-देवेंद्र गौतम
हिंदू संगठनों और संत-महात्माओं ने
न्यायपालिका के निर्णय का इंतजार करने की जगह दिसंबर में राम मंदिर का निर्माण
शुरू कर देने की घोषणा कर दी है। जाहिर है इससे तनाव बढ़ेगा। उसका दायरा चाहे जो
हो। लेकिन ध्रुवीकरण की प्रक्रिया जरूर शुरू हो जाएगी। भाजपा यही चाहती भी है।
2019 के गदर के लिए यही एक ब्रह्मास्त्र शेष बचा भी है। इस तरह विधायिका परोक्ष रूप
से न्यायपालिका से टकराने से बच जाएगी।
विधायिका और न्यायपालिका के बीच
विभिन्न मौकों पर तनाव उत्पन्न होता ही रहता है लेकिन हाल के दिनों में यह तनाव
कुछ ज्यादा ही तीखा हो चला है। सीबीआई के दो शीर्ष अधिकारियों की नूराकुश्ती,
सबरीमाला मामले में महिलाओं के पक्ष में निर्णय और राफेल सौदे में हस्तक्षेप। लोकतंत्र
के दो पायों के बीच टकराव बढ़ने का कारण बने। खासतौर पर अयोध्या मामले में सुप्रीम
कोर्ट की सुनवाई टलने पर चुनावी रणनीति ही बिगड़ गई। इधर हिन्दूवादी संगठनों के
सब्र की बांध भी टूट चली है। पहले उन्होंने मोदी सरकार पर अध्यादेश लाकर मंदिर
निर्माण का रास्ता साफ करने का दबाव डाला। संत-महात्मा और तमाम हिंदूवादी संगठनों
से लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत तक यही सुझाव देने लगे। यह न्यायपालिका की भूमिका
को नकार कर अलग राह चलने का सुझाव था। लेकिन इसके लिए स्थिति अनुकूल नहीं थी। केंद्र
की मोदी सरकार को अगर यही करना होता तो इतने समय तक अदालत के रुख का इंतजार क्यों
करती?
पहली
बात यह कि सरकार को पता है कि वह ऐसा कोई अध्यादेश लाती भी है तो उसे पारित नहीं
करा सकेगी। इस मुद्दे पर विपक्ष तो क्या सहयोगी दलों का समर्थन मिलना भी कठिन है। इस
भूमि विवाद के तीन दावेदार हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जब इसे तीनों के बीच
बराबर-बराबर बांट देने का निर्णय दिया था तो किसी पक्ष को मंजूर नहीं हुआ। सभी पौने तीन एकड़ के पूरे भूखंड पर अपने हक में फैसला चाहते थे। सो
सुप्रीम कोर्ट में अपील कर बैठे। अब यदि भाजपा सत्ता में होने के नाते एक पक्ष के
दावे पर मुहर लगाएगी तो अन्य दो पक्षों की प्रतिक्रिया क्या होगी? इसपर भी तो विचार करना होगा। जब एक अदालत का फैसला किसी पक्ष
को स्वीकार नहीं हुआ तो सरकार का फैसला मंजूर हो जाएगा, यह कैसे संभव है। अगर
सरकार रामलला विराजमान या निर्मोही अखाड़ा के पक्ष में खड़ी होती है तो क्या मस्जिद
समर्थक शांत होकर बैठ जाएंगे? जब सभी पक्ष
जिद पर अड़े हों और साक्ष्यों को भी मानने को तैयार न हों तो फैसला देना किसी के
लिए भी जटिल कार्य हो जाता है। न्यायपालिका के लिए भी यह आसान नहीं है। अब अगर सरकार
अध्यादेश लाने पर विचार करती तो इसके पीछे आस्था का दबाव नहीं चुनावी लाभ उठाने की
लालसा होती। अपने चुनावी वायदे को पूरा न कर पाने की खीज होती। न्यायपालिका को
चुनावी लाभ-हानि के गणित से कोई मतलब नहीं है। वह भावनाओं के आधार पर नहीं बल्कि
साक्ष्यों के आधार पर फैसला सुनाती है। यदि उसपर भरोसा जताया तो उसके कार्य में
बाधा पहुंचाना उचित नहीं था। चुनाव की पूर्व बेला में अपनी वाणी और पहलकदमी पर
नियंत्रण रखना होता है। लेकिन सत्ता के मद और उसके हाथ से फिसल जाने का डर इस कदर हावी
है कि मर्यादाओं के उलंघन की नौबत भी आई। सुनवाई की तिथि से पूर्व सबरीमाला मामले
में सुप्रीम कोर्ट के महिलाओं के पक्ष में निर्णय और केरल के रूढ़िवादी लोगों के इसके विरोध में उठ खड़े हे के दौरान भाजपा के
अंदर का लैंगिक समानता का भाव तिरोहित हो गया। उसे इस हंगामे के बीच एक वोट बैंक की
संभावना दिखाई पड़ने लगी। फैसले पर टिप्पणी करते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष
अमित शाह ने कोर्ट को हिदायत दे डाली कि वह ऐसे फैसले न दे जिसे लागू नहीं किया जा
सके। अर्थात ऐसे ही फैसले दे जो सरकार के मनोनुकूल हो। विधायिका जब न्यायपालिका को
हिदायत देने लगे तो कहीं न कहीं चार पायों पर खड़ी लोकतंत्र की इमारत पर खतरे की
अनुभूति होने लगती है। शाह ने सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर सवाल उठाकर यह संकेत दिया
कि कोर्ट की मर्यादा तभी बची रहेगी जब वह सरकार के मनोनुकूल फैसले दे। अन्यथा उसके
आदेश धरे के धरे रह जाएंगे। इस हिदायत के पीछे कहीं न कहीं उनका इशारा अयोध्या
मामले की ओर था जिसकी सुनवाई 27 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में होनी थी। लेकिन
कोर्ट ने उनकी हिदायत पर अमल करने की जगह सुनवाई को जनवरी तक के लिए टाल दिया। इससे
बौखलाहट उत्पन्न हो गई। सरकार चाहती थी कि चुनाव से पहले सुनवाई पूरी हो जाए और
फैसला आ जाए।
जब यह संभव नहीं हुआ और अध्यादेश
लाना भी लाभप्रद नहीं दिखा तो अब कट्टर हिंदूवादी संगठनों ने जबरदस्ती पर तरने का
फैसला किया है। भाजपा का काम आसान हो जाएगा। उसे चुनावी वैतरणी पार करने का एक
रास्ता मिल जाएगा। मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद कट्टर हिंदू संगठन अति
उत्साहित थे। उन्होंने सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न करने की कई कोशिशें कीं लेकिन इसमें
आंशिक सफलता ही मिली।
सत्ता में आने के पहले भाजपा ने कई
चुनावी वायदे किए थे। उनमें कितने पूरे हुए सर्वविदित है। हिंदूवादी संगठनों से
राम मंदिर बनाने का वादा उसमें एक था। लेकिन भाजपा सिर्फ उन्हीं के समर्थन से
सत्ता में नहीं आई थी। भाजपा नेतृत्व को यह बात याद रखनी चाहिए कि हिंदूवादी
संगठनों ने नहीं बल्कि भारत की आम जनता ने उसे सत्ता की चाबी सौंपी थी। वह भी किसी
सांप्रदायिक आग्रह पर नहीं बल्कि तत्कालीन यूपीए सरकार की मनमानी से ऊबकर। लोगों
ने भाजपा से लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की रक्षा करते हुए जनहित के कार्यों
की अपेक्षा की थी। जनता के इस भरोसे को कायम रखकर ही सत्तारूढ़ भाजपा चुनाव की वैतरणी
पार कर सकती है सांप्रदायिक उन्माद की नौका बीच मंझधार में उसकी लुटिया डुबो भी
सकती है।
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