतों के सर मढने की और अग्रसर होता जा रहा है.
जल पंचायतों के गठन की तैयारी
रांची: झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में जल संकट से निपटने के लिए भूजल पंचायत के गठन की पहल पर विचार किया जा रहा है. इसके जरिये सिंचाई और पेयजल के लिए जल संरक्षण के कारगर उपाय किये जायेंगे. यह जल संरक्षण अभियान के तहत एक नया मॉडल तैयार करने के प्रयास का हिस्सा होगा. इस अभियान के तहत आम ग्रामीणों को जल संरक्षण और वाटर रिचार्ज के प्रति जवाबदेह बनाया जायेगा. हर राज्य के हर पंचायत में भू-जल पंचायत का गठन करने का निर्णय केंद्र सरकर ने लिया है. इस योजना में मैग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित जल पुरुष के नाम से विख्यात राजेंद्र प्रसाद सिंह अहम् भूमिका निभा रहे हैं.इसमें जल संसाधन का दुरूपयोग करने वालों पर उसके उपयोग पर रोक लगाने का अधिकार पंचायतों को दिया जाना है. जल स्रोतों की सुरक्षा पर खास तौर पर ध्यान केन्द्रित किया जायेगा.नदियों, तालाबों को बचने और सिंचाई सुविधाओं को बढ़ाना इस अभियान का मुख्य उद्देश्य होगा. झारखंड के जल संसाधन विभाग के अधिकारियों को इस संदर्भ में आवश्यक निर्देश दिए जा चुके हैं
पुलिसिया प्रताड़ना से त्रस्त एक गरीब परिवार
झारखंड की राजधानी रांची से महज 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित खेलाडी का एक गरीब यादव परिवार स्थानीय थाना के प्रभारी के जुल्मो-सितम से त्रस्त है. तीन वर्षों से भी अधिक समय से खेलाडी थाना में पदस्थापित थाना प्रभारी अरविन्द कुमार सिंह ने इस परिवार का जीना हराम कर रखा है. वे स्वयं को रांची के सीनियर एसपी का रिश्तेदार बताते हुए दावा करते हैं कि उनका कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता.
भुक्तभोगी परिवार का एक सदस्य मीनू यादव कई महीनों से लापता है. वह ट्रेकर चलता था. खेलाडी पुलिस उसे रांची के कमड़े से पूछताछ के बहाने ले गयी थी. इसके बाद उसका कोई अता-पता नहीं है. उसकी पत्नी ने इस मामले को लेकर रांची के एसएसपी तक के पास गयी लेकिन उसे डांटकर भगा दिया गया. उसने न्यायलय में शिकायत दर्ज कराई लेकिन अज्ञात दबाव में आकर उसने समझौता कर अपना कम्प्लेन वापस ले लिया. इसके बाद वह अपने एकलौते बेटे के साथ लापता है. न ससुराल वालों को उसकी कोई जानकारी है न नैहर वालों को.
इसके बाद थाना प्रभारी ने शेष दो भाइयों के परिवार पर कहर ढाना शुरू कर दिया और इसके विरुद्ध उठी आवाज़ को भी दबाने में सफल रहे. मीनू यादव के अन्य दो भाइयों की पत्नियों ने अलग-अलग तिथि में थाना प्रभारी के विरुद्ध यौन प्रताड़ना की शिकायत कोर्ट में दायर की लेकिन अज्ञात दबाव में आकर एक ही तिथि में समझौता कर अपनी शिकायत वापस ले ली. अब इस परिवार को यह समझ में नहीं आ रहा है कि वे न्याय के लिए कौन सा दरवाज़ा खटखटायें... कहां जाकर गुहार लगायें.
भैरो यादव की पत्नी गीता देवी ने कोर्ट में दिए अपने बयान में कहा था कि थाना प्रभारी २९ अक्टूबर 2010 को शाम 7 .30 बजे पूरे फ़ोर्स के साथ उसके घर पर पहुंचे और दरवाजे को धक्का देते हुए अंदर घुस गए. उसके पति संतोष यादव के बारे में पूछा और उसके घर में नहीं होने का जवाब मिलने पर उसके दोनों स्तन पकड़ लिए और खुश कर देने की मांग करने लगे. परिजनों और अन्य लोगों के जुटने पर वे इसमें सफल नहीं हो सके तो उसे रंडी कहते हुए गंदी-गंदी गलियां देने लगे और जाते-जाते उसके पति को फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की धमकी दी. उसी रात 9.30 बजे थाना प्रभारी दुबारा पहुंचे और भैरो यादव को पकड़कर ले गए हथियार की बरामदगी दिखाकर उसे नक्सली करार देते हुए जेल भेज दिया. थाना में शिकायत दर्ज होने का कोई प्रश्न ही नहीं था. लिहाज़ा उषा इसकी शिकायत लेकर रांची एसएसपी के पास गयी वहां कोई सुनवाई नहीं हुई तो कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई. इसके बाद भी कई महीने तक थाना प्रभारी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. 16 .5 .2011 को कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर रहस्यमय परिस्थितियों में उसने अपनी शिकायत वापस ले ली. रहस्यमय इसलिए भी कि दूसरे भाई संतोष यादव की पत्नी ने भी उसी तिथि को हलफनामा दायर कर समझौता किया था.
संतोष यादव की पत्नी उषा देवी की शिकायत के मुताबिक 1 नवम्बर 2010 की शाम थाना प्रभारी उसके घर पहुंचे और जबरन घर में घुसकर उसके पति को ढूँढने लगे.
उसके नहीं मिलने पर पर उसे गंदी-गंदी गलियां देते हुए उसके गुप्तांग में गोली मारकर मुंह से निकालने की साथ ही पति का इनकाउन्टर करने की धमकी देने लगे. उषा देवी ने भी न्यायालय की शरण ली और 16 मई 2011 को अपनी गोतनी के साथ ही शिकायत वापस ले ली.
थाना प्रभारी के इस व्यवहार के पीछे एक उद्योगपति और पुलिस के एक वरीय अधिकारी के बीच का गुप्त डील होने की आशंका व्यक्त की जा रही है. इस परिवार की ज़मीन एसीसी सीमेंट कारखाने की स्थापना के वक़्त लीज़ पर ली गई थी. लीज़ की अवधि ख़त्म हो चुकी है. कम्पनी को उसे वापस लौटना या लीज़ का नवीकरण कराना था. ज़मीन संबंधी कागज़ मीनू यादव के पास रहता था. अब मीनू के लापता होने के बाद कागजात भी लापता हैं. सम्भावना व्यक्द्त की जा रही है कि ज़मीन हड़पने के लिए पुलिस को मैनेज कर यह सारा खेल उद्योगपति के इशारे पर हो रहा है. पीड़ित परिवार ने रांची के जोनल आइजी को एक आवेदन देकर मामले की जांच करने और थाना प्रभारी के जुल्मो-सितम से बचने की गुहार लगाई है.
---देवेंद्र गौतम
रविवार, 17 जुलाई 2011
क्या सचमुच यह कोई खबर थी?
मुंबई सीरियल ब्लास्ट के बाद झारखंड के अख़बारों ने मुख्यपृष्ठ पर सचित्र खबर छापकर एक नया रहस्योद्घाटन किया. खबर यह थी कि जब मुंबई में सीरियल ब्लास्ट हो रहे तो रांची के सांसद और केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय दिल्ली के एक फैशन शो में मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत कर रहे थे. यह शो एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने आयोजित किया था. इसे सनसनीखेज़ बनाने के लिए सुबोधकांत सहाय की तसवीर को अलग से घेर दिया गया था ताकि सनद रहे कि यह तसवीर केंद्रीय मंत्री की ही है और मीडिया की तीखी नज़र ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ा है. क्या सचमुच यह कोई रहस्य या खबर थी. जब ख़ुफ़िया एजेंसियों या मुंबई पुलिस को यह जानकारी नहीं थी कि सीरियल ब्लास्ट होनेवाले हैं तो भला केंद्रीय पर्यटन मंत्री को दिल्ली में बैठकर यह जानकारी कैसे हो सकती थी कि मुंबई पर आतंकी हमला होने जा रहा है और उन्हें फैशन शो में नहीं जाना चाहिए था. सीरियल ब्लास्ट के समय कौन-कौन से महत्वपूर्ण व्यक्ति कहां-कहां थे इसकी पड़ताल की जाये तो अखबार का एक विशेष बुलेटिन ही निकाला जा सकता है लेकिन पाठकों को माथापच्ची करनी पड़ जाएगी कि मीडिया के लोग इसके जरिये कहना क्या चाहते हैं? न तो फैशन शो का आयोजन करना प्रतिबंधित है और न ही उसमें शिरकत करना गैरकानूनी. यह कोई अनैतिक कारोबार भी नहीं है. कोई मनोरंजन का आयोजन भी नहीं. फैशन की दुनिया के नए ट्रेंड का प्रदर्शन मात्र. लिहाजा मंत्री का किसी फैशन शो का मुख्य अतिथि बनना कोई हैरत की बात तो नहीं. बिना मतलब बात का बतंगड़ बनाना कहां की पत्रकारिता है. मात्र कीचड उछालना या सनसनी फैलाना स्वस्थ पत्रकारिता का परिचायक नहीं है. इससे परहेज़ किया जाना चाहिए.
----देवेंद्र गौतम
सोमवार, 11 जुलाई 2011
झारखंड: विलुप्त हो चली हैं ये आदिम जनजातियां
झारखंड के अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आये 11 साल हो गए. इस बीच जितनी भी सरकारें बनीं उनमें मुख्यमंत्री का पद आदिवासियों के लिए अघोषित रूप से आरक्षित रखा गया. लेकिन सरकार की कृपादृष्टि उन्हीं जजतियों की और रही जो वोट बैंक बनने की हैसियत रखते थे. झारखंड की उन नौ आदिम जनजातियों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया जिनका अस्तित्व आज खतरे में है. उनकी जनसंख्या में ह्रास होता जा रहा है. मृत्यु दर में वृद्धि और जन्म दर में कमी के कारण ऐसा हो रहा है. भूख, कुपोषण और संक्रामक रोगों के कारण उनके यहां अकाल मौत के साये मंडराते रहते हैं. अशिक्षा, गरीबी और रोजगार के अवसरों का अभाव उनकी नियति बन चुकी है. वे आज भी जंगलों पहाड़ों के बीच पर्णकुटी बनाकर आदिम युग की मान्यताओं के बीच रह रहे हैं. भूत-प्रेत, ओझा-डायन बिसाही में अभी भी उनका गहरा विश्वास है. बीमार होने पर वे अस्पताल में नहीं बल्कि अपने इलाके के ओझा-सोखा की शरण में जाते हैं.
उनके इलाके में टीबी, मलेरिया, डायरिया, हैजा, कुष्ठ आदि रोगों का भीषण प्रकोप है. यह कोई नयी परिघटना नहीं है. झारखंड के मानवशास्त्री कई दशकों से उनके अस्तित्व पर मंडराते खतरे के प्रति आगाह करते आ रहे हैं. उनके संरक्षण के लिए हर बजट में अरबों की राशि का प्रावधान किया जाता है. कई कल्याणकारी योजनायें चलाई जाती हैं लेकिन उनतक पहुंचते-पहुंचते सुविधाएं इतनी संकुचित हो जाती हैं कि उन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाता. झारखंड राज्य के गठन के बाद भी इन्हें कोई लाभ नहीं हुआ. आदिवासी मुख्यमंत्री का मिथक तो इनके नाम पर रचा गया लेकिन लाभ आदिवासियों की सामाजिक आर्थिक रूप से विकसित जातियों के मलाईदार तबके ने उठाया.
2001 की जनगणना के मुताबिक हिल पहाड़िया जनजाति की कुल आबादी मात्र 1625 रह गयी है. सावर पहाड़िया 9946 की संख्या में है. असुर, विरिजिया और विरहोर जाति की भी यही हालत है. उनकी आबादी चार अंकों में ही सिमटी है. कोरवा, माल पहाड़िया, पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया आदि की आबादी जरूर पांच अंकों में है लेकिन उसमें तेजी से गिरावट आ रही है.इन नौ जनजातियों की कुल आबादी एक लाख 94 हजार आंकी जाती है. विडंबना यह है कि इन जातियों के लोग 50 वर्ष की आयु भी पार नहीं कर पाते. संतुलित आहार के अभाव में कुपोषण का शिकार हो जाते हैं. इनकी उत्पादन क्षमता में भी काफी कमी आ गयी है. सुरक्षित प्रसूति की सुविधा नहीं होने के कारण गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की मौत भी आम बात है.
असुर जनजाति के लोग गुमला और दुमका जिले में निवास करते हैं. लौह अयस्क से लोहा बनाना उनकी आजीविका का पारंपरिक साधन रहा है. लोहे के औजार बनाने में इस जनजाति को महारत हासिल है. लेकिन उनके उत्पाद के खरीदार कम रह गए हैं. छोटे किसान भी बड़े कारखानों में निर्मित औजार खरीदना पसंद करते हैं. नतीजतन पुश्तैनी धंधे से उनका पेट नहीं भर पता. खेती लायक ज़मीन भी इनके पास नाममात्र की है.दैनिक मजदूरी का मिल गयी तोदो जून की रोटी का जुगाड़ हुआ वर्ना फाकाकशी के अलावा रास्ता नहीं. सरकार चाहती तो उन्हें पारंपरिक कौशल के उत्पाद तैयार करने के लिए आवश्यक सुविधाए प्रदान कर उनके लिए बाजार उपलब्ध कराती लेकिन वे कोई वोट बैंक तो नहीं कि उनकी चिंता की जाये. बिरिजिया जनजाति के लोग लोहरदगा, गुमला और लातेहार के इलाकों में पाए जाते हैं. बिरहोर जनजाति के लोग सूबे के विभिन्न जिलों के पहाड़ों जंगलों के आसपास छोटे-छोटे समूहों में रहते हैं. यह शिकारी श्रेणी की जनजाति है. जंगली जानवरों का शिकार करना इनका पुश्तैनी व्यवसाय रहा है. रस्सी बुनने कि कला भी इन्हें विरासत में मिली है. इनके उत्थान के लिए कई योजनायें बनीं लेकिन इनकी जगह नौकरशाहों और दलालों का उत्थान हुआ. पहाड़िया जनजाति संथाल परगना के इलाकों में रहती है. यह आज भी टोने-टोटके के आदिम विश्वास के बीच जीती है. इनमें शिक्षा का घोर अभाव है.
विलुप्ति के कगार पर खड़ी इन जनजातियों के पुनर्वास के लिए राज्य गठन के बाद बिरसा मुंडा आवास योजना के तहत १२,५३६ आवास बनाने का निर्णय हुआ था लेकिन यह योजना अभी तक अधूरी है. लकड़ी तस्कर और जंगल माफिया उनका भरपूर शोषण करते हैं लेकिन सरकारी तंत्र शोषकों के ही साथ खड़ा रहता है. विश्व के सभी देशों में मानव आबादी बढ़ रही है लेकिन झारखंड में कुछ जजतियां विलुप्ति का संकट झेल रही हैं. यही विडंबना है.
झारखंड में अबतक की बनी सरकारें कुर्सी की बाधा दौड़ में ही उलझी रही हैं. कोई बहुमत की सरकार बने तो शायद इनके दिन भी फिरें वरना पाठ्य पुस्तकों के एक अध्याय के सिमट जाना ही इनकी नियति है.
-----------देवेंद्र गौतम
उनके इलाके में टीबी, मलेरिया, डायरिया, हैजा, कुष्ठ आदि रोगों का भीषण प्रकोप है. यह कोई नयी परिघटना नहीं है. झारखंड के मानवशास्त्री कई दशकों से उनके अस्तित्व पर मंडराते खतरे के प्रति आगाह करते आ रहे हैं. उनके संरक्षण के लिए हर बजट में अरबों की राशि का प्रावधान किया जाता है. कई कल्याणकारी योजनायें चलाई जाती हैं लेकिन उनतक पहुंचते-पहुंचते सुविधाएं इतनी संकुचित हो जाती हैं कि उन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाता. झारखंड राज्य के गठन के बाद भी इन्हें कोई लाभ नहीं हुआ. आदिवासी मुख्यमंत्री का मिथक तो इनके नाम पर रचा गया लेकिन लाभ आदिवासियों की सामाजिक आर्थिक रूप से विकसित जातियों के मलाईदार तबके ने उठाया.
2001 की जनगणना के मुताबिक हिल पहाड़िया जनजाति की कुल आबादी मात्र 1625 रह गयी है. सावर पहाड़िया 9946 की संख्या में है. असुर, विरिजिया और विरहोर जाति की भी यही हालत है. उनकी आबादी चार अंकों में ही सिमटी है. कोरवा, माल पहाड़िया, पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया आदि की आबादी जरूर पांच अंकों में है लेकिन उसमें तेजी से गिरावट आ रही है.इन नौ जनजातियों की कुल आबादी एक लाख 94 हजार आंकी जाती है. विडंबना यह है कि इन जातियों के लोग 50 वर्ष की आयु भी पार नहीं कर पाते. संतुलित आहार के अभाव में कुपोषण का शिकार हो जाते हैं. इनकी उत्पादन क्षमता में भी काफी कमी आ गयी है. सुरक्षित प्रसूति की सुविधा नहीं होने के कारण गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की मौत भी आम बात है.
असुर जनजाति के लोग गुमला और दुमका जिले में निवास करते हैं. लौह अयस्क से लोहा बनाना उनकी आजीविका का पारंपरिक साधन रहा है. लोहे के औजार बनाने में इस जनजाति को महारत हासिल है. लेकिन उनके उत्पाद के खरीदार कम रह गए हैं. छोटे किसान भी बड़े कारखानों में निर्मित औजार खरीदना पसंद करते हैं. नतीजतन पुश्तैनी धंधे से उनका पेट नहीं भर पता. खेती लायक ज़मीन भी इनके पास नाममात्र की है.दैनिक मजदूरी का मिल गयी तोदो जून की रोटी का जुगाड़ हुआ वर्ना फाकाकशी के अलावा रास्ता नहीं. सरकार चाहती तो उन्हें पारंपरिक कौशल के उत्पाद तैयार करने के लिए आवश्यक सुविधाए प्रदान कर उनके लिए बाजार उपलब्ध कराती लेकिन वे कोई वोट बैंक तो नहीं कि उनकी चिंता की जाये. बिरिजिया जनजाति के लोग लोहरदगा, गुमला और लातेहार के इलाकों में पाए जाते हैं. बिरहोर जनजाति के लोग सूबे के विभिन्न जिलों के पहाड़ों जंगलों के आसपास छोटे-छोटे समूहों में रहते हैं. यह शिकारी श्रेणी की जनजाति है. जंगली जानवरों का शिकार करना इनका पुश्तैनी व्यवसाय रहा है. रस्सी बुनने कि कला भी इन्हें विरासत में मिली है. इनके उत्थान के लिए कई योजनायें बनीं लेकिन इनकी जगह नौकरशाहों और दलालों का उत्थान हुआ. पहाड़िया जनजाति संथाल परगना के इलाकों में रहती है. यह आज भी टोने-टोटके के आदिम विश्वास के बीच जीती है. इनमें शिक्षा का घोर अभाव है.
विलुप्ति के कगार पर खड़ी इन जनजातियों के पुनर्वास के लिए राज्य गठन के बाद बिरसा मुंडा आवास योजना के तहत १२,५३६ आवास बनाने का निर्णय हुआ था लेकिन यह योजना अभी तक अधूरी है. लकड़ी तस्कर और जंगल माफिया उनका भरपूर शोषण करते हैं लेकिन सरकारी तंत्र शोषकों के ही साथ खड़ा रहता है. विश्व के सभी देशों में मानव आबादी बढ़ रही है लेकिन झारखंड में कुछ जजतियां विलुप्ति का संकट झेल रही हैं. यही विडंबना है.
झारखंड में अबतक की बनी सरकारें कुर्सी की बाधा दौड़ में ही उलझी रही हैं. कोई बहुमत की सरकार बने तो शायद इनके दिन भी फिरें वरना पाठ्य पुस्तकों के एक अध्याय के सिमट जाना ही इनकी नियति है.
-----------देवेंद्र गौतम
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