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शनिवार, 28 जुलाई 2012

इस शहर में हर शख्स परेशां सा क्यूँ है



'अपना बिहार' दोड़े जा रहा है विकास की पटरी पर...बड़े-बड़े दावे ....बड़ी-बड़ी बातें...खूब बड़े आंकडे .....सब कहते है विकास हो रहा है...मै भी गर्व से भर जाती हूँ...अकड़ जाती है गर्दन...पर जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो वही बेहाल, परेशां, बेचारे से लोग नज़र आते है....जिनसे उनका हक छीन लिया गया है....आबोहवा के बदलने का अहसास तो है पर कहानी अब भी यही है कि धनबल, बाहुबल या ऊँची पहुँचवाले ही 'सस्टेन' कर सकते है ....आप ये न समझना कि मै यूँ ही आंय- बांय बके जा रही हूँ ...हमारे घर में एक पत्रकार, एक वकील है (और मै कलाकार हूँ ही)...इनके पास जिस तरह के 'केसेज' आते है वह चकित कर देनेवाला होता है.....बहुत छोटे स्तर से ही अफसरशाही, पुलिस और दबंगों की दबंगई शुरू हो जाती है...जनता हलकान होती है, यहाँ-वहां भागती फिरती है और 'इनकी' मौज होती है,,,जरा बानगी देखिए


१. एक शिक्षक की जमीन पर इलाके के 'दबंग' ने कब्ज़ा कर लिया...प्राथमिकी दर्ज करने गए शिक्षक को थानेदार ने भगा दिया...धमकी भी दी कि ज्यादा तेज़ बनोगे तो झूठे मुक़दमे में 'अन्दर' कर देंगे......अदालत की शरण ली गयी....मामला अभी कोर्ट में चल ही रहा था की 'दबंग' ने उस पर मकान बनवाना शुरू कर दिया..... एस.डी. ओ. ने धरा १४४ लगाया..थानेदार ने मानने से इनकार कर दिया.....

२. हाल में हुई शिक्षक नियुक्ति में नियोजित हुए एक मेधावी युवक का वेतन बिना किसी कारण के रोक दिया गया...उसका नाम भी लिस्ट से गायब हो गया,,,उसकी जगह किसी और की बहाली हो गयी...युवक, अफसरों के पास खूब दौड़ा....गिड़गिड़ाया ...पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी...अंततः वह हाई कोर्ट, पटना गया.. वहा उसके पक्ष में फैसला हुआ....पर शिक्षा विभाग ने उस फैसले को मानने से इनकार (?) कर दिया .....है न हैरान करनेवाली बात!

३. 'आंगनबाड़ी सेविका' पद के लिए आवेदन माँगा गया...नियुक्ति उसकी की गयी जिसका प्राप्तांक कम था ( aakhir kyun, जरा sochiye) अधिक प्राप्तांक वाली विवाहिता को बताया गया कि चूँकि ये पद सरकारी है और उनका देवर सरकारी पद (शिक्षा मित्र) पर है इसलिए उनकी नियुक्ति नहीं हो सकती....आर . टी .आई. के तहत जानकारी मांगने पर पता चला कि उक्त पद सरकारी नहीं है....

क्या कहेंगे इसे? विकास? सुशासन? खुशहाली? ..ये तो हमारी नज़रों में आ गए पर ऐसी न जाने कितनी  घटनाएँ है....ये बाते गाँव की है इसलिए  इनपर शोर भी नहीं होता...ये ख़बरें मीडिया के भी किसी काम की नहीं ...आपको भी ये बाते छोटी लग रही होंगी जो आस-पास बिखरी पड़ी रहती है ....पर इन बातो से ही 'विकास; की बाते बेमानी लगने लगती है.....

'डायन' : औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका


वे बचपन के दिन थे ....मोहल्ले में दो बच्चों की मौत होने के बाद  काना-फूसी शुरू हो गयी और एक बूढी विधवा को 'डायन' करार दिया गया...हम उन्हें प्यार से 'दादी' कहा करते थे...लोगो की ये बाते हम बच्चों तक भी पहुची और हमारी प्यारी- दुलारी दादी एक  'भयानक डर' में तब्दील हो गयी... उनके घर के पास से हम दौड़ते हुए निकलते कि वो पकड़ न ले...उनके बुलाने पर भी पास नहीं जाते ...उनके परिवार को अप्रत्यक्ष तौर पर बहिष्कृत कर दिया गया ....आज सोचती हूँ तो लगता है कि हमारे बदले व्यवहार ने उन्हें कितनी 'चोटे' दी होंगी ...और ये सब इसलिए कि हमारी मानसिकता सड़ी हुई थी....जबकि हमारा मोहल्ला बौद्धिक (?) तौर पर परिष्कृत (?) लोगो का था ..!

वक़्त बीता ..हालात बदले....पर डायन कहे जाने की यातना से स्त्री को आज भी मुक्ति नहीं मिली है.... अखबार की इन कतरनों को देखिए ...बिहार के एक दैनिक समाचार-पत्र में इसी माह की 7 से 12 तारीख के बीच, ऐसी चार खबरे छपी....यानी की छह दिनों में चार बार ऐसी घटना हुई .....जिनमे से दो में 'हत्या' कर दी गयी ....पर इससे ये कतई न सोचे कि बिहार में ही ऐसी अमानवीय  प्रथाएं हैं... ये बेशर्मी यही  तक ही सीमित नहीं...संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2003 में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 1987 से लेकर 2003 तक, 2 हजार 556 महिलाओं को डायन कह कर मार दिया गया ..... एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में 2008-2010 के बीच डायन कहकर 528 औरतों की हत्या की गयी .....क्या ये आंकडे चौकाने के लिए काफी नहीं कि मात्र एक अन्धविश्वास के कारण इतनी हत्याएं कर दी  गयी??? ....राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक भारत में विभिन्न प्रदेशों के पचास से अधिक जिलों में डायन प्रथा सबसे ज्यादा फैली हुई है ...मीडिया के कारण (भले ये उनके लिए महज टी. आर. पी. या सर्कुलेशन बढ़ने का तमाशा मात्र हो) कुछ घटनाये तो सामने आ जाती है पर कई ऐसी कहानिया दबकर रह जाती होंगी ...बेशक ये बाते आपके-हमारे बिलकुल करीब की नहीं .....गाव-कस्बो की है...किसी खास समुदाय या वर्ग की है पर सिर्फ इससे, आपकी-हमारी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती ...

ध्यान दे, ये महज़ खबरे नहीं, जिन्हें एक नज़र देखकर आप निकल जाते है....इनमे एक स्त्री की 'चीख' है...उसका 'रुदन' है.... उसकी 'अस्मिता' के तार-तार किये जाने की कहानी है ...अन्धविश्वास का भवर जिसका सबकुछ डुबो देता है .....और हमारा समाज इसे 'डायन' कहकर खुश हो लेता है ....

'डायन'....क्या इसे महज अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीति मान लिया जाये या औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका...आखिर डायन किसी स्त्री को ही क्यूँ कहा जाता है?? क्यूँ कुएं के पानी के सूख जाने, तबीयत ख़राब होने या मृत्यु का सीधा आरोप उसपर ही मढ़ दिया जाता है?? असल मैं औरते अत्यंत सहज, सुलभ शिकार होती है क्यूंकि या तो वो विधवा, एकल, परित्यक्ता, गरीब,बीमार, उम्रदराज होती है या पिछड़े वर्ग, आदिवासी या दलित समुदाय से आती है.... जिनकी जमीन, जायदाद आसानी से हडपी जा सकती है... ये औरते मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से इतनी कमजोर होती है कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार की शिकायत भी नहीं कर पाती.... पुलिस भी अधिकतर मामलों में मामूली धारा लगाकर खानापूर्ति कर लेती है...हैरानी होती है कि लगभग हर गाँव या कस्बे में किसी न किसी औरत को 'डायन' घोषित कर दिया जाता है... मैंने कही नहीं देखा कि कभी किसी पुरूष को डायन कहा गया हो...या इस आधार पर उसकी ह्त्या कर दी गयी हो..... क्यूंकि ऐसे में अहम् की संतुष्टि कहा हो पाएगी... और यह बात कहने-सुनने तक ही कहा सीमित होती है....जब भीड़ की 'पशुता' अपनी चरम पर पहुचती है तब डायन कही जानेवाली औरत के कपडे फाड़ दिए जाते है...तप्त सलाखों से उन्हें दागा जाता है...मैला पिलाया जाता है...लात-घूसों, लाठी-डंडों की बौछारें की जाती है ...नोचा-खसोटा जाता है और इतने पर मन न माने तो उसकी हत्या कर दी जाती है....उनमे से कोई अगर बच भी जाये तो मन और आत्मा पर पर लगे घाव उसे चैन से कहा जीने देते है...'आत्महत्या' ही उनका एकमात्र सहारा बन जाता है ....

औरतों पर अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ घिनौने अपराधों को लेकर अक्सर आवाज़ उठाई जाती है..... लेकिन ऐसी घटनाये हमें हमारा असली चेहरा दिखाती है..हम स्वयं को सभ्य कहते और मानते है पर इनमे हमारा खौफनाक 'आदिम' रूप ही दीखता हैं ....हमने इसकी आदत बना ली है और ये शर्मनाक हैं....पर हम भी, पूरे बेशर्म है !

-----स्वयम्बरा

रविवार, 24 जून 2012

देश को रसातल में ले जाने की तैयारी


आज के एक अखबार की लीड खबर का शीर्षक है 'कड़े तेवर दिखायेंगे पीएम'. उप शीर्षक है 'पेट्रोल सस्ता कर डीजल महंगा करने की तैयारी' 
संप्रंग सर्कार कठोर फैसले लेने का यह बेहतर मौका मान रही है. अर्थात वह हमेशा ऐसे लेने के लिए मौके की ताक में रहती है जिससे आम आदमी का जीवन और कष्टमय हो जाए. उस आम आदमी का जिसके लिए प्रतिदिन 28  रुपये के खर्च करने की क्षमता को काफी मान रही है यह सरकार. क्योंकि इसी में आबादी के उस हिस्से की भलाई है जिसके बाथरूम की मरम्मत के लिए 35  लाख रुपये भी कम पड़ते हैं. देश का एक बच्चा भी जानता है की तमाम जिंसों की ढुलाई डीजल चालित वाहनों से होता है. डीजल को महंगा करने से उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें कैसे कम होंगी कम से कम हमारे जैसे मंद बुद्धि के लोगों की समझ से बाहर है. पीएम अर्थशास्त्री हैं. हो सकता है उनके अर्थशास्त्र में ऐसा कोई गणित हो. या फिर यह भी हो सकता है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का यह सिद्धांत कि अपने चरम पर पहुंचकर हर चीज विलीन हो जाती है काम कर रहा हो. सरकार को यकीन हो कि महंगाई को उसके चरम तक पहुंचा दो वह खुद ही ख़त्म हो जायेगी.
पेट्रोल की कीमत घटने से एलिट क्लास के उन लोगों को राहत मिलेगी.जिनके पास धन है. जिनकी क्रयशक्ति बेहतर है. लेकिन डीजल की कीमत बढ़ने पर निम्न मध्यवर्ग और मजदूर-किसान यानी हर वर्ग के लोग प्रभावित होंगे. इसी तरह रसोई गैस की राशनिंग जैसे कड़े कदम उठाने की तैयारी हो रही है. बाकी कड़े फैसले भी जनता पर कहर ढानेवाले ही हैं. अब भारत की जनता पांच वर्ष के लिए सत्ता की बागडोर थमाने की भूल कर ही बैठी है तो भुगतना तो उसी को पड़ेगा. इसलिए जनाब! आप चिंता मत कीजिये. जो मर्जी हो कर लीजिये. पूरी आबादी का गला घोंट दीजिये. लेकिन भगवान के लिए कुछ तो शर्म कीजिये आखिर आप 2014  में जनता को क्या मुंह दिखायेंगे.  

----देवेंद्र गौतम  

सोमवार, 4 जून 2012

एक खुला पत्र....... मौन मोहन बाबू के नाम !


माननीय मौन मोहन बाबू!
मैं  अपने आप को आपसे खरी-खोटी बात करने से रोक नहीं पा रहा हूं. जानता हूं कि आपसे सीधा संवाद संभव नहीं है. लेकिन यह भी पता है कि आपके सूचनादाता मेरे संवाद की सूचना आप तक जरूर पहुंचा देंगे.
आपके लिए मेरे मन में काफी श्रद्धा रही है. इटली लॉबी का विजिटिंग कार्ड बनने के लिए नहीं बल्कि एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री होने के अफवाह के कारण. हां! इसे अफवाह नहीं तो और क्या कहेंगे. जब अपने ज्ञान का लाभ देश को पहुंचाने का अवसर मिला तो आपने उसे रसातल में पहुंचा दिया. कीमतें बढ़ाते गए और सांत्वना  देते रहे कि यह देश की भलाई के लिए है. लोगों को भूखे मार कर देश का कौन सा भला करना चाहते हैं आप? कीमत बढ़ाने के एक-दो रोज पहले कहते हैं कि कुछ कड़े फैसले लेने होंगे. यह भी कहते हैं कि आप कुछ कर नहीं सकते सबकुछ बाजार तय करता है. फिर हुजूर आप बाज़ार के स्पोक्समेन क्यों बन जाते हैं और जब आपका इन्द्रासन हिलने लगता है तो बाज़ार वाले आपकी बात मान कर थोड़ी कीमत घटा कैसे देते हैं? किसे बेवकूफ बना रहे हैं आप? मेरी नाराजगी का कारण हालांकि यह भी नहीं है. इसलिए कि आप ऐसे लोगों की कठपुतली बन गए हैं जिन्हें इस देश के लोगों से कुछ लेना-देना ही नहीं है. जिनका एकमात्र मकसद देश को लूटकर विदेश में धन जमा करना भर है. दुःख इस बात का है इतने बड़े विद्वान होने के बाद भी आपके अंदर रत्ती भर भी आत्मसम्मान नहीं है. आपके सामने आप ही के लोग एक गधे को आपकी कुर्सी पर बिठाने की मांग करते हैं और आप मौनी बाबा बने रहते हैं. डूब मरिये चुल्लू भर पानी में. अब जनता ने आपको और आपको रिमोट से नचाने वालों को कुर्सी सौंपने की गलती कर बैठी है तो गलती की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी. आपलोग भी जबतक कुर्सी है अपने जलवे जितना दिखा सकते हैं दिखा ही लीजिये क्योंकि आप काफी कड़े फैसले ले चुके अब जनता आपके संबंध में कुछ कड़े फैसले लेने के लिए उचित समय का इंतज़ार कर रही है. फिर आपमें से कुछ सड़क पर नज़र आयेंगे और कुछ रातों-रात फरार होकर  अपने विदेशी खातों से लूट का धन निकालते हुए.ताकि जीवन को नए सिरे से शुरू किया जा सके.
फिलहाल इतना ही ईश्वर आपको सुबुद्धि दे और आत्मसम्मान की भावना प्रदान करे. आप मौन मोहन से वाचाल मोहन बनें.
इसी प्रार्थना के साथ.......

-----देवेंद्र गौतम



शनिवार, 2 जून 2012

खून-खराबे के एक नए दौर की आशंका



संदर्भ बरमेश्वर मुखिया हत्याकांड 

 बरमेश्वर मुखिया की हत्या के बाद उनके समर्थकों ने आरा समेत बिहार के विभिन्न इलाकों में जो उत्पात मचाया वह महज़ अपने नेता की हत्या के विरुद्ध उपजा आक्रोश भर नहीं था बल्कि उस जातीय उन्माद के जहर की अभिव्यक्ति थी जिसे मुखिया जी ने 90  के दशक के दौरान भरा था. उनका उद्देश्य सिर्फ शक्ति प्रदर्शन और प्रशासन को उसकी बेचारगी का अहसास कराना भर था. सरकार चाहे जिसकी रही हो इस सेना के हिमायती उसके अंदर मौजूद रहे हैं. नक्सल विरोध के नाम पर इसे सत्ता का सहयोग परोक्ष रूप से मिलता रहा है. यही कारण है कि इस घटना के विरुद्ध कानून-व्यवस्था को धत्ता बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी. साथ ही अन्य जातियों खासतौर पर दलितों और पिछड़ों को यह सन्देश दिया गया कि मुखिया जी की हत्या से वे कमजोर नहीं पड़े हैं उनके तेवर बरक़रार हैं. फासीवादी ताकतों का प्रदर्शन इसी तरह का होता है. यह राजनीति की ठाकरे शैली है. महाराष्ट्र में शिव सैनिकों के सामने सरकारी तंत्र इसी तरह लाचार दिखता है.
इस हत्याकांड में कई सवाल अनुत्तरित हैं. सूचनाओं के मुताबिक मुखिया जी पूजा-पाठ कर सुबह छः-सात बजे घर से निकला करते थे. हत्या के दिन वे चार बजे क्यों निकले और हत्यारों को इस बात की भनक कैसे मिली कि वे चार बजे सुबह टहलने के लिए निकलेंगे? यह जानकारी तो उनके बहुत करीबी लोगों को ही हो सकती है.
दूसरी बात यह कि मुखिया समर्थकों की सरकारी नुमाइंदों के प्रति नाराजगी और धक्का-मुक्की का कारण तो समझ में आता है लेकिन अपनी ही विरादरी के दो विधायकों के साथ दुर्व्यवहार क्यों किया. वे आपराधिक पृष्ठभूमि के जरूर थे लेकिन रणवीर सेना के करीबी लोगों में गिने जाते थे. अगर उन्हें उनपर हत्या की साजिश में शामिल होने का संदेह था तो आमजन और सार्वजानिक संपत्ति पर गुस्सा उतारने का क्या कारण था. निश्चित रूप से रणवीर सेना में दरार पड़ चुकी है और इसके दो घड़ों के बीच कार्यपद्धति को लेकर अंतर्विरोध था जो मुखिया जी के जेल से निकलने के बाद वर्चस्व की लड़ाई में परिणत हो गया. एक घड़ा उस रास्ते पर चलना चाहता है जिसपर मुखिया जी चलते रहे हैं और दूसरा घड़ा वह जो उस रास्ते पर चलना चाहता है जिसपर मुखिया जी के जेल जाने और नक्सलियों के साथ संघर्ष में ठहराव के बाद वह चलता रहा है. मुखिया जी की हत्या इन दो धाराओं के बीच टकराव का ही परिणाम प्रतीत होती है. संभव है आने वाले समय में इस टकराव के कारण भोजपुर की धरती पर खून-खराबे का एक नया दौर शुरू हो जाये.

----देवेंद्र गौतम

(बरमेश्वर मुखिया के सम्बन्ध में और जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंक क्लिक करें)


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शुक्रवार, 1 जून 2012

अप्रत्याशित नहीं है रणवीर सेना के संस्थापक की हत्या

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भोजपुर जिला मुख्यालय आरा में तडके सुबह रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद पूरे बिहार में तनाव की स्थिति बनी हुई है. हांलाकि नक्सली संगठनों और निजी सेनाओं के बीच कई दशकों के खूनी संघर्ष और जनसंहारों की फेहरिश्त की जानकारी रखने वालों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. उन्हें जमानत पर रिहा कराये जाने के साथ ही  उनकी हत्या की आशंका व्यक्त की जाने लगी थी. वास्तविकता यह है कि समय के अंतराल में रणवीर सेना का स्वरूप, उसकी प्राथमिकतायें पूरी तरह बदल चुकी हैं और अब मुखिया जी इसके लिए अप्रासंगिक हो चुके थे. उनके व्यक्तिगत समर्थकों की जरूर एक बड़ी संख्या है लेकिन संगठन को अब उनकी जरूरत नहीं रह गयी थी. 
अब रणवीर सेना और नक्सली संगठनों की लड़ाई में ठहराव सा आ गया है. नरसंहारों का सिलसिला थम सा गया है. ऐसे संकेत मिले हैं कि रणवीर सेना अपने आर्थिक स्रोतों की रक्षा और हथियारबंद लड़ाकों की उपयोगिता को बरकरार रखने के लिए हिन्दू आतंकवादी संगठन में परिणत हो चुकी है. यह बदलाव मुखिया जी के जेल में बंद होने के बाद का है. सेना का नेतृत्व करोड़ों की उगाही के जायज-नाजायज स्रोतों को किसी कीमत पर हाथ से नहीं निकलने दे सकता था. अब इस बात की आशंका थी कि मुखिया जी कहीं उसमें हिस्सा न मांग बैठें. संगठन के वर्तमान कार्यक्रमों में हस्तक्षेप न करें. 80 के करीब पहुंच चुके मुखिया जी सेना के अंदर और बाहर कई लोगों की आंख की किरकिरी बने हुए थे. हत्या की सीबीआई जांच की मांग हो रही है. जांच के बाद संभव है कि उनकी हत्या के रहस्यों का खुलासा हो जाये.  

----देवेंद्र गौतम  

बुधवार, 30 मई 2012

झारखंड जन संस्कृति मंच का सृजनोत्सव

रांची के पटेल भवन में 26 से 28 मई 2012 तक आयोजित  झारखंड जन संस्कृति मंच के तीसरे राज्य सम्मलेन में सामूहिकता की भावना पर पूंजी, बाज़ार और सरकार के हमले को चिंता का मुख्य विषय माना गया. साथ ही जन संघर्षों को केंद्रित कर संस्कृतिकर्म को नई ऊंचाइयों तक ले जाने के संकल्प सहित छः सूत्री प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किये गए. इस तीन दिवसीय कार्यक्रम को राष्ट्रीय सृजनोत्सव का नाम दिया गया. कार्यक्रम स्थल को डा रामदयाल मुंडा सभागार तथा मंच को गुरुशरण सिंह मंच का नाम दिया गया. इस तरह यह आयोजन आदिवासी और जनसंस्कृति के नायकों के नाम समर्पित रहा. इसमें झारखंड के विभिन्न जिलों के अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश,छत्तीसगढ़. पश्चिम बंगाल, दिल्ली आदि कई राज्यों के प्रतिनिधियों और सांस्कृतिक टीमों ने शिरकत की. 
26 मई को उद्घाटन सत्र से लेकर कार्यक्रम के समापन की बेला तक मौजूदा समय में पूंजीवाद के हथकंडों और उनके कारण मनुष्यता पर मंडराते खतरे को चिन्हित कर उसके विरुद्ध सांस्कृतिक प्रतिरोध की जरूरत पर चर्चा की गयी. इस बात  पर गंभीर चिंता व्यक्त की गयी कि प्रकृति के साथ साहचर्य और सामूहिकता की आदिवासी संस्कृति को उजाड़ने की कोशिशें हो रही हैं, उन्हें लूट और दमन का शिकार बनाया जा रहा है. उदघाटन सत्र के दौरान हिंदी के प्रख्यात आलोचक एवं जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. मैनेजर पाण्डेय ने ग्रीन हंट को ट्रायबल हंट करार दिया. उनके अनुसार सृजन अथवा निर्माण का काम मजदूर, किसान, आदिवासी, दलित यानी साधारण लोग करते हैं जबकि विनाश का काम बड़े लोग करते हैं. मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र जल, जंगल, ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट की ओर केंद्रित है. प्रकृतिपुत्र आदिवासी इसका तीव्र प्रतिरोध करते हैं इसलिए उन्हें उजाड़ने का अभियान चलाया जा रहा है.इसके खिलाफ संस्कृतिकर्मियों को आगे आना होगा. लेकिन संस्कृतिकर्म के समक्ष भी गंभीर चुनौतियां हैं. पूँजी की शक्तियां तरह-तरह के प्रलोभन का जाल बिछाकर संस्कृतिकर्म को अपने शिकंजे में लेने का प्रयास कर रही हैं. जाल में नहीं फंसने पर हत्या तक कर दी  है. हाल के वर्षों में कई साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी शहीद हो गए. समकालीन जनमत के संपादक रामजी राय ने पेट के बल पर मनुष्यता को झुकाने और व्यक्तित्व के व्यवसायीकरण की सरकारी साजिशों के खिलाफ जोरदार सांस्कृतिक प्रतिरोध का संकल्प लेने का आह्वान किया. साहित्यकार रविभूषण ने कहा कि जन जीवित रहेगा तो जन विरोधी ताकतें ज्यादा देर तक टिकी नहीं रह सकेंगी. डा. बीपी  केसरी ने ऐसी सांस्कृतिक टीमों की जरूरत पर बल दिया जो जनता के बीच जायें उसके सुख-दुःख में शामिल हों. उनके संघर्ष को अभिव्यक्ति दें. पंकज मित्र, कथाकार रणेंद्र, जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रवि भूषण, बिहार जसम के सचिव संतोष झा, जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने भी इन्हीं बिंदुओं को अपनी चिंता का विषय बनाया.
सम्मलेन के दूसरे दिन आज का समय और संगठित संस्कृतिकर्म की चुनौतियां तथा देशज साहित्य में प्रतिरोध के स्वर विषय पर परिचर्चाओं का आयोजन किया गया. इसमें डा. मैनेजर पाण्डेय ने सामूहिकता में सृजन की क्षमता को विकसित करने की शक्ति होने की बात कही और देश-समाज के दुःख को व्यक्तिगत दुःख से बड़ा बताया. कथाकार रणेंद्र ने कहा कि पूँजी के बढ़ते प्रभाव ने संस्कृतिकर्म के सभी रूपों को विलोपित करने का अभियान चला रखा है. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पूंजीवाद के दलाल की भूमिका में आ चूका है. आज का रावण दशानन नहीं सहस्त्रानन है. सेमिनार को  डा रविभूषण, रामजी राय, छत्तीसगढ़ जसम के जेबी नायक, शम्भू बादल, जनवादी लेखक संघ के जे खान, पश्चिम बंगाल के अमित दास, इप्टा के उमेश नजीर, इलाहाबाद जसम के केके पाण्डेय सहित अन्य लोगों ने संबोधित किया. संचालन भोजपुरी और हिंदी के साहित्यकार बलभद्र ने किया. विषय प्रवेश जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कराया. अध्यक्षता डा. बीपी केसरी ने की. देशज साहित्य में प्रतिरोध के स्वर विषय पर रणेंद्र, कालेश्वर, शिशिर तुद्दु  , बलभद्र, गिरिधारी लाल  गंझू, लालदीप गोप, सरिका मुंडा, ज्योति लकड़ा आदि ने संबोधित किया. 
                तीसरा दिन सांगठनिक सवालों और भावी योजनाओं को केंद्रीत था. जसम के प्रदेश सचिव अनिल अंशुमन ने  मौखिक रूप से सांगठनिक रिपोर्ट पेश की. कुल छः प्रस्ताव पारित किये गए जिसमें मुख्य रूप से नगड़ी, बडकागांव, पतरातु आदि जगहों पर कार्पोरेट कंपनियों के विरुद्ध चल रहे जन संघर्षों को केंद्रीत कर गीत, नाटक आदि तैयार करना, बच्चों के सवालों को लेकर कार्यक्रम तैयार करना, मानव तस्करी, प्रदूषण के विरुद्ध संघर्ष, मातृभाषा   में पढ़ाई को मुद्दा बनाकर आंदोलन करना तथा 9 जून को उलगुलान एवं 30  जून को हुल दिवस पर कार्यक्रम आयोजित करना शामिल था. प्रतिनिधि सत्र के संचालन के लिए तीन सदसीय अध्यक्ष मंडली बनायीं गयी जिसमें बलभद्र, जावेद इस्लाम और गौतम सिंह मुंडा शामिल हुए. इस अवसर पर लोकयुद्ध के संपादक बृज बिहारी पाण्डेय ने कहा कि संगठित संस्कृतिकर्म की लम्बी परंपरा का निर्वहन वामपंथी संगठन ही कर सके हैं. दक्षिणपंथी इसे आकर नहीं दे सके हैं. सृजन जन प्रतिरोध से उत्पन्न होता है. अब जन प्रतिरोध दावानल का रूप लेनेवाला है. शासक वर्ग विस्मृति की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहता है लेकिन हमें अपना अतीत याद रखना है. हर अत्याचार को याद रखना है. सुधीर सुमन ने लोक और जन संस्कृति के बीच गहरा संबंध बनाने की सलाह दी. डा. रोज केरकेट्टा ने कहा कि बाज़ार ने मनुष्य को भी वस्तु बना दिया है. मनुष्यता की रक्षा चुनौती बन चुकी है. डेविड रामराज, जेपी नायर ने छत्तीसगढ़ और झारखंड की जन समस्याओं, संघर्ष और संस्कृति को काफी मिलता जुलता बताते हुए सहयोग बढ़ने की अपील की. सानिका मुंडा, शक्ति पासवान, सोनी तिरिया, जन्मेजय तिवारी, अंजुमन हासदा, सरोजनी विष्ट, ज्योति लकड़ा, वीरेंद्र यादव, लालजी गोप ने भी अपनी बातें रखीं. बलभद्र ने अध्यक्ष मंडली की और से संबोधित करते हुए लगातार रचना गोष्ठियों के आयोजन की जरूरत पर बल दिया. साथ ही संस्कृतिकर्मियों की पारिवारिक जिम्मेवारियों और समस्याओं पर भी ध्यान देने का सुझाव दिया. अगले तीन वर्षों के लिए झारखंड जसम की नै कार्यकारिणी और राज्य परिषद् का गठन किया गया. डा. बीपी केसरी पुनः अध्यक्ष और अनिल अंशुमन सचिव बनाये गए. बलभद्र और जावेद इस्लाम उपाध्यक्ष, जेवियर कुजूर, सह सचिव सह प्रवक्ता और गौतम मुंडा सह सचिव बनाये गए. इसके अलावा १३ कार्यकारिणी सदस्य और 40  सदस्यीय  राज्य परिषद् का गठन किया गया.इस सृजनोत्सव का संस्कृतिकर्म पर कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा यह आनेवाला समय बताएगा लेकिन सांस्कृतिक माहौल में यह आयोजन एक ऊर्जा का संचार अवश्य कर गया.    

-----देवेंद्र गौतम 

स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...