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शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

चुनाव प्रचार में पसीना बहा रहे हैं सुबोधकांत


* महागठबंधन की जीत सुनिश्चित कराने के लिए झोंकी ताकत


नवल किशोर सिंह

रांची। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के प्रत्याशियों की जीत सुनिश्चित कराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है।  चुनाव प्रचार में पसीना बहा रहे हैं। इ गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी की ओर से सुबोध कांत सहाय को विधानसभा चुनाव कैंपेन कमेटी के नेतृत्व का भार सौंपा गया है। श्री सहाय  झारखंड के विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में जाकर महागठबंधन के प्रत्याशियों के नामांकन से लेकर चुनाव प्रचार तक में सक्रियता से भाग ले रहे हैं। उनका मानना है कि इस बार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की जीत होगी और सरकार बनेगी। श्री सहाय झारखंड में कांग्रेस पार्टी का जनाधार बढ़ाने और विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को जीत दिलाने के लिए सतत प्रयासरत हैं।  झारखंड के विकास के प्रति भी उनकी गंभीरता इस बात से झलकती है कि विगत दिनों उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान झारखंड के परिप्रेक्ष्य में एक बड़ी बात कही। झारखंडवासियों के प्रति उनके अंदर का दर्द छलक आया। उन्होंने कहा कि जब वे केंद्र सरकार में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री थे, तो उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में फूड पार्क खुलवाए थे। उत्तराखंड में बाबा रामदेव की पतंजलि ने उसी योजना के तहत  खाद्य प्रसंस्करण की इकाई लगाई थी। आज उनकी कंपनी बहुराष्ट्रीय कंपनी का दर्जा प्राप्त कर चुकी है। झारखंड में फूड पार्क के लिए जमीन का आवंटन हुआ। चहारदीवारी बनी। लेकिन उनके मंत्रिपद से हटने के बाद राज्य सरकार ने वहां औद्योगिक इकाइयां लगाने की दिशा में कोई काम नहीं किया। आज उसकी चहारदीवारी की ईंटें तक चोरी हो रही हैं।
निश्चित रूप से यह योजना यूपीए सरकार के समय लाई गई थी, लेकिन यदि उसे मूर्त रूप दिया जाता, तो रोजगार का सृजन होता। किसानों के दिन बहुरते। राज्य का आर्थिक विकास होता। लेकिन केंद्र में मोदी और राज्य में रघुवर सरकार के आने के बाद इसपर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह संकीर्ण राजनीतिक सोच के कारण हुआ। यदि राजनीतिक वैमनस्य की जगह झारखंड को उससे होने वाले लाभ पर ध्यान दिया गया होता, तो झारखंड से भी किसी पतंजलि कंपनी का अभ्युदय हो सकता था। श्री सहाय ने कहा कि विकास का दावा करने वाली रघुवर सरकार ने विकास के इस अवसर की उपेक्षा कर दी, क्योंकि उन्हें राज्य का विकास नहीं, विकास का श्रेय चाहिए। उसका राजनीतिक लाभ चाहिए।
सुबोधकांत सहाय जेपी आंदोलन के समय से सक्रिय राजनीति में रहे हैं। उन्होंने चंद्रशेखर से लेकर मनमोहन सिंह तक कई प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया है। वे जनांदोलनों से जुड़े रहे हैं और संसदीय राजनीति का भी उन्हें लंबा अनुभव रहा है। उन्हें झारखंड की मिट्टी से प्रेम है और झारखंडवासियों का दर्द उनका साझा दर्द रहा है। वे किसी पद पर रहें हों, सभी समुदायों के प्रति उनके मन में हमेशा आत्मीयता की भावना रही है। उनके दरवाजे हर खासो-आम के लिए खुले रहते हैं। किसी के साथ वे भेदभाव नहीं करते। पार्टी और जनता के प्रति उनकी निष्ठा में स्वाभाविकता है। ऐसा कोई मुद्दा नहीं, जिसका जनता से सरोकार हो और उन्होंने उसमें भागीदारी न की हो।
   आज झारखंड में कांग्रेस का जनाधार निश्चित रूप से संयुक्त बिहार जैसा नहीं रहा है। लेकिन यथासंभव उसे बचाए रखने और बढ़ाने में जिन नेताओं की भूमिका है, उनमें सुबोधकांत सहाय का नाम अव्वल रहा है।
  अभी झारखंड विधानसभा चुनाव में श्री सहाय को जो जिम्मेदारी दी गई है, उसे बखूबी निभा रहे हैं। विपक्षी महागठबंधन को विजय दिलाने में उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। जनता के बीच जाकर रघुवर सरकार की नाकामियों को उजागर करने में वे कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचाने में सुबोधकांत सहाय की कोशिशों की सराहना की जानी चाहिए। कांग्रेस आलाकमान का झारखंड के मामलों में उनपर पूरी तरह भरोसा कायम है।

शुक्रवार, 3 मई 2019

झाविमो नेताओं ने कांग्रेस के लिए मांगे वोट


झाविमो राँची ग्रामीण जिला अध्यक्ष प्रभुदयाल बड़ाईक ने अपने ग्रामीण जिला टीम के साथ राँची लोकसभा के यूपीए महागठबंधन प्रत्यासी श्री सुबोधकांत सहाय की जीत भारी बहुमत से हो इसे लेकर - हेसल, हरातु, लालगंज महुवाटोली,आरागेट बड़कटोली, बरगावां में घर घर जाकर लोगों को हाथ छाप में वोट देकर भारी मतों से विजयी बनाने की अपील किये, इस दौरान लोगों को भाजपा सरकार के जनविरोधी नीतियों से अवगत कराया।जिलाध्यक्ष प्रभुदयाल बड़ाईक के साथ जनसंपर्क अभियान में जिला सचिव रूपचन्द केवट,बुद्धिजीवी मंच के जिलाध्यक्ष डॉ विनोद सिंह, झाविमो कार्यकर्ता गणेश लोहरा, मनोज दुग्गल शामिल थे ।

शनिवार, 5 जनवरी 2019

झारखंडःचुनावी संघर्ष को तिकोना बनाने की तैयारी



देवेंद्र गौतम

रांची। झारखंड में एनडीए और यूपीए की चुनावी तैयारी अपने ढंग से चल रही है। भाजपा की रणनीति तो साफ है। उसे लोकसभा चुनाव में किसी दल के सहयोग की जरूरत नहीं है। एनडीए के सहयोगी दल चुनाव को त्रिकोणात्मक बनाने में भूमिका निभाएं यह भाजपा की मदद होगी। जहां तक विपक्षी महागठबंधन का सवाल है मामला पेंचीदा होता जा रहा है। झारखंड नामधारी दलों का रुख अभी तक स्पष्ट नहीं है। उनकी कोई सैद्धांतिक प्रतिबद्धता नहीं है। वे सिर्फ अवसर का राजनीतिक लाभ ठाने की राजनीति करते हैं। लोकसभा चुनाव से उन्हें कुछ खास मतलब नहीं है। इसलिए उनकी नज़र विधानसभा चुनावों पर टिकी है। हालांकि सबसे बड़े झारखंड नामधारी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा ने रांची में महागठबंधन को अंतिम स्वरूप देने के लिए कांग्रेस सहित सभी छोटे बड़े दलों की बैठक बुलाई है। 15 जनवरी के बाद दिल्ली में भी यूपीए की बैठक बुलाई जा रही है। लेकिन झारखंड नामधारी दलों को एकजुट कर अलग खिचड़ी पकाने का प्रयास भी चल रहा है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने छोटे-छोटे दलों के बीच अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। कोलेबिरा उपचुनाव में झामुमो ने झारखंड पार्टी का समर्थन किया था जबकि मैदान में कांग्रेस का उम्मीदवार भी था जिसने जीत हासिल की। महागठबंधन में वामपंथी दलों को भी जोड़ने की कोशिश हो रही है। इधर झारखंड विकास मोर्चा के सुप्रीमो पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी और आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो के बीच बातचीत चल रही है। आजसू अभी एनडीए में है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि सुदेश महतो एनडीए फोल्डर से बाहर निकलकर यूपीए का दामन थाम सकते हैं। वे झारखंड नामधारी दलों का अलग मोर्चा बनाकर चुनाव मैदान में उतरने के पक्ष में हैं। यदि उनकी बात पर अमल किया गया तो यूपीए के महागठबंधन में कांग्रेस, राजद और संभवतः वामपंथी दल शेष रह जाएंगे और चुनाव त्रिकोणात्मक हो जाएगा। भाजपा यही चाहती है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि यूपीए की बैठक से पूर्व छोटे बड़े तमाम झारखंड नामधारी दलों को एकजुट करने के पीछे सीटों के बंटवारे के मामले में कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने और बेहतर सौदेबाजी की पृष्ठभूमि तैयार करने का प्रयास है। झारखंडी दलों में कई ऐसे दल हैं जिनका न कोई विधायक है, न सांसद। जनाधार सीमित है और प्रभाव क्षेत्र छोटा। लेकिन जब गठबंधन में शामिल होंगे तो वे भी अपने हिस्से की सीट मांगेंगे। कांग्रेस चाहती है कि लोकसभा चुवाव में क्षेत्रीय दल उसके हाथ मजबूत करें और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को सत्ता में आने में सहयोग करे। लेकिन झारखंड के क्षेत्रीय दलों को राजनीतिक सौदेबाजी और पाला बदलने में महारत हासिल है। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि केंद्र में किसकी सरकार बनती है। उन्हें राज्य की सत्ता में भागीदारी चाहिए और उन्हें पता है कि विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे में उन्हें ज्यादा हिस्सेदारी तभी मिलेगी जब वे लोकसभा में अपना हिस्सा लेने में सफल होंगे। झारखंड में लोकसभा की 14 सीटें हैं। अभी तक इस बात की रजामंदी बन चुकी है कि कांग्रेस छह, झामुमो चार, राजद और झाविमो दो-दो सीटों पर उम्मीदवार देंगे। लेकिन बदली परिस्थितियों में अब अगर इसमें वामपंथी दल और दूसरे झारखंड नामधारी दल शामिल हुए तो जाहिर है कि वे भी सीटों के बंटवारे में हिस्सा मांगेंगे। ऐसा हुआ तो खींचातानी की स्थिति उत्पन्न होगी और सारा सोचा समझा फार्मूला ध्वस्त हो जाएगा।
भाजपा कहीं न कहीं से यह प्रयास कर रही है कि महागठबंधन में भेड़िया धंसान की स्थिति उत्पन्न हो जाए और क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ जाए कि वे कांग्रेस से अलग गठबंधन बनाकर मैदान में उतरें। विपक्षी मतों के बंटवारे का सहज लाभ उसे मिलेगा। अभी जिन 12 सीटों पर उसका कब्जा है वह बरकरार रह जाएगा और संभव है शेष दो सीटें भी झोली में आ गिरें। यदि लोकसभा में भाजपा झारखंड की अधिकांश सीटें जीतने में सफल रही तो  विधानसभा चुनाव के समय परोक्ष सहयोग करने वाले झारखंड नामधारी दलों को एनडीए के फोल्डर में लाया जा सकेगा। अभी भाजपा का एकमात्र लक्ष्य केंद्र में मोदी सरकार की वापसी है। केंद्र का किला सुरक्षित रहा तो राज्य का किला भी सुरक्षित रहेगा। 15 जनवरी के बाद यूपीए की बैठक में क्या निर्णय होगा, कहना कठिन है लेकिन फिलहाल झारखंड में भाजपा अपनी रणनीति में सफल होती दिख रही है।   


रविवार, 30 दिसंबर 2018

झारखंड नामधारी दलों के एका के निहितार्थ



रांची। झाऱखंड में झारखंड नामधारी दलों के बीच कुछ अलग खिचड़ी पक रही है। राजनीतिक दलों का ऐसा मानना है। हाल में झारखंड विकास मोर्चा के सुप्रीमो पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बीच मुलाकात और वार्ता के बाद यह कयास लगाया जा रहा कि वे सीटों के बंटवारे में कांग्रेस के साथ मनोनुकूल नतीजे नहीं निकलने पर अपना अलग मोर्चा बना सकते हैं। दोनों दल एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। दोनों का मुख्य जनाधार संताल परगना के इलाकों में है। बाबूलाल शिबू सोरेन के बाद आदिवासियों के दूसरे सबसे बड़े नेता हैं। हेमंत को वे जूनियर मानते रहे हैं। लेकिन वे स्वयं हेमंत सोरेन के आवास पर गए। उनके साथ मंत्रणा की। इससे कई संकेत मिलते हैं। दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के बीच हमेशा छत्तीस का रिश्ता रहा है। इसके तिरसठ में बदलने के पीछे कोई बड़ा सियासी खेल हो सकता है।
हाल में कोलेबिरा उपचुनाव में झामुमो ने झारखंड पार्टी को समर्थन देकर उसे अपने पक्ष में कर लिया है। आजसू के साथ भी उनकी वार्ता चल रही है। आजसू सुप्रीमो अभी एनडीए में हैं लेकिन भाजपा से उनका मोहभंग हो चला है। लिहाजा वे पाला बदल सकते हैं। झारखंड जनाधार मोर्चा के सालखन सोरेन पहले से ही झारखंड नामधारी दलों का अलग मोर्चा बनाने जरूरत बताते रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अगर बाबूलाल, हेमंत और सुदेश अन्य झारखंड नामधारी दलों को लेकर एकजुट हो जाते हैं तो झारखंड में बड़ी चुनौती बन सकते हैं। भाजपा भी यही चाहती है कि चुनाव त्रिकोणीय अथवा बहुकोणीय हो। यह भाजपा के लिए यह लाभदायक होगा। अभी राज्य  में लोकसभा की चौदह सीटों में से बारह पर भाजपा का कब्जा है। आमने सामने की लड़ाई उसे महंगी पड़ सकती है। ज्यादा उम्मीदवार मैदान में हों तो विपक्षी मतों के बिखराव से उसका रास्ता आसान हो सकता है।
जहां तक झारखंडी दलों का सवाल है केंद्र की राजनीति में उनकी खास दिलचस्पी नहीं है। उनका लक्ष्य विधानसभा चुनावों में जीत हासिल कर अपनी सरकार बनाना है। उनका मानना है कि राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय मुद्दों को अहमियत नहीं देते। झारखंडी दलों की गोलबंदी के दो अर्थ निकाले जा रहे हैं। पहला यह कि वे कांग्रेस के साथ तालमेल में बेहतर सौदेबादी की भूमिका तैयार कर रहे हैं और दूसरा यह कि जरूरत पड़ने पर अपनी अलग राह भी बना सकते हैं। अगर झारखंड नामधारी दलों का अलग मोर्चा बना तो महागठबंधन में कांग्रेस, राजद और वामपंथी दल ही शेष रह जाएंगे।
हालांकि अभी हेमंत और बाबूलाल महागठबंधन के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर रहे हैं लेकिन उनके मन में क्या है कोई नहीं जानता।


स्वर्ण जयंती वर्ष का झारखंड : समृद्ध धरती, बदहाल झारखंडी

  झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी  काशीनाथ केवट  15 नवम्बर 2000 -वी...