रांची। एक्टू के महासचिव शुभेंदु सेन ने आंगनबाड़ी कर्मियों की गिरफ्तारी को घोर अलोकतांत्रिक कार्रवाई बताते हुए इसकी भर्त्सना की है। उन्होंने सैकड़ों की संख्या में गिरफ्तार का AICCTU द्वारा विरोध झताते हुए राज्य सरकार से उनकी अविलम्ब रिहाई के साथ साथ उनके मांगों को पूरा करने की मांग की है। विदित हो कि आज आंदोलनकारी आंगनबाड़ी कर्मियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मिलकर एक ज्ञापन देने का आग्रह किया था। इसी से खफा होकर उन्हें मिलने का अनुमति देना तो दूर, उल्टे उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
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गुरुवार, 12 सितंबर 2019
शनिवार, 31 अगस्त 2019
माले नेता अशोक पासवान की गिरफ्तारी की तीव्र भर्त्सना
गिरफ्तारी के विरोध में निकाला प्रतिवाद मार्च
रांची। भाकपा माले झारखंड राज्य सचिव जनार्दन प्रसाद द्वारा एक प्रेस बयान जारी करते हुए भाकपा माले झारखंड राज्य कमिटी सदस्य और गिरीडीह जिला के जमुआ विधानसभा का माले नेता अशोक पासवान की गिरफ्तारी की तीव्र निंदा की है । उन्होंने भाकपा माले का बेकसूर प्रतिबद्ध व समर्पित जननेता अशोक पासवान को वेबजह गिरफ्तारी की तीब्र भर्त्सना की है ।
अशोक पासवान 2009 में मनरेगा मजदूरों की मजदूरी दिलाने के लिए जमुआ प्रखंड मुख्यालय में प्रदर्शन कर रहे थे । उस समय के तत्कालीन BDO ज्योति झा और भाजपा विधायक केदार हाजरा के इशारे पर उन पर झूठा मुकदमा कर दिया गया था । जमुआ पुलिस प्रशासन और विधायक ने मिलजुल कर झूठा मुकदमा में अशोक पासवान को फंसा दिया । अंततः आज उन्हें गिरफ्तार कर लिया है।
अशोक पासवान लगातार जमुआ में गरीब मजदूर असहाय की आवाज को उठाते थे और गरीबों की हर लड़ाई में शामिल रहते थे जो भाजपा के विधायक को नागवार गुजरता था और आज सत्ता के गलत इस्तेमाल करते हुए जमुआ में ऐसी आवाज को दबाने की कोशिश भाजपा द्वारा की जा रही है । जिसे भाकपा माले कभी सफल होने नही देगी ।
बालू चोरी और पत्थर माफिया से जमुआ पुलिस की मिलीभगत के कारण आज माफिया जमुआ चौक पर खुलेआम घूमता है और जमुआ के छोटे-छोटे दुकानदारों के ऊपर जमुआ पुलिस द्वारा जुल्म किया जा रहा है ।
इस निकम्मे विधायक और जमुआ पुलिस प्रशासन के खिलाफ हमेशा गरीबों के पक्ष में लड़ाई करने वाले नेता अशोक पासवान को आज जमुआ प्रशासन ने गिरफ्तार करके गरीबों की आवाज को बंद करने की असफल कोशिश की है , जो सिर्फ और सिर्फ भाजपा विधायक केदार हाजरा के इसारे पर जमुआ पुलिस द्वारा की जा रही है ।
माले नेता अशोक पासवान की झूठा मुकदमा में गिरफ्तारी के प्रतिबाद में आज जमुआ में एक प्रतिवाद मार्च निकाला गया एबं जल्द बिना शर्त अशोक पासवान की रिहाई की मांग की गई ।
इस मार्च में शामिल भाकपा माले जमुआ प्रखंड सचिव विजय पांडे ऐपवा नेत्री मीणा दास इंकलाबी नौजवान सभा जिला उपाध्यक्ष मो0 असगर अली भोला पासवान विकास पासवान एनुल अंसारी रंजीत यादव ललन यादव भगीरथ पंडित अभिमन्यु राम लखन हंसदा आदि लोग प्रतिवाद मार्च में शामिल थे । भाकपा माले झारखंड राज्य सचिव जनार्दन प्रसाद ने चेतबनी दी है कि अगर जल्द अशोक पासवान को बिना शर्त रिहा न किया गया , तो इस मुद्दे पर राज्य स्तर पर जनान्दोलन को तीव्र किया जाएगा ।
गुरुवार, 30 अगस्त 2018
शिकार करने में खुद शिकार बन गई महाराष्ट्र पुलिस
-देवेंद्र गौतम
महाराष्ट्र पुलिस ने
पांच राज्यों में छापेमारी कर पांच जाने माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को हिरासत
में तो लिया लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के समक्ष उनपर लगे आरोपों के
साक्ष्य नहीं प्रस्तुत कर सकी। कोर्ट ने उन्हें जेल या पुलिस रिमांड पर देने की
जगह अपने घरों में नज़रबंद करने का आदेश दिया। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से पांच
सितंबर तक पूरे तथ्यों के साथ रिपोर्ट तलब की है। मानवाधिकार आयोग ने भी मानक
प्रक्रिया के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए महाराष्ट्र के डीजीपी से एक माह के अंदर
रिपोर्ट तलब की है। इस तरह महाराष्ट्र सरकार राजनीतिक विरोधियों को कटघरे में खड़ा
करने के प्रयास में स्वयं कटघरे में खड़ी हो गई है। आखिर आधे-अधूरे अनुसंधान के
आधार पर इतनी बड़ी कार्रवाई किस सोच के तहत किसके इशारे पर की गई ? इस जल्दबाजी की तुलना 2016 में की गई नोटबंदी की
घोषणा से की जा सकती है। ठीक उसी तर्ज पर बिना किसी होमवर्क के, बिना किसी तैयारी
के। माओवादियों की नकेल कसने के चक्कर में प्रशासनिक कार्रवाई को स्वयं सरकारी
तंत्र ने ही राजनीतिक कार्रवाई में तब्दील कर दिया।
भीमा कोरेगांव मामले
का अनुसंधान आखिर किस तरीके से चल रहा है कि 31 दिसंबर की घटना के आठ महीने बाद भी
जांच एजेंसियों के हाथ खाली हैं। संभव है हिरासत में लिए गए लोग माओवाद के समर्थक
हों लेकिन सिर्फ समर्थक होने के आधार पर उन्हें कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता।
कानून इसकी इजाजत नहीं देता। लोकतंत्र में सरकार की नीतियों की आलोचना करने का
अधिकार मिलता है। इसे राजद्रोह या देशद्रोह के रूप परिभाषित करना लोकतांत्रिक
व्यवस्था को स्वीकार करने करने से इनकार करने के समान है। यह मध्ययुगीन प्रवृति
है। न्यायपालिका संदेह और अनुमान को नहीं मानती। वह साक्ष्यों के आधार पर फैसले
सुनाती है। भारतीय दंड संहिता के प्रावधान के मुताबिक आरोपी को अपने निर्दोष होने
का सबूत पेश करने के पहले आरोप लगाने वाले को दोषी होने का सबूत पेश करना होता है।
कोरेगांव मामले में इन पांच लोगों की संलिप्तता थी अथवा नहीं गिरफ्तारी के अभियान
में निकलने से पूर्व इसका पुख्ता साक्ष्य पुलिस के पास होना चाहिए था। जाहिर है कि
इस अफरातफरी के पीछे कहीं न कहीं ऊपर का आदेश काम कर रहा था। 2019 का चुनाव करीब
है और सत्तापक्ष के पास उपलब्धियों के नाम पर हवाई दावों के अलावा कुछ भी नहीं है।
कमान में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ही एकमात्र तीर बचा है जिसका ब्रह्मास्त्र के
रूप में उपयोग किया जाना है। यह तभी कारगर हो सकता है जब राजनीतिक विरोध को बेरहमी
से कुचल दिया जाए। सत्तापक्ष चाहे जितनी भी खुशफहमी अथवा गलतफहमी में रहे उसके
शासनकाल की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है और बौखलाहट में की गई कार्रवाइयों के जरिए
वह इसकी गति को और तेज़ कर रहा है। उसने अपने राजनीतिक विरोधियों को उंगली उठाने
का एक और मौका दे दिया है।
भारत की जनता ने जिन
उम्मीदों के साथ मोदी सरकार को सत्ता की चाबी सौंपी थी उसमें वह खरी नहीं उतरी।
जनता जो चाहती थी वह काम नहीं किए। अर्थशास्त्र के आधे-अधूरे ज्ञान के जरिए
ऐसे-ऐसे प्रयोग किए कि अर्थ व्यवस्था चरमरा उठी। लोग त्राहिमाम कर उठे। बैंकिंग
व्यवस्था झटके पर झटका खाने लगी। अब वायदे पूरे करने का समय निकल चुका है तो उटपटांग
हरकतों के जरिए हवा बनाने की कोशिश की जा रही है। ग़नीमत है कि अभी न्यायपालिका उसके
चाबुक की परिधि से दूर है और उसके मौजूद रहते लोकतंत्र पर तानाशाही लादने की
कोशिशें सफल होनी मुश्किल है।
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