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शनिवार, 4 मई 2024

शाह साहब की दूरबीन

 

हास्य-व्यंग्य

हमारे आदरणीय गृहमंत्री आदरणीय अमित शाह जी दूरबीन के शौकीन है। उसका बखूबी इस्तेमाल करते हैं। अपने बंगले की छत पर जाकर देश के विभिन्न राज्यों की तरफ दूरबीन घुमा-घुमाकर स्थितियों का जायजा लेते रहते हैं। लेकिन पता नहीं उन्होंने किस कंपनी की दूरबीन खरीद रखी है कि उसमें दूर तो दूर सामने की चीज भी नज़र नहीं आती। अभी उनकी दूरबीन से देश के किसी चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस या इंडिया गठबंधन नहीं दिखाई दे रहा है। चारों तरफ भाजपा का पताका लहराता दिख रहा है। 400 पार की जीत दिखाई दे रही है।

दो-तीन साल पहले बहुत खोजने पर भी उनकी दूरबीन बहुत खोजने के बाद भी उत्तर प्रदेश में किसी माफिया या बाहुबली को नहीं दिखा पा रही थी। उनका कहना था कि लड़कियां देर रात को गहनों से लदी स्कूटी पर बिना किसी डर-भय के कहीं भी निकल सकती हैं। विधि व्यवस्था इतनी चाक चौबंद है।

सवाल है कि अगर उत्तर प्रदेश में माफिया या बाहुबली नहीं दिख रहे थे तो अतीक अहमद और अशरफ अहमद कौन थे जिनकी पुलिस सुरक्षा घेरे में अस्पताल ले जाते समय गोली मारकर हत्या कर दी गई। तो फिर मुख्तार अंसारी कौन थे जिनकी जेल में जहर देकर हत्या कर देने का आरोप लगा। तो फिर जौनपुर वाले धनंजय सिंह कौन हैं जिनके जमानत पर जेल से बाहर आने से भाजपा में बेचैनी हैं। तो फिर अफजाल अहमद कौन हैं जिनके चुनाव लड़ने पर अदालत से रोक लगने की आशंका है। तो फिर ब्रजेश सिंह कौन हैं जो भाजपा में हैं और जिन्हें पूर्वांचल का सबसे बड़ा डॉन कहा जाता है। जिनकी मुख्तार अंसारी के साथ लंबे समय से गैंगवार की चर्चा गरम रही है। शाह साहब की दूरबीन में यह तमाम लोग क्यों नज़र नहीं आ रहे थे। आखिर किस ब्रांड की दूरबीन शाह साहब के पास है।

अगर चुनाव में कांग्रेस और विपक्षी दल शाह साहब की दूरबीन के रेंज में नहीं आ रहे हैं तो हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री को एक दिन में तीन-तीन रोड शो और जनसभाएं क्यों करनी पड़ रही हैं। इतना झूठ क्यों बोलना पड़ रहा है। स्वयं शाह साहब देर रात तक बैठकें कर राजनीतिक दांव-पेंच तैयार करने में क्यों लगे हुए हैं। जब सारे मतदाता उनकी पार्टी को एकतरफा वोट दे ही रहे हैं तो परेशानी किस बात की। आराम से चादर तानकर सो जाना चाहिए और अगले शपथ ग्रहण की तैयारी में लग जाना चाहिए।

शाह साहब बखूबी जानते हैं कि उनकी दूरबीन सच नहीं दिखा रही है। वह वही दिखा रही है जो वे देखना चाहते हैं। जिसे देखने के लिए किसी दूरबीन या चश्मे की जरूरत नहीं है। वह दृश्य जो उनके मन के अंदर से उङरते हैं। अगर दूरबीन जो दिखा रही है वह सच नहीं है तो इसका मतलब है कि या तो दूरबीन गड़बड़ है या फिर उनकी आंखों में दोष है। ऐसे दूरबीन को कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए। झोला भर-भरकर चंदा मिला है फिर पार्टी क्या अपने चाणक्य को एक बढ़िया दूरबीन नहीं दिला सकती।

-देवेंद्र गौतम

बुधवार, 26 जून 2019

व्यंग्यः कहते हैं कि साहब का है अंदाज़े-बयां और


देवेंद्र गौतम
जावेद अख्तर को मोदी भक्तों ने ट्रोल किया तो हैरानी की क्या बात। मोदी जी मोदी जी हैं-उन्होंने राज्यसभा में  मिर्जा ग़ालिब के नाम पर एक बेवज़्न शेर पढ़ दिया तो क्या हुआ। कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। सुना नहीं वे दुनिया के सबसे ताकतवर नेता बन गए हैं। वे ग़ज़ल के व्याकरण में जो चाहें संशोधन कर सकते हैं। कोई आपत्ति नहीं कर सकता। करेगा, तो सोशल मीडिया पर भक्तों का भजन सुनेगा। भक्तगणों के पास हमेशा नए-नए तैयार रहते हैं और उन्हें सुनाने के लिए मौके की ताक में रहते हैं। वैसे जावेद अख्तर साहब ने शायद गौर नहीं किया हो कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शेर को ग़ालिब का समझते हैं। ग़ालिब जिंदा होते तो उन्हें अपनी लोकप्रियता का आभास होता।  अब प्रधानमंत्री जी ने ग़ालिब का शेर पढ़ा तो चाहे वह दीवाने-गालिब में हो या न हो उसे ग़ालिब का मान लेना चाहिए। जिस रूप में पढ़ा उसी रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। मोदी जी कोई दर्जी नहीं कि शेर का मीटर नापते चलें। शुक्र मनाइए कि उन्होंने पूरी ग़ज़ल नहीं पढ़ी वर्ना फिर काफिये और रदीफ का भी सवाल उठता और सोशल मीडिया पर भजनों की सुनामी आ जाती। दिमाग़ का इस्तेमाल करने वाले कभी सच्चे भक्त नहीं हो सकते। भक्ति के लिए अक्ल को ताख पर रख देना होता है। उनके आराध्य कभी गलती कर ही नहीं सकते। उनकी मानवीय भूलें उनकी लीला होती हैं। गैरभक्त क्या जानें भक्ति क्या होती है।    

जावेद अख्तर साहेब, जिस तरह मिर्जा असदुल्ला खां ग़ालिब अपने अंदाज़े-बयां के लिए जाने जाते थे उसी तरह मोदी जी भी अपने खास अंदाज़े के लिए जाने जाते हैं। वे जो भी बोलते हैं उसमें एक गूढ़ संदेश होता है। समझनेवाले उसे सहजता से समझ लेते हैं। जो नहीं समझते उन्हें अनाड़ी हीकहा जा सकता है। दरअसल मोदी जी ने इस शेर के जरिए साहित्य-कला-संस्कृति की दुनिया में विचरण करने वाले लोगों को आगाह किया है कि वे राजनीति में कत्तई दखलअंदाजी न करें। करेंगे तो उनका यही हश्र किया जाएगा। ग़ालिब के इतने शेर पढ़े जाएंगे कि अच्छे-अच्छे शायर शायरी से तौबा कर लेंगे।

गुरुवार, 20 जून 2019

कोई और पीएम होता तो कैसे मनाता योग दिवस



देवेंद्र गौतम
आज 21 जून को पीएम मोदी ने रांची के प्रभात तारा मैदान में 40 हजार लोगों के साथ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया। उन्होंने भारतीय योग को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाई। संयुक्त राष्ट्र परिषद ने 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में स्वीकार किया। यह भारत के लिए गौरव की बात है। लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। पीएम मोदी ने योग दिवस के रूप में एक ऐसी परंपरा की बुनियाद रख दी, जिसको निर्वहन भविष्य के सभी प्रधानमंत्रियों को करना अनिवार्य हो जाएगा। कल्पना कीजिए यदि 2019 के चुनाव में महागठबंधन की जीत होती और पीएम पद के दावेदारों में कोई पीएम बन जाता तो अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस में अपनी भागीदारी किस रूप में करता।
यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनते तो कम से कम दो सप्ताह पूर्व अपने लिए एक योग प्रशिक्षक नियुक्त करते और प्रदर्शन के लिए कुछ आसन सीख लेते। भाषण भी पहले से तैयार रहता और रट लिया जाता। चूंकि यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाना है इसलिए वे अपनी भागीदारी के लिए भारत के किसी शहर का नहीं बल्कि उत्तरी गोलार्ध के किसी ऐसे देश का चयन करते जहां उन्हें छुट्टियां मनाना पसंद है। इसके कई लाभ होते। एक तो अंतर्राष्ट्रीय संबंध बेहतर होते दूसरे योगासन के समय कुछ भूल-चूक होती तो तत्काल कोई पकड़ नहीं पाता। कुछ विदेशी मित्रों के साथ समय गुजारने का मौका मिल जाता। सूचना क्रांति के युग में देश को संदेश तो कहीं से भी दिया जा सकता है। इसके लिए देश में रहना क्या जरूरी है।
यदि मायावती प्रधानमंत्री बनतीं तो उत्तर प्रदेश अथवा आसपास के किसी राज्य के ऐसे दलित बहुल इलाके को चुनतीं जहां बसपा की जीत की संभावना होती। वहां योगस्थ मुद्रा में अपनी मूर्ति भी स्थापित करतीं। यह हाथी पर बैठकर योग करने की मुद्रा भी हो सकती थी। एक सूरत यह भी हो सकती थी कि वे योग को मनुवादी संस्कृति की देन कहकर अपनी भागीदारी से इनकार भी कर देतीं। उनके वोटरों के बीच इसका भी सकारात्मक संदेश जाता।
यदि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री बनतीं तो कोलकाता में ही योग दिवस मनातीं और कोशिश करतीं कि उनके साथ योग करने वालों में सभी धर्मों और संप्रदायों के लोग शामिल रहें ताकि उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि पर कोई आंच नहीं आए। अपने संदेश में वे यह बतलातीं योग की शुरुआत बंगाल से ही हुई थी। वहीं से भारत के अन्य इलाकों में इसे अपनाया गया। इसके आसनों में बंगभूमि की सुगंध मौजूद है। यह वैज्ञानिक है। लगे हाथ सांप्रदायिक दलों पर इसके भगवाकरण का भी आरोप लगा देतीं।
आने वाले समय में यदि नीतीश जी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे तो वे एक शुभकामना संदेश देकर पल्ला झाड़ लेते। स्वयं योग समारोह में शामिल होने से इनकार कर देते। हालांकि देशवासियों को इससे मना नहीं करते।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं। विज्ञान और टेक्नोलॉजी में भी उनकी दिलचस्पी है। इसलिए योग के प्रति उनके रूझान को कहीं से अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। लेकिन योग के प्रति उनके रूझान में राजनीति का गणित नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस वर्ष वे योग दिवस रांची में मना रहे हैं। कुछ ही माह बाद यहां विधानसभा चुनाव होने हैं। इस कार्यक्रम में उनकी मौजूदगी से झारखंड के मतदाताओं के बीच एक संदेश जाएगा जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पूर्व उन्होंने लखनऊ में योग दिवस मनाया था। इसका जबर्दस्त लाभ मिला था। योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने में इस कार्यक्रम का योगदान रहा था। राजनेता का हर कदम राजनीतिक लाभ-हानि के गणित के आधार पर उठता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...