पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के
आरएसएस मुख्यालय, नागपुर का आमंत्रण स्वीकार करने को लेकर जो लोग आपत्ति व्यक्त कर
रहे थे, परामर्श दे रहे थे, उन्हें अब समझ में आ गया होगा कि प्रणब दा के
व्यक्तित्व के सामने वे कितने बौने और कितने नासमझ थे। प्रणब दा ने कांग्रेसियों
के तमाम सुझावों और अटकलबाजियों का उस वक्त कोई जवाब नहीं दिया था। सिर्फ यही कहा
था कि उन्हें जो भी कहना है नागपुर में कहेंगे। अब उनके भाषण से कहीं ऐसा नहीं
लगता कि वे संघ के विचारों से संक्रमित या प्रभावित हुए हैं। उन्होंने संघ के मंच
से अपनी बातें रखीं। उन्होंने वही सब कहा जो नेहरू की विरासत है। उनका पूरा भाषण गांधी
और नेहरू के राजनीतिक दर्शन का निचोड़ था जिसके सामने आरएसएस और बीजेपी कभी पटेल, तो कभी बोस को खड़ा
करने की कोशिश करते रहे हैं।
अपने ज़ोरदार भाषण में प्रणब मुखर्जी
ने जिस देश के इतिहास, संस्कृति और पहचान पर रोशनी डाली वह नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ़
इंडिया वाला भारत है,
यहां तक कि उनके भाषण का प्रवाह भी वही
था जो नेहरू की किताब में है। उन्होंने कहा कि राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति ये तीनों सब एक दूसरे से जुड़े हैं। इन्हें अलग नहीं
किया जा सकता।-
उन्होंने शब्दकोश से पढ़कर नेशन की परिभाषा पढ़कर बताई। उन्होंने भाषण की शुरुआत महाजनपदों के दौर
से यानी ईसा पूर्व छठी सदी से की,
ये भारत का ठोस, तथ्यों पर आधारित
और तार्किक इतिहास है।
यह संघ की अवधारणा वाला इतिहास नहीं
था। संघ जिस इतिहास को स्थापित करना चाहता है वह हिंदू मिथकों से भरा काल्पनिक
इतिहास है जिसमें देश की तामा गड़बड़ियों की शुरुआत गैर हिन्दू शासकों के आगमन के
साथ माना जाता है। उस इतिहास में संसार का समस्त ज्ञान, वैभव और विज्ञान
है। तकनीकी ज्ञान है। उसमें पुष्पक विमान उड़ते हैं। प्लास्टिक सर्जरी होती है। इंटरनेट होता है।
प्रणब मुखर्जी ने बताया कि ईसा से 400 साल पहले ग्रीक
यात्री मेगास्थनीज़ आया तो उसने महाजनपदों वाला भारत देखा, उसके बाद उन्होंने
चीनी यात्री ह्वेन सांग का ज़िक्र किया जिसने बताया कि सातवीं सदी का भारत कैसा था, उन्होंने बताया कि
तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय पूरी दुनिया की प्रतिभाओं को आकर्षित कर
रहे थे। इन सबका ज़िक्र
नेहरू ने ठीक इसी तरह अपनी किताब में किया है।
प्रणब दा ने बताया कि उदारता से भरे वातावरण में
रचनात्मकता पली-बढ़ी, कला-संस्कृति का विकास हुआ और भारत में राष्ट्र की अवधारणा यूरोप
से भी पुरानी और उससे अलग है। उन्होंने कहा कि यूरोप का राष्ट्र एक धर्म, एक भाषा, एक नस्ल और एक साझा
शत्रु की अवधारणा पर टिका है,
जबकि भारत राष्ट्र की पहचान सदियों से
विविधता और सहिष्णुता से रही है।
उन्होंने संघ का नाम लिए बिना उसकी
नीतियों की ओर इशारा करते हे कहा कि धर्म, नफ़रत और भेदभाव के आधार पर राष्ट्र की
पहचान गढ़ने की कोशिश हमारे राष्ट्र की मूल भावना को ही कमज़ोर करेगी।
मुखर्जी के भाषण को लेकर कई तरह की
शंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने की बचकानी
कोशिश की जा रही थी। लेकिन उन्होंने मौर्य वंश के अशोक को सबसे महान राजा बताया
जिसने जीत के शोर में, विजय के नगाड़ों की गूंज के बीच शांति और प्रेम की आवाज़ को सुना, संसार को बंधुत्व
का संदेश दिया। पंडित नेहरू भी यही मानते थे इसीलिए अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय चिन्ह
के रूप में स्वीकार किया था।
संघ का हमेशा से भारत को महान सनानत
धर्म का मंदिर बताता रहा है। हिन्दू धर्म को भारत का मूल आधार घोषित करता रहा है। उसके
मुताबिक इस देश को हिंदू शास्त्रों, रीतियों और नीतियों से चलाया जाना
चाहिए। लेकिन इसके प्रणव
दा ने स्पष्ट कहा कि एक भाषा,
एक धर्म, एक पहचान हमारा
राष्ट्रवाद नहीं है।
उन्होंने गांधी के वक्तव्य का हवाला
देते हुए कहा कि भारत का राष्ट्रवाद आक्रामक और विभेदकारी नहीं हो सकता, वह समन्वय पर ही चल
सकता है। उन्होंने सेकुलरिज्म
के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए कहा कि भारत में संविधान के अनुरूप देशभक्ति ही सच्ची देशभक्ति हो
सकती है।
उन्होंने हिंदुत्व की संस्कृति की जगह
साझा संस्कृति की बात की। बहस में हिंसा ख़त्म करने की जरूरत पर बस दिया। देश में ग़ुस्सा और नफ़रत को कम करने और प्रेम तथा सहिष्णुता को बढ़ाने का आह्वान किया।
उनका पूरा भाषण उदार, लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, संविधान सम्मत, मानवतावादी भारत की
की ओर केंद्रित था। जो गांधी-नेहरू का मिला-जुला राजनीतिक दर्शन है।
प्रणब मुखर्जी ने संकीर्ण मानसिकता
वाले लोगों को यह संदेश दिया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक अस्पृश्यता के
लिए कोई जगह नहीं होती। अपने विचारों को शालीनता के साथ रखना ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
का उद्देश्य है। वैचारिक मतभेद के कारण वाद-विवाद से परहेज नहीं करना चाहिए।
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