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मंगलवार, 26 मार्च 2024

बांग्लादेशी मॉडल की ओर बढ़ता देश

 हाल में बांग्लादेश का चुनाव एकदम नए तरीके से हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी सहित 15 दलों ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया। मैदान में सिर्फ शेख हसीना के नेतृत्व वाली सत्ताधारी पार्टी अवामी लीग और उसके सहयोगी दल रहे। उसका मुकाबला निर्दलीय प्रत्याशियों से हुआ। उसमें भी बहुत से प्रत्याशी अवामी लीग के ही टिकटससे वंचित कार्यकर्ता थे। नतीजतन 300 सीटों वाली लोकसभा में से सत्ताधारी दल को 222 सीटों पर जीत मिली अर्थात तीन चौथाई बहुमत। इसे चुनाव कहने की जगह जनता की जबरिया सहमति कहा जा सकता है क्योंकि उसके सामने कोई विकल्प था ही नहीं। हालांकि इसका मकसद कट्टरपंथियों और आतंवाद के पोषकों को सत्ता से बाहर रखना था।

इधर भारत में चुनाव की घोषणा से पूर्व मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के सारे अकाउंट फ्रिज कर दिए गए हैं। दो मुख्यमंत्रियों सहित कई विपक्षी नेता बिना किसी सबूत के आरोपी करार देकर जेलों में बंद किए जा चुके हैं। एक-एक कर सभी मुख्य विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के कयास लगाए जा रहे हैं। जांच एजेंसियां ताबड़तोड़ छापेमारी कर रही हैं। इस बीच इलेक्टोरल बांड का खुलासा होने के बाद सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ भ्रष्टाचार के बहुत सारे मामलों का दस्तावेज़ी प्रमाण सामने आ चुका है। लेकिन उन मामलो पर जांच एजेंसियां मौन हैं। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है लेकिन चुनाव के पहले क्या आदेश पारित होंगे कहना कठिन है।

ऐसे में प्रतीत होता है कि कहीं भारत में भी बांग्लादेश की तर्ज पर चुनाव कराने की तैयारी तो नहीं चल रही है? अर्थात सत्ताधारी दल खाली मैदान में बल्लेबाजी करती हुई जीत की ट्राफी आराम से उठा ले जाए। हालांकि भारत के विपक्षी दलों ने चुनाव का बहिष्कार करने जैसा कोई आत्मघाती निर्णय नहीं लिया है। वे जेल में रहकर भी चुनाव लड़ने को तैयार हैं। हालांकि उन्हें एक-एक पैसे को मोहताज बनाकर ऐसी स्थिति बनाने का प्रयासचल रहा है जिसमें वे चुनाव लड़ने की स्थिति में ही नहीं आ सकें।

तो क्या सत्तारूढ़ भाजपा भारत में लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म करना चाहती है? जवाब है हां। इसलिए नहीं कि उसे सत्ता का बहुत ज्यादा लोभ है। ऐसा इसलिए कि वह भारत को हिंदूराष्ट्र बनाने के एजेंडे पर काम कर रही है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में धर्म आधारित राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकती। भारतीय संविधान के लागू रहते तो यह असंभव है। हिंदूराष्ट्र का गठन तानाशाही या राजशाही की व्यवस्था में ही संभव है। इसके लिए मौजूदा संविधान को निरस्त कर नया संविधान बनाने की जरूरत पड़ेगी। नई संविधान सभा का गठन करना होगा। नया संविधान बनेगा तभी यह संभव है। इसके लिए तीन चौथाई बहुमत और लोकतंत्र की विचारधारा को पूरी बेदर्दी से कुचल देने की जरूरत पड़ेगी। इसीलिए एक तरफ नैतिक, अनैतिक तरीके से अकूत धन इकट्ठा किया जा रहा है दूसरी तरफ देश को विदेशी कर्ज में आकंठ डुबोया जा रहा है। ताकि जब अपने एजेंडे की व्यवस्था लागू हो जाएगी तो जमा किए हुए धन से देश को विदेशी कर्ज से मुक्ति दिला दी जाए और तब जनता का ध्यान रखने की भी कोशिश होगी।

अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल में इसके लिए अनुकूल स्थिति नहीं थी। वह गठबंधन की बैसाखियों पर टिकी हुई सरकार थी। नरेंद्र मोदी का कार्यकाल इसके लिए सर्वथा अनुकूल है क्योंकि सरकार के पास प्रचंड बहुमत है और विपक्ष कमजोर है। सरकार विपक्षी दलों को पंगु बना देने की ताकत रखती है। भारत में एकतरफा चुनाव कराने का मकसद धार्मिक कट्टरता की जड़ों को फैलाना और मजबूत करना है।

चुनाव में विपक्ष सत्ता के हथकंडों के सामने मजबूती से खड़ा रह पाएगा या नहीं कहना कठिन है। अब देश की जनता को ही तय करना होगा कि वह लोकशाही में रहना चाहती है या राजशाही में।

-देवेंद्र गौतम

रविवार, 24 मार्च 2024

आजाद हिंद फौज का असली संस्थापक कोई और था!

 आमतौर पर आजाद हिंद फौज के सेनानायक के रूप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस और इसके संस्थापक के रूप में रासबिहारी बोस का नाम लिया जाता है। इसके बाद प्रथम संस्थापक के रूप में कैप्टन मोहन सिंह का जिक्र भी आता है लेकिन इस फौज के निर्माण का विचार एक असैनिक क्रांतिकारी नेता और एक जापानी इंटेलिजेंस अधिकारी के मन में आया था। शुरुआत उन्होंने की थी लेकिन इसका श्रेय और लोगों ने लूटा। वास्तविक संस्थापकों के नाम नेपथ्य में डाल दिए गए। ऐसा दावा Sikhnet.com नामक एक वेबसाइट में प्रकाशित एक लेख में किया गया। इसके मुताबिक 1945 में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम अपने निर्णायक दौर पर में पहुंच चुका था और दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका के अंतिम दंश को झेल रही थी उसी समय से आजाद हिंद फौज अर्थात भारतीय राष्ट्रीय सेना के संस्थापक को लेकर विवाद चल रहा है। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1945/46 में नई दिल्ली में आजाद हिंद फौज में शामिल कुछ सैन्य अधिकारियों के खिलाफ कोर्ट मार्शल के मामले चल रहे थे। उनमें ज्ञानी प्रीतम सिंह ढिल्लो का नाम नहीं था क्योंकि वे ब्रिटिश भारतीय सेना के फौजी नहीं थे। जबकि आज़ाद हिंद फ़ौज के विचार के पीछे असली दिमाग उन्हीं का था।

ज्ञानी प्रीतम सिंह ढिल्लो के नाम का पंजाबी और अंग्रेजी दोनों में प्रकाशित शुरुआती किताबों में उल्लेख किया गया है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, कुछ निहित स्वार्थों के कारण, उनका नाम लगभग गायब कर दिया गया है। आज भी, सिख लेखक इस मुद्दे को भूल जाते हैं और कैप्टन मोहन सिंह को संस्थापक घोषित करते हैं।

सिख वेबसाइट में प्रकाशित लेख के लेखक का नाम नहीं है लेकि उन्होंने लिखा है कि 2005 तक उन्होंने ज्ञानी जी का छिटपुट उल्लेख पढ़ा था लेकिन पहली बार 1949 में विधाता सिंह टीर की लिखी पंजाबी भाषा की एक पुरानी पुस्तक में ज्ञानी प्रीतम सिंह के बारे में एक बहुत विस्तृत विवरण मिला, जहां आईएनए को समर्पित एक पूरा अध्याय था। यह किताब उन्हें उनके पैतृक गांव मोगा में एक परिवार के पास मिली थी। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आईएनए का विचार ज्ञानी प्रीतम सिंह के मन में उत्पन्न हुआ था, जिन्होंने जापानी शाही सेना के एक खुफिया अधिकारी से मुलाकात की थी और इस विचार को सामने रखा था।

हालांकि, पिछले कुछ वर्षों के अंजर किताबों और इतिहास में उनका नाम लगभग मिटा दिया गया है।  केवल दो नामों का बार-बार उल्लेख किया गया है, कैप्टन मोहन सिंह और सुभाष बोस जो एक बंगाली भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता थे और जर्मनी में रहते थे। वे बर्लिन स्थित यूरोपीय भारतीय स्वतंत्रता लीग के प्रमुख थे। इससे पहले वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की युवा शाखा में शामिल थे और अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में शामिल होने के बाद 1940 में भारत से जर्मनी भाग गए थे।

2014 में लेखक जब हरमंदर साहिब के गुरुद्वारे में देर रात तक बैठा था  तभी एक युवा लड़का उनके दो कप चाय लेकर आया और उनके पास आकर बैठ गयाइस आकस्मिक मुलाकात के दौरान जब उसे पता चला कि लेख के लेखक मलेशिया से हैं, तो वे बहुत उत्साहित हुए और बताया कि उनके बाबा ज्ञानी प्रीतम सिंह जापानी समय में मलाया में थे। वे आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल थे। उस आकस्मिक मुलाकात से दोनों पक्षों में बहुत सारी जानकारी और जिज्ञासा सामने आई। अधिकांश व्यक्तिगत जानकारी और तस्वीरें उस युवक लखविंदर सिंह ढिल्लों से मिलीं। उन्होंने डायरियां हासिल करने का वादा किया है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे अब अमृतसर के प्रेस कार्यालय में राम सिंह मजीठिया के पास हैं। उसने उन्हें लाने का वादा किया है।

ज्ञानी प्रीतम सिंह जी का जन्म 18 नवंबर, 1010 को ग्राम नागोके सरली, जिला लायलपुर (वर्तमान में पाकिस्तान में) हुआ था। उनके पिता सरदार माया सिंह और माता माता फ़तेह कौर थीं। उस समय की संस्कृति के मुताबिक प्रीतम सिंह की शादी काफी कम उम्र में बीबी करतार कौर से हो गई। उनके दो बच्चे थे. एक बेटा पृथ्वीपाल सिंह और एक बेटी गुरशरण कौर।

उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई लायलपुर में की और फिर लाहौर से ज्ञानी बनकर निकले। इसके बाद वह लायलपुर कृषि कॉलेज में शामिल हो गए, लेकिन लाहौर के शहीद सिख मिशनरी कॉलेज में शामिल होने के लिए उन्होंने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। 1938 में उनकी पत्नी का निधन हो गया।

मिशनरी और क्रांतिकारी के रूप में उनका काम उन्हें बंगाल ले गया। वहां रहते हुए वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और गदर पार्टी के साथ सक्रिय रूप से शामिल हो गए। उन्होंने 1915 के असफल विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे उन्होंने बंगाल लांसर्स रेजिमेंट में हलचल पैदा कर दी थी। अधिकारियों ने उसकी तलाश शुरू कर दी। वह 1919 में बर्मा से होते हुए बैंकॉक भाग गए, जहां भारत के अन्य हिस्सों से आए कई भारतीय क्रांतिकारी रह रहे थे।

एक बार बैंकॉक में, वह स्थानीय सिख समुदाय के साथ घुलमिल गए और अपने मिशनरी काम के साथ गदर पार्टी का संदेश फैलाना शुरू कर दिया।

फिर उनकी मुलाकात खुफिया अनुभाग के प्रमुख मेजर फुजिवारा से हुई, जिन्होंने जापान द्वारा युद्ध की घोषणा से पहले ही 4 दिसंबर 1941 को बैंकॉक में जापानियों के साथ सहयोग का समझौता किया था। मेजर फुजिवारा के साथ काम करते हुए ज्ञानी प्रीतम सिंह का विचार था कि पकड़े गए भारतीय सैनिकों को भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए भारतीय राष्ट्रीय सेना में शामिल होने के लिए कहा जाए। ये योजनाएं युद्ध शुरू होने से बहुत पहले बैंकॉक स्थित क्रांतिकारियों के एक समूह के बीच शुरू की गई थीं।

इस प्रकार, कैप्टन मोहन सिंह आईएनए के संस्थापक नहीं हैं, बल्कि आईएनए के केवल पहले ऑपरेशनल कमांडर थेउन्होंने ज्ञानी जी और मेजर फुजिवारा के आग्रह पर पद स्वीकार किया। आईएनए के पीछे मेजर इवाइची फुजिमुरा और ज्ञानी प्रीतम सिंह ढिल्लों का दिमाग था।

1941 में  14 वीं पंजाब रेजिमेंट के कैप्टन मोहन सिंह ऑपरेशन मेटाडोर में थाई सीमा पर तैनात थे, जब जापानियों ने हमला किया। 14 वां पंजाब रेजिमेंट बाकी सहयोगी सेनाओं के साथ पीछे हट गया। कैप्टन मोहन ने खुद को जितरा के जंगलों में एक भटकते हुए व्यक्ति के रूप में पाया। वहां उन्होंने स्थानीय लोगों के माध्यम से जापानियों के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए संपर्क किया, जब उन्हें पता चला कि जापानी लोगों द्वारा पंजाबी में कुछ पर्चे गिराए गए थे, जिसमें ब्रिटिश भारतीय सैनिकों से आत्मसमर्पण करने और भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए आईएनए में शामिल होने का आह्वान किया गया था।

जित्रा, केदाह में, उनकी मुलाकात ज्ञानी प्रीतम सिंह और मेजर इवाइची फुजीवारा से एक कार में हुई, जिसमें जापानी ध्वज के साथ एक भारतीय तिरंगा भी था। उन्होंने कैप्टन मोहन को आईएनए में शामिल होने के लिए राजी किया। वह ब्रिटिश भारतीय सेना में सबसे वरिष्ठ भारतीय अधिकारियों में से एक थे। वे आजाद हिंद फौज का परिचालन कमान लेने के लिए सहमत हो गए।

अगले दिन वे अलोर स्टार गुरुद्वाआरा में एकत्र हुए, जहां आईएनए और भारतीय स्वतंत्रता की सफलता के लिए पहली अरदास की गई। इस प्रकार, अल्पज्ञात इतिहास का एक बहुत मजबूत तत्व अलोर स्टार गुरुदुआरा साहिब से जुड़ा हुआ है, जिसे स्थानीय समुदाय द्वारा न तो महसूस किया गया है और न ही स्मरण किया गया है या स्वीकार किया गया है, कि इसके मैदान में एक महान घटना हुई थी।

बाद में आजाद हिंद फौज के संस्थापकों और संचालकों में रासबिहासी बोस, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और कैप्टन मोहन सिंह की चर्चा होती रही लेकिन ज्ञानी जी और फुजीवारा को चर्चा के बाहर कर दिया गया। ज्ञानी प्रीतम सिंह की निजी डायरियां गायब कर दी गईं। यह डायरियां टोक्यो में एक हवाई दुर्घटना में ज्ञानी जी की मृत्यु के बाद उनके कब्जे में आ गई थीं। ज्ञानी जी ने 24 मार्च 1042 को एक सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद छह अन्य आईएनए अधिकारियों के साथ साइगॉन से टोक्यो के लिए उड़ान भरी थी। वह विमान हवाई अड्डे पर ही दुर्घटनाग्रस्त हो गई जिसमें ज्ञानी जी की मृत्यु हो गई। उनके दोनों बच्चों को एक अन्य आईएनए अधिकारी कर्नल निरंजन सिंह द्वारा सिंगापुर से भारत भेजा गया था। इसके बाद ज्ञानी जी की भूमिका कम कर दी गई। ज्ञानी जी का परिवार सच बोलने में सक्षम नहीं था। जैसे कैप्टन मोहन सिंह ने ज्ञानी प्रीतम सिंह की भूमिका छीन ली, वैसे ही कैप्टन मोहन सिंह के साथ भी हुआ, क्योंकि आईएनए का सारा श्रेय सुभाष चंद्र बोस के पास आ गया।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 11 जनवरी 1942 को कुआलालंपुर में ब्रिटिश भारतीय सेना के 3500 भारतीय सैनिक और 15 फरवरी 1942 को 85 हजार भारतीय सैनिक युद्धबंदी बनाए गे थे। ज्ञानी प्रीतम सिंह और फिजीवामा ने उसी समय कैप्टन मोहन सिंह की कमान में भारतीय युद्धबंदी सैनिकों को लेकर आजाद हिंद फौज का गठन करने का आह्वान किया। इसका मकसद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सैन्य कार्रवाई कर भारत को आजाद कराना था। मोहन सिंह ने लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन सिंह गिल को चीफ ऑफ स्टाफ बनाया। उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में सिंगापुर के नीसन में अपना मुख्यालय स्थापित किया। जे.के. भोंसले को एडजुटेंट और क्वार्टर मास्टर जनरल और लेफ्टिनेंट कर्नल ए.सी. चटर्जी को चिकित्सा सेवाओं के निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया। हालांकि, आज़ाद हिंद फ़ौज की औपचारिक स्थापना 1 सितंबर 1942 को हुई थी, उस दिन तक 40,000 युद्धबंदियों ने इसमें शामिल होने की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर किए थे।

 

 

शनिवार, 23 मार्च 2024

हैदराबाद का हुसैन सागर

हाल के वर्षों में जन्म दिवस की पूर्व रात्रि में 12 बजे के बाद केक काटने का प्रचलन बढ़ा है। आमतौर पर लोग यह आयोजन अपने घर में करीबी पारिवारिक मित्रों के साथ करते हैं। हैदराबाद-सिकंदराबाद के लोग प्रायः यह आयोजन घर पर करने की जगह टैंकबंड रोड में करते हैं। टैंकबंड रोड हुसैन सागर के चारों तरफ निर्मित है। हुसैन सागर झील पुराने शहर हैदराबाद और नए शहर सिकंदराबाद के बीच एक कड़ी का काम करती है। झील के चारों तरफ करीब चार फुट की रेलिंग है। झील के चारों तरफ करीब दस फुट का प्लेटफार्म बना हुआ है। इसमें 10-20 फुट की दूरी पर सीमेंटेड बेंच और कहीं-कहीं मंडप बने हुए हैं। झील के चारों तरफ रेलिंग है।



टैंक बंड रोड के निकट एक अन्य मुख्य मार्ग है, जो नेकलस रोड के रूप में लोकप्रिय है। इस सड़क के दोनों तरफ सुंदर उद्यान होने से शाम के समय में अक्सर आगंतुकों की भीड़ जमा होती है। हुसैन सागर झील आगंतुकों के मनोरंजन के लिए कई गतिविधियों का केंद्र भी है। यहां के प्रमुख आकर्षणों में लुम्बिनी पार्क में बुद्ध की प्रतिमा, जहाज पर भोजन की सुविधा, स्पीड बोट पर परिभ्रमण और निवास सांस्कृतिक विभागों द्वारा उपयोग की जाने वाली सांस्कृतिक गतिविधियां शामिल हैं।

हुसैन सागर मध्यकाल में निर्मित देश की संभवतः सबसे विशाल झील है। इसके बीचोबीच भगवान बुद्ध की एक ही पत्थर से बनी 40 फुट ऊंची विशाल मूर्ति है जो दूर से ही नज़र आती है जो शहर के सौंदर्य में चार चांद लगाता है। वहीं लुम्बिनी पार्क बना हुआ है। इस झील में मिसी नदी से पानी की आपूर्ति होती है और इसका जल कभी नहीं सूखता। उनका मकसद पेयजल आपूर्ति और बाढ़ से बचाव था। 1575 ई. में सुल्तान इब्राहिम कुतुब शाह नें ढाई लाख रुपये की लागत से जब इसका निर्माण किया था तो इसका रकबा 550 हेक्टेयर था। अब निजी और सरकारी संस्थाओं ने इसके 40 प्रतिशत हिस्से का अतिक्रमण कर लिया है। अब इसका रकबा 349 हेक्टेयर रह गया है।

अतिक्रमण के अलावा झील कई वर्षों से अनुपचारित घरेलू सीवेज और जहरीले औद्योगिक रसायनों के निरंतर निर्वहन के कारण प्रदूषण की समस्या का भी सामना कर रही है। हालांकि प्रदूषण को रोकने के लिए कई केंद्रीय अपशिष्ट उपचार संयंत्र और सीवेज उपचार संयंत्र विकसित किए गए हैं, फिर भी झील में काफी मात्रा में सीवेज प्रवाहित होता है।



हुसैन सागर सार्वजनिक हित याचिका पहली बार वर्ष 1995 में
'झील बचाओ अभियान' के संयोजक केएल व्यास द्वारा दायर की गई है। हैदराबाद में 170 झीलों की सुरक्षा की मांग करते हुए आंध्र प्रदेश सरकार के खिलाफ आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय (एचसी) में जनहित याचिका दायर की गई थी। जबकि जनहित याचिका में उन सभी झीलों को शामिल किया गया था जो खतरे में थीं, इसका ध्यान सरूरनगर झील पर केंद्रित था जो अपने जलग्रहण क्षेत्र पर बड़े पैमाने पर अतिक्रमण और प्रदूषण के टैंकखतरनाक स्तर के कारण गंभीर तनाव में थी। जनहित याचिका पर फैसले में आंध्र प्रदेश राज्य के सभी जल निकायों की सुरक्षा शामिल थी।

हैदराबाद शहरी विकास प्राधिकरण (हुडा) ने हैदराबाद और उसके आसपास की झीलों की सुरक्षा के लिए 2000 में एक अधिसूचना जारी की। ऐसी अधिसूचना के बावजूद, हुडा द्वारा झील के किनारे आवासीय कॉलोनियों के लिए अनुमति दिए जाने के कई उदाहरण हैं। हुसैन सागर के आसपास हुडा (बुद्ध पूर्णिमा परियोजना विकास प्राधिकरण के तत्वावधान में) द्वारा किए गए कई पर्यटन-संबंधी सौंदर्यीकरण कार्यों को इसकी अपनी अधिसूचना का गंभीर उल्लंघन माना जा सकता है।

हुसैन सागर झील को बचाने के लिए फोरम ने 2001 से आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय में कई जनहित याचिकाएं दायर कीं। आखिरी जनहित याचिका 2004 में उच्च न्यायालय में दायर की गई थी और फैसला अभी भी लंबित है। वर्ष 2005 में एक अन्य पर्यावरणविद् डॉ. हरगोपाल द्वारा भी सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका के तहत जनहित याचिका दायर की गई थी। पर्यावरणविद् राधा बाई ने भी झील में प्रदूषण को रोकने के लिए वर्ष 2006 में एक नई जनहित याचिका दायर की थी। झील के पुनरुद्धार के लिए करोड़ों रुपये स्वीकृत किए गए हैं लेकिन झील अभी भी बहुत खराब स्थिति में है। हुडा ने 2010 तक झील को प्रदूषण मुक्त बनाने का वादा किया है।

तमाम समस्याओं के बावजूद हुसैन सागर सिकंदराबाद-हैदराबाद का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है। यहां पर्यटकों के लिए नौका-विहार की व्यवस्था है। पर्यटक नौका पर बैठकर बुद्धमूर्ति के टीले तक जाते हैं और कुछ समय बिताने के बाद वापस लौटते हैं।

-देवेंद्र गौतम

 


शुक्रवार, 22 मार्च 2024

अब जेल से चलेगी सरकार!

 

अब जेल से चलेगी सरकार!

 

सरकार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गिरफ्तार होने के बावजूद अपने पद से इस्तीफा नहीं देंगे। पार्टी के विधायक दल ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वे पद पर बने रहेंगे और जेल से ही सरकार चलाएंगे। संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि दोषी करार किए जाने तक पद से इस्तीफा देना जरूरी हो। अभी तक जो मुख्यमंत्री जेल गए हैं उन्होंने अपना उत्तराधिकारी तय कर इस्तीफा दे दिया। लालू प्रसाद ने एक जमाने में जरूर यह सवाल उठाया था कि संविधान में कहां लिखा है कि जेल से सरकार नहीं चलाई जा सकती लेकिन चारा घोटाले के आरोप में पहली बार गिरफ्तारी होने पर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था और अपने विधायकों की सहमति से अपनी पत्नी राबड़ी देवी को गद्दी सौंप दी थी। हाल में झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी ईडी द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर अपनी पार्टी के वरीय नेता चंपई सोरेन को गद्दी सौंप दी थी।

 

यदि केजरीवाल पार्टी की घोषणा पर टिके रहते हैं तो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह पहली घटना होगी कि कोई मुख्यमंत्री जेल से अपनी सरकार चलाएगा। कानूनन उन्हें इससे रोका नहीं जा सकता। अभी तक जिन जन प्रतिनिधियों ने इस्तीफा दिया उनका आधार सिर्फ नैतिकता है। लेकिन सत्तापक्ष ने जिस तरह नैतिकता का मखौल उड़ी रखा है उसमें अरविंद केजरीवाल का यह फैसला कोई अप्रत्याशित नहीं होगा बल्कि सत्ता की मनमानी का करारा जवाब होगा। इससे पूरे विश्व में लोकतंत्र की जननी होने के दावे की पोल-पट्टी खुल जाएगी। भारत का लोकतंत्र एक मजाक बनकर रह जाएगा।

 

इलेक्टोरल बॉंड मामले में भ्रष्टाचार और भयादोहन के आरोप में सत्तापक्ष के शीर्ष नेता भी घिरे हैं। उनके खिलाफ भी आने वाले समय में याचिकाएं दर्ज होंगी। उनकी गिरफ्तारी भी हो सकती है। तो क्या वे भी जेल से ही सरकार चलाएंगे? भारत के लोकतंत्र में एक नई परिपाटी की शुरुआत होगी?

 

-देवेंद्र गौतम  

लॉटरी किंग ने निकाली राजनीतिक दलों की लॉटरी

 

राजनीतिक दलों को सबसे ज्यादा चंदा फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज़ ने दिया। सबसे ज्यादा इलेक्टोरल बॉन्ड 1368 करोड़ की खरीदारी भी इसी कंपनी ने की। यह खरीदारी 2019 से 2024 के बीच की। कंपनी ने सर्वाधिक 542 करोड़ रुपयों का बॉंड तृणमूल कांग्रेस को और स्टॉलीन के नेतृत्व वाली डीएमके को 502 करोड़ के बॉंड दिए। वाइसीआर कांग्रेस को 154 करोड़, भाजपा को 100 करोड़ और कांग्रेस को 50 करोड़ दिए। इस कंपनी के चेयरमैन का नाम सैंटियागो मार्टिन हैं जिन्हें 'लॉटरी किंग' भी कहा जाता है। वे किसी जमाने में म्यांमार के यांगून में मजदूरी कर अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। आज लॉटरी के धंधे में खरबों में खेलते हैं।

 इस कंपनी की सबसे हालिया ख़रीद इस साल जनवरी में की गई जब उसने 63 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे। फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड को 30 दिसंबर 1991 में बनाया गया था.

 इस कंपनी का रजिस्टर्ड पता तमिलनाड के कोयम्बटूर में है, लेकिन इसका वो पता जहां से खाते का संचालन किया जाता है कोलकता में है। यह कंपनी स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड नहीं है लेकिन देश के सर्वाधिक करदाताओं में शामिल है।

 कंपनी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक़ फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड को पहले मार्टिन लॉटरी एजेंसीज लिमिटेड के नाम से जाना जाता था।

यह दो अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक के कारोबार के साथ भारत के लॉटरी उद्योग में अग्रणी खिलाड़ी है।

 कंपनी की वेबसाइट के मुताबिक़ 1991 में अपनी स्थापना के बाद से फ्यूचर गेमिंग विभिन्न राज्य सरकारों की पारंपरिक पेपर लॉटरी के वितरण में तेज़ गति से बढ़ रहा है। कंपनी के मुताबिक़ सैटियागो मार्टिन ने लॉटरी उद्योग में 13 साल की उम्र में क़दम रखा था और पूरे भारत में लॉटरी के ख़रीदारों और विक्रेताओं का एक विशाल नेटवर्क बना लिया। वे कई बार देश में सबसे ज्यादा आयकरदाता घोषित किए गए।

 

अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए मामूली वेतन कमाते थे। बाद में, वह भारत वापस आ गए, जहां उन्होंने 1988 में तमिलनाडु में अपना लॉटरी व्यवसाय शुरू किया. धीरे-धीरे कर्नाटक और केरल की ओर विस्तार किया।

   

भारी पड़ सकती है केजरीवाल की गिरफ्तारी

 ईडी ने जिन आरोपों के आधार पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार किया है उनकी पुष्टि के लिए अभी तक न्यायपालिका के समक्ष कोई प्रमाण पेश नहीं कर पाई है। व्यावसायिक लाभ देकर चंदा प्राप्त करने का उनपर 100 करोड़ का आरोप एक सरकारी गवाह के बयान के आधार पर है जबकि भाजपा पर दर्जनों कंपनियों को जांच एजेंसियों द्वारा डरा-धमकाकर हजारों करोड़ का इलेक्टोरल बांड प्राप्त करने के सारे सबूत मौजूद सामने आ चुके हैं। चुनाव आयोग उन्हें अपनी वेबसाइट पर डाल चुका है। मामला पब्लिक डोमेन में आ चुका है। तो क्या उनके आधार पर दर्ज होने वाली याचिकाओं पर भी ईडी कार्रवाई करेगी? सत्ता के शीर्ष पदों पर बैठे हुए भाजपा के नेताओं को भी गिरफ्तार करेगी?

सवाल है कि यदि आम आदमी पार्टी द्वारा शराब कंपनियों को लाभ पहुचाने के बाद चंदा लेने की बात सत्य भी है (फिलहाल सरकारी गवाह के बयान के अलावा कोई साक्ष्य नहीं है) तो किसी को डरा-धमकाकर जबरन चंदा वसूल करना तो इससे कहीं बड़ा अपराध है। सरकारी संस्थाएं जिस तरह सरकार के हाथों की कठपुतली बनी दिखाई देती हैं उसमें वह क्या करेंगी कहना कठिन है। सुप्रीम कोर्ट भी इस तरह की मनमानी पर कितना अंकुश लगा सकेगी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इतना निश्चित है कि दिल्ली, पंजाब और गुजरात समेत पूरे देश की जनता सरकार की तिकड़मों के च्छी तरह समझ रही है और उसका फैसला चुनाव में सामने आएगा।

ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय जनता पार्टी अभी तक जनता के मिजाज को समझ नहीं पाई है। उसे भेड़ बकरियों का दर्जा देती है जिसे जब जिधर चाहे घुमा लेगी। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान शाहीनबाग़ आंदोलन के बहाने दिल्ली की जनता के सांप्रदायीकरण की कोशिशों में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। भाजपा नेताओं के बीच जहरीले बयानबाजियों की होड़ सी लग गई। लेकिन नतीजा क्या निकला? आम आदमी पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ तीसरी बार सत्ता में वापस लौट आई। दिल्ली के मतदाताओं ने भाजपा नेताओं के भगवाकरण के प्रयासों को धत्ता बता दिया।

दिल्ली की जनता इतनी जागरुक है कि विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को वोट दिया और लोकसभा चुनाव में जीत का तोहफा भाजपा की झोली में डाल दिया। उसका मानना है कि लोकसभा में कुछ सीटें लेकर भी केजरीवाल क्या कर पाएंगे। फिर भाजपा लोकसभा चुनाव के मौके पर आम आदमी पार्टी से इतना भयभीत क्यों हो गई कि उसके सभी प्रमुख नेताओं को बिना किसी पुख्ता प्रमाण के जेल में डलवा दिया और अब एक जनता के चुने हुए मुख्यमंत्री को पकड़ लिया? क्या आप और कांग्रेस का गठबंधन उसके लिए इतना भारी पड़ रहा था? या इसलिए कि उस समय के मुकाबले आम आदमी पार्टी का ज्यादा विस्तार हो चुका है? अब वह तीन-चार राज्यों में प्रभाव डालने की स्थिति में आ चुकी है? क्या इन्हीं तिकड़मों के जरिए भाजपा चार सौ पार करना चाहती है?

फिलहाल भाजपा सरकार की मनमानी और तिकड़मबाजी पर सुप्रीम कोर्ट अंकुश लगाएगी या भारत की 142 करोड़ जनता या फिर सबकुछ इसी तरह चलता रहेगा आने वाला समय बताएगा।

-देवेंद्र गौतम

पंकज त्रिपाठी बने "पीपुल्स एक्टर"

  न्यूयॉर्क यात्रा के दौरान असुविधा के बावजूद प्रशंसकों के सेल्फी के अनुरोध को स्वीकार किया   मुंबई(अमरनाथ) बॉलीवुड में "पीपुल्स ...