देवेंद्र
गौतम
जर्मन
तानाशाह एडोल्फ हिटलर का कहना था कि झूठ को इतनी बार दुहराओ कि वह सच प्रतीत होने
लगे। दक्षिणपंथी राजनीति इसी सूत्रवाक्य का अनुसरण करती है। लेकिन हिटलर के समय और
आज के समय में काफी अंतर आ चुका है। उस समय जर्मनी, इटली और जापान में उग्र राष्ट्रवाद
की लहर चल रही थी। जनता सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं पर आंख मूंदकर भरोसा करती
थी। यह उग्रराष्ट्रवाद प्रथम विश्वयुद्ध में शर्मनाक पराजय और वर्साय संधि के तहत जबरन
लादी गई शर्तों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ था। उस संधि को नकार कर
सत्ता में आए हिटलर सरीखे नेता पर लोगों का पूरा भरोसा था। यहूदी विरोध के जरिए उत्पन्न
नस्लवादी घृणा ने इस भरोसे को और भी मजबूत किया था। उसे झूठ को बहुत अधिक दुहराने
की जरूरत भी नहीं थी। देशवासियों के लिए उसका वचन ब्रह्मवाक्य का दर्जा रखता था।
अविश्वास का कोई प्रश्न ही नहीं था। झूठ को सिर्फ अपनी तसल्ली के लिए दुहराना
पड़ता था।
अब समय बदल चुका है। अब उग्र राष्ट्रवाद की
वैसी लहर दुनिया में कहीं मौजूद नहीं है। हिटलर जैसा नेतृत्व और व्यक्तित्व भी
नहीं है। निस्संदेह भारत में वह तमाम तत्व, वह तमाम परिस्थितियां मौजूद हैं जो जर्मनी
और विक्षुब्ध राष्ट्रों में थी। लेकिन उनका प्रतिशत कम है। उनकी धार में वैसी
तीव्रता नहीं है। कहते हैं कि भारत को वर्साय संधि जैसी शर्तों के आधार पर ही
आजादी मिली थी लेकिन संधि का दस्तावेज़ कहीं उपलब्ध नहीं है। हिटलर को सफलता इसलिए
भी मिली थी कि वह प्रथम विश्वयुद्ध में सैनिक के रूप में लड़ा था और युद्ध समाप्त
होते ही उसने संधि का मानने से इनकार करते हुए मुहिम चलानी शुरू कर दी थी।
जब नेता
पर जनता के भरोसे का ग्राफ उतना ऊंचा न हो और वह लगातार फर्जी आंकड़ों के जरिए
अपनी उपलब्धियों का दावा करे तो उसका झूठ सच में नहीं परिणत होता बल्कि खीज़
उत्पन्न करता है। देश में बेरोजगारी का आंकड़ा बढ़ रहा हो और आप दो करोड़ लोगों को
नियोजन देने का दावा करें तो लोगों के अंदर आक्रोश उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
इससे लोकप्रियता का ग्राफ गिरता है और भरोसा टूटता है। एक दो झूठ तो फिर भी ठीक
लेकिन लगातार झूठ पर झूठ। विफल प्रयोगों को भविष्य में लाभदायक होने का दावा चंद लोगों
को भ्रमित कर सकता है सारे देशवासियों को नहीं। धर्म के अफीम का नशा रोजी-रोटी के
सवाल को गौण नहीं कर सकता। मूर्खतापूर्ण प्रयोगों की विफलता पर सफलता की मुहर नहीं
लगा सकता। भारत में सत्ता पलटती है जब
नेतृत्व पर भरोसा टूटता है। हिटलर के अंदर जिद थी, महत्वाकांक्षा थी लेकिन अहंकार
नहीं थी। उसके व्यक्तित्व में बनावट नहीं थी। उसके पास कोई मुखौटा नहीं था। अब झूठ
को जितनी बार दुहराया जाएगा वह उतना ही आक्रोश उत्पन्न करेगा और अहंकार तो इस धरती
पर किसी का कायम नहीं रहा है। बड़ी से बड़ी ताकतें पलक झपकते मिट्टी में मिल जाती
हैं।
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