देवेंद्र गौतम
रांची। झारखंड में एनडीए और यूपीए की चुनावी तैयारी अपने ढंग से चल
रही है। भाजपा की रणनीति तो साफ है। उसे लोकसभा चुनाव में किसी दल के सहयोग की
जरूरत नहीं है। एनडीए के सहयोगी दल चुनाव को त्रिकोणात्मक बनाने में भूमिका निभाएं
यह भाजपा की मदद होगी। जहां तक विपक्षी महागठबंधन का सवाल है मामला पेंचीदा होता
जा रहा है। झारखंड नामधारी दलों का रुख अभी तक स्पष्ट नहीं है। उनकी कोई
सैद्धांतिक प्रतिबद्धता नहीं है। वे सिर्फ अवसर का राजनीतिक लाभ ठाने की राजनीति
करते हैं। लोकसभा चुनाव से उन्हें कुछ खास मतलब नहीं है। इसलिए उनकी नज़र विधानसभा
चुनावों पर टिकी है। हालांकि सबसे बड़े झारखंड नामधारी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा ने
रांची में महागठबंधन को अंतिम स्वरूप देने के लिए कांग्रेस सहित सभी छोटे बड़े
दलों की बैठक बुलाई है। 15 जनवरी के बाद दिल्ली में भी यूपीए की बैठक बुलाई जा रही
है। लेकिन झारखंड नामधारी दलों को एकजुट कर अलग खिचड़ी पकाने का प्रयास भी चल रहा
है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने छोटे-छोटे
दलों के बीच अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। कोलेबिरा उपचुनाव में झामुमो ने झारखंड
पार्टी का समर्थन किया था जबकि मैदान में कांग्रेस का उम्मीदवार भी था जिसने जीत
हासिल की। महागठबंधन में वामपंथी दलों को भी जोड़ने की कोशिश हो रही है। इधर
झारखंड विकास मोर्चा के सुप्रीमो पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी और आजसू
सुप्रीमो सुदेश महतो के बीच बातचीत चल रही है। आजसू अभी एनडीए में है। राजनीतिक
प्रेक्षकों का मानना है कि सुदेश महतो एनडीए फोल्डर से बाहर निकलकर यूपीए का दामन
थाम सकते हैं। वे झारखंड नामधारी दलों का अलग मोर्चा बनाकर चुनाव मैदान में उतरने
के पक्ष में हैं। यदि उनकी बात पर अमल किया गया तो यूपीए के महागठबंधन में कांग्रेस,
राजद और संभवतः वामपंथी दल शेष रह जाएंगे और चुनाव त्रिकोणात्मक हो जाएगा। भाजपा
यही चाहती है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि यूपीए की बैठक से पूर्व छोटे
बड़े तमाम झारखंड नामधारी दलों को एकजुट करने के पीछे सीटों के बंटवारे के मामले
में कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने और बेहतर सौदेबाजी की पृष्ठभूमि तैयार
करने का प्रयास है। झारखंडी दलों में कई ऐसे दल हैं जिनका न कोई विधायक है, न
सांसद। जनाधार सीमित है और प्रभाव क्षेत्र छोटा। लेकिन जब गठबंधन में शामिल होंगे तो
वे भी अपने हिस्से की सीट मांगेंगे। कांग्रेस चाहती है कि लोकसभा चुवाव में
क्षेत्रीय दल उसके हाथ मजबूत करें और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों
को सत्ता में आने में सहयोग करे। लेकिन झारखंड के क्षेत्रीय दलों को राजनीतिक
सौदेबाजी और पाला बदलने में महारत हासिल है। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि
केंद्र में किसकी सरकार बनती है। उन्हें राज्य की सत्ता में भागीदारी चाहिए और
उन्हें पता है कि विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे में उन्हें ज्यादा हिस्सेदारी
तभी मिलेगी जब वे लोकसभा में अपना हिस्सा लेने में सफल होंगे। झारखंड में लोकसभा
की 14 सीटें हैं। अभी तक इस बात की रजामंदी बन चुकी है कि कांग्रेस छह, झामुमो
चार, राजद और झाविमो दो-दो सीटों पर उम्मीदवार देंगे। लेकिन बदली परिस्थितियों में
अब अगर इसमें वामपंथी दल और दूसरे झारखंड नामधारी दल शामिल हुए तो जाहिर है कि वे
भी सीटों के बंटवारे में हिस्सा मांगेंगे। ऐसा हुआ तो खींचातानी की स्थिति उत्पन्न
होगी और सारा सोचा समझा फार्मूला ध्वस्त हो जाएगा।
भाजपा कहीं न कहीं से यह प्रयास कर रही है कि महागठबंधन में भेड़िया
धंसान की स्थिति उत्पन्न हो जाए और क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ जाए
कि वे कांग्रेस से अलग गठबंधन बनाकर मैदान में उतरें। विपक्षी मतों के बंटवारे का सहज
लाभ उसे मिलेगा। अभी जिन 12 सीटों पर उसका कब्जा है वह बरकरार रह जाएगा और संभव है
शेष दो सीटें भी झोली में आ गिरें। यदि लोकसभा में भाजपा झारखंड की अधिकांश सीटें
जीतने में सफल रही तो विधानसभा चुनाव के समय
परोक्ष सहयोग करने वाले झारखंड नामधारी दलों को एनडीए के फोल्डर में लाया जा सकेगा।
अभी भाजपा का एकमात्र लक्ष्य केंद्र में मोदी सरकार की वापसी है। केंद्र का किला
सुरक्षित रहा तो राज्य का किला भी सुरक्षित रहेगा। 15 जनवरी के बाद यूपीए की बैठक
में क्या निर्णय होगा, कहना कठिन है लेकिन फिलहाल झारखंड में भाजपा अपनी रणनीति
में सफल होती दिख रही है।
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