-देवेंद्र गौतम
महाराष्ट्र पुलिस ने
पांच राज्यों में छापेमारी कर पांच जाने माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को हिरासत
में तो लिया लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के समक्ष उनपर लगे आरोपों के
साक्ष्य नहीं प्रस्तुत कर सकी। कोर्ट ने उन्हें जेल या पुलिस रिमांड पर देने की
जगह अपने घरों में नज़रबंद करने का आदेश दिया। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से पांच
सितंबर तक पूरे तथ्यों के साथ रिपोर्ट तलब की है। मानवाधिकार आयोग ने भी मानक
प्रक्रिया के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए महाराष्ट्र के डीजीपी से एक माह के अंदर
रिपोर्ट तलब की है। इस तरह महाराष्ट्र सरकार राजनीतिक विरोधियों को कटघरे में खड़ा
करने के प्रयास में स्वयं कटघरे में खड़ी हो गई है। आखिर आधे-अधूरे अनुसंधान के
आधार पर इतनी बड़ी कार्रवाई किस सोच के तहत किसके इशारे पर की गई ? इस जल्दबाजी की तुलना 2016 में की गई नोटबंदी की
घोषणा से की जा सकती है। ठीक उसी तर्ज पर बिना किसी होमवर्क के, बिना किसी तैयारी
के। माओवादियों की नकेल कसने के चक्कर में प्रशासनिक कार्रवाई को स्वयं सरकारी
तंत्र ने ही राजनीतिक कार्रवाई में तब्दील कर दिया।
भीमा कोरेगांव मामले
का अनुसंधान आखिर किस तरीके से चल रहा है कि 31 दिसंबर की घटना के आठ महीने बाद भी
जांच एजेंसियों के हाथ खाली हैं। संभव है हिरासत में लिए गए लोग माओवाद के समर्थक
हों लेकिन सिर्फ समर्थक होने के आधार पर उन्हें कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता।
कानून इसकी इजाजत नहीं देता। लोकतंत्र में सरकार की नीतियों की आलोचना करने का
अधिकार मिलता है। इसे राजद्रोह या देशद्रोह के रूप परिभाषित करना लोकतांत्रिक
व्यवस्था को स्वीकार करने करने से इनकार करने के समान है। यह मध्ययुगीन प्रवृति
है। न्यायपालिका संदेह और अनुमान को नहीं मानती। वह साक्ष्यों के आधार पर फैसले
सुनाती है। भारतीय दंड संहिता के प्रावधान के मुताबिक आरोपी को अपने निर्दोष होने
का सबूत पेश करने के पहले आरोप लगाने वाले को दोषी होने का सबूत पेश करना होता है।
कोरेगांव मामले में इन पांच लोगों की संलिप्तता थी अथवा नहीं गिरफ्तारी के अभियान
में निकलने से पूर्व इसका पुख्ता साक्ष्य पुलिस के पास होना चाहिए था। जाहिर है कि
इस अफरातफरी के पीछे कहीं न कहीं ऊपर का आदेश काम कर रहा था। 2019 का चुनाव करीब
है और सत्तापक्ष के पास उपलब्धियों के नाम पर हवाई दावों के अलावा कुछ भी नहीं है।
कमान में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ही एकमात्र तीर बचा है जिसका ब्रह्मास्त्र के
रूप में उपयोग किया जाना है। यह तभी कारगर हो सकता है जब राजनीतिक विरोध को बेरहमी
से कुचल दिया जाए। सत्तापक्ष चाहे जितनी भी खुशफहमी अथवा गलतफहमी में रहे उसके
शासनकाल की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है और बौखलाहट में की गई कार्रवाइयों के जरिए
वह इसकी गति को और तेज़ कर रहा है। उसने अपने राजनीतिक विरोधियों को उंगली उठाने
का एक और मौका दे दिया है।
भारत की जनता ने जिन
उम्मीदों के साथ मोदी सरकार को सत्ता की चाबी सौंपी थी उसमें वह खरी नहीं उतरी।
जनता जो चाहती थी वह काम नहीं किए। अर्थशास्त्र के आधे-अधूरे ज्ञान के जरिए
ऐसे-ऐसे प्रयोग किए कि अर्थ व्यवस्था चरमरा उठी। लोग त्राहिमाम कर उठे। बैंकिंग
व्यवस्था झटके पर झटका खाने लगी। अब वायदे पूरे करने का समय निकल चुका है तो उटपटांग
हरकतों के जरिए हवा बनाने की कोशिश की जा रही है। ग़नीमत है कि अभी न्यायपालिका उसके
चाबुक की परिधि से दूर है और उसके मौजूद रहते लोकतंत्र पर तानाशाही लादने की
कोशिशें सफल होनी मुश्किल है।
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